वो दस कारण जिनके चलते ज्योतिरादित्य सिंधिया ने छोड़ी कांग्रेस

सिंधिया लंबे समय से प्रदेश की राजनीति में अपनी अनदेखी के चलते नाराज चल रहे थे. यह नाराजगी कांग्रेस की सरकार बनने से पहले से थी.

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सिंधिया लंबे समय से प्रदेश की राजनीति में अपनी अनदेखी के चलते नाराज चल रहे थे. यह नाराजगी कांग्रेस की सरकार बनने से पहले से थी.

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ज्योतिरादित्य सिंधिया. (फोटो साभार: फेसबुक)

पूर्व केंद्रीय मंत्री और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. यह फैसला उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से मंगलवार को प्रधानमंत्री कार्यालय में हुई मुलाकात के बाद लिया है. उन्होंने 9 मार्च को ही इस्तीफा दे दिया था लेकिन मोदी और शाह से मुलाकात के बाद इसे सार्वजनिक अगले दिन किया.

इससे पहले सोमवार से ही खबरें आ रही थीं कि मध्य प्रदेश सरकार में मौजूद सिंधिया खेमे के मंत्री और विधायक लापता हो गये हैं, उनसे संपर्क नहीं हो पा रहा है. तब से ही कयास लगाए जा रहे थे कि सिंधिया इस बार आर-पार के मूड में हैं. सिंधिया के रुख को देखते हुए प्रदेश की कांग्रेस सरकार, कांग्रेस और भाजपा दोनों दल भोपाल से दिल्ली तक सक्रिय हो गये थे.

सिंधिया के इस्तीफा देते ही उनके समर्थक 19 विधायक, जिनमें छह मंत्री भी शामिल हैं, जो कि बेंगलुरू के एक होटल में ठहरे हुए थे, उन्होंने भी अपने-अपने इस्तीफे सार्वजनिक कर दिए हैं.

गौरतलब है कि सिंधिया लंबे समय से प्रदेश की राजनीति में अपनी अनदेखी के चलते नाराज चल रहे थे. यह नाराजगी कांग्रेस की सरकार बनने से पहले से थी. लेकिन, सिंधिया फिर भी अनदेखी रूपी जहर का घूंट पीते रहे. पार्टी विधानसभा चुनाव जीती, तब भी मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर विवाद की स्थिति बनी थी.

बहरहाल, इसी महीने होने वाले राज्यसभा चुनावों में पार्टी द्वारा उनकी अनदेखी ने उनकी नाराजगी और बढ़ा दिया. यहां हम उन 10 कारणों का जिक्र कर रहे हैं जिनके चलते सिंधिया ने कांग्रेस से पल्ला झाड़ लिया.

1. विधानसभा चुनावों में सिंधिया को नजरअंदाज करके कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष बना देना

2018 के विधानसभा चुनावों से छह माह पहले कांग्रेस ने कमलनाथ को मध्य प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर दिल्ली से मध्य प्रदेश भेज दिया था. उस समय पूरी संभावना थी कि सिंधिया ही प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाएंगे क्योंकि पिछले विधानसभा चुनावों (2013) में सिंधिया ने ही पार्टी के चुनाव प्रचार अभियान की कमान संभाली थी. लेकिन, जब प्रदेश की राजनीति से वास्ता न रखने वाले कमलनाथ को राज्य में प्रदेशाध्यक्ष बनाकर भेजा गया तो सिंधिया को यह रास नहीं आया था. पर तब पार्टी ने चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाकर उन्हें मना लिया था.

2. टिकट वितरण में अनदेखी 

विधानसभा चुनावों में जब टिकट वितरण की बात आई, तब भी सिंधिया को अपने चहेतों को टिकट दिलाने के लिए खूब संघर्ष करना पड़ा था. उनके एक-एक टिकट पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अड़ंगा लगाया था. जिसके चलते दोनों नेताओं में कांग्रेस आलाकमान के सामने ही बहस की स्थिति पैदा हो गई थी और सिंधिया बैठक छोड़कर चले गये थे. कमलनाथ और दिग्विजय दोनों ही नहीं चाहते थे कि सिंधिया खेमे के अधिक दावेदारों को टिकट मिले. दोनों को डर था कि अगर सिंधिया खेमे के अधिक विधायक जीतकर विधानसभा में पहुंचे तो सिंधिया का मुख्यमंत्री पद पर दावा मजबूत हो जाएगा. इसी के चलते कई सिंधिया समर्थकों का टिकट काटा गया.

3. चुनाव के बाद कांग्रेस का मुख्यमंत्री चेहरा बनाए जाने पर विवाद

टिकट वितरण में सिंधिया की भले ही पूरी तरह न चली हो, लेकिन फिर भी उनके समर्थक उम्मीदवारों ने चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया. सिंधिया के प्रभाव वाले ग्वालियर-चंबल अंचल में ही कांग्रेस ने 34 में से 27 सीटें अपने नाम की. पूरे प्रदेश से सिंधिया खेमे के 30 से अधिक नेता विधानसभा में विधायक बनकर पहुंचे. चंबल अंचल का यही प्रदर्शन कांग्रेस के लिए निर्णायक साबित हुआ और वह 114 विधायकों के साथ बहुमत की बाउंड्री पर जाकर खड़ी हो गई.

भाजपा का चुनाव प्रचार भी सिंधिया के विरोध के इर्द-गिर्द ही था. चुनावों में भाजपा ने लगातार सिंधिया को टार्गेट किया था और माफ करो महाराज, हमारा नेता शिवराजजैसे नारे उनके खिलाफ गढ़े थे. पूरे प्रचार के दौरान दिग्विजय को पर्दे के पीछे रखा गया था क्योंकि प्रदेश की जनता में दिग्विजय की छवि नकारात्मक थी. कमलनाथ भी जमीन पर उतने अधिक सक्रिय नहीं थे.

इन्हीं कारणों के चलते सिंधिया ने मुख्यमंत्री पद पर नजर बनाई रखी. लेकिन कमलनाथ ने कांग्रेस को बहुमत के करीब पाते ही दिग्विजय सिंह को सरकार बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी. दिग्विजय सिंह और सिंधिया घराने के बीच का विवाद बहुत पुराना है. इसलिए दिग्विजय ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए गोलबंदी शुरू कर दी. सिंधिया भी अड़ गये. उनके समर्थकों ने प्रदेश कांग्रेस कार्यालय के बाहर उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए नारेबाजी शुरू कर दी. करीब चार दिन तक संशय की स्थिति बनी रही और अंतत: राहुल गांधी ने कमलनाथ के सिर मुख्यमंत्री का ताज सजा दिया. दिग्विजय सिंह का इसमें अहम किरदार रहा.

पर्दे के पीछे के दो किरदार (कमलनाथ और दिग्विजय) फ्रंट में आ गये और चुनाव के दौरान जो सिंधिया फ्रंट में थे, उनको बैकस्टेज में भेज दिया गया.

4. समर्थक विधायकों को अहम मंत्रालय सौंपने में भी अनदेखी

प्रदेश की कांग्रेस सरकार में मंत्रियों की घोषणा भी लंबे समय तक टलती रही. विपक्षी भाजपा ने भी कांग्रेस पर इसे लेकर खूब कटाक्ष किए. मंत्रियों की घोषणा टलने का कारण कुछ अहम मंत्रालयों का आवंटन था. सिंधिया अपने समर्थक विधायकों के लिए शहरी विकास मंत्रालय, वित्त मंत्रालय जैसे अहम मंत्रालय चाहते थे, जबकि दिग्विजय और कमलनाथ मलाईदार मंत्रालय अपने समर्थकों को देने के पक्ष में थे. अंतत: वित्त, गृह, शहरी विकास, कृषि और चिकित्सा शिक्षा जैसे अहम मंत्रालय कमलनाथ और दिग्विजय समर्थक मंत्रियों को ही मिले.

5. प्रदेश अध्यक्ष का पद फिर भी नहीं दिया

इसके बाद चर्चा होने लगी कि सिंधिया को प्रदेशाध्यक्ष का पद देकर स्थापित किया जाएगा. उनके समर्थकों ने भी लगातार ऐसी मांग की. लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने तब यह कहकर नये प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा टाल दी कि लोकसभा चुनाव नजदीक है इसलिए सत्ता और संगठन के बीच तालमेल जरूरी है और कमलनाथ ही प्रदेशाध्यक्ष बने रहे. लेकिन लोकसभा चुनावों के बाद भी कांग्रेस ने प्रदेशाध्यक्ष नहीं बदला. सिंधिया को प्रदेशाध्यक्ष बनाने के लिए उनके समर्थकों ने पूरे प्रदेश में आंदोलन छेड़ दिया. धरना प्रदर्शन हुए और हस्ताक्षर अभियान चलाया. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी इस संबंध में पत्र लिखे गये.

लेकिन पार्टी में सिंधिया के नाम पर सहमति नहीं बन सकी. इसके पीछे कारण था कि दिग्विजय और कमलनाथ सिंधिया के रूप में प्रदेश की राजनीति में दखल नहीं चाहते थे. वे सत्ता और संगठन में अपनी पकड़ नहीं खोना चाहते थे.

6. सिंधिया कोटे के मंत्रियों की सुनवाई नहीं

सिंधिया कोटे से जो विधायक मंत्री बने थे, सरकार में उनकी सुनवाई नहीं होती थी. कई मौकों पर वे इस बात की शिकायत भी कर चुके थे. उन्हें अपने विभागों में मनमुताबिक अधिकारियों की तैनाती नहीं मिलती थी जिसके चलते विभागीय मंत्री की अपने मातहत अधिकारियों से अनबन बनी रहती थी. एक मौके पर अपनी अनदेखी के चलते प्रद्युमन सिंह तोमर तो मुख्यमंत्री तक से भिड़ गये थे.

7. सिंधिया के पत्रों पर सरकार में कार्रवाई तक नहीं होती थी

सिंधिया ने विभिन्न मौकों पर करीब दर्जन भर से अधिक पत्र कमलनाथ सरकार के नाम लिखे थे. जिनमें चंबल अंचल के विकास कार्यों की भी बात थी और प्रदेश की जनता से जुड़े अहम मुद्दों की भी. लेकिन उनके पत्रों पर सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं होती थी.

8. लोकसभा चुनावों में ग्वालियर सीट से न तो सिंधिया और न ही उनकी पत्नी को टिकट दिया

लोकसभा चुनाव 2019 में अपनी पारंपरिक गुना सीट से सिंधिया की हार हुई थी. लेकिन चुनावों से पहले टिकट वितरण के समय लगातार ऐसी चर्चाएं चल रही थीं कि सिंधिया इस बार सीट बदलकर ग्वालियर से चुनाव लड़ना चाहते हैं. इन चर्चाओं को बल इस बात से भी मिला था कि चुनावों के छह महीने पहले से सिंधिया लगातार ग्वालियर के विकास कार्यों में रुचि ले रहे थे. अफसर-अधिकारियों के साथ उनकी बैठकों का दौर चलता था. उनकी पत्नी भी चुनाव क्षेत्र में लगातार सक्रियता दिखा रही थीं. इसलिए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में उत्साह था कि सिंधिया या तो स्वयं ग्वालियर से लड़ेंगे या उनकी पत्नी.

कई मौकों पर मीडिया और कार्यकर्ताओं ने सिंधिया से यह सवाल भी किया लेकिन उन्होंने कभी इन संभावनाओं से इनकार नहीं किया. लेकिन टिकट वितरण के समय कमलनाथ ने प्रदेशाध्यक्ष के तौर कह दिया, बड़े नेताओं को कठिन सीट से ही चुनाव लड़ना होगा.

9. बार-बार अपनी अनदेखी से वे अपमानित महसूस कर रहे थे

सिंधिया के कांग्रेस के प्रादेशिक नेतृत्व से कैसे संबंध थे, इसे इस एक उदाहरण से समझिए. वे भोपाल में चार इमली स्थित एक सरकारी बंगला चाहते थे लेकिन वह बंगला सिंधिया को न देकर कमलनाथ के सांसद बेटे नकुलनाथ को दे दिया गया.

सिंधिया जब अपनी अनदेखी से नाराज थे और पार्टी को आईना दिखाने का काम कर रहे थे तो एक मौके पर भोपाल में जारी अतिथि विद्वानों के आंदोलन के समर्थन में उन्होंने सड़क पर उतरने की बात तक कह दी थी. इस पर कमलनाथ ने उनकी बात सुनने के बजाय कह दिया, उतर जाएं सड़क पर.

ऐसी ही अनदेखी के चलते पहले भी वे पार्टी से मोह भंग होने का इशारा कर चुके थे. ट्विटर पर उन्होंने अपनी प्रोफाइल से कांग्रेस हटाकर जनसेवक लिख दिया था. तब भी कयास लगाए गए कि वे कांग्रेस छोड़ रहे हैं लेकिन उन्होंने सामने आकर स्पष्ट किया कि वे ऐसा नहीं कर रहे.

अगस्त 2019 में उन्होंने पार्टी में चल रहे घटनाक्रम से आहत होकर एक शायरी भी पोस्ट की, तब भी कयास लगाए गये कि सिंधिया कुछ बड़ा करने वाले हैं.

लेकिन सिंधिया के ऐसे इशारे न तो प्रदेश का कांग्रेसी नेतृत्व और न ही पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व समय रहते समझ पाया.

10. राज्यसभा पहुंचने में अड़ंगा लगाया

ताबूत में आखिरी कील राज्यसभा चुनावों ने ठोक दी. लोकसभा में हार के बाद से सिंधिया के पास न तो राज्य में और न ही केंद्र में कोई बड़ा पद था. भाजपा में भी नया प्रदेशाध्यक्ष चुन लिया गया लेकिन कांग्रेस में अंदरूनी गुटबाजी के चलते फैसला लटका रहा. 26 मार्च को प्रदेश की तीन राज्यसभा सीटों पर चुनावों के लिए मतदान होना था. मौजूदा 228 सदस्यों की विधानसभा में (दो सीटें रिक्त हैं) एक सीट के लिए 57 विधायकों के वोट की जरूरत थी. कांग्रेस के पास कुल 114 विधायक थे, वह आसानी से अपने दो नेताओं को राज्यसभा पहुंचा सकती थी. जबकि 107 विधायक वाली भाजपा सिर्फ किसी एक को राज्यसभा भेज सकती थी.

फिर भी भाजपा ने तय किया कि वह दोनों सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी और कांग्रेस सरकार के विधायक तोड़ेगी. इसलिए दिग्विजय और सिंधिया दोनों ही चाहते थे कि वे निर्विवाद सीट से राज्यसभा पहुंचें और चुनावों का सामना न करना पड़े. साथ ही प्रदेश में अजय सिंह और अरुण यादव भी राज्यसभा पर नजर गढ़ाए थे. वहीं, कमलनाथ और दिग्विजय खेमे के नेता नहीं चाहते थे कि सिंधिया राज्यसभा पहुंचें.

इसलिए पिछले दिनों इन नेताओं ने मध्य प्रदेश से राज्यसभा में भेजने के लिए प्रियंका गांधी का नाम आगे कर दिया. वहीं, पिछले मंगलवार को सरकार पर आए संकट को टालने में दिग्विजय सिंह ने अहम भूमिका निभाई जिसके चलते राज्यसभा के लिए उन्होंने अपनी दावेदारी मजबूत कर ली थी.

जब सरकार पर आया संकट टला और सिंधिया राज्यसभा सीट से भी वंचित होते दिखे तो उन्होंने पार्टी छोड़ना ही उचित समझा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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