हिंदी साहित्य: कहां गई आलोचना, कहां गए आलोचक

आलोचना जगत पर हिंदी के अध्यापकों का कब्ज़ा है लेकिन ये अध्यापक सिर्फ भाषणबाजी कर रहे हैं. दुनिया भर में अच्छी आलोचना अकादमिक संस्थानों में विकसित होती है पर हमारे विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में क्या हो रहा है, ये किसी से छिपा नहीं है.

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आलोचना जगत पर हिंदी के अध्यापकों का कब्ज़ा है लेकिन ये अध्यापक सिर्फ भाषणबाजी कर रहे हैं. दुनिया भर में अच्छी आलोचना अकादमिक संस्थानों में विकसित होती है पर हमारे विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में क्या हो रहा है, ये किसी से छिपा नहीं है.

Hindi Critics
राम विलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल.

हिंदी साहित्य के परिसर में इन दिनों अक्सर ये सुनने में आता है कि आजकल किसी भी विधा में (कविता से लेकर उपन्यास तक) बहुत अच्छा नहीं लिखा जा रहा है. हालांकि साहित्य में सन्नाटे की चर्चा आज की बात नहीं है, बल्कि दशकों पुरानी है.

कुछ विधाएं तो निरंतर संकटग्रस्त मानी जाती रही हैं, जैसे नाटक. कुछ विधाओं की वापसी की आवाजें भी सुनाई देती रही हैं, जैसे कि कविता की.

इस तरह संकट वाली बात नए सिरे से लगातार उठती रही है. ऐसे में आलोचना नाम की विधा पर किस तरह से विचार करें?

इस सिलसिले में मेरा ये मानना है कि हिंदी की रचनात्मक कही जाने वाली विधाओं में तो लगातार अच्छा लिखा जा रहा है पर उसकी ठीक तरह से पहचान नहीं हो रही है.

पहचानने का दायित्व आलोचना और आलोचक पर है पर वहां जिम्मेदारी नहीं निभाई जा रही है. सच में आज कोई विधा अगर पिछले कुछ वर्षों से सर्वाधिक संकटग्रस्त है, तो वह है आलोचना.

खासकर समकालीन साहित्य को लेकर सजग आलोचना का अकाल सा है. मध्यकालीन हिंदी साहित्य के पारखी कुछ आलोचक हमारे बीच अवश्य हैं, हालांकि वे सब वरिष्ठता के दायरे में आ चुके हैं.

वास्तविकता तो ये भी है कि मध्यकालीन हिंदी साहित्य को समझने वाले और उसका आस्वाद करने वाले आलोचक भी लगातार कम होते जा रहे हैं.

विश्वविद्यालयों में भी मध्यकालीन हिंदी पढ़ाने वाले ही नहीं, ठीक से पढ़ने वाले नहीं रह गए हैं. कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा आदि पर शोध और मौलिक चिंतन का स्तर लगातार गिरता जा रहा है.

मगर जिसे समकालीन सृजनात्मकता कहते हैं- उसके सहृदय पाठक और आलोचक तो विश्वविद्यालयों में और उसके बाहर भी, अत्यंत कम हैं. कुछ मर्तबा आलोचक तिथियों के मुताबिक सक्रिय होते हैं. जैसे किसी की जन्मशती पर.

इस लिहाज से देखें तो 2011 में हिंदी के चार बड़े कवियों- शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, अज्ञेय और केदार नाथ अग्रवाल की जन्मशतियां बीत गईं. पर इनको लेकर नवीन उद्भावना करने वाली कोई अच्छी आलोचना- पुस्तक आई?

2016 में अमृतलाल नागर की जन्मशती थी. उन पर कोई बहुत अच्छा लेख भी देखने को नहीं मिला, किताब तो छोड़ ही दीजिए.

इस साल यानी 2017 में मुक्तिबोध और त्रिलोचन शास्त्री की जन्मशतियां हैं. क्या हम आशा कर सकते हैं कि इनके आकलन का कोई मौलिक और नया प्रयास होगा?

ऊपर जिन कवियों-लेखकों का नाम लिया गया है वे हमारे बीच नहीं हैं. किंतु ऐसे कवि या लेखक भी हमारे बीच मौजूद हैं जो मोटे तौर पर साठ से लेकर अस्सी-नब्बे के बीच के हैं पर उनके आकलन या मूल्यांकन की आवश्यकता महसूस नहीं जा रही है.

कुंवर नारायण, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, गिरिराज किशोर, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु करे, मृदुला गर्ग, गिरधर राठी, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी, विष्णु नागर, अरुण कमल, असद जैदी, मंजूर ऐहतेशाम, असगर वजाहत, लीलाधर मंडलोई, मैत्रेयी पुष्पा, उदय प्रकाश, वंदना राग, गीतांजलि श्री जैसी कई वयों वाली सर्जनात्मक प्रतिभाएं हिंदी में हैं पर उनके बारे में कितनी आलोचनात्मक जिज्ञासाएं आलोचक-समाज में हैं?

फिर आलोचना सिर्फ रचनाओं या रचनाकारों तक सीमित नहीं होती. सैद्धांतिकी और वैचारिकी का निर्माण भी आलोचना का ही काम है.

हाल के वर्षों मे नारी-विमर्श, दलित-विमर्श जैसे प्रत्यय भी सामने आए हैं. हिंदी आलोचना में उनके बारे में कितना कम लिखा गया है.

एक और मार्के की बात है कि हिंदी में युवा महिला आलोचक तो और भी कम आ रही हैं. ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में महिला- दृष्टिकोण का उभार जबर्दस्त तरीके से हो रहा है हिंदी आलोचना में वह अनुपस्थित सा है.

हालांकि कवयित्रियां हैं- शुभा, कात्याय़नी, सविता सिंह वगैरह, पर महिला आलोचक नहीं के बराबर हैं. हो सकता है कि कोई एकाध नाम गिना दे, पर वह गिनती के लिए ही होगा.

हो सकता है कुछ लोग ये कहें कि महिला और पुरुष आलोचक का भेद कहां तक उचित है? किंतु जैसे अनुभवजन्य दलित विमर्श प्रमाणिकता हासिल कर चुका है वैसे ही अनुभवजन्य नारी-विमर्श भी अहमियत रखता है.

कुछ साल पहले नोबेल सम्मान से सम्मानित एलफ्रेड एलिनेक का उपन्यास ‘पियानो टीचर’ अंग्रेजी और हिंदी में ये इसी नाम से प्रकाशित है) इस बात को रेखांकित करता है कि नारी- अनुभव  भी बहुस्तरीय है और उसे समझने-समझाने के लिए नारी दृष्टि का होना जरूरी है.

‘पियानो टीचर’ का अनुभव महिला का है. वैसा अनुभव किसी पुरुष के लिए संभव नहीं है. आलोचना में कुछ अनुभवों पर महिलाएं ही विस्तार से लिख सकती हैं.

एक प्रचलित धारणा है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’. इस धारणा के पक्ष और विपक्ष में दलीलें दी जाती रही हैं.

पर उन सबको एक तरफ रखकर इस मुद्दे पर भी बात होनी चाहिए कि आलोचना क्या है? क्या वह भी दर्पण है? अगर हां, तो किसका? समाज का या साहित्य का? वह आलोचना रूपी  दर्पण क्या साफ साफ समकालीन साहित्य को प्रतिबिंबित कर रहा है? या वह दर्पण धुंधला गया है.

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कुछ लोग प्रतिपक्ष में कह सकते हैं कि आलोचना दर्पण नहीं है, वह तो माध्यम है साहित्य को जांचने और उसका मूल्यांकन करने का. पर क्या वह भी हो रहा है?

यह `सिनिसिज्म’ नहीं है बल्कि एक सचाई है कि हिंदी में आज भाषणबाज बढ़ते जा रहे हैं और आलोचक नाम का प्राणी विलुप्तप्राय होता जा रहा है.

वरिष्ठ कहे जाने वाले आलोचक अपने भाषणों की किताबें छपा लेते हैं और उसी को आलोचना मान लिया जाता है.

प्रकाशक भी क्या करे? किताबों की सरकारी खरीद की कमेटी में वरिष्ठ कहे जाने वाले आलोचक या प्रोफेसर होते हैं.

उनके भाषण प्रकाशित कर प्रकाशक मालामाल होता है फिर उसे क्या पड़ी है कि दूसरे किसी प्रतिभाशाली कहे जानेवाले आलोचक से किताबें लिखवाए.

इस तरह किताबों की सरकारी खरीद का धंधा भी समकालीन हिंदी आलोचना भी क्षत-विक्षत कर रहा है.

आलोचना जगत पर हिंदी के अध्यापकों का कब्जा है और अध्यापक भाषणबाज होकर रह गए हैं. वैसे दुनिया भर को देखें तो अच्छी आलोचना अकादमिक संस्थानों में विकसित होती है. इसलिए इसमें कुछ भी अवांछनीय नहीं है कि विश्वविद्यालयों से उम्मीद की जाए कि वहां स्तरीय आलोचना लिखी जाए. पर हमारे विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में क्या हो रहा है, ये किसी से छिपा नहीं है.

वक्त है कि हिदी विभागों का सामाजिक आकलन हो कि वहां आलस्य और मतिमंदता का साम्राज्य क्यों पसरा हुआ है.

कुछेक अपवादों का नाम गिनाने से काम नहीं चलेगा कि फलां फलां अच्छा लिखा है या लिख रहे है. पूरा अध्यापक समुदाय क्या कर रहा है- ये बुनियादी प्रश्न है.

गंभीर आलोचना सिर्फ अकादमियों में नहीं पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भी विकसित होती है.

अभी हाल में मैंने देखा कि अरुंधती राय की नई किताब ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ पर ‘द गार्डियन’ और कुछ दूसरे विदेशी अंग्रेजी- अखबारों में लंबे लंबे लेख और साक्षात्कार छपे (ये लेख मैंने ऑनलाइन पढ़े इसलिए नहीं मालूम कि प्रकाशित अखबारी प्रतियों में उतने  बड़े आकार में वे छपे या नहीं.)

फिर भारत के अंग्रेजी अखबारों में भी उसी तर्ज पर लंबे साक्षात्कार या लेख आए. पर क्या आज के हिंदी अखबारों या पत्रिकाओं में ऐसे लंबे लेख या साक्षात्कार छपने की गुंजाइश है? ऐसे में हम ऑनलाइन हिंदी पोर्टलों से कुछ अपेक्षा कर सकते हैं.

इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजी में टाइम्स लिटररी सप्लीमेट या न्यूय़ॉर्क टाइम्स बुक रिव्यू जैसी साहित्य और पुस्तक केंद्रित प्रकाशन साप्ताहिक होते हैं. क्या हिंदी में इस तरह के प्रकाशन हैं?

आलोचना और गंभीर विमर्श केंद्रित जो दो- तीन पत्रिकाएं हैं भी वह दृष्टि के अभाव में जी रही है. हिंदी में ‘आलोचना’ नाम की जो पत्रिका है उसमें हाल में संपादक/ संपादकों की नियुक्ति का जो घालमेल हुआ है वह भी अलग से गपशप का विषय हो गया है.

आज हम भारतीय उस दौर में रह रहे हैं जब कुछ अवधारणाएं या तो विकृत की जा रही हैं या उनका अवमूल्यन हो रहा है.

मिसाल के लिए राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और भारतीयता. इस विकृतिकरण को बौद्धिक स्तर पर चुनौती देना भी आलोचक धर्म है. कुछ वरिष्ठ आलोचक इस संदर्भ में न सिर्फ नितांत कायर साबित हुए हैं बल्कि धर्मच्युत भी.

मुंह में पान दबाए उनकी चुप्पी ही ‘ब्लासफेमी’ है. उन्होंने अपना आलोचनात्मक धर्म नहीं निबाहा है और अपने पुराने किए धरे पर पानी फेरा है.

आलोचना मात्र कृतियों या कृतिकारों की व्याख्या या उनका विश्लेषण नहीं है बल्कि समाज और संस्कृति के लिए दृष्टि का निर्माण भी करती है.

हर समाज या हर दौर में कुछ सांस्कृतिक दुश्चिंताएं होती है जो समाज पर छायी रहती हैं. साहित्य पर भी. आलोचक से अपेक्षा की जाती है कि वह इन दुश्चिंताएं की पहचान और व्याख्या करे.

अंत में मैं दिवंगत कवि- आलोचक विजयदेव नारायण साही की कबीर पर लिखी कविता ‘प्रार्थना’ उद्धृत कर रहा हूं-

परम गुरु

दो तो ऐसी विनम्रता दो

कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूं

और यह अंतहीन सहानुभूति

पाखंड न लगे
 
दो तो ऐसा कलेजा दो

कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख

की गांठो में मरोड़े हुए

उन  लोगों का माथा सहला सकूं

और इसका डर न लगे

कि कोई हाथ ही काट खाएगा

दो तो ऐसी निरीहता दो

कि इस दहाड़ते आतंक के बीच

फटकार का सच बोल सकूं

और इसकी चिंता न हो

कि इस बहुमुखी युद्ध में

मेरे सच का इस्तेमाल

कौन अपने पक्ष में करेगा

यह भी न दो

तो इतना ही दो

कि बिना मरे चुप रह सकूं

एक आलोचक की प्रतिबद्धताएं और जिम्मेदारी भी ‘दहाड़ते आतंक के बीच फटकारता हुआ सच’ बोलने की होती है. और अगर वह साहस नहीं है तो फिर आलोचना भी बेजान होगी, जो कि आज मोटे तौर पर है.

(रवीन्द्र त्रिपाठी टेलीविजन और प्रिंट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार, साहित्य-फिल्म-कला-रंगमंच के आलोचक, स्क्रिप्ट लेखक और डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार हैं)

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