बाबरी-रामजन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला विरोधाभासों पर टिका है

इस मामले पर फ़ैसला देते हुए शीर्ष अदालत की संवैधानिक पीठ ने कहा कि मुस्लिम वादी यह साबित नहीं कर सके हैं कि 1528 से 1857 के बीच मस्जिद में नमाज़ पढ़ी जाती थी और इस पर उनका विशिष्ट अधिकार था. हालांकि हिंदू पक्षकारों के भी यह प्रमाणित न कर पाने पर उन्हें ज़मीन का मालिकाना हक़ दे दिया गया है.

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(फोटो: पीटीआई)

इस मामले पर फ़ैसला देते हुए शीर्ष अदालत की संवैधानिक पीठ ने कहा कि मुस्लिम वादी यह साबित नहीं कर सके हैं  कि 1528 से 1857 के बीच मस्जिद में नमाज़ पढ़ी जाती थी और इस पर उनका विशिष्ट अधिकार था. हालांकि हिंदू पक्षकारों के भी यह प्रमाणित न कर पाने पर उन्हें ज़मीन का मालिकाना हक़ दे दिया गया है.

New Delhi: Police personnel stand guard inside the Supreme Court premises ahead of the court's verdict on Ayodhya land case, in New Delhi, Saturday, Nov. 9, 2019. (PTI Photo/Manvender Vashist) (PTI11_9_2019_000222B)
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नई दिल्ली: अयोध्या की जमीन, जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी, को विश्व हिंदू परिषद से जुड़े पक्षकारों को सौंपने का सुप्रीम कोर्ट का 1,045 पेज लंबा फैसला एक सीमित और असामान्य दावे पर टिका है: यह कि मुस्लिम पक्ष इस बात के दस्तावेजी साक्ष्य पेश नहीं कर पाया कि 1528 में मस्जिद के निर्माण के समय से लेकर 1857 तक, जब अयोध्या में हुए दंगों के चलते यह मामला औपनिवेशिक कानून तक पहुंचा, मस्जिद में नमाज़ अदा की जाती थी.

पैराग्राफ 786, 797 और 798 में फैसले का सार है:

786. यद्यपि [मुस्लिम] वादी का मामला… यह है कि 1528 में मस्जिद का निर्माण बाबर द्वारा या उसके कहने पर करवाया गया था, लेकिन इसके बनने के बाद से 1856-7 तक उनके द्वारा इस पर कब्जे, इस्तेमाल या नमाज़ अदा करने के बारे में कोई जानकारी नहीं है. मुस्लिमों द्वारा इसके निर्माण से लेकर ब्रिटिशों द्वारा ईंट-ग्रिल की दीवार बनाने तक के 325 सालों की अवधि से ज्यादा के समय में विवादित स्थल पर अधिकार होने के प्रमाण पेश नहीं किए गए हैं. न ही इस दौरान मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के ही कोई प्रमाण हैं…

797. संभावनाओं के संतुलन [बैलेंस ऑफ प्रोबबिलिटीज़] के आधार पर इस बात के स्पष्ट प्रमाण दिखते हैं कि 1857 में अंग्रेजों द्वारा यहां ग्रिल और ईंट की दीवार बनवाने के बावजूद बाहरी प्रांगण में निर्बाध रूप से हिंदुओं द्वारा पूजा की जाती थी. बाहरी प्रांगण पर उनका अधिकार इससे जुड़ी घटनाओं के रूप में स्पष्ट है.

798. जहां तक भीतरी प्रांगण की बात है, तो यह बात कायम करने के प्रचुर सबूत हैं कि 1857 में अंग्रेजों के अवध को जोड़ने से पहले वहां हिंदुओं द्वारा पूजा की जाती थी. मुस्लिमों की ओर से यह दिखाने के लिए कि 16वीं सदी में मस्जिद के बनने के बाद से 1857 तक भीतरी अहाते पर उनका विशिष्ट अधिकार था, कोई प्रमाण नहीं दिया गया है. ग्रिल और ईंट की दीवार बनने के बाद मस्जिद का ढांचा यहां मौजूद रहा और इस बात के प्रमाण हैं कि इसके अहाते में नमाज़ अदा की जाती थी.

दिलचस्प बात है कि इसी पैराग्राफ 798 में कोर्ट ने कहा है:

‘मुस्लिमों से इबादत और कब्ज़े का यह अधिकार 22/23 नवंबर 1949 की दरम्यानी रात में तब छिन गया जब हिंदू मूर्तियों को रखकर उसे अपवित्र कर दिया गया था. इस समय मुस्लिमों की यह बेदखली किसी कानूनी प्राधिकार द्वारा नहीं हुई थी बल्कि एक ऐसी तरीके से हुई जिससे उन्हें उनकी इबादत की जगह के अधिकार से वंचित कर दिया गया. सीआरपीसी 1898 की धारा 145 के तहत हुई कार्यवाही की शुरुआत और भीतरी अहाते को लिए जाने के बाद एक रिसीवर की नियुक्ति के बाद हिंदू मूर्तियों की पूजा की अनुमति दी गई.  मुकदमों के लंबित रहने के दौरान पूजा के एक सार्वजनिक स्थान को नष्ट करने की पहले से सोची गई कार्रवाई से मस्जिद के पूरे ढांचे को गिरा दिया गया. मुस्लिमों को गलत तरह से 450 साल से ज़्यादा से बनी एक मस्जिद से वंचित रखा गया.’

दूसरे शब्दों में, अदालत का कहना है कि:

1. मस्जिद का निर्माण 450 साल से पहले हुआ था,

2. इस बात का प्रमाण है कि मुस्लिम वहां 1857 से 1949, जब ‘उन्हें पूजा के स्थान से वंचित रखने के उद्देश्य से की गई एक सोची-समझी कार्रवाई’ के चलते गैरकानूनी तरीके से बेदखल कर दिया गया, तक वहां इबादत किया करते थे.

3. लेकिन क्योंकि ‘उन्होंने 16वीं मस्जिद के निर्माण से लेकर 1857 से पहले तक भीतरी अहाते पर विशिष्ट अधिकार होने के प्रमाण नहीं दिए हैं… संभावनाओं के संतुलन के आधार पर, अधिकार के दावे के संबंध में विवादित संपत्ति को लेकर हिंदुओं द्वारा दिए गए प्रमाण मुस्लिमों द्वारा दिए गए प्रमाणों से बेहतर स्थिति में हैं.’

जिस बारे में अदालत ने बात नहीं की, वह यह कि 1528 में मस्जिद के बनने से लेकर 1857 तक इसका क्या उद्देश्य था.

अगर 1856 में स्थानीय हिंदुओं और मुस्लिमों में बाहरी और भीतरी अहाते के इस्तेमाल को लेकर कोई विवाद होता है, तो यह बताता है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इससे पहले हिंदू और मुस्लिम दोनों, वहां पूजा किया करते थे.

किसी भी मामले में, जहां अदालत स्पष्ट रूप से कहे कि ‘मुस्लिमों को गलत तरीके से 450 साल से ज़्यादा से बनी एक मस्जिद से वंचित रखा गया’, वह यह स्वीकार करती है कि इसके पूरे जीवनकाल में यह एक मस्जिद थी और इसलिए, परिभाषा के अनुसार यह अयोध्या के मुस्लिम रहवासियों की है.

फिर भी, क्योंकि मुस्लिम वादी इस पर विशिष्ट अधिकार को लेकर को लेकर कोई सबूत नहीं दे सके या यहां तक कि 300 साल से ज्यादा समय के लिए नमाज़ पढ़ी जाती रही, अदालत ने इस स्थान को हिंदू पक्षकारों को सौंप दिया.

संयोग से, निर्मोही अखाड़ा, जिसे अदालत ने बेदखल कर दिया, को छोड़कर किसी भी हिंदू वादी से विवादित स्थल पर विशिष्ट अधिकार का प्रमाण दिखाने को नहीं कहा गया.

हिंदू गुंबद वाले स्थल के सामने राम चबूतरे पर पूजा किया करते थे और 18वीं शताब्दी के यूरोपीय यात्री जोसेफ टेफेनथेलर की चबूतरे पर पूजा की बात का हवाला दिया गया है, लेकिन हिंदू भीतरी अहाते में पूजा किया करते थे, इस दावे को साबित करने के लिए यह एक अस्पष्ट स्रोत है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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