पीएमओ ने सुप्रीम कोर्ट के एक विवादित कथन के सहारे पीएम केयर्स पर सूचना देने से मना किया

पीएमओ ने लॉकडाउन लागू करने के फैसले, इसे लेकर हुई उच्चस्तरीय मीटिंग, इस संबंध में स्वास्थ्य मंत्रालय एवं प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच हुए पत्राचार और नागरिकों की टेस्टिंग से जुड़ीं फाइलों को भी सार्वजनिक करने से मना कर दिया है.

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नरेंद्र मोदी. (फोटो: पीटीआई)

पीएमओ ने लॉकडाउन लागू करने के फैसले, इसे लेकर हुई उच्चस्तरीय मीटिंग, इस संबंध में स्वास्थ्य मंत्रालय एवं प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच हुए पत्राचार और नागरिकों की टेस्टिंग से जुड़ीं फाइलों को भी सार्वजनिक करने से मना कर दिया है.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने कोरोना वायरस महामारी से लड़ने में जनता से आर्थिक मदद प्राप्त करने के लिए बनाए गए पीएम केयर्स फंड से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से मना कर दिया है.

इसके साथ ही पीएमओ ने लॉकडाउन लागू करने के फैसले, कोविड-19 को लेकर हुई उच्चस्तरीय मीटिंग, इस संबंध में स्वास्थ्य मंत्रालय एवं प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच हुए पत्राचार और नागरिकों की कोविड-19 टेस्टिंग से जुड़ीं फाइलों को भी सार्वजनिक करने से मना कर दिया है.

खास बात ये है कि पीएमओ ने जिस आधार पर इन जानकारियों को साझा करने से मना किया है, उनमें से किसी में भी जानकारी देने से सीधा मना नहीं किया गया है. इसमें से एक सुप्रीम कोर्ट का कथन है जो कि काफी विवादों में रहा है.

ग्रेटर नोएडा निवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत तोगड़ ने 21 अप्रैल 2020 को एक सूचना का अधिकार (आरटीआई) आवेदन दायर कर प्रधानमंत्री कार्यालय से कुल 12 बिंदुओं पर जानकारी मांगी थी.

हालांकि पीएमओ ने आनन-फानन में छह दिन बाद ही 27 अप्रैल को जवाब भेजकर जानकारी देने से मना कर दिया और कहा कि आरटीआई के एक ही आवेदन में कई विषयों से संबंधित सवाल पूछे गए हैं, इसलिए जानकारी नहीं दी जा सकती है.

पीएमओ ने कहा, ‘आरटीआई एक्ट के तहत आवेदनकर्ता को ये इजाजत नहीं है कि वे एक ही आवेदन में विभिन्न विषयों से जुड़ी जानकारी मांगे, जब तक कि इन अनुरोधों को अलग-अलग से नहीं माना जाता है और उसके अनुसार भुगतान किया जाता है.

प्रधानमंत्री कार्यालय का ये जवाब केंद्रीय सूचना आयोग के फैसलों और कानून की कसौटी पर खरा उतरता प्रतीत नहीं होता है.

पीएमओ के केंद्रीय जन सूचना अधिकारी (सीपीआईओ) परवीन कुमार ने ये जवाब देने के लिए सीआईसी का एक आदेश और सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में पीठ के एक कथन का सहारा लिया है. हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि कुमार ने इन दोनों फैसलों के गलत मायने निकाल लिए हैं क्योंकि ये दोनों फैसले सूचना देने से किसी भी तरह की रोक नहीं लगाते हैं.

पहली दलील: सीआईसी का एक निर्देश

पीएमओ ने सूचना देने से मना करने के लिए सीआईसी के साल 2009 के एक आदेश का सहारा लिया है जिसमें आयोग ने एक आरटीआई आवेदन में कई सवाल पूछे जाने के संबंध में अपना फैसला सुनाया था. साल 2007 में दिल्ली के एक निवासी राजेंद्र सिंह ने सीबीआई मुख्यालय में आरटीआई दायर कर कुल 69 सवालों पर जवाब मांगा था.

इस पर सीबीआई के सीपीआईओ इन सवालों को संबंधित विभागों के पास जवाब देने के लिए भेज दिया. इसमें से एक सीपीआईओ ने सिंह को जवाब भेजा और कहा कि आप प्रति सवाल के लिए दस रुपये जमा कराकर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि आपके द्वारा पूछे गए सवाल अलग-अलग विषय से जुड़े हैं.

लेकिन सिंह ने अतिरिक्त फीस जमा नहीं कराई और जवाब से असंतुष्ट होकर प्रथम अपील दायर किया. प्रथम अपीलीय अधिकारी ने सीपीआईओ के जवाब को सही ठहराया.

इसके बाद ये मामला प्रथम एवं तत्कालीन मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के पास पहुंचा, जहां अपीलकर्ता ने मांग की कि उनके द्वारा मांगी गई सूचना मुहैया कराई जाए और अतिरिक्त फीस जमा करने की मांग के लिए सीपीआईओ को दंडित किया जाए.

दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पूछे गए सवालों में से सिर्फ एक सवाल अलग विषय से जुड़ा हुआ है. इसलिए अपीलकर्ता इस एक सवाल के लिए अलग से 10 रुपये जमा करा दे, जिसके बाद सीपीआईओ सारी जानकारी आवेदनकर्ता को देगा.

खास बात ये है कि पीएमओ की दलील के विपरीत आयोग ने जानकारी देने से मना नहीं किया बल्कि अलग-अलग विषय के लिए अतिरिक्त 10 रुपये की राशि लेकर जानकारी देने को कहा.

वजाहत हबीबुल्लाह ने अपने फैसले में कहा, ‘धारा 7(1) के तहत सूचना प्राप्त करने के लिए किए जाने वाले आवेदन के चारों ओर समस्या टिकी होती है. इस खंड के तहत एक सीपीआईओ से अपेक्षा की जाती है कि शुल्क के साथ अनुरोध (आवेदन) प्राप्त होते ही शीघ्रता से वे इसका निपटारा करेंगे. इसलिए आरटीआई एक्ट के तहत आवेदनकर्ता को ये इजाजत नहीं है कि वे एक ही आवेदन में कई सारे सवालों के जवाब पूछ डालें, जब तक कि इन सवालों को अलग-अलग नहीं माना जाता है और उसी के अनुसार भुगतान किया जाता है.’

हालांकि हबीबुल्ला ने इसके आगे ये भी कहा कि एक अनुरोध (या सवाल) में कई सारे स्पष्टीकरण या सहायक सवाल शामिल हो सकते हैं. ऐसे आवेदन को एक अनुरोध माना जाना चाहिए और उसी आधार पर भुगतान किया जाना चाहिए.

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पीएमओ द्वारा दिया गया जवाब.

इस फैसले के बाद आने वाले कुछ सालों तक इसी आधार पर कई फैसले दिए गए. पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त एएन तिवारी ने अपने दो फैसलों क्रमश: सूर्यकांत बी. तेंगाली बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया एवं एस. उमापति बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में हबीबुल्ला के निर्देशों का सहारा लेते हुए इसी तरह का फैसला दिया था.

हालांकि साल 2011 में तत्कालीन केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गांधी ने पाया कि आरटीआई आवेदन में सवाल एक विषय तक सीमित रखने या एक अधिक विषय होने पर अतिरिक्त राशि देने का फैसला करने वाले इन आदेशों में किसी ‘कानूनी आधार’ का जिक्र नहीं किया गया है.

गांधी ने पूर्व के फैसलों को पलटते हुए कहा कि आरटीआई कानून या नियम या किसी अन्य जगह ये परिभाषित नहीं है कि ‘एक अनुरोध’ क्या होता है, इसलिए लोगों के जानकारी मांगने के लिए अधिकार को सीमित नहीं किया जा सकता और उनसे बेवजह पैसे नहीं वसूले जाने चाहिए.

शैलेष गांधी ने डीके भौमिक बनाम सिडबी और अमिता पांडे बनाम सिडबी मामले में विस्तार से इसकी विवेचना की क्या यदि किसी आवेदन में विभिन्न विषयों से संबंधित जानकारी मांगी जाती है तो प्रति जानकारी के लिए अतिरिक्त 10 रुपये का भुगतान करना होगा या क्या ऐसी कोई कानूनी बाध्यता है जो आवेदनकर्ता को अपने आवेदन में एक से अधिक विषयों पर जानकारी मांगने से रोकता है?

गांधी ने साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गुरुदेवदत्ता वीकेएसएसएस मर्यादित एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र मामले में दिए फैसले का हवाला देते हुए कहा, ‘यह आयोग पूर्व मुख्य सूचना आयुक्तों द्वारा आरटीआई एक्ट की धारा 6(1) और 7(1) में दिए गए शब्द ‘एक अनुरोध’ की व्याख्या से सम्मानित तरीके से असहमत है. यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि तत्कालीन मुख्य सूचना आयुक्तों ने अपनी व्याख्या में किसी कानूनी आधार का जिक्र नहीं किया है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘यदि सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित कानून व्याख्या के नियमों को यहां लागू किया जाता है तो ‘एक अनुरोध’ का प्राकृतिक और सामान्य मतलब निकाला जाना चाहिए, जिसके आधार पर इसका मतलब बिल्कुल नहीं होगा कि ‘एक प्रकार की सूचना’. आरटीआई एक्ट की धारा 6(1) और 7(1) को अगर साधारण शब्दों में पढ़ें तो कहीं भी ऐसा नहीं लगता है कि किसी भी आवेदन या अनुरोध की कोई सीमा तय की गई है.’

उन्होंने कहा कि ‘एक विषय’ क्या होता है ये आरटीआई एक्ट, नियमों, विनियमों और यहां तक मुख्य सूचना आयुक्तों के फैसले तक में परिभाषित नहीं किया है. ऐसा कोई पैरामीटर तय नहीं किया गया है जिसके आधार पर कोई जन सूचना अधिकारी (पीआईओ) ये तय कर सकेगा कि मांगी गई सूचना किसी एक विषय-वस्तु से जुड़ी हुई है या नहीं.

इसके बाद शैलेष गांधी ने कहा कि इसे लेकर कोई तय तरीका परिभाषित नहीं होने के कारण हो सकता है कि पीआईओ अपनी समझ के आधार पर आवेदन के कुछ हिस्से तक की सूचना दे दे और बाकी हिस्से के लिए ये कहते हुए कि सूचना अलग विषय-वस्तु से जुड़ी हुई है, आवेदनकर्ता से एक अन्य आरटीआई आवेदन दायर करने के लिए कहे.

पूर्व सूचना आयुक्त ने कहा, ‘जन सूचना अधिकारी द्वारा ये मतलब निकालना लोगों के मौलिक सूचना का अधिकार को सीमित करना और बेवजह पैसे खर्च करवाना होगा. ‘एक श्रेणी की सूचना’ की स्पष्ट परिभाषा नहीं होने की वजह से सिर्फ मनमानी तरीके से सूचना देने से मना किया जाएगा और इसके चलते अपीलीय प्रक्रिया में मामलों की भरमार हो जाएगी.’

इस तरह ऊपर में उल्लेख किए गए केंद्रीय सूचना आयोग के विभिन्न फैसलों में कहीं भी एक आरटीआई आवेदन में एक से अधिक विषयों के संबंध में मांगी गई सूचना पर जवाब देने से मना नहीं किया गया है. हालांकि पीएमओ ने इन्हीं में से एक आदेश का सहारा लेकर पीएम केयर्स पर जानकारी देने से मना कर दिया.

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव के एक्सेस टू इन्फॉरमेशन प्रोग्राम के प्रोग्राम हेड वेंकटेश नायक कहते हैं कि पीएमओ के पास जो भी जानकारी थी उन्हें वो देना चाहिए था और बाकी हिस्से को संबंधित विभाग में ट्रांसफर करना चाहिए. उन्होंने कहा, ‘अगर सूचना कई दस्तावेजों में है तो फाइलों की जांच की इजाजत दी जानी चाहिए थी.’

दूसरी दलील: सुप्रीम कोर्ट का एक कथन

अपने अन्य दलील में प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा कि आवेदनकर्ता का ध्यान साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीएसई बनाम आदित्य बंदोपाध्याय एवं अन्य मामले में दिए गए फैसले की ओर खींचा जाता है जहां कोर्ट ने कहा था:

आरटीआई एक्ट के तहत सभी जानकारियों का खुलासा करने के लिए अंधाधुंध और अव्यवहारिक मांगें अनुत्पादक होंगी, क्योंकि यह प्रशासन की दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और इसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका जानकारी इकट्ठा करने और उसे प्रदान करने के अनुपयोगी कार्यों से ग्रस्त हो जाएगी.

इसमें आगे कहा गया, ‘देश ऐसी स्थिति नहीं चाहता है जहां सरकारी ऑफिसों के 75 फीसदी स्टाफ अपना 75 फीसदी समय रेगुलर काम के बजाय जानकारी इकट्ठा करने और उसे आवेदनकर्ता को प्रदान करने में लगा देते हैं.’

वैसे तो सुप्रीम कोर्ट के इस कथन को एंटी-आरटीआई और सूचना देने से मना करने के लिए जन सूचना अधिकारियों को एक और हथियार देने के रूप में माना जाता है, लेकिन बावजूद इसके कोर्ट ने अपने इस फैसले में बोर्ड परीक्षा की उत्तर-पुस्तिका की जांच एवं इसकी प्रति आरटीआई के तहत देने के लिए सीबीएसई को आदेश दिया था.

बाद में इसी फैसले को आधार बनाकर साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीएसई को आदेश दिया कि वे दो रुपये प्रति पेज के हिसाब से छात्रों को आरटीआई के तहत उत्तर पुस्तिका मुहैया कराएं.

आमतौर पर ये देखा गया है कि सरकारी विभाग जानकारी देने से मना करने के लिए कोर्ट के इस कथन का सहारा लेते रहते हैं, जबकि कोर्ट के इस कथन की सत्यता का कोई आधार नहीं है. आरटीआई कार्यकर्ताओं और पूर्व सूचना आयुक्तों ने इसकी आलोचना की है.

शैलेष गांधी कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का ये कथन लगातार आरटीआई को हानि पहुंचा रहा है. उन्होंने कहा, ‘ये बिना किसी आधार के ये बात कही गई थी. इसकी बिल्कुल भी जरूरत नहीं थी. सुप्रीम कोर्ट को ये शोभा नहीं देता है कि वे लोगों के मौलिक अधिकारों को लेकर ऐसे कथन का इस्तेमाल करें.’

शैलेष गांधी और वकील संदीप जैन द्वारा आरटीआई एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के 17 फैसलों के विश्लेषण में इस कथन को पूरी तरह से खारिज किया गया है. इसमें आकलन कर बताया गया है कि आरटीआई आवेदनों पर जवाब देने के लिए सिर्फ 3.2 फीसदी स्टाफ को 3.2 फीसदी समय तक काम करने की जरूरत है.

हालांकि बावजूद इसके आए दिन सरकारी विभागों के जन सूचना अधिकारी इसका सहारा लेकर जनता को जानकारी देने से मना करते रहते हैं.

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