साक्षात्कार: पुरुषों को यह समझना होगा कि पितृसत्ता ने उन्हें अमानवीय बना दिया है

भूमंडलीकरण, भारत-पाक संबंध, दक्षिण एशिया में नारीवाद व पितृसत्ता आदि विषयों पर समाजविज्ञानी व नारीवादी​ चिंतक कमला भसीन से विस्तृत बातचीत.

//

भूमंडलीकरण, भारत-पाक संबंध, दक्षिण एशिया में नारीवाद व पितृसत्ता आदि विषयों पर समाजविज्ञानी व नारीवादी चिंतक कमला भसीन से विस्तृत बातचीत.

kamla bhasin herald1
कमला भसीन. Credit: Tanveer Shehzad, White Star/Herald

कमला भसीन एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो लैंगिक समानता, शिक्षा, गरीबी-उन्मूलन, मानवाधिकार और दक्षिण एशिया में शांति जैसे मुद्दों पर 1970 से लगातार सक्रिय हैं.

दिल्ली में रहने वाली भसीन अपने नारीवादी विचारों और एक्टिविज़्म के कारण जाती हैं. उनकी पहचान नारीवादी सिद्धांतों को ज़मीनी कोशिशों से मिलाने वाले दक्षिण एशियाई नेटवर्क ‘संगत’ के संस्थापक के तौर पर भी है.

भसीन का जन्म, 24 अप्रैल, 1946 को वर्तमान पाकिस्तान के मंडी बहाउद्दीन ज़िले में हुआ था. वे ख़ुद को ‘आधी रात की संतान’ कहती हैं, जिसका संदर्भ विभाजन के आसपास पैदा हुई उपमहाद्वीप की पीढ़ी से है.

उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से मास्टर्स की डिग्री ली और पश्चिमी जर्मनी के मंस्टर यूनिवर्सिटी से सोशियोलॉजी ऑफ डेवलपमेंट की पढ़ाई की. 1976-2001 तक उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के साथ काम किया. इसके बाद उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह से ‘संगत’ के कामों और ज़मीनी संघर्षों के लिए समर्पित कर दिया.

भसीन ने पितृसत्ता और जेंडर पर काफी विस्तार से लिखा है. उनकी प्रकाशित रचनाओं का करीब 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ है. उनकी प्रमुख रचनाओं में लाफिंग मैटर्स (2005; बिंदिया थापर के साथ सहलेखन), एक्सप्लोरिंग मैस्कुलैनिटी (2004), बॉर्डर्स एंड बाउंड्रीज: वुमेन इन इंडियाज़ पार्टिशन (1998, ऋतु मेनन के साथ सहलेखन), ह्वॉट इज़ पैट्रियार्की? (1993) और फेमिनिज़्म एंड इट्स रिलेवेंस इन साउथ एशिया (1986, निघत सईद खान के साथ सहलेखन) शामिल हैं.

अपने लेखन और एक्टिविज़्म में भसीन एक ऐसे नारीवादी आंदोलन का सपना बुनती हैं, जो वर्गों, सरहदों और दूसरे सभी सामाजिक और राजनीतिक बंटवारों को लांघ जाए.

भसीन ने पाकिस्तान के हमख़याल और हमदिल लोगों के साथ गहरा नाता बनाए रखा है. दोनों देशों के बीच जारी तनावों के बीच उन्होंने हाल ही में पाकिस्तानी स्त्री अधिकार नेता निगार अहमद की मृत्यु पर शोक प्रकट करने के लिए लाहौर और इस्लामाबाद की यात्रा की.

निगार अहमद से 1979 से उनकी गहरी दोस्ती थीं, जब दोनों की पहली बार थाईलैंड में मुलाकात हुई थी.

मार्च की एक चटक सुबह में इस्लामाबाद के बाहरी हिस्से के एक फॉर्म हाउस में भसीन ने हेराल्ड से दक्षिण एशिया में नारीवाद के मौजूदा हालात, इसकी चुनौतियों, पीढ़ीगत और राजनीतिक विभाजनों और भारत-पाकिस्तान के बीच कभी न खत्म होने वाले संघर्ष के आईने में क्षेत्र के भविष्य जैसे मुद्दों पर लंबी बातचीत की. यहां हम उस उस बातचीत का अंश पेश कर रहे हैं:

आप कितने अरसे के बाद पाकिस्तान आई हैं?

मैं पिछले साल भी पाकिस्तान आई थी. मैं साल में कम से कम एक बार यहां आती हूं. मेरा जन्म यहां हुआ था. मेरी मां और पिता राजस्थान में रहा करते थे, मगर मेरी बुआ मंडी बहाउद्दीन ज़िले के एक छोटे से गांव शाहीदान वली में ब्याही गई थीं. बाद में मेरे काम की दिशा तय करने में इस तथ्य की भी भूमिका रही.

1975 से मैंने दक्षिण एशिया के स्तर पर काम किया है. इससे पहले महज़ चार या पांच साल ऐसे रहे, जिसमें मैं सिर्फ भारत में सक्रिय थी. ख़ुद को भारत का नागरिक कहने से पहले मैं बहुत गर्व से अपने आप को दक्षिण एशियाई नागरिक कहती हूं.

मेरे लिए दक्षिण एशियाई होना (भारतीय होने से) कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है. जब तक हम सब मिलकर अच्छे पड़ोसियों, शांतिपूर्ण पड़ोसियों, मददगार पड़ोसियों के तौर पर नहीं रहेंगे, मुझे नहीं लगता कि (इस क्षेत्र का) कोई भी देश तरक्की कर सकता है.

दक्षिण एशिया में नारीवादी आंदोलन को देखने पर आपके मन में तुरंत आने वाले विचार और उभरने वाली चिंताएं क्या हैं?

नारीवादी आंदोलन को लेकर कई तरह की ग़लतफहमियां हैं. इसकी वजह यह है कि हमारे मीडिया का सारा ध्यान शहरों और मशहूर चेहरों पर ही लगा रहता है. अगर वे किसी निगार अहमद, निघत सईद या किसी कमला भसीन को नहीं देखता तो उसे लगता है कि आंदोलन फुस्स हो गया है.

अगर आप (पाकिस्तानी नारीवादी संगठनों के) कामों को देखें, तो यह (शहरों की तुलना में) गांवों में ज़्यादा जीवंत है. उदाहरण के लिए ओकारा में भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष को देखा जा सकता है.

आप मुझे लाहौर या कराची में हुआ ऐसा कोई आंदोलन दिखाइए. (ओकारा की) समस्या दस साल से (ज़्यादा समय से) चल रही है, फिर भी (हर बार वहां विरोध होता है और) हज़ारों महिलाएं हाथों में बैटन लिए बाहर निकल आती हैं. मैं किसी शहर में ऐसे आंदोलन की कल्पना नहीं कर सकती.

क्या नारीवादी आंदोलन में नए सितारे उभर कर सामने आए हैं?

आख़िर हम सितारों की खोज करते ही क्यों हैं? मैं नारीवादी आंदोलन में सितारा संस्कृति के ख़िलाफ़ हूं. एक सितारा या प्रसिद्ध चेहरा केवल एक नारा दे सकता है, लेकिन यह किसी काम का नहीं होगा, अगर इस नारे को दोहराने वाला कोई न हो. (बड़े नाम वालों से) संपर्क करना आसान होता है. (एक पत्रकार) मेरे जैसे लोगों के पास, जिनका फोन नंबर उन्होंने सेव कर रखा है, आसानी से पहुंच जाएगा.

और मैं भी इतनी मॉडेस्ट नहीं हूं कि इंटरव्यू देने से इनकार कर दूं. इसलिए यह दोतरफा दिक्कत है. एक स्तर पर इस समस्या को जन्म देने में मेरा भी हाथ है. मैं भी सुर्खियों में बनी रहना चाहती हूं, इसलिए मैं सबको अपना विज़िटिंग कार्ड देती रहती हूं.

gulabi reuters
इलाहाबाद में 2009 में प्रदर्शन करती गुलाबी गैंग की महिलाएं. (फोटो: रॉयटर्स)

(भारत में) काफी कुछ हो रहा है. उत्तर प्रदेश में एक गुलाबी गैंग है, जिसमें शामिल औरतें गुलाबी साड़ी पहनती हैं और हाथों में बांस का डंडा रखती हैं. जो कोई (औरतों के ख़िलाफ़) हिंसा करता है, ये उनकी पिटाई करती हैं.

मैं औरतों के हिंसक होने से सहमत नहीं हूं, लेकिन गुलाबी गैंग ने (औरतों के ख़िलाफ़) हिंसा को इस हद तक कम किया है कि एक ब्रिटिश महिला ने उन पर एक फिल्म भी बनाई है.

दो साल पहले ही, एक हिंदू औरत ने यह शिकायत दर्ज कराई कि एक मंदिर का पुजारी औरतों को मंदिर परिसर में इसलिए दाख़िल नहीं होने दे रहा, क्योंकि उन्हें माहवारी आती है. (इसके बाद) हज़ारों महिलाएं एकजुट हुईं और मंदिर में बलपूर्वक घुस गईं.

मुस्लिम औरतों ने (मुंबई में) हाज़ी अली दरगाह में ऐसा ही किया. उन्होंने यह दलील दी कि 12 साल पहले तक दरगाह में उनके दाख़िले पर कोई पाबंदी नहीं थी. वे 12 साल से लगी पाबंदी को हटा कर मानीं.

स्त्री अधिकार आंदोलन जिस तरह आगे बढ़ रहे हैं, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?

मैं पूरी तरह से संतुष्ट होती, अगर सिर्फ हम ही इस दिशा में लगे होते और आंदोलन को आगे ले जा रहे होते. लेकिन बदकिस्मती से यहां दूसरे लोग भी हैं, जो हमें पीछे धकेल रहे हैं और वे हमसे लाखों गुना बड़े हैं.

ये लोग कौन हैं?

कॉरपोरेट मीडिया, पूंजीवादी पितृसत्ता. पोर्नोग्राफी अरबों डॉलर की इंडस्ट्री है, जो इंसान को एक भयावह, यौन-कुंठित जानवर में, और औरत को सिर्फ शरीर और शरीर के अंगों में बदलने का काम करती है.

कॉस्मेटिक उद्योग भी अरबों डॉलर की इंडस्ट्री है, जो यह संदेश देती है कि अगर मेरा शरीर सुंदर नहीं है… (तो मेरी कोई कीमत नहीं है), जो दक्षिण एशियाई औरतों से कहती है कि उनके शरीर का रंग गोरा नहीं है.

खिलौना उद्योग को देखिए, जो दो साल के बच्चे के हाथ में बंदूक थमा देता है. फिर 15 साल के बाद हम पूछते हैं कि वह आतंकवादी कैसे बन गया?

आपने उसे ऐसा बनने की ट्रेनिंग घर पर दी. आपने उसे जहां उसका मन किया, पेशाब करने की इजाज़त दी. आपने उसे जब उसकी मर्ज़ी हुई बदतमीजी करने की इजाज़त दी. आपने उसे बनाया. उसका जन्म इस तरह से नहीं हुआ था.

इसके अलावा वहां हॉलीवुड और बॉलीवुड भी हैं. हां, ठीक है कि वे शानदार फिल्में भी बनाते हैं. उन फिल्मों को देखकर हम नारीवाद के बारे में सीखते हैं. लेकिन कुल बनने वाली फिल्मों में ऐसी फिल्मों का प्रतिशत काफी कम है.

बाकी फिल्में पुरुषों के लिए उन्हीं पुराने स्टीरियोटाइप्स (जड़ छवि) को दोहराती हैं, जो उन्हें भयावह, अपमान करने वाले व्यक्ति में बदल देती हैं. कुछ साल पहले फिल्म दबंग को देखिए, इसमें एक पुलिसवाले को थाने में शराब पीते हुए दिखाया गया है. इस फिल्म ने 150 करोड़ रुपये की कमाई की. भारत के उपभोक्ता ऐसी फिल्में देखने से इनकार क्यों नहीं कर देते?

कुछ लोगों का कहना है कि सोशल मीडिया में जनता का मीडिया बनने की क्षमता है. क्या आपने कभी इसे कॉरपोरेट मीडिया के विकल्प के तौर में इस्तेमाल करने की कोशिश की है?

पहली बात, मीडिया या टेक्नोलॉजी का अपना कोई धर्म नहीं होता. ये उन्हीं के धर्म का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो इनका इस्तेमाल करता है. यही बात कॉरपोरेट मीडिया और सोशल मीडिया पर लागू होती है.

जब हम जनता के मीडिया की बात करते हैं, तब हमें यह ध्यान में रखना जाहिए कि (समाज के एक हिस्से के लिए) इस्लामीकरण भी जनता का एजेंडा है.

सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल कौन कर रहा है- यह किसी हिंदुत्ववादी एक्टिविस्ट के हाथों इस्तेमाल किया जा रहा है या इस्लामवादी के हाथों या आईएसआईएस के लिए काम करने वाले किसी व्यक्ति के हाथों, जो सोशल मीडिया का इस्तेमाल किसी से कम नहीं कर रहा है.

हमारे देश में अगर कोई औरत किसी राजनीतिक पार्टी के बारे में कुछ कहती है, तो चंद मिनटों में हज़ारों लोग मिलकर उसकी ट्रोलिंग शुरू कर देते हैं.

हमें बताया गया है कि कुछ पार्टियों ने ट्रोलों की भर्ती कर रखी है, जो किसने क्या कहा, इस पर निगाह रखते हैं. हमारे देश में लड़कियां सोशल मीडिया के ज़रिये लड़कों से प्रेम में पड़ जाती हैं.

फिर से लड़के उनकी तस्वीरें लेते हैं और उनके ऑनलाइन अपलोड कर देते हैं, जिससे कई लड़कियों को ख़ुदकुशी करने पर मजबूर होना पड़ा है. कोई नहीं जानता, कितने लड़के और लड़कियों ने इस तरह से ख़ुदकुशी की है.

लेकिन सोशल मीडिया आंदोलनों को खड़ा करने में भी काफी उपयोगी हो सकता है…

हां, मगर यह दोनों तरह के आंदोलनों- शांति आंदोलनों के साथ-साथ शांति-विरोधी, युद्ध समर्थक आंदोलनों के लिए भी (उपयोगी) साबित हो सकता है. तब हमें यह देखना होगा कि दोनों आंदोलनों में कौन ज़्यादा ताकतवर है.

अगर हम कहते हैं कि हिंदुत्व का प्रसार हो रहा है और इस्लामीकरण का प्रसार हो रहा है, तो इसका सीधा सा मतलब है कि वे सोशल मीडिया का हमारी या आपकी तुलना में ज़्यादा असरदार तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं.

इसकी वजह यह है कि हम उनके जितने संगठित नहीं हैं. हमारे पास अपने कुछ मूल्य भी हैं. हम झूठ फैलाना या नफरत बढ़ाना (जैसा वे करते हैं) पसंद नहीं करते हैं.

और दुनियाभर से हर तरह के विज्ञापन सोशल मीडिया पर प्रकट हो रहे हैं.

kamla herald2
कमला भसीन. Credit: Tanveer Shehzad, White Star/Herald

दुर्भाग्य की बात है कि जिनके पास सोशल मीडिया से पैसे कमाने की ताकत है, जिनके पास सोशल मीडिया के रास्ते प्रतियोगिता को बढ़ावा देने की ताकत है और जिनके पास नुकसानदेह उपभोक्तावाद फैलाने की ताकत है, वे (एक्टिविस्टों की तुलना में) कहीं ज़्यादा संगठित हैं.

मैं सोशल मीडिया को लोगों को आज़ाद करने वाले के तौर पर नहीं देखती हूं.

हम धर्म की चाशनी में लपेटी हुई दक्षिणपंथी राजनीति का उभार देख रहे हैं, जो बाकी सारी चीज़ों के ऊपर नैतिकता और धर्म को प्राथमिकता देती है. धर्म का उपयोग दोनों देशों में हो रहा है- आपके देश में भी और हमारे देश (पाकिस्तान) में भी.

नहीं-नहीं. हिंदुत्ववादी कार्यकर्ता (भारत में) धर्म के नाम पर बात नहीं कर रहे हैं. वे यह नहीं कह रहे हैं कि कुछ ख़ास चीज़़ें इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि गीता या किसी दूसरी किताब में ऐसा करने के लिए कहा गया है.

निजी तौर पर मैं इस बात में यकीन करती हूं कि मेरे देश में धर्म की तुलना में पूंजीवादी पितृसत्ता ज़्यादा ऊपर और कुचक्र के स्तर पर काम कर रही है.

ऐसा क्यों है?

मैंने हाल ही में किसी टेड टॉक में सुना कि कुछ देशों में 12 साल से ज़्यादा उम्र के 80 फीसदी लड़के पॉर्न देख रहे हैं.

हम लोग बस स्टॉप पर खड़े होकर बस का इंतजार करते हुए शीला की जवानी, मुन्नी बदनाम हुई, मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, लौंडिया पटाई ले मिस कॉल से जैसे गाने देखने का फैसला करते हैं.

भारत में हर स्त्री को एक लौंडिया में रिड्यूस कर दिया गया है. धार्मिक दायरों में हमें कम से कम लौंडिया कह कर नहीं पुकारा जा रहा है. हो सकता है कि वे हमें ऐसा छिपे तौर पर कहते हों, लेकिन खुलेआम तो नहीं कहते.

मैं अकेले फिल्म निर्माताओं को ही दोष नहीं देती. आख़िर हम ही हैं जो उनकी फिल्में देखते हैं. लेकिन हम महिला पहलवान पर बनी फिल्म दंगल को भी पसंद करते हैं. इस फिल्म ने इतिहास बनाया. इसने 400 करोड़ रुपये से ज़्यादा की कमाई की.

इससे पहले बजरंगी भाईजान ने 150-200 करोड़ रुपये की कमाई की. यह भारत-पाकिस्तान पर बनी सबसे खूबसूरत फिल्म है. यह पाकिस्तान के लोगों का मानवीकरण करती है.

उन्हें एक छोटी सी लड़की के ख़ातिर और एक धार्मिक हिंदू की रक्षा के लिए झूठ बोलते हुए दिखलाया गया है. नहीं तो, हर मुस्लिम, हर पाकिस्तानी को हमारे देश में बुरे व्यक्ति के तौर पर दिखाया जाता है.

मेरे कहने का मतलब यह है कि धर्म एक समस्या है, मगर यह उस स्तर की समस्या नहीं है, जिस स्तर की समस्या पब्लिक प्रोपगेंडा है.

लेकिन, सरहद के दोनों तरफ धर्म को नकारात्मक व्यवहारों को बढ़ावा देने के सबसे बड़े कसूरवार के तौर पर दिखाया जाता है.

नहीं-नहीं. मैं यह कह रही हूं कि दोनों (धर्म और पितृसत्ता) बुरे हैं. यह तथाकथित सेकुलर, पूंजीवादी, उच्चवर्गीय, वैज्ञानिक प्रणाली, जो सबसे आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रही है… यह क्या कर रही है.

यह गोरापन लाने की क्रीम का विज्ञापन बना रही है. कोई व्यक्ति एक मिनट के लिए भी भारतीय टेलीविजन धारावाहिक नहीं देख सकता है… वे इतने पितृसत्तात्मक मूल्यों से भरे हुए हैं… वे इतने अश्लील हैं. ज़्यादातर बॉलीवुड फिल्में सेमी-पॉर्नोग्राफिक हैं. और वे कम से कम भारत में बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित कर रही हैं.

मैं यह (भी) सोचती हूं कि भारत और पाकिस्तान में धर्म के इस्तेमाल में अंतर है. भारत में माहवारी की वर्जनाओं को लेकर मजबूत आंदोलन हैं. कुछ लड़कियों ने ‘हैप्पी टू ब्लीड’ नाम से एक आंदोलन शुरू किया है. वे अपना सैनिट्री पैड लेती हैं, उन पर संदेश लिखती हैं और विश्वविद्यालयों के भीतर दीवारों पर उन्हें टांग देती हैं.

जब उन्होंने यही काम जामिया मिलिया इस्लामिया (दिल्ली) में करना चाहा तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें निष्कासित करने की कोशिश की, मगर उन्होंने संघर्ष किया और उन्हें निष्कासित नहीं किया जा सका.

एक मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. इसमें सवाल पूछा गया है: क्या कोई धर्म औरतों के प्रवेश पर माहवारी के कारण पाबंदी लगा सकता है?

हम काफी आगे बढ़कर धर्म को भी चुनौती दे रहे हैं क्योंकि यहां की तुलना में वहां धार्मिक संगठनों का खौफ अभी तक उतना बड़ा नहीं हुआ है.

भारत में जो धर्म आधारित पार्टियां हैं, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)- उन्हें (धार्मिक से ज़्यादा) राजनीतिक संगठनों के तौर पर देखा जाता है. उनका मुख्य मुद्दा राजनीतिक है, लेकिन वे धर्म का इस्तेमाल हिंदुओं और मुसलमानों को बांटने के लिए कर रहे हैं.

भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के बीच शांति के संदर्भ में धर्म की क्या भूमिका है?

इसके लिए (दोनों देशों के बीच शांति की कमी के लिए) फिर मैं किसी एक वजह को ज़िम्मेदार नहीं ठहराऊंगी. यह काफी जटिल मुद्दा है और मैं इसे दो धर्मों के बीच के मसले में रिड्यूस नहीं करना चाहती हूं.

मैं इसमें अर्थशास्त्र को भी प्रमुखता से शामिल करती हूं. मेरा मानना है कि हमारे कई तथाकथित सांप्रदायिक संघर्ष दरअसल आर्थिक झगड़े हैं. लड़ाई इस बात की है कि संसाधनों पर किसका कब्ज़ा होगा.

उन संसाधनों का क्या होगा? इन संघर्षों पर धार्मिक संघर्ष का लेबल लगा देना आसान है, लेकिन भीतरी तौर पर ये संघर्ष ज़मीन, व्यापार या ऐसी किसी अन्य चीज़ के लिए हैं.

भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष के पीछे मैं दुनिया के सभी अमीर देशों का हाथ देखती हूं. मैं इसके पीछे (वैश्विक) सैन्य उद्योग का हाथ देखती हूं.

पाकिस्तानियों को लगता है कि भारत की अब शांति में कोई रुचि नहीं रही. ऐसे में, दोनों देशों के बीच रिश्ते किधर जाने वाले हैं?

जब (प्रधानमंत्री नरेंद्र) मोदी ने पद की शपथ ली, तब उन्होंने (इस आयोजन में) दक्षिण एशिया के हर नेता को दावत दी थी. ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था. उसके बाद वे टी-पार्टी के लिए लाहौर आए.

लेकिन जिस समय ये सारी चीज़़ें हो रही थीं, उस समय भारत में हमले हो रहे थे. इससे पहले हर कोई इस बात पर राजी था कि दोनों देशों के लिए बातचीत जरूरी है, मगर अब भारत में कुछ लोग ऐसे हैं, जो यह सोचते हैं कि उनकी सरकार को पाकिस्तान से बातचीत करने की जरूरत नहीं है.

वे कहते हैं कि भारत ने कभी भी (पाकिस्तान के ख़िलाफ़) जंग की शुरुआत नहीं की है. कोई भी भारतीय जो पाकिस्तान से मोहब्बत की बात करता है, उसे आज भारत मे गद्दार के तौर पर देखा जाता है. कोई पाकिस्तानी जो भारत से साथ मोहब्बत की बात करता है, उसे पाकिस्तान में गद्दार के तौर पर देखा जाता है.

1990 और 2000 के दशक में दोनों देशों के बीच पीपुल टू पीपुल कॉन्टैक्ट (जनता से जनता का संवाद) काफी नियमित था. मगर अब इसमें काफी कमी आई है. आपको क्या लगता है, इसकी वजह क्या है?

जब मैं जर्मनी में पढ़ रही थी, तब पाकिस्तानी मेरे सबसे अच्छे मित्र थे. इसकी वजह क्या थी? क्योंकि अपने पासपोर्ट और धर्म के अलावा मैं सब कुछ उनसे साझा करती थी. हमारा खाना, हमारा संगीत, हमारी फिल्में, क्रिकेट सब कुछ एक साझेपन के सूत्र में बंधे हैं.

आज भी भारतीय और पाकिस्तानी नौजवान हर विदेशी यूनिवर्सिटी में आपस में मिलते हैं. इनमें से कुछ आपस में शादी कर लेते हैं. इसलिए पाकिस्तान-भारत के बीच दोस्ती में हमारी तुलना में इनका ज़्यादा हित जुड़ा होना चाहिए.

पाकिस्तानी और भारतीय तीसरे देशों में मिल रहे हैं. वे अपने देशों में भी आपस में मिलना चाहते हैं. जहां तक मजहब का सवाल है, वे इसकी ज़्यादा परवाह नहीं करते, क्योंकि वे ग्लोबल नागरिक हैं. नौजवान पीढ़ी बंटवारे का बोझा नहीं ढो रही है- जब हमसे पहले की पीढ़ी के लोग यहां से चलकर (भारत)आए और उनमें से कुछ मारे गए.

हमारी औरतें बसों में भरकर यहां आई हैं. अस्मा जहांगीर बसों में यहां की औरतों को भरकर भारत ले गईं. यह मेलजोल कम हुआ है. ‘अमन की आशा’ जैसी मुहिम काफी धूम-धड़ाके साथ शुरू हुई थीं, मगर आज उनमें भी उर्जा नहीं बची है. जबकि इसी बीच एक दूसरे के ख़िलाफ़ युद्धोन्माद बढ़ा है.

वीजा पाना लगातार ज़्यादा मुश्किल होता जा रहा है. (भारत और पाकिस्तान के बीच) यात्रा करना भी ज़्यादा कठिन होता जा रहा है. लेकिन, आज अगर स्कूल के बच्चे एक-दूसरे के देश नहीं जा सकते, तो उनके पास स्काइप आदि के ज़रिये मिलने का रास्ता खुला हुआ है.

pinjra tod
दिल्ली में पिजड़ा तोड़ रैली में हिस्सा लेती छात्राएं. Credit: Pinjra Tod/Facebook

हाल ही में मैं पढ़ रही थी कि कराची और मुंबई के स्कूली बच्चों ने स्काइप पर गुजराती संस्कृति, गुजराती खाने और गुजराती लोगों के बारे में आपस मे स्काईप के सहारे बात की.

कुछ युवा लोग एक शांति कैलेंडर का प्रकाशन करते हैं, जिसमें स्कूली छात्रों द्वारा भारत-पाकिस्तान दोस्ती पर बनी पेंटिंग्स होती हैं. ये पेंटिंग्स स्कूली छात्र प्रतियोगिता मे बनाते हैं.

सैकड़ों पेंटिंग्स में से पाकिस्तानी और भारतीय बच्चों द्वारा बनाई गई छह-छह पेंटिंग्स चुनी जाती हैं. मैंने एक बार दिल्ली में यह कैलेंडर जारी किया था. फिर इसे अमृतसर, चंडीगढ़ और पानीपत में जारी किया गया. पाकिस्तान में इसे लाहौर और कराची में जारी किया गया.

लेकिन, फिर भी मुझे दुख के साथ कहना पड़ता है कि अवाम का अवाम के साथ मेलजोल कम हुआ है. इससे भी ज़्यादा दुखद यह है कि भारत में कुछ लोग पाकिस्तानी अभिनेताओं और गायकों के भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में काम करने पर पाबंदी लगाना चाहते हैं.

यह एक बहुत बड़ा पीछे की ओर कदम है. लेकिन महेश भट्ट (निर्देशक) ने हाल ही में आपके एक गायक को अपने एक नाटक के लिए लिया. इसलिए, यह बदल सकता है.

इसका मतलब आप आशावादी हैं?

मेरी दोस्त, अगर हम आशावादी नहीं हो सकते, तो हमें एक्टिविज़्म छोड़ देना चाहिए.

क्या कश्मीर मसले को सुलझाने को लेकर आशावादी होने की कोई वजह है, क्योंकि ऐसा लगता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच अमन के रास्ते में यही सबसे बड़ा रोड़ा है?

मैंने कश्मीर में बहुत ज़्यादा काम नहीं किया है. मेरा ध्यान मुख्य तौर पर नारीवाद और जेंडर पर केंद्रित रहा है. लेकिन (भारत में)एक बड़ा वर्ग है, जो यह कहता है कि वहां मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है.

(मानवाधिकार आंदोलनों के आलोचक) कहते हैं कि भारत के विभिन्न भागों में लगाया जाने वाला आज़ादी का नारा कश्मीर से जुड़ा हुआ है, जबकि इन दोनों का आपस में लेना-देना नहीं है.

मैंने यह नारा तब सीखा जब मैं (1985 में) पाकिस्तान आई थी. नारीवादी कार्यकर्ता यह नारा लगा रहे थे- मेरी बहन को मिलेगी आज़ादी, मेरी बेटी को मिलेगी आज़ादी… आदि.

मैंने इसका अनुवाद अंग्रेजी में किया और यह नारा बीजिंग में (स्त्रियों पर हुए एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में) लगाया. स्त्रियों पर होने वाला ऐसा कोई आयोजन नहीं है, जिसमें हम यह नारा नहीं लगाते हैं. अब सरहद के दोनों ओर लोगों ने इसे एक बड़ा मुद्दा बना दिया है.

पाकिस्तान में हम यह मानते हैं कि भारत की सरकार कश्मीरी मुसलमानों द्वारा आजादी की मांग को दबा रही है. आप कश्मीर की समस्या को किस तरह से देखती हैं?

(कश्मीर में) एक साथ कई चीज़़ें हो रही हैं. एक तरफ एक महिला के नेतृत्व वाली पार्टी (पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट) एक ऐसी पार्टी (बीजेपी) के साथ मिलकर गठबंधन में सरकार चला रही है, जो (भारत के) संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे का विरोध करती है.

दूसरी तरफ वहां (आज़ादी के लिए)आंदोलन भी है. हर साल ऐसा लगता है कि कश्मीर में पर्यटन में इजाफा हुआ है, मगर उसके बाद कोई बम धमाका होता है और पर्यटन घट जाता है.

कश्मीर के हालात बेहद जटिल हैं और (वहां जो कुछ भी हो रहा है) वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. यह भारत की अर्थव्यवस्था मे भी बड़ा अवरोध है, क्योंकि भारत (कश्मीर में सुरक्षा पर) काफी पैसा खर्च कर रहा है.

क्या आपको यह लगता है कि भारत में इस बात का एहसास बढ़ा है कि कश्मीर के मसले का हल निकालना जरूरी है?

मैं पूरे भारत के बारे में नहीं जानती. लेकिन, उत्तर भारत में ये सारी बहसें चल रही हैं और हमें ऐसा लगता है कि कश्मीरियों के मानवाधिकारों को लेकर कुछ किए जाने की जरूरत है.

कश्मीर के भीतर राजनीतिक दलों के बीच इस मुद्दे को लेकर तनाव है. कुछ राजनीतिक दल (आजादी समर्थक कश्मीरियों के साथ) बातचीत के पक्षधर हैं.

मुझे भी ऐसा लगता है कि बातचीज़ होनी चाहिए क्योंकि वहां कई महीनों के लिए स्कूल बंद रहे हैं. अभी हाल मे जाकर स्कूल फिर से खुले हैं. फिर वहां दुर्भाग्यपूर्ण बाढ़ ने कहर बरपाया, जिसने कश्मीर की समस्या को और बढ़ाने का ही काम किया.

नारीवादी आंदोलन के कई आलोचक इसे धनवान, शिक्षित, शहरी महिलाओं का शगल बताते हैं. इस पर आपका क्या सोचना है?

दक्षिण एशिया में नारीवाद और गरीबी-विरोधी आंदोलन साथ-साथ चले हैं. अमेरिका के उलट जहां, शुरुआत में नारीवाद मुख्य तौर पर मध्यवर्गीय परिघटना थी, दक्षिण एशिया में हम (नारीवादी आंदोलन की शुरुआत से ही) गरीबों, हाशिए पर के समाजों के मुद्दों को उठाते रहे हैं.

कुछ लोगों का यह विचार है कि मध्यवर्ग और दौलतमंद परिवारों में दक्षिणपंथी संरक्षणवाद बढ़ रहा है. क्या आपके विचार में स्त्री अधिकार के आंदोलनों को अनिवार्य तौर पर इनसे भी संवाद करना चाहिए.

हां, ऐसा संवाद जरूरी है, मगर हमारी ऐसे परिवारों तक पहुंच नहीं है. वे सारी चीज़़ें जानते हैं. वे बात नहीं करना चाहते. उन्हें लगता है कि वे ठीक हैं.

स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) और स्त्री अधिकार आंदोलनों के शहर से निकलकर गांवों तक फैलने से उनका नौकरशाहीकरण हुआ है. लेकन अगर ‘औरत फाउंडेशन’ गांवों में काम नहीं कर रहा होता, तो स्थानीय स्वशासन संस्थाओं में महिलाओं का ऊंचा प्रतिनिधित्व (शायद संभव नहीं होता).

हम पाकिस्तान में देख रहे हैं कि मानवाधिकारों और गरीबी उन्मूलन की सारी बड़ी लड़ाइयां बड़े शहरों में होती हैं. यहां तक कि ओकारा में विरोध कर रहे किसानों की आवाज तब तक नहीं सुनी जाती, जब तक शहरी मीडिया…

मीडिया केवल इसको उठा सकता है और दिखा सकता है कि वहां लड़ाई में कौन शामिल हैं? वहां किसका माथा फूट रहा है? किस का घर ढहाया जा रहा और कब्ज़ा किया जा रहा है.

लेकिन फैसले लेने वाले शहरों में बठे हुए हैं- फिर चाहे वह सेना हो, राजनीतिक पार्टियां हों या स्थानीय प्रशासन हो.

भले ही फैसले लेने वाले शहरों में रहते हों, मगर ज़मीनी स्तर पर चल रहे आंदोलनों पर प्रतिक्रिया देना होगा. ओकारा के किसान, सिर्फ ओकारा में ही विरोध कर सकते थे.

वहां की जिस ज़मीन पर सेना का कब्ज़ा है, वह इस्लामाबाद मे नहीं है. इसलिए, यह सही है कि फैसले लेनेवाले यहां हैं, मीडिया यहां है, लेकिन वे आंदोलन नहीं हैं. वे आंदोलनों पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं. आंदोलन तो अब भी (ग्रामीण इलाकों में) है.

क्या आपको लगता है कि नारीवादी आंदोलनों के दायरे और इसके लक्ष्यों की समीक्षा किए जाने की जरूरत है?

मुझे नहीं मालूम आप आंदोलन को किस तरह परिभाषित करती हैं. अगर परिभाषा की बात करें, तो एक आंदोलन केंद्रीकृत ढंग से आयोजित एक्टिविटी नहीं हे. इसके भीतर, हज़ारों-हजार समूह और व्यक्ति हो सकते हैं.

जब ओकारा के किसानों ने विरोध करना शुरू किया, तब क्या वे डब्लूएएफ (वुमेंस एक्शन फोरम) के पास यह कहने आए थे कि वे एक आंदोलन शुरू करना चाहते हैं?

वे वहां भूख का सामना कर रहे थे, इसलिए उन्होंने विरोध करना शुरू किया. क्या आपको लगता है कि शीमा किरमानी ने सेहवान जाकर वहां आतंकवादी हमलों के विरोध में डांस करने से पहले किसी से पूछा था?

नरीवाद का जन्म पितृसत्ता के जन्म के बाद हुआ. इससे पहले, इसकी कोई जरूरत नहीं थी. शांतिवादी आंदोलनों का जन्म युद्ध की कोख से होता है. हम सामान्य तौर पर सामने आये मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते हैं. हमने यह कभी नहीं सोचा था कि 2015 में डिजिटल क्राइम हमारा एजेंडा बन जाएगा.

1970 और 80 के दशक में लिंग आधारित (सेक्स सिलेक्टिव) गर्भपात की समस्या नहीं थी, क्योंकि (गर्भ में भ्रूण के लिंग का परीक्षण करनेवाली) आधुनिक मशीनें तब तक उपलब्ध नहीं थीं.

1970 और 1980 के दशक में भारत में औरतों पर तेजाब फेंकने की घटनाएं नहीं होती थीं. 1980 के दशक में मैं, पूंजीवादी पितृसत्ता की बात नहीं कर रही थी, क्योंकि तब ग्लोबलाइजेशन ने मेरे देश पर असर नहीं डाला था.

ग्लोबलाइजेशन के आने से पहले मेरे देश में..कोई भी भारतीय महिला ब्यूटी क्वीन नहीं बनना चाहती थी. राजीव गांधी द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को जब से ग्लोबलाइज किया गया, उस क्षण से सौंदर्य प्रतियोगिताओं में भारतीय प्रतियोगियों की संख्या बहुत बढ़ गई.

क्या हम उससे पहले खूबसूरत नहीं थे? ये सौंदर्य प्रतियोगिताएं मार्केटिंग के औजार हैं. ये हमारी औरतों, मर्दों और देश को बाजार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं.

मैं अक्सर पाकिस्तान में महिला कानून-निर्माताओं से बात करती हूं और वे अपनी सियासी पार्टियां बनाने की बात करती हैं. क्या आपको लगता है कि वुमेन ओनली पार्टी (केवल महिलाओं की पार्टी) मुमकिन है?

औरतों ने अपनी पार्टी बनाने की कोशिश जर्मनी में की. फिलिपींस में औरतों की अपनी एक पार्टी है. लेकिन, सियासी पार्टियां लैंगिक आधार पर सामने नहीं आतीं. उनका आधार सियासत होता है.

एक औरत सिर्फ औरत नहीं है. उसकी एक जाति है, उसका एक मजहब है, वह शिया है, वह सुन्नी है, वह अमीर है, वह गरीब है. औरतों की कई पहचान हैं और ये पहचान हमें विभाजित करते हैं. हमने सेवा (सेल्फ एंप्लॉयड वुमेंस एसोसिएशन- भारत के गुजरात का एक संगठन) में यह विभाजन होते देखा है, जिसमें कभी हिंदू और मुस्लिम औरतें मिलकर काम किया करती थीं.

गुजरात में जब सांप्रदायिक झगड़े शुरू हुए, तब उन औरतों को कुछ समय के लिए अपनी सांप्रदायिक पहचान की ओर वापस लौटना पड़ा. ऐसा इसलिए है क्योंकि सांप्रदायिक पहचान सैकड़ों साल पुरानी हैं.

सेवा के साथ उनका संबंध उनका कुछ साल पुराना ही था. जब तक हम ऐसे वैकल्पिक वैचारिक परिवारों के साथ नहीं आते, जो युगों पुराने संबंधों से आजादी दिलाने में औरतों की मदद करें, तब तक हम सिर्फ बायोलॉजिकल आधार पर सियासी पार्टियों के सामने आने की उम्मीद नहीं कर सकते.

औरतें भी, पुरुषों जितनी ही विचारधारा के आधार पर बंटी हुई हैं. दक्षिणपंथी इस्लामिक महिलाएं भी हैं, जो ख़ुद को इस्लामिस्ट फेमिनिस्ट कहती हैं. और मैं उन्हें सर्टिफिकेट देनेवाली कौन होती हूं, कि वे नहीं हैं?

कौन नारीवादी है, यह सर्टिफिकेट देने का इख्तियार किसके पास है? मुझे नहीं लगता कि कोई इस स्थिति में है.

आप उन औरतों को क्या कहना चाहेंगी, जो ये इंटरव्यू पढ़ेंगी और जो अमीर व शहरी हो सकती हैं?

अगर हम सशक्तीकरण के नाम पर उन मूल्यों को छोड़ दें, जिनके लिए औरतों की पहचान होती रही है, जैसे- सेवा, देखभाल और प्रेम, तो यह दुनिया पहले अगर 20 साल में खत्म होनेवाली होती, तो 10 साल में ही खत्म हो जाएगी.

पुरुषों को मैं यह कहना चाहूंगी कि उन्हें यह समझना होगा कि पितृसत्ता किस तरह उनका अमानवीकरण (डिह्यूमनाइज) कर रही है. जैसे, उदाहरण के लिए, पितृसत्ता उन्हें रोने की इजाज़त नहीं देती. उन्होंने अपना इमोशनल इंटेलीजेंस खो दिया है.

वे ख़ुद अपनी भावनाओं को नहीं समझ पाते. अमेरिका में टेड टॉक हमें बताते हैं कि वहां लड़कियों की तुलना में किशोर लड़कों की ख़ुदकुशी की दर चारगुनी है, क्योंकि वे ख़ुद को ही नहीं समझ पाते हैं.

अगर एक औरत किसी पुरुष से यह कहती है कि वह उससे प्यार नहीं करती, तो वह उसके चेहरे पर तेजाब फेंक देता है. जब उसे लगता है कि उसकी बीवी ने उसे प्यार से नहीं चूमा है, तो वह शिकायत नहीं करता.

वह उसे चांटा मार देने को ज़्यादा आसान समझता है, क्योंकि पितृसत्ता ने उसे यही सिखाया है. एक पुरुष जो बस में किसी स्त्री के स्तनों को दबाने में खुशी महसूस करता है, उसे एक मनोरोग चिकित्सक के पास जाना चाहिए. वह सेहतमंद नहीं है.

पुरुष एक-आयामी (यूनि-डाइमेंशनल) और एकरंगी (यूनि-कलर्ड) हैं. हमने उन्हें दिखाया है कि हम उनके कपड़े पहन सकते हैं, मगर उनसे कहकर देखिए कि किसी दिन हमारी साड़ी पहन कर दिखाए.

वे अपने काम के अलावा कोई और काम करना नहीं जानते हैं. वे अचार नहीं बना सकते हैं. वे पापड़ नहीं बना सकते. वे खाना नहीं बना सकते. वे पेशाब कर दिए शिशुओं को नहीं संभाल सकते.

kamla herald
कमला भसीन. Credit: Tanveer Shehzad, White Star/Herald

क्या आपको लगता है कि स्त्री का रेप करनेवाला पुरुष इंसान है? उसे कहा गया है कि उसे दूसरे समुदाय की औरत का रेप करना है- कि वह एक लड़ाका है, और वह एक बड़े मकसद के लिए रेप कर रहा है.

वह अपने शरीर को औरतों के ख़िलाफ़ एक हथियार में बदल देता है.

क्या वह हथियार तब प्रेम का औजार बन सकता है? बांग्लादेश में पाकिस्तानी सैनिक, वियतनाम में अमेरिकी सैनिक, या भारत में हिंदू दक्षिणपंथी व्यक्ति- जब वे किसी ऐसे समुदाय की औरत से रेप करते हैं, जिससे वे नफरत करते हैं, तब वे अपना बच्चा उसी औरत के गर्भ में डाल देते हैं, जो उनकी नफरत का निशाना बनती हैं.

उनकी संतति के साथ उनका क्या रिश्ता है? जब लोग कहते हैं कि किसी समुदाय की औरत का रेप होने से उस समुदाय की इज्जत मिट्टी में मिल गई, तो मैं यह पूछती हूं कि आख़िर वे अपना सम्मान किसी औरत के शरीर में क्यों डालते हैं?

इस दुनिया में जो कुछ भी खराब है, उसके पीछे मैं वर्चस्ववादी मर्दानगी, जहरीली मर्दानगी का हाथ देखती हूं.

क्या आपको लगता है कि जेंडर संबंध बेहतर हुए हैं?

इसे इस तरह से देखना चाहिए- (भारत में) 1.25 अरब लोग हैं; इनमें से एक करोड़ लोगों के लिए जेंडर संबंध बेहतर हुए हैं.

लेकिन, फिर भी इसमें सुधार जो हो रहा है…

निश्चित तौर पर इसमें सुधार हो रहा है. देखिए, आप एक औरत हैं और एक दूसरी औरत यानी मेरा इंटरव्यू ले रही हैं. और यह इंटरव्यू एक औरत के घर में लिया जा रहा है. 50 साल पहले यह नहीं हो सकता था.

जाहिर तौर पर चीज़़ें बदल रही हैं, और यह बदलाव समाज के हर वर्ग में हो रहा है. आपके देश में एक औरत टैक्सी चला रही है. एक औरत ट्रक चला रही है.

हमारे देश में भी सैकड़ों औरतें टैक्सी चला रही हैं. ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जिसमें कुछ औरतों ने अपना मुकाम नहीं बनाया है- यहां तक कि वे प्लेन तक चला रही हैं. दिल्ली से न्यूयॉर्क जानेवाली एक फ्लाइट के क्रू में एक भी पुरुष नहीं है. औरतें चांद पर जा रही हैं. वे सुप्रीम कोर्ट की जज बनी रही हैं.

कानूनों में भी लगातार बेहतरी के लिए बदलाव हो रहे हैं. आपके या मेरे देश में कोई भी नीति, उसमें जेंडर मसलों को (खाने में) नमक और काली मिर्च की तरफ छिड़के बगैर नहीं बन सकती. बाद में ये नीतियां व्यवहार में लाई जाती हैं या नहीं, अलग बात है.

आज अगर कोई मंत्री या चीफ जस्टिस या कोई दूसरा पुरुष एक भी स्त्रीविरोधी वाक्य कहता है, तो मीडिया पूरे दिन उसके पीछे पड़ जाता है. क्योंकि हम आज (औरतों के ख़िलाफ़) हिंसा की कहीं ज़्यादा रिपोर्टिंग कर रहे हैं, इसलिए समाज में ऐसी हिंसा पर काफी बातचीत हो रही है.

दिल्ली यूनिवर्सिटी की लड़कियों ने ‘पिंजड़ा तोड़’ नाम से एक अभियान शुरू किया. यह अभियान उस नियम के ख़िलाफ़ है, जिसके मुताबिक लड़कियों को 7 बजे तक अपने हॉस्टल के भीतर आ जाना है, भले ही वे पोस्ट ग्रैजुएट स्टुडेंट्स क्यों न हों. वे लाइब्रेरी में भी नहीं रुक सकतीं, जो आधी रात तक खुली रहती है.

मेनका गांधी (महिला एवं बाल विकास मंत्री) ने इस अभियान के बारे में कोई बयान दिया है.

हां, उन्होंने एक दुर्भाग्यपूर्ण बयान दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि औरतों में हार्मोनल एक्टिविटी होती है. भाई, अगर हमारे हार्मोन इतने एक्टिव होते, तो हम पुरुषों का रेप कर रहे होते. हम ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं, हम अपने हार्मोन से निपट रहे हैं.

ये लड़कियां इस मामले को यह कहते हुए लेकर कोर्ट में लेकर गई हैं कि यह पाबंदी संविधान का उल्लंघन है; कि वे सब 18 साल से ज़्यादा उम्र की हैं और भारत की आजाद नागरिक हैं.

उन्होंने दलील दी है कि घर के भीतर उन्हें रखना चाहिए, जो उनका शोषण कर रहे हैं. पाबंदी इस बात की होनी चाहिए कि लड़के 7 बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकल सकते.

10 मार्च को कई हजार दलित, मुस्लिम, ट्रांसजेंडर लोग और नारीवादियों ने नागपुर (भारत) में स्त्रीविरोधी हिंदू रिवाजों के ख़िलाफ़ एक जुलूस निकाला.

हमारे यहां एक मनु नाम के एक हिंदू दार्शनिक, लेखक, कानून-निर्माता हुए थे. उनके विचारों ने जातिवाद फैलाया है, वे पितृसत्ता को समर्थन देते हैं- जैसे हमारे सारे धर्म देते हैं. यह जुलूस इन सबके ख़िलाफ़ था.

क्या आपको नहीं लगता कि नयी सहस्राब्दी के मर्दों के बीच ये चीज़ें बेहतरी के लिए बदल रही हैं?

आपके दिमाग में एक ख़ास किस्म का मर्द है. जो शहरी, अपर क्लास है और जिसके हाथों में बोतलबंद पानी है. लेकिन क्या आपको लगता है कि गांव में रहनेवाला कोई व्यक्ति 50 रुपये की एक पानी की बोतल खरीद सकता है?

वह उसी गंदे नाले से पानी पी रहा है. इस सहस्राब्दी के कई बच्चे आज भी बाल-मजदूरों के तौर पर काम कर रहे हैं. वे आज भी आपकी फैक्टरियों में काम कर रहे हैं.

वे आज भी रोटी के एक टुकड़े के लिए सड़कों पर भीख मांग रहे हैं. ये वही लोग हैं, जो आइएस आदि के रंगरूट बन रहे हैं. सारे कट्टरपंथी इनकी ही भर्तियां कर कर रहे हैं. हमारे वर्ग से ताल्लुक रखने वाले युवाओं में से इक्के-दुक्के ही-हजार में एक, कट्टरपंथी संगठनों में शामिल हो रहे हैं.

अगर मैं भी ऐसे ही (वंचित तबक) से होती, तो मैं भी शायद यही करती, क्योंकि मैं अपना कोई भविष्य नहीं देखती. मैं फैंसी फोन देखती, मगर उसे खरीद नहीं सकती. मैं पॉर्न देखती, मगर मेरे पास औरत नहीं होती. मैं अपने पॉर्नोग्राफिक इच्छाओं का क्या करती?

कोई भी सहस्राब्दी की संतान (मिलेनियल चाइल्ड) नहीं है. कोई भी सहस्राब्दी की औरत (मिलेनियल वुमन) नहीं है. यह सब जाति, वर्ग, धर्म आदि पर निर्भर करता है.

लेकिन, पुरुषों को कुछ चीज़़ें समझने की जरूरत है: पहली बात, वे तब तक मुक्त नहीं होंगे, जब तक स्त्री मुक्त नहीं होगी. नहीं, तो उन्हें हमेशा हमारी रक्षा करती रहनी पड़ेगी. उन्हें हमेशा हमारा पेट पालना होगा.

दूसरी बात, लैंगिक समानता कुल जमा ज़ीरो का मामला नहीं है. ऐसा नहीं है कि इससे सारे फायदे औरतों को ही मिलेंगे और पुरुषों का केवल नुकसान होगा. इसमें दोनों की जीत होगी.

मेरा अनुभव है कि अच्छे गुणों वाले पुरुष समानता से नहीं डरते हैं. उन्हें अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए किसी को पीटने की जरूरत नहीं है. आप पाएंगी कि सारे प्रबुद्ध पुरुष के भीतर मर्द के साथ स्त्री भी बसती है. वे न मर्द हैं, न स्त्री. वे आधे पुरुष हैं, आधे स्त्री. उनमें मर्द और स्त्रियों के सर्वोत्तम गुण हैं.

(अम्मारा दुर्रानी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एमफिल किया है. वर्तमान में वह पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में रह रही हैं.)

(यह इंटरव्यू मूल रूप से पाकिस्तान की समाचार वेबसाइट हेराल्ड में प्रकाशित हुआ था.)

इस साक्षात्कार को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq