आपातकाल: नसबंदी से मौत की ख़बरें न छापी जाएं

आपातकाल के 44 साल बाद इन सेंसर-आदेशों को पढ़ने पर उस डरावने माहौल का अंदाज़ा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अख़बारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी ख़बरें रोकी जाती थीं.

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आपातकाल के 44 साल बाद इन सेंसर-आदेशों को पढ़ने पर उस डरावने माहौल का अंदाज़ा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अख़बारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी ख़बरें रोकी जाती थीं.

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(फोटो: पीटीआई और नवीन जोशी)

(यह लेख पहली बार 25 जून 2017 को प्रकाशित हुआ था.)

‘सूचना विभाग में सेंसर के श्री वाजपेई ने फोन किया था कि सेंसर-आदेशानुसार परिवार नियोजन, शिक्षा शुल्क में वृद्धि तथा सिंचाई दरों में वृद्धि के विरुद्ध किसी प्रकार का समाचार न छापा जाए. इसके अतिरिक्त, छात्र-आंदोलन की ख़बरें भी नहीं छपेंगी.’

11 जुलाई, 1976  को लखनऊ के प्रतिष्ठित दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ के संपादकीय विभाग के एक वरिष्ठ सदस्य ने ये पंक्तियां टाइप करके निर्देश-रजिस्टर में लगाईं ताकि सभी देखें और पालन कर सकें. देशभर के सभी अख़बारों में उन दिनों रोजाना ऐसे कई-कई सेंसर-आदेश पहुंचते थे. अख़बारों की खबरों पर कड़ा पहरा था.

आज से 44 वर्ष पहले, 25 जून, 1975 की रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने और बढ़ते राजनीतिक विरोध को कुचलने के लिए देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया था. जनता के संवैधानिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे. विरोधी नेता गिरफ़्तार कर जेल में डाले गए. प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी गई थी.

अख़बारों में क्या छपेगा क्या नहीं यह संपादक नहीं, सेंसर अधिकारी तय करते थे. राज्यों के सूचना विभाग, भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) और जिला-प्रशासन के अधिकारियों को सेंसर-अधिकारी बनाकर अख़बारों पर निगरानी रखने का काम दिया गया था. ये अधिकारी संपादकों-पत्रकारों के लिए निर्देश जारी करते थे. खुद उन्हें ये निर्देश दिल्ली के उच्चाधिकारियों, कांग्रेस नेताओं, ख़ासकर इंदिरा गांधी और उनके छोटे बेटे संजय गांधी की चौकड़ी से प्राप्त होते थे. इन पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा गिरफ़्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी.

अगस्त, 1977 में मैंने दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ में बतौर प्रशिक्षु सह-संपादक काम करना शुरू किया तो संपादकीय-निर्देश-रजिस्टर में नत्थी कई सेंसर-आदेश देखे थे. बाद में उसमें से कुछ सेंसर-आदेश अपने लिए सुरक्षित रख लिए थे.

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(सभी सेंसर आदेश सौजन्य: नवीन जोशी)

इमरजेंसी के 44 साल बाद आज इन चंद निर्देशों को पढ़ने पर उस डरावने माहौल का अंदाज़ा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अख़बारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी ख़बरें रोकी जाती थीं.

एक सेंसर-आदेश 20 जुलाई, 1976 को तत्कालीन संपादक अशोक जी के हस्ताक्षर से इस तरह था-

‘नसबंदी में मृत्यु या अन्य धांधली की ख़बरें न दी जाएं. प्राप्त होने पर इन्हें समाचार संपादक श्री दीक्षित या मुझे दिया जाए.’

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इसी बारे में एक सेंसर-आदेश 1 नवंबर 1976 का भी है-

‘विधानमण्डल का आज से अधिवेशन शुरू हो रहा है. परिवार नियोजन के संबंध में कुछ ज़िलों में कुछ अप्रिय घटनाएं हुई थीं. समाचार देते समय इन घटनाओं के कृपया ‘टोन डाउन’ करें और इस सम्बंध में पुराने निर्देशों का पालन करें. (ध्रुव मालवीय का फोन)- हस्ताक्षर, सहायक संपादक’

गौरतलब है कि इमरजेंसी में संजय गांधी ने सनक की तरह जनसंख्या-नियंत्रण कार्यक्रम चलवाया. सरकारी कर्मचारियों, डॉक्टरों आदि को नसबंदी के बड़े लक्ष्य दिए गए. अविवाहित युवकों, बूढ़ों, भिखारियों तक को पकड़-पकड़कर उनकी जबरन नसबंदी की गयी. असुरक्षित नसबंदी के कारण देश भर में बहुत मौतें हुई थीं. रोहिण्टन मिस्त्री के अंग्रेजी उपन्यास ‘अ फाइन बैलेंस’ में इन सबका मार्मिक और दहलाने वाला चित्रण है.

एक और सेंसर-आदेश देखिए-

‘सेंसर अधिकारी, एमआर अवस्थी का फोन, 9 अक्टूबर 1976 को-

  1. भारत और अन्य किसी देश के बीच शस्त्रास्त्र अथवा रक्षा समझौते की सूचना तथा उस पर कोई टिप्पणी प्रकाशित न की जाए.
  2. बस्ती जिले में बीडीओ तथा एडीओ की हत्या का समाचार न छापा जाए. -सहायक संपादक’

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बिना तारीख़ का एक सेंसर-नोट कहता है-

‘गुजरात हाईकोर्ट के जजों के तबादले संबंधी बहस का कोई समाचार बिना सेंसर कराए नहीं जा सकता.’ (1976 में गुजरात हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने अपने तबादले को बड़ा मुद्दा बनाकर अदालत में चुनौती दी थी और भारत सरकार को भी पार्टी बना लिया था. इस पर लंबी अदालती बहस चली थी)

10 दिसंबर, 1976 को समाचार संपादक के हस्ताक्षर से जारी आदेश-

‘14 दिसम्बर को संजय गांधी का जन्म-दिवस है. इस संदर्भ में किसी भी कांग्रेसी नेता का संदेश नहीं छपेगा. सूचना विभाग से टेलीफोन पर सूचना मिली.’

28 दिसम्बर (सन दर्ज नहीं) को समाचार संपादक के हस्ताक्षर से जारी अंग्रेज़ी में टाइप किया हुआ सेंसर-निर्देश-

‘कांग्रेस, यूथ कांग्रेस और अखिल भारतीय कांग्रेस के भीतर अथवा आपस में विवाद और गुटबाजी के बारे में कोई भी ख़बर, रिपोर्ट और टिप्पणी कतई नहीं दी जाए (शुड बी किल्ड). यह विशेष रूप से केरल, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा कांग्रेस की ख़बरों पर लागू होगा.’

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25 अक्टूबर (सन दर्ज नहीं) का अंग्रेजी में हस्तलिखित नोट-

‘सेंसर ऑफिस से श्री पाठक का निर्देश- यह फ़ैसला हुआ है कि 29 अक्टूबर से होने वाले चौथे एशियाई बैडमिंटन टूर्नामेंट में चीन की बैडमिंटन टीम की भागीदारी भारतीय अख़बारों में बहुत दबा दी जाए.’

यह समझ पाना मुश्किल है कि चीन की बैडमिंटन टीम के भारत आकर खेलने की ख़बर तत्कालीन इंदिरा सरकार क्यों दबाना चाहती थी.

इस लेखक के हाथ लगे सेंसर-आदेश इमरजेंसी लगने के क़रीब साल भर बाद के हैं. बिल्कुल शुरू के आदेश और सख़्त रहे होंगे. कुछ आदेश ऐसे भी होंगे जो मालिकों या संपादकों को सीधे सुनाए गए होंगे, बिना कहीं दर्ज किए.

सभी अख़बारों को सेंसर-आदेशों का पालन करना पड़ा था. विरोध के प्रतीक-रूप में कतिपय अख़बारों ने एकाधिक बार अपने संपादकीय की जगह ख़ाली छोड़ी. कुछ छोटे लेकिन न झुकने वाले पत्रों ने प्रकाशन स्थगित किया या सरकार ने ही उन्हें बंद कर संपादकों-पत्रकारों को जेल में डाल दिया था.

25 जून 1975 की रात लागू इमरजेंसी 21 मार्च 1977 तक रही. यह पूरा दौर आज़ाद भारत के लिए बहुत भयानक था. लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए सबसे काला दौर, जब हर प्रकार का प्रतिरोधी स्वर कुचल दिया गया था.

आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस (इ) की बहुत बुरी पराजय हुई. इंदिरा गांधी और संजय दोनों चुनाव हारे. उन्हें अपने सबसे बुरे दिन देखने पड़े थे.

लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी छीनने की कोशिश करने वालों के लिए वह दौर एक बड़ा और ज़रूरी सबक है. इसीलिए अभी हाल में एनडीटीवी के मामले में दिल्ली प्रेस क्लब में हुई विरोध सभा में कुलदीप नैयर से लेकर अरुण शौरी तक ने याद दिलाया कि जिस किसी ने प्रेस की आज़ादी पर हमला किया, उसने अपने ही हाथ जलाए.

(लेखक हिंदुस्तान अख़बार के लखनऊ एवं यूपी संस्करण के पूर्व कार्यकारी संपादक हैं)

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