आंध्र प्रदेश: आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षकों की नौकरी में 100 फीसदी आरक्षण का आदेश रद्द

साल 2000 में अविभाजित आंध्र प्रदेश ने आदिवासी इलाकों के स्कूलों में शिक्षकों के 100 फीसदी पद अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित करने का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द करते हुए पांच लाख रुपये का जुर्माना लगाया जिसे तेलंगाना और आंध्र प्रदेश बराबर-बराबर भरेंगे.

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(फोटो: पीटीआई)

साल 2000 में अविभाजित आंध्र प्रदेश ने आदिवासी इलाकों के स्कूलों में शिक्षकों के 100 फीसदी पद अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित करने का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द करते हुए पांच लाख रुपये का जुर्माना लगाया जिसे तेलंगाना और आंध्र प्रदेश बराबर-बराबर भरेंगे.

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नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने आदिवासी इलाकों के स्कूलों में शिक्षकों के 100 फीसदी पद अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित करने के जनवरी 2000 का अविभाजित आंध्र प्रदेश का आदेश बुधवार को निरस्त कर दिया.

न्यायालय ने कहा कि यह ‘मनमाना’ है और संविधान के अंतर्गत इसकी इजाजत नहीं है.

जस्टिस अरूण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि 100 फीसदी आरक्षण प्रदान करना ‘अनुचित’ होगा और कोई भी कानून यह अनुमति नहीं देता है कि अधिसूचित इलाकों में सिर्फ आदिवासी शिक्षक ही पढ़ायेंगे.

संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में जस्टिस इन्दिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत सरन, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरूद्ध बोस शामिल थे.

संविधान पीठ ने अपने निर्णय में 1992 के इन्दिरा साहनी फैसले का जिक्र किया.

पीठ ने कहा कि इस फैसले में शीर्ष अदालत ने इस बात पर जोर दिया था कि संविधान निर्माताओं ने कभी भी यह परिकल्पना नहीं की थी कि सभी स्थानों के लिए आरक्षण होगा.

पीठ ने कहा कि 1992 के फैसले के अनुसार विशेष मामले में ही 50 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा आरक्षण दिया जा सकता है लेकिन इसमें बहुत ही सतर्कता बरतनी होगी.

पीठ ने कहा, ‘अधिसूचित इलाकों में 100 फीसदी आरक्षण का प्रावधान करने के लिए कोई असाधारण परिस्थितियां नहीं थीं. यह बेतुका विचार है कि आदिवासियों को सिर्फ आदिवासियों द्वारा ही पढ़ाया जाना चाहिए. यह समझ से परे है कि जब दूसरे स्थानीय निवासी हैं तो वे क्यों नहीं पढ़ा सकते.’

पीठ ने कहा कि यह कार्रवाई तर्को के परे है और मनमानी है. शत प्रतिशत आरक्षण प्रदान करके मेरिट को इससे वंचित नहीं किया जा सकता.

पीठ ने कहा कि 100 फीसदी आरक्षण प्रदान करने संबंधी आदेश मनमाना, गैरकानूनी और असंवैधानिक है.

पीठ ने अपने 152 पेज के फैसले में कहा कि यह स्पष्ट है कि आजादी हासिल करने के 72 साल से भी अधिक समय बीत जाने के बावजूद हम अभी तक समाज के निचले स्तर अर्थात् वंचित वर्ग तक यह लाभ नहीं पहुंचा सके है.

पीठ ने अपने फैसले में इस तथ्य का भी जिक्र किया कि 1986 में भी तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार ने इसी तरह का आदेश दिया था जिसे राज्य प्रशासनिक अधिकरण ने रद्द कर दिया था.

अधिकरण के आदेश के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गयी थी लेकिन 1998 में इसे वापस ले लिया गया था.

पीठ ने कहा कि यह अपील वापस लिए जाने के बाद अपेक्षा की जा रही थी कि तत्कालीन आंध्र प्रदेश 100 फीसदी आरक्षण प्रदान करने की कवायद दोबारा नहीं करेगा.

पीठ ने कहा कि विचित्र परिस्थितियों को देखते हुए हम इस शर्त के साथ नियुक्तियों को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना भविष्य में दुबारा ऐसा नहीं करेंगे और यदि वे ऐसा करते हैं और आरक्षण की सीमा लांघते हैं तो उनके लिए 1986 से आज तक की गई नियुक्तियों के बचाव के लिए कुछ नही होगा.

न्यायालय ने इस अपील पर पांच लाख रुपये का अर्थदंड भी लगाया जिसे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को बराबर-बराबर वहन करना होगा.