दिल्ली की सांप्रदायिक हिंसा के लिए नरेंद्र मोदी की राजनीति ज़िम्मेदार है

दिल्ली की हिंसा का कोई ‘हिंदू’ या ‘मुस्लिम’ पक्ष नहीं है, बल्कि यह लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की एक घृणित सियासी चाल है. 2002 के दंगों ने भाजपा को गुजरात में अजेय बना दिया. गुजरात मॉडल के इस बेहद अहम पहलू को अब दिल्ली में उतारने की कोशिश ज़ोर-शोर से शुरू हो गई है.

//
फोटो: शोम बसु

दिल्ली की हिंसा का कोई ‘हिंदू’ या ‘मुस्लिम’ पक्ष नहीं है, बल्कि यह लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की एक घृणित सियासी चाल है. 2002 के दंगों ने भाजपा को गुजरात में अजेय बना दिया. गुजरात मॉडल के इस बेहद अहम पहलू को अब दिल्ली में उतारने की कोशिश ज़ोर-शोर से शुरू हो गई है.

फोटो: शोम बसु
फोटो: शोम बसु

दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधियों और सीएए समर्थकों या दो पक्षों के बीच सड़क पर हुई आपसी लड़ाई है- बड़े मीडिया संस्थानों द्वारा आगे बढ़ाए जा रहे इस नैरेटिव से किसी भ्रम में मत पड़िए. और भगवान के वास्ते गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी के इस हास्यास्पद दावे पर भी यकीन मत कीजिए कि दिल्ली में हुई हिंसा ‘भारत को बदनाम करने की साजिश’ है.

दिल्ली के दंगों में मरने वालों का आंकड़ा जबकि 40 से ऊपर पहुंच गया है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में सीएए का विरोध कर रहे औरतों और बच्चों पर- जिनमें से ज्यादातर मुस्लिम हैं- सनकी तरीके से हिंसा बरपाए जाने से पहले के 70 दिनों में राष्ट्रीय राजधानी पूरी तरह से शांत रही थी.

विभिन्न जगहों पर हुए 70 दिनों के इन शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के दौरान किसी गिरोहबंद भीड़ ने कोई उपद्रव नहीं किया, कहीं पत्थरबाजी नहीं हुई, दुकानों और घरों को जलाने की घटना नहीं देखी गयी. हमारे सामने सिर्फ हाथों में तिरंगा और संविधान की प्रस्तावना लिए आंबेडकर, महात्मा गांधी और मौलाना आजाद जैसे महापुरुषों की तस्वीरों की सोहबत में धरना पर बैठे लोगों की तस्वीरें आयीं.

सवाल है कि आखिर फिर शहर में अचानक हिंसा की लपटें कैसे उठ गयीं? कौन ऐसा चाहता था? किसने ऐसा होने दिया? अब तक यह यह बिल्कुल साफ हो चुका है कि पिछले दिनों की हिंसा और सांप्रदायिक दंगे साफ तौर पर भाजपा नेता कपिल मिश्रा द्वारा दिल्ली पुलिस के सामने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ प्रत्यक्ष कार्रवाई के आह्वान के बाद हुए.

केंद्रीय गृहमंत्री को रिपोर्ट करने वाली दिल्ली पुलिस न सिर्फ आग भड़काऊ भाषणों पर बल्कि इसके बाद फैली हिंसा पर भी लगाम लगाने में नाकाम रही. मिश्रा के शब्दों से उत्तेजित होकर हिंदुत्ववादियों और बलवाइयों के गिरोहों ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के एक सीएए विरोधी धरनास्थल पर हमला कर दिया और इस तरह से आत्मरक्षा के नाम पर हिंसा करने का सलवा जुडूम का मॉडल दिल्ली की धरती पर अवतरित हो गया.

एक स्वतंत्र जांच से निश्चित तौर पर यह पता चलेगा कि आखिर उपद्रवी भीड़ को एकत्र करने के पीछे किसका हाथ था क्योंकि ऐसे गिरोह खुद-ब-खुद तैयार नहीं होते. अनुमान है कि अपने ऊपर हमला होने पर प्रदर्शनकारियों ने- जो पिछले कई दिनों से शांतिपूर्ण धरने पर बैठे हुए थे- जवाबी कार्रवाई की. लेकिन यह मामला यहीं समाप्त हो जाता अगर दिल्ली पुलिस ने अपना और केंद्रीय गृहमंत्री ने अपना काम किया होता.

बड़े मीडिया ने सीएए विरोधी धरने पर एक हिंदुत्ववादी समूहों द्वारा जमा की गई दंगाई भीड़ के हिंसक हमले को सीएए समर्थक और सीएए विरोधियों के बीच लड़ाई’ के तौर पर पेश किया. लेकिन जो हो रहा था उसकी कुरूप सच्चाई उस शाम और अगले दिन तक उजागर हो गयी.

अगर जमा की गई भीड़ सिर्फ सीएए के समर्थन में थी, तो वे ‘हिंदुस्तान में रहना होगा, तो जय श्री राम कहना होगा’ जैसे नारे क्यों लगा रहे थे? यह साफ था कि हिंदुत्ववादी नेताओं द्वारा इकट्ठा किए गए दस्तों का मकसद दूसरा था- मुस्लिमों को डराना और उन पर हमला करना, पूरी दिल्ली को भय और असुरक्षा के कुहासे में लपेट देना और शहर ही नहीं पूरे देश का सांप्रदायिक आधार पर बंटवारा करना.

दिल्ली में लगी आग वास्तव में सांप्रदायिक दंगे की आग थी, यह मंगलवार को तब साफ हो गया जब उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों में मस्जिदों, मुसलमानों की दुकानों और मुसलमानों के घरों को निशाना बनाया गया.

बाबरी मस्जिद के विध्वंस से मिलते-जुलते एक दृश्य में कुछ उपद्रवी शाहदरा के अशोक नगर की बड़ी मस्जिद पर चढ़ गए, वहां भगवा झंडा फहरा दिया और मीनार के हिस्सों को तोड़ने की कोशिश की. इसके बाद उन्होंने मस्जिद में आग लगा दी.

मेरे सहकर्मी नाओमी बार्टन और अविचल दुबे अशोक नगर में थे ओर उन्होंने मस्जिद की तोड़-फोड़ पर एक फौरी रिपोर्ट भेजी. ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भाजपा समर्थकों ने इस खबर के फर्जी होने का दावा किया. गृह राज्यमंत्री जी. किशन रेड्डी ने उन न्यूज प्लेटफार्मों पर कार्रवाई करने की मांग की, जिन्होंने उनके मुताबिक ‘फर्जी खबरों’ का प्रकाशन किया था.

अशोक नगर की मस्जिद. (फोटो: द वायर)
अशोक नगर की मस्जिद. (फोटो: द वायर)

जाहिर है मोदी सरकार की छत्रछाया में दिल्ली में जो हो रहा था, उसकी बदसूरत सच्चाई से इनकार करने की कोशिश ज्यादा समय तक कामयाब नहीं हुई. आखिर द वायर  के संवाददाताओं ने वैसे वीडियो फुटेज जारी किए थे, जिनके वे खुद चश्मदीद थे.

बाद में यह पता चला कि मुस्तफ़ाबाद में भी मस्जिदों पर हमला किया गया और उन्हें जलाया गया. इससे भी खराब यह था कि गरीब कामगार मुस्लिम परिवारों के छोटे-छोटे घरों को भी जय श्री राम के नारे लगानेवाले नकाबपोश गुंडों ने तबाह कर दिया.

मेरे सहकर्मी रघु कर्नाड ने उनके हिंदू पड़ोसियों से बात की जिन्होंने इसकी गवाही दी और यह भी बताया कि आगजनी करनेवालों ने उन्हें भी जय श्री राम का नारा नहीं लगाने की सूरत में जान से मारने की धमकी दी.

अगर किसी को अब भी लगता है कि सरकार और पुलिस की मंशा सही थी और वे भारत को बदनाम करने की अविश्वसनीय साजिश से लड़ रहे थे, तो रात 1:42 बजे दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बाद उनका हर भ्रम दूर हो जाना चाहिए.

दंगे के शिकार करीब 20 लोग मुस्तफाबाद के एक छोटे से अस्पताल -अल-हिंद हॉस्पीटल- में घायल स्थिति में भर्ती थे, जिन्हें उचित इलाज के लिए सरकारी अस्पताल गुरु तेग बहादुर अस्पताल लेकर जाने की जरूरत थी.

अल हिंद अस्पताल के डॉक्टर 4 बजे से ही मरीजों को सही सलामत निकालने के लिए पुलिस से एंबुलेंसों को एस्कॉर्ट मुहैया कराने मी मांग कर रहे थे, क्योंकि हिंदुत्ववादी गिरोह से उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थीं. लेकिन दुखद ढंग से पुलिस ने उनकी कोई मदद नहीं की.

हताश होकर उन्होंने एक वकील की मदद से हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और जस्टिस मुरलीधर ने अपने घर में ही बुलाई गई विशेष अदालत में मामले की सुनवाई की और पुलिस को घायल लोगों को सुरक्षित बाहर निकालने का इंतजाम करने का आदेश दिया.

1984 और 2002 से 2020 तक

जस्टिस मुरलीधर ने बुधवार की दोपहर को भाजपा नेताओं के भड़काऊ भाषणों पर संज्ञान तक लेने में नाकाम रहने के लिए दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई. उन्हें मालूम था कि वे क्या कर रहे हैं.

आखिर वे वही जज थे, जिन्होंने 1984 के सिख नरसंहार के लिए कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को जेल भेजा था. और शायद यही वजह थी कि केंद्र ने तत्काल पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में उनके तबादले की अधिसूचना जारी कर दी.

क्या तीन दिनों तक दिल्ली में जो हुआ, उसमें और सांप्रदायिक हिंसा की पिछली घटनाओं में कोई समानता है? हां है. राजधानी में यह सब 1984 में देखा था जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसनीत सरकार की छत्रछाया में हजारों सिखों का कत्लेआम हुआ था.

हो सकता है कि राजीव गांधी तथाकथित तौर पर ‘अनुभवहीन’ रहे हों, लेकिन उनके गृहमंत्री नरसिम्हा राव कोई नौसिखिया नहीं थे और दिल्ली पुलिस के पास अच्छा-खास अनुभव था. लेकिन फिर भी उन्होंने 3,000 से ज्यादा लोगों का कत्लेआम होने दिया.

2002 में नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री के तौर पर उस राज्य सरकार का नेतृत्व कर रहे थे, जिसने जिन्होंने हिंदुत्ववादी दंगाइयों के हाथों एक हजार से ज्यादा मासूम मुसलमानों की हत्या होने दी. 1984 और 2002 में पुलिस हिंसा की मूकदर्शक बनी रही क्योंकि उसे मालूम था कि दंगाई भीड़ को सत्ताधारी दल का वरदहस्त हासिल है. 2020 की दिल्ली इससे अलग नहीं है.

A man is beaten during a clash between people supporting a new citizenship law and those opposing the law in New Delhi, India, February 24, 2020. Picture taken February 24, 2020. REUTERS/Danish Siddiqui
24 फरवरी 2020 को उत्तर पूर्वी दिल्ली में उपद्रवी. (फोटो: रॉयटर्स)

खून में फैला जहर

लोग यह सवाल पूछ सकते हैं कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भाजपा एक ऐसे समय में हिंसा होने की इजाजत क्यों देंगे, जब वे डोनाल्ड ट्रंप की मेजबानी कर रहे थे?

संयोग की बात है कि कांग्रेस सरकार को भी उस समय जब दुनियाभर के नेता इंदिरा गांधी की अंत्येष्टि के लिए दिल्ली में जमा हुए थे, दिल्ली की सड़कों पर जातीय नरसंहार की नुमाइश करने से कोई दिक्कत नहीं हुई. फिर भी यह सवाल अपनी जगह पर बनता है कि आखिर क्यों मोदी एंड कंपनी अपने ही आयोजन को नुकसान पहुंचाना चाहेंगे?

इसका जवाब बहुत आसान है. क्या आपको मेंढक और बिच्छू की याद है? एक मेंढक एक बिच्छू को नदी पार कराने में मदद करता है, लेकिन वह बिच्छू उस मेंढक को ही डंक मार देता है. जब दोनों डूबने लगते हैं, तो मेंढक चिल्लाता है कि तुमने मुझे डंक क्यों मारा? अब हम दोनों मर जाएंगे. तब बिच्छू अपना कंधा उचकाते हुए कहता है, मैं क्या कर सकता हूं, यह मेरे स्वभाव में है.

तथ्य यह है ध्रुवीकरण की राजनीति भाजपा के स्वभाव में है और भले यह सांप्रदायिक जहर भारत के लिए एक शर्मिंदगी का सबब बन जाए, लेकिन वे इससे बाज नहीं आ सकते हैं.

मोदी और शाह के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा साल में एक बार होने वाला कार्यक्रम है, लेकिन सियासत, चुनाव प्रचार और वोट बैंक का निर्माण एक निरंतर चलने वाली और कभी न ख़त्म होने वाली परियोजना है.

हाल में संपन्न हुआ दिल्ली विधानसभा चुनाव एक स्पष्ट सांप्रदायिक एजेंडे पर लड़ा गया. उन्होंने ऐसे चुनावी विज्ञापन दिए, जो खुले तौर पर सांप्रदायिक किस्म के थे. भाजपा नेताओं ने सोशल मीडिया पर खुलकर मुस्लिम विरोधी मीम्स और तस्वीरें साझा किए.

इन शब्दों और तस्वीरों का एक स्थायी संदेश यह था कि मुसलमान गद्दार हैं और गद्दारों को गोली मार देनी चाहिए. भाजपा के लिए दुर्भाग्य की बात यह रही कि दिल्ली के मतदाता इस नफरत भरे अभियान के झांसे में नहीं आए और भले भगवा पार्टी के वोट शेयर में कुछ प्रतिशत का इजाफा हुआ, लेकिन फिर भी इसे आम आदमी पार्टी के हाथों करारी शिकस्त झेलनी पड़ी.

लेकिन अपने सांप्रदायिक एजेंडे पर आम आदमी पार्टी की चुप्पी में भाजपा को एक सियासी संभावना दिखाई दी.

पार्टी के स्थानीय नेताओं ने यह हिसाब लगाया कि अगर हम मुस्लिमों के खिलाफ एक आक्रामक अभियान चलाते हैं और एक सांप्रदायिक दंगा भड़काते हैं, तो आम आदमी पार्टी इसका जवाब देने में समर्थ नहीं पाएगी क्योंकि यह हिंदुत्व परिवार की मुस्लिम विरोधी भाषणबाजी पर नहीं उतर सकती और न इसका आक्रामक तरीके से विरोध कर सकती हैं. और इस तरह से एक ध्रुवीकृत माहौल में भाजपा एक बार फिर अपनी फ्रंट फुट पर खेल सकती है.

भाजपा और संघ परिवार के यहां कुछ भी संयोग नहीं होता है. न ही वे कभी अपने दूरगामी लक्ष्यों को आंखों से ओझल होने देते हैं. संघ परिवार का हर काम सुविचारित और सुनियोजित होता है और हर व्यक्ति और संगठन की भूमिका तय होती है, जिसे हर किसी को अनिवार्य तौर पर निभाना होता है.

2020 के सांप्रदायिक दंगे बचे हुए भाजपा शासित राज्यों और जाहिर तौर पर केंद्र में अपनी सत्ता को बचाने के भाजपा के अभियान की शुरुआत भर है. ऐसे में जबकि अर्थव्यवस्था में सुधार का कोई संकेत नहीं है, सत्ताधारी दल में फैल रही हताशा का खामियाजा दिल्ली की जनता को चुकाना पड़ा है.

इस हिंसा का कोई ‘हिंदू पक्ष’ या ‘मुस्लिम पक्ष’ नहीं है, बल्कि यह लोगों को सांप्रदायिक आधार पर बांटने की एक घृणित सियासी चाल है. 2002 के दंगों ने भाजपा को गुजरात में अजेय बना दिया. गुजरात मॉडल के इस बेहद अहम पहलू को अब दिल्ली में उतारने की कोशिश जोर-शोर से शुरू हो गयी है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/pkv-games/ https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/bandarqq/ https://arch.bru.ac.th/wp-includes/js/dominoqq/ https://ojs.iai-darussalam.ac.id/platinum/slot-depo-5k/ https://ojs.iai-darussalam.ac.id/platinum/slot-depo-10k/ https://ikpmkalsel.org/js/pkv-games/ http://ekip.mubakab.go.id/esakip/assets/ http://ekip.mubakab.go.id/esakip/assets/scatter-hitam/ https://speechify.com/wp-content/plugins/fix/scatter-hitam.html https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/ https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://www.midweek.com/wp-content/plugins/fix/dominoqq.html https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/ https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://betterbasketball.com/wp-content/plugins/fix/dominoqq.html https://naefinancialhealth.org/wp-content/plugins/fix/ https://naefinancialhealth.org/wp-content/plugins/fix/bandarqq.html https://onestopservice.rtaf.mi.th/web/rtaf/ https://www.rsudprambanan.com/rembulan/pkv-games/ depo 20 bonus 20 depo 10 bonus 10 poker qq pkv games bandarqq pkv games pkv games pkv games pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games dominoqq bandarqq pkv games bandarqq dominoqq