एक डरावने दौर से गुज़र रहा है भारत का लोकतंत्र

देश में एक लंबी और मुश्किल लड़ाई के बाद हासिल किए गए लोकतांत्रिक अधिकार ख़तरे में हैं क्योंकि सत्ताधारी दल द्वारा उनका दुरूपयोग किया जा रहा है.

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New Delhi: A cyclist makes way through rain in the backdrop of the India Gate, during a nationwide lockdown as a preventive measure against the coronavirus pandemic, in New Delhi, Friday, April 17, 2020. (PTI Photo/Manvender Vashist) (PTI17-04-2020 000253B)

देश में एक लंबी और मुश्किल लड़ाई के बाद हासिल किए गए लोकतांत्रिक अधिकार ख़तरे में हैं क्योंकि सत्ताधारी दल द्वारा उनका दुरूपयोग किया जा रहा है.

New Delhi: A cyclist makes way through rain in the backdrop of the India Gate, during a nationwide lockdown as a preventive measure against the coronavirus pandemic, in New Delhi, Friday, April 17, 2020. (PTI Photo/Manvender Vashist) (PTI17-04-2020 000253B)
(फोटो: पीटीआई)

लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करने वाले कदम भारत में लगातार दिन-ब-दिन सामान्य होते जा रहे हैं. द वायर और इसके संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार- जहां केंद्र में सत्ताधारी पार्टी का ही शासन है – की पुलिसिया कार्रवाई इस बात का सबूत है कि भारत में लोकतंत्र पर ध्वंसकारी आघात किस हद तक पहुंच गए हैं.

जो हो रहा है, उसको लेकर द वायर का नजरिया सरकार के नजरिए से अलग है, लेकिन उस भिन्नता के संबंध मे यूपी पुलिस को द वायर के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने की कोशिश करते देखना, जिसके तहत इसके संपादक को गिरफ्तार किया जा सकता है, काफी डरावना है.

एक गौरवान्वित भारतीय नागरिक के तौर पर, हमारे चुने हुए नेताओं के दुर्व्यवहार को देखकर मेरा सिर शर्म से गड़ जाता है. मेरा इशारा मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने और देश में अभिव्यक्ति की आजादी के हनन की उनकी कोशिश की तरफ है.

मैं इस मामले में तो सरकारी कार्रवाई की निंदा करता ही हूं और आपराधिक आरोप तुरंत हटाने की मांग करता हूं, साथ ही साथ मुझे यह भी लगता है कि अपने देश में लोकतांत्रिक आजादी की गिरावट के विषय पर भी अपनी बात रखना यहां जरूरी है.

वरदराजन और द वायर के खिलाफ पूरी तरह से अन्यायपूर्ण आपराधिक मुकदमा भारत के हिसाब से एक डराने वाली घटना है.

ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि यह पूरी दुनिया के सामने इस बात को उजागर कर देता है कि अपने वर्तमान नेतृत्व की छत्रछाया में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कितने आश्चर्यजनक ढंग से असहिष्णु हो गया है.

भारत में लोकतांत्रिक मानकों को जिस तरह से दरकिनार किया गया है, हाल के वर्षों में वह दुनिया में व्यापक बहस का विषय बन गया है और इसको लेकर लगातार उस पर आक्षेप लगते रहे हैं.

भारत के मित्रों के लिए यह स्थिति दुख पहुंचाने वाली है, जबकि इसके दुश्मनों को यह सब देखकर खुशी मिलती है.

भारत की वैश्विक साख का गिरना गंभीर मसला है- भारत को यहां से उबरने में समय लगेगा (यह वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व में बदलाव के बाद ही होगा, जिसका आज न कल होना तय है)- मगर इस पुलिसिया कार्रवाई और देश के कई हिस्सों में इसी से मिलती-जुलती निरंकुशता का यह सबसे खराब पहलू नहीं है.

राजनीतिक सत्ता के इस तरह से प्रकट दुरुपयोग से होने वाला मुख्य नुकसान वास्तव में दूरगामी घरेलू परिणाम के तौर पर दिखेगा.

भारत में लोकतंत्र ने कई अच्छी उपलब्धियां अर्जित की हैं. ब्रिटिश भारत में बार-बार आने वाला विनाशकारी अकाल, लोकतांत्रिक प्रशासन और मीडिया की आजादी की स्थापना के साथ ही रुक गया.

इसके अलावा भारत की कई अन्य उपलब्धियां हैं. मिसाल के लिए लोकतांत्रिक सहिष्णुता और मीडिया की व्यापक आजादी की जुगलबंदी का इस्तेमाल करते हुए भारत द्वारा बौद्धिक रचनाशीलता के क्षेत्र में बड़ी तरक्की दर्ज की गई है.

वहीं, गरीबी और भयावह असमानता की समाप्ति जैसे दूसरे लोकतांत्रिक लक्ष्यों की तरफ और आगे बढ़ने की जरूरत है. इसे बेहतर आंतरिक नीतियों द्वारा हासिल किया जा सकता है और इसमें लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था मदद पहुंचाएगी.

यहां तक कि अगर प्रेस की आजादी पर पाबंदियों के बावजूद चीन बेहतर करता हुआ दिखाई देता है, तो यह एक अधूरी कहानी है (चीन में ग्रेट लीप फॉरवर्ड के दौर में इतिहास के सबसे बड़े अकाल देखने को मिले) और इसकी उपलब्धियां इसके नेतृत्व द्वारा सबके लिए स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा को लेकर प्रतिबद्धता पर टिकी है.

यह इसके नेतृत्व के मूल राजनीतिक विचारधारा के अनुरूप है और भारत में इससे तुलना करने लायक कुछ नहीं है. भारत जैसी स्थितियों में मीडिया की आजादी के खिलाफ जाने को चतुर विकास नीति नहीं कहा जा सकता.

एक आम चुनाव में जीत दर्ज करते सत्ताधारी दल को जो शक्तियां मिलती हैं, उसकी व्याख्या अलग-अलग तरीकों से की जा सकती है.

और कभी-कभी इसके कई ऐसे अर्थ निकाले जा सकते हैं, जिसे संवैधानिक कसौटी पर जायज नहीं कहा जा सकता है.

बड़ा मसला यह नहीं है कि क्या 2019 के नतीजे में युद्ध का गहरा असर रहा– युद्ध अक्सर सत्ताधारी दलों को फायदा पहुंचाते हैं (जैसे कि फॉकलैंड युद्ध ने 1982 के चुनाव में पीछे चल रही प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर को 1983 में जबरदस्त जीत दिलाई), न ही यह कि मुख्य तौर पर सत्ताधारी दल के अतुलनीय चुनावी संसाधनों ने इसमें केंद्रीय भूमिका निभाई.

चिंता की बात है उस शक्ति की गलत व्याख्या है, जो संसदीय चुनावों में मिली जीत के बाद वैध तरीके से मिलती है.

चुनावों में मिली जीत शासकों को किसी को सिर्फ सरकार का (जो राष्ट्र नहीं है) विरोधी होने के कारण ‘देशद्रोही’ करार देने का नैतिक (यहां तक कि कानूनी भी) अधिकार नहीं देती है.

न ही यह सरकार को राजनीतिक असहमति को ‘देशद्रोह’ करार देने की इजाजत देती है (जैसा कि भारत सरकार द्वारा बार-बार किया गया है), न ही यूपी सरकार की पुलिसिया कार्रवाई के मामले में, एक पत्रकार द्वारा किसी तथ्य की सरकारी लाइन से अलग व्याख्या को आपराधिक कृत्य करार दिया जा सकता है.

मैं अपनी बात को दो बातों के साथ खत्म करना चाहूंगा. पहली बात, कोई भी सरकार अजर-अमर नहीं होती है, भले ही सत्ताधारी समूह को ऐसा मुगालता रहता हो.

वर्तमान समय में सरकार भले ही स्वीकृत मानकों की धज्जियां उड़ाने में कामयाब हो जाएगी, लेकिन आने वाले समय में उसे इसी तरह से नहीं देखा जाएगा.

पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ के विरोध में लिखी गई फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मशहूर नज्म ‘हम देखेंगे’ ने भविष्य के उस समय की ओर इंगित किया था जब आज की कारगुजारियों को अलग तरह से देखा जाएगा.

उस समय जिया सर्वशक्तिमान थे, लेकिन आज उन्हें कैसे देखा जाता है? और लैटिन अमेरिका के कल के राजनीतिक रूप से अपराजेय तानाशाही शासकों को आज किस तरह से देखा जाता है?

क्या भारत के शक्तिशाली शासक इतिहास द्वारा किए जाने वाले फैसलों से पूरी तरह से बेपरवाह हैं?

दूसरे बिंदु का संबंध हमारे राष्ट्रीय इतिहास से है. भारत ने आजादी के संघर्ष के दौरान लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी- कई लोगों ने हमारे देश में आजाद लोकतंत्र की स्थापना के लिए कुर्बानियां दीं और कई लोगों ने भारी कष्ट उठाए- कई अलग-अलग मजहबों, पंथों और आस्था पद्धतियों के लोगों ने शानदार ढंग से कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया.

यह संघर्ष किसी दंभी निजाम के हाथों मनमाने शासन के लिए नहीं था, जिसका सटीक उदाहरण मीडिया की आजादी के खिलाफ यूपी पुलिस की कार्रवाई और बड़े पत्रकारों को गिरफ्तार करने की कोशिश है.

अपने औपनिवेशिक अतीत में हम ब्रिटिश राज के नागरिक होने के नाते अपने हीन दर्जे को समझ सकते थे, लेकिन क्या अपने लोकतंत्र में भी हम उसी तरह की अधीनता को स्वीकार कर सकते हैं?

अमर्त्य सेन नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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