‘मोदी सरकार का हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा था, लेकिन मिलीं सिर्फ़ 1.37 लाख’

'उत्पादन इकाइयां, कारखाने तेज़ी से बंद हो रहे हैं. अकेले महाराष्ट्र में 48 हज़ार फैक्टरियां बंद हुई हैं. अर्थव्यवस्था गहरे संकट से गुज़र रही है. रोज़गार के अवसर घट रहे हैं. कोई निवेश हो नहीं रहा है.'

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‘उत्पादन इकाइयां, कारखाने तेज़ी से बंद हो रहे हैं. अकेले महाराष्ट्र में 48 हज़ार फैक्टरियां बंद हुई हैं. अर्थव्यवस्था गहरे संकट से गुज़र रही है. रोज़गार के अवसर घट रहे हैं. कोई निवेश हो नहीं रहा है.’

Narendra Modi

रोज़गार के अवसरों में वृद्धि नहीं होने पर विपक्षी दलों एवं श्रमिक संगठनों के नेताओं ने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि विकास की गलत अवधारणा के कारण समाज के एक बड़े तबके की क्रय शक्ति लगातार घटती जा रही है तथा सरकार को औद्योगिक उत्पाद बढ़ाने पर बल देना चाहिए. विपक्ष का आरोप है कि नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव के दौरान वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार देंगे. लेकिन नरेंद्र मोदी शासनकाल में एक वर्ष में मात्र 1.37 लाख रोज़गार के अवसर उत्पन्न हुए हैं.

सीटू के महासचिव तपन सेन ने कहा कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के शासनकाल में देश में रोज़गार की स्थिति बहुत ही ख़राब हो गई है. श्रम बहुल क्षेत्रों में भी रोज़गार के अवसर घट रहे हैं. उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में साल भर में यदि मात्र डेढ़-दो लाख रोज़गार उत्पन्न हो रहे हो तो यह बहुत ही चिंता की बात है.

उन्होंने कहा कि उत्पादन इकाइयां, कारखाने तेज़ी से बंद हो रहे हैं. अकेले महाराष्ट्र में 48 हज़ार फैक्टरियां बंद हुई हैं. ऐसी स्थिति में आंकड़ों में जो विकास दिखाई दे रहा है, वह भी ग़लत अवधारणा है. विनिर्माण क्षेत्र में आपका विकास नीचे जा रहा है. बस कृषि उत्पादन थोड़ा बेहतर अवश्य हुआ है किंतु उससे किसानों को कोई लाभ नहीं मिला है. ऐसे में सरकार विकास के जो आंकड़े पेश कर रही है उसका क्या अर्थ है?

माकपा के राज्यसभा सदस्य सेन ने कहा कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट से गुज़र रही है. कोई निवेश हो नहीं रहा है. कोई नई फैक्टरी लग नहीं रही है. ऐसे में रोज़गार के अवसर कैसे उत्पन्न हो सकते हैं. बैंकों से संस्थागत ऋण लेने की मात्रा कम हुई है.

उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था की बुनियादी विसंगति को समझने की ज़रूरत है कि देश की 58 प्रतिशत संपत्ति एक प्रतिशत आबादी के पास चली गई है. इसका अर्थ है कि ज़मीनी स्तर पर ग़रीबी बढ़ रही है. जब ग़रीबी बढ़ेगी तो लोगों की क्रय शक्ति घटेगी. लोगों का सारा पैसा खाने में ही निकल जा रहा है. फिर वे जब बाक़ी चीज़ नहीं ख़रीदेंगे तो बाज़ार पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था कैसे आगे बढ़ेगी. ऐसे में रोज़गार में कमी आना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है.

यह पूछे जाने पर कि हाल में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गत वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में विकास दर में गिरावट आने के लिए विदेशी कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया था, क्या आप इससे सहमत हैं, सीटू महासचिव सेन ने कहा, यह बात सही है कि वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था में एक शिथिलता तो है. किंतु यह स्थिति कोई आज से तो है नहीं. वर्ष 2008 से वैश्विक अर्थव्यवस्था में यह स्थिति बनी हुई है. उसमें कोई बदलाव नहीं हो रहा है.

उन्होंने कहा कि वैश्विक स्तर पर भी लोगों की क्रय शक्ति घटी है. बडे़ बड़े देशों में भी बाज़ार का आकार सिकुड़ रहा है. रोज़गार के अवसर घट रहे हैं. हमारी नरेंद्र मोदी सरकार ने उदारीकरण के नाम पर विकसित देशों के लिए हमारे बाज़ारों को पूरी तरह खोल दिया है. यह एक दुष्चक्र है. वित्त मंत्री यदि विदेशी कारकों की बात कर रहे हैं तो वह कारण हो सकता है. किंतु हमारी अर्थव्यवस्था में मंदी के लिए सिर्फ़ उसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.

वित्त वर्ष 2016-17 की जनवरी-मार्च तिमाही में जीडीपी विकास दर के घटकर 6.1 प्रतिशत रह जाने का उल्लेख करते हुए कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी ने संवाददाताओं से कहा था कि सरकार ने जब पिछले वर्ष नवंबर में नोटबंदी के फ़ैसले की घोषणा की थी, तभी कांग्रेस एवं अर्थशास्त्र के जानकारों ने इस फ़ैसले के कारण विकास दर में गिरावट आने के प्रति आगाह किया था.

सिंघवी ने कहा कि आज देश की यह स्थिति है कि किसानों को अपने फल, सब्जियां और दूध सड़क पर फेंकने को मजबूर होना पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि देश का किसान इतनी संकटपूर्ण परिस्थितियों से गुज़र रहा है और प्रधानमंत्री पूरी तरह से मौन साधे हुए हैं.

उन्होंने कहा कि हाल में विनिर्माण क्षेत्र के आंकड़ों को जारी किया गया है और कोई आश्चर्य नहीं है कि वे तीन माह के निचले स्तर पर हैं. वास्तव में जब से भाजपा सरकार सत्ता में आई है, औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में निरंतर गिरावट आ रही है.

कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य सिंघवी ने कहा कि भाजपा ने सत्ता में आने से पहले हर साल रोज़गार के दो करोड़ अवसर उत्पन्न करने की बात कही थी. किंतु वास्तविकता यह है कि नरेंद्र मोदी शासनकाल में एक वर्ष में मात्र 1.37 लाख रोज़गार के अवसर उत्पन्न हुए हैं.

भारतीय मजदूर संघ के महासचिव विरजेश उपाध्याय हालांकि विकास दर में गिरावट आने का रोज़गार के अवसरों से कोई सीधा संबंध नहीं मानते. उन्होंने कहा कि वास्तव में हमारा मानना है कि जीडीपी से विकास या घाटे का कोई लेना देना नहीं है. हमारा मानना है कि यह जीडीपी की अवधारणा ही उचित नहीं है. विकास होता है, जीडीपी बढ़ जाता है किंतु ग़रीबी नहीं घटती, रोज़गार नहीं बढ़ते.

उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद से हमने जो आर्थिक माडल अपनाया उसमें ही दोष है. हमारे आर्थिक ढांचे में जब तक आमूलचूल परिवर्तन नहीं आ जाता, तस्वीर नहीं बदल सकती. उन्होंने कहा कि रोज़गार के अवसर केवल भारत ही नहीं विश्व भर में घट रहे हैं और इसका कारण है बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था. अमेरिका ने अपना दरवाज़ा बंद किया. अन्य देश भी कुछ न कुछ कर रहे हैं. सब इससे परेशान हैं.

उन्होंने कहा कि इस आर्थिक माडल में रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे, यह कल्पना ही बेमानी है. इस में यह कभी नहीं बढ़ सकते, किसी सरकार के आधीन नहीं बढ़ सकते.

औद्योगिक विकास दर घटने के बारे में पूछे जाने पर उपाध्याय ने कहा कि कई बार ज़रूरत से अधिक उत्पादन भी होता है. इसके अलावा ज़रूरत से ज़्यादा उदारीकरण है. इसका दुष्परिणाम हुआ है कि हमारी जलवायु बदल गई है. आज यदि घरेलू उपयोग की चीज़ों का उत्पादन बंद कर दिया जाए तो अगले पांच सालों तक इन वस्तुओं के उत्पादन की ज़रूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि इनका पहले ही उत्पादन हो चुका है. धन वहां डम्प पड़ा है. इसमें देश की संपदा वहां फंसी पड़ी है.

उन्होंने कहा कि इस जीडीपी का आम आदमी और विकास से कोई लेना देना नहीं है. हम प्रौद्योगिकी और मशीन के विरोधी नहीं हैं. किंतु जो काम मनुष्य कर सकता है वह मशीन से नहीं करवाया जाना चाहिए.

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