हमारे न्यूज़ चैनल तू-तू, मैं-मैं पर क्यों उतर आए हैं?

न्यूज़ चैनल हर विषय पर दलीय प्रवक्ताओं की भीड़ क्यों इकट्ठा करना चाहते हैं? क्या वे राजनीतिक दलों, ख़ासकर सत्ताधारी दल को हर मुद्दे पर अपना फोरम मुहैया कर खुश रखने की कोशिश करते हैं?

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न्यूज़ चैनल हर विषय पर दलीय प्रवक्ताओं की भीड़ क्यों इकट्ठा करना चाहते हैं? क्या वे राजनीतिक दलों, ख़ासकर सत्ताधारी दल को हर मुद्दे पर अपना फोरम मुहैया कर खुश रखने की कोशिश करते हैं?

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एक टीवी डिबेट के दौरान एनडीटीवी की एंकर निधि राजदान और भाजपा नेता संबित पात्रा.

यह कोई पहली घटना नहीं, जब किसी न्यूज़ चैनल के स्टूडियो में हो रही चर्चा (लाइव प्रसारण) के दौरान तीखी तकरार हुई. इससे पहले दो हिन्दी न्यूज़ चैनलों के स्टूडियो में चर्चा में शामिल मेहमानों के बीच मारपीट भी हो चुकी है. एंकर और चर्चा में शामिल मेहमानों या कथित विशेषज्ञों के बीच तीखी तकरार के तो असंख्य उदाहरण हैं.

लेकिन बीते 1, जून की शाम एनडीटीवी 24×7  जैसे संजीदा माने जाने वाले अंगरेजी न्यूज़ चैनल पर ‘लेफ्ट ऱाइट एंड सेंटर’ जैसे गंभीर कार्यक्रम की स्टार प्रस्तोता और सत्ताधारी दल के एक प्रमुख प्रवक्ता के बीच तीखी तकरार इस मायने में कुछ अलग थी कि आमतौर पर उक्त चैनल के स्टूडियो में देश के ज्यादातर हिन्दी-अंगरेजी चैनलों के स्टूडियो की तरह उत्तेजक-भड़काऊ बहसों को तरजीह नहीं दी जाती है.

लेकिन शायद अब कुछ बेहतर अपवाद भी ध्वस्त होते नजर आ रहे हैं. क्या ऐसे में यह जरूरी नहीं कि न्यूज़ चैनल अपने कंटेट ख़ासतौर पर स्टूडियो-डिस्कसन के रूप(फार्मेट) को लेकर गंभीरतापूर्वक विचार करें!

दुखद है कि एनडीटीवी 24×7  प्रकरण के बाद जो चर्चा न्यूज़ चैनलों के कंटेट और स्टूडियो की बहसों के रूप या कलेवर पर होनी चाहिये थी, वह ले-देकर फिर ‘कम्युनल-सेक्युलर खेमे’ की प्रतिद्वन्द्विता आधारित पारंपरिक चर्चा की तरफ मुड़ गई.

सोशल मीडिया में दोनों खेमे एक-दूसरे पर आग उगल रहे हैं. ‘उदारपंथी’ और ‘मध्य-वाम रूझान’ वाले अनेक लोगों ने एनडीटीवी की स्टार एंकर का पुरजोर समर्थन करते हुए भाजपा प्रवक्ता के आचरण को 1 जून की टीवी चर्चा में हुई तीखी तकरार के लिये जिम्मेदार ठहराया है और उनकी जमकर निंदा की है.

बहुत सारे लोगों ने इस बात पर खुशी जाहिर की है कि ‘बहादुर और साहसी’ एंकर ने ‘असंगत किस्म की बहसबाजी’ के लिये चर्चित भाजपा के उक्त प्रवक्ता को ‘वाजिब भाषा में जवाब’ दिया या कि ‘बहस के दौरान दूसरों को रोकने की उनकी ख़ास अदा’ पर कड़ा रूख अपनाया.

सोशल मीडिया में कुछ लोगों ने यह भी कहा कि चर्चा के दौरान स्टूडियो में अप्रिय स्थिति पैदा होने पर किसी एंकर द्वारा किसी मेहमान को चर्चा से ‘बाहर होने’ या ‘अपने आचरण के लिये माफी मांगने’ की बात कहना सर्वथा अनुचित था. इससे एंकर के कौशल और बहस-संयोजन की क्षमता पर सवाल उठते हैं.

मेरा सवाल है,न्यूज़ चैनलों की स्टूडियो-बहसों में ऐसी स्थितियां पैदा ही क्यों हो रही हैं? इसके लिये कोई ख़ास स्थिति जिम्मेदार है, एंकर-मेहमान जिम्मेदार हैं या टीवी चर्चा का यह फार्मेट जिम्मेदार है?

खबर हो या बहस, रिपोर्टिंग हो या दर्शक-आधारित शो, हमारे ज्यादातर न्यूज़ चैनलों में उग्र-उत्तेजक विचारों-भाषा का बोलबाला बुरी तरह बढ़ा है. सड़क की झगड़ालू और उग्रता भरी भाषा हिन्दी चैनलों के पर्दों पर धड़ल्ले से दिखती है.

पर्दे की यही भाषा ज्यादा उग्र होकर फिर सड़क पर लौटती है. सड़क और टीवी, एक-दूसरे से सीख रहे हैं और एक-दूसरे को सिखा रहे हैं. पिछले दिनों हमने देखा, चुनाव के दौरान उत्तेजक और असयंमित भाषा का प्रयोग करने वाले नेताओं को एक तरफ मीडिया में कोसा जा रहा था लेकिन दूसरी तरफ उन्हें बढ़ा-चढाकर दिखाया और सुनाया भी जा रहा था.

इस प्रक्रिया में उनका कद भी बढ़ रहा था. यह महज संयोग नहीं कि इनमें कई अनजान से लोग राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गए. कुछ राज्यों में मंत्री तक बन गये. अपने टीवी चैनलों में कभी कश्मीर, भारत-पाक या भारत-चीन के रिश्तों, गौ-रक्षा, लव-जिहाद या मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दों पर बहस होती है तो स्टूडियो का माहौल युद्धमय हो जाता है.

ऐसा लगता है, शब्दों के गोले चल रहे हैं. अब आम राजनीतिक बहसों में भी माहौल युद्धमय होता जा रहा है. सियासत, समाज और मीडिया में उत्तेजक भाषा और विचार बड़ी जगह पा रहे हैं.

लोग आमतौर पर टीवी की ऐसी बहसों को पसंद नहीं करते. पर यह भी सच है कि दर्शकों का बड़ा हिस्सा ऐसी बहसों को देखने से बाज नहीं आता. इसकी बड़ी वजह है विकल्प का अभाव. ज्यादातर चैनलों पर स्टूडियो की बहसों का एक सा रूप(फार्मेट) है.

बहस चाहे कश्मीर पर हो या गौ-रक्षकों के उपद्रव पर, भारत-पाकिस्तान रिश्ते पर हो या चीन के नये और महत्वाकांक्षी अंतरराष्ट्रीय प्रकल्प-‘वन बेल्ट-वन रोड’ पर, गाय-भैंसों आदि की खरीद-फरोख्त या स्लाटर-हाउसेज से जुड़ी अधिसूचना पर हो, जीएसटी पर हो या यूपी में योगी-राज पर या राजनीति में धर्म के बढ़ते दखल पर-ऐसे हर विषय पर होने वाली टीवी बहसों में कम से कम दो राजनीतिक दलों (भाजपा और कांग्रेस) के प्रवक्ता और एक आरएसएस या हिन्दुत्व विचारक की मौजूदगी इन दिनों तयशुदा सी है.

चर्चा के इस फॉर्मेट को लेकर भारतीय न्यूज़ चैनलों के बीच लगभग सहमति नजर आती है. ऐसा क्यों? आखिर स्टूडियो की बहसों का यह रूप(फॉर्मेट) चैनलों में सर्व-स्वीकार्य कैसे हो गया?

बीबीसी, सीएनएन, अल-जजीरा या दुनिया के अन्य विकसित मुल्कों के ज्यादातर न्यूज़ चैनलों में होने वाली चर्चा में विषय के विशेषज्ञों की मौजूदगी पर जोर दिया जाता है. आमतौर पर मजमा-बटोरू स्टूडियो चर्चाएं भारत के अलावा दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश के चैनलों में इतने वीभत्स रूप में नजर नहीं आतीं.

हमारे यहां तो कई-कई चैनल रोजाना शाम की अपनी स्टूडियो चर्चाओं में एक साथ दस-दस मेहमान रखकर एक-दूसरे पर चीखने-चिल्लाने का मौका मुहैया कराते हैं. पूरा ‘शो’ तमाशा बन जाता है.

एक ‘महाबली एंकर’, जो स्टूडियो से उठती अपनी आवाज को सरहद पार पहुंचाने का कोई मौका खोना नहीं चाहते, आये दिन अपने से असहमत किसी न किसी मेहमान या कथित विशेषज्ञ को ‘लाइव बहस’ छोड़कर चले जाने का हुक्म तक सुनाते रहते हैं.

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(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

अपने यहां असंख्य लोग इस तथ्य से वाकिफ हो चुके हैं कि किसी विषय को ‘ट्रिवियलाइज’ करके स्टूडियो में चालीस या पचास मिनट के लिये एक अजीब किस्म का कृत्रिम उत्तेजक-भड़काऊ माहौल पैदा करने वालों को सिर्फ अपनी ‘रेटिंग’ की परवाह है, देश, समाज और सभ्यता की नहीं. लेकिन यह बात अभी तक लोगों की समझ से बाहर है कि जो संजीदा और समझ वाले मीडिया संस्थान या मीडियाकर्मी हैं, वे इस जंजाल में क्यों फंसते दिखते हैं!

आखिर किसी बड़ी घटना, शासन के किसी फैसले या उस समय के किसी बड़े सामाजिक-राजनीतिक सवाल पर दर्शकों-श्रोताओं के लिये क्या जरूरी है या उनकी क्या वरीयता होती है? उन सवालों या मुद्दों पर विशेषज्ञों या जानकारों की राय या विश्लेषण सुनना. उनकी सबसे बड़ी अपेक्षा यही होती है.

जाहिर है, यह दलीय प्रवक्ताओं की तू-तू-मैं-मैं से नहीं मिलने वाला. फिर संजीदा और शालीन कहे जाने वाले चैनल भी हर विषय पर दलीय प्रवक्ताओं की भीड़ क्यों इकट्ठा करना चाहते हैं? क्या वे राजनीतिक दलों, ख़ासकर सत्ताधारी दल को हर मुद्दे पर अपना फोरम मुहैया कर खुश रखने की कोशिश करते हैं?

हाल के दिनों में चैनलों की बहसों में एक और ख़ास प्रवृत्ति देखी जा रही है. गैर-गंभीर और ‘चिल्ला-चिल्ली किस्म’ के चैनलों की उत्तेजक सायंकालीन चर्चाओं में अक्सर मौजूद रहने वाले अत्यंत विवादास्पद चरित्रों, यहां तक कि हिंसा और उपद्रव के नामजद अभियुक्तों को भी संजीदा और अपेक्षाकृत शालीन कहे जाने चैनल आमंत्रित करने लगे हैं.

इससे गैर-गंभीर और स्तरहीन किस्म की नोंकझोक और तकरार करने वालों का एक तरह से महिमामंडन हुआ है. बीते शनिवार को ही एनडीटीवी के ‘बिग फाइट’ कार्यक्रम का उदाहरण देना प्रासंगिक होगा. इसमें दो ऐसे विवादास्पद चरित्र विशेषज्ञ के तौर पर आमंत्रित थे, जो कुछ शोर-मचाऊ चैनलों के ‘स्थायी मेहमान’ हैं.

इनमें एक गौरक्षक दल की बेहद विवादास्पद नेत्री और दूसरा ऐसा व्यक्ति, जो अपने से असहमत लोगों को शोर मचाकर चुप कराने के विशेषज्ञ के तौर पर जाना जाता है.

‘टीवी चर्चाओं में मेहमान’ के तौर पर इन महाशय की खोज का श्रेय उन्हें जाता है, जो अपने पुराने चैनल को छोड़कर हाल ही में नया अंगरेजी चैनल लेकर आये हैं. मेरा साधारण सा सवाल है-क्या भारतीय दक्षिणपंथी राजनीति के पास अपेक्षाकृत संजीदा चेहरे बिल्कुल नहीं हैं कि संजीदगी को अपना गुण बताने वाले चैनल भी उग्र किस्म के लोगों को ही अपने स्टूडियो की चर्चाओं में विशेषज्ञ के तौर पर पेश करें?

मुझे लगता है, फिलहाल दो पहलुओं पर गंभीर चर्चा होनी चाहिये कि हर टीवी बहस में दलीय-प्रवक्ताओं की उपस्थिति क्यों स्थायी सी हो गई है? जरूरत के हिसाब से वह क्यों न तय हो! उनके मुकाबले ज्यादा जोर चर्चा के विषय के जानकार या उक्त विषय के विशेषज्ञों की उपस्थिति सुनिश्चित करने पर क्यों न जोर हो!

दूसरा पहलू-टीवी चर्चा को उग्र मिजाज या अभद्र भाषा वाले लोगों की मौजूदगी से कैसे बचाया जाय! चैनलों को अपनी चर्चा के मौजूदा फार्मेट और परिपाटी पर गंभीर चर्चा करने की जरूरत है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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