भारत मैकार्थी के समय में है या स्टालिन के काल में?

जोसेफ मैकार्थी और स्टालिन दोनों दुनिया के दो अलग-अलग कोनों में भिन्न समयों और बिल्कुल उलट उद्देश्यों के लिए सक्रिय रहे हैं, लेकिन इनके कृत्यों से आज के भारत की तुलना करना ग़लत नहीं होगा.

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जोसेफ मैकार्थी (बाएं) और स्टालिन. (फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स/रॉयटर्स)

जोसेफ मैकार्थी और स्टालिन दोनों दुनिया के दो अलग-अलग कोनों में भिन्न समयों और बिल्कुल उलट उद्देश्यों के लिए सक्रिय रहे हैं, लेकिन इनके कृत्यों से आज के भारत की तुलना करना ग़लत नहीं होगा.

जोसेफ मैकार्थी (बाएं) और स्टालिन. (फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स/रॉयटर्स)
जोसेफ मैकार्थी (बाएं) और स्टालिन. (फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स/रॉयटर्स)

भारत क्या मैकार्थी दौर में है या स्टालिन काल में या यह भारत का अपना विलक्षण काल है?

यह सवाल कोरोना वायरस के संक्रमण के भय से ख़ुद को अपनी मर्ज़ी से बंद कर लेने वाले समाज में पूछा जा सकेगा, इस पर शक है.  लेकिन जो इतिहास जानते हैं उन्हें दो बिल्कुल अलग-अलग देशों के इन दो प्रसंगों से आज के भारत की तुलना बेतुकी नहीं जान पड़ेगी.

अमेरिका के सीनेट के सदस्य जोसेफ मैकार्थी घोर दक्षिणपंथी, कम्युनिस्ट विरोधी थे और स्टालिन की विचारधारा के बारे में क्या बताना?

विस्कोंसिन के रिपब्लिकन सीनेटर जोसेफ मैकार्थी के नाम से अमेरिका के इस दौर को जाना जाता है और जो कुछ किया जा रहा था, उसे मैकार्थीवाद कहते हैं.

इसे अंग्रेज़ी में दूसरा ‘रेड स्केअर’ का दौर भी कहा जाता है… लाल खौफ या आतंक. लाल कम्युनिस्ट का समानार्थी है. यह दौर पिछली सदी के पांचवे दशक के आखिरी सालों से छठे दशक तक चला.

मैकार्थी के मुताबिक अमेरिकी सरकार को हिंसक तरीके से उखाड़ फेंकने का एक व्यापक षड्यंत्र था और इसमें छात्र, शिक्षक, बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, संगीतकार, अभिनेता आदि शामिल थे.

जिन्हें निशाना बनाया गया, उनमें अल्बर्ट आइंस्टीन, जोसफ नीधम, बर्टोल्ट ब्रेख्त, एलन गिंसबर्ग, चार्ली चैपलिन, आर्थर मिलर, हॉवर्ड फास्ट, थॉमस मान, ओट्टो क्लेम्पेरेर जैसे वैज्ञानिक, कलाकार, लेखक, नाटककार, संगीतकार जैसे नाम शामिल हैं.

इनमें कुछ को नोबेल पुरस्कार तक मिल चुका था, लेकिन उनकी इस प्रतिष्ठा का कोई लिहाज मैकार्थी या उनके अनुचरों ने नहीं किया.

यह कम्युनिस्ट विरोधी अभियान था लेकिन इसके नाम पर उदार, जनतांत्रिक विचारों वाले लोगों पर भी हमला किया गया. उनकी जासूसी की गई, उनके घरों में चोरी भी की गई, उनकी डाक को सेंसर किया गया.

अमेरिका की सबसे बड़ी खुफिया और जांच-पड़ताल की संस्था फेडरल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन (एफबीआई) ने इसमें पूरी तरह मैकार्थी के पिट्ठू की भूमिका निभाई.

हॉलीवुड इस अभियान का खास निशाना था. लेकिन शायद ही समाज का और व्यवसाय का कोई हिस्सा अछूता था. लोग जेल गए, उन्हें बदनाम किया गया, नौकरियां छीन ली गईं, कई जिंदगियां बर्बाद हो गईं.

अमेरिकी जनता को यकीन दिलाया गया कि यह सब कुछ अमेरिका को राष्ट्र विरोधियों से बचाने के लिए किया जा रहा है. अमेरिका की जनता ने इस पर यकीन भी किया.

एफबीआई के इस दौर के बारे में लिखी अपनी किताब ‘एफबीआई का गुप्त इतिहास‘ में पत्रकार रोनाल्ड केसलर ने एफबीआई के एक पूर्व एजेंट रॉबर्ट लम्फीयर से बात की है.

लम्फीयर ने कहा, ‘मैकार्थीवाद ने कई तरह से नुकसान पहुंचाया क्योंकि वह (मैकार्थी) ऐसी चीज पेश कर रहा था जो असल में नहीं थी… मैकार्थी ने अपनी सूचनाओं और लोगों के बारे में झूठ कहा. उसने लोगों पर इल्जाम लगाए जो सच नहीं थे.’

सूचियां तैयार की गईं, संगठनों, व्यक्तियों, सभाओं, बैठकों, जुलूसों और रैलियों की. इन सबको एक दूसरे से जोड़कर साजिशों के किस्से गढ़े गए.

ऊपर जो नाम हैं, उन जाने-माने लोगों अलावा हजारों नामों की सूचियां थीं. ये सब पात्र या चरित्र थे एक ऐसे नाटक के, जो मैकार्थी के हुक्म पर अमेरिका की सबसे बड़ी जांच संस्था लिख रही थी.

यह सब कुछ विश्वसनीय बनाया गया और माना भी गया. यह सब कोई एक दशक बाद खत्म हुआ. अमेरिका की जनता को तब पता चला कि वह कितने बड़े झूठ में यकीन कर रही थी, लेकिन यह खुद ब खुद नहीं हुआ था.

अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अर्ल वारेन ने एक के बाद एक कई फैसलों से इस शैतानी अभियान का खात्मा किया.

मैकार्थीवाद का विरोध भी हुआ. ट्रूमैन ने कहा, ‘एक आज़ाद मुल्क में हम लोगों को उनके द्वारा किए गए अपराधों के लिए सज़ा देते हैं, लेकिन कभी भी उनके विचारों के लिए नहीं.’

1 जून, 1950 को सीनेट में दिए गए अपने भाषण में सीनेटर मार्गरेट चेज़ स्मिथ ने कहा कि चरित्र हत्या का दौर खत्म होना चाहिए और अमेरिकीवाद के कुछ बुनियादी उसूलों की हिफाजत की जानी चाहिए.

वे उसूल हैं- आलोचना का अधिकार, अलोकप्रिय विचार रखने का अधिकार, विरोध का अधिकार, स्वतंत्र मत का अधिकार.

स्मिथ ने कहा कि ‘कुछ जानो नहीं और हर चीज पर शक करो’ की प्रवृत्ति के कैंसरनुमा पंजे ने समाज को जकड़ लिया है.

मैकार्थी के पहले बीस के दशक में पहला ‘लाल खौफ’ का दौर देखा गया था. उस समय रूसी क्रांति करीब थी और उसके असर का डर अमेरिका में था.

मजदूरों के आंदोलनों का सिलसिला बंध गया था. इस वक्त भी राष्ट्रपति रूडरो विल्सन ने देशद्रोह से संबंधित कानून का सहारा लेकर सरकार विरोधियों पर हमला किया. उन्हें मीडिया का समर्थन मिला.

‘वाशिंग्टन पोस्ट’ ने सरकार की हिमायत करते हुए लिखा, ‘यह वक्त स्वतंत्रता के उल्लंघन पर मगजपच्ची का नहीं है.’

भारत में मैकार्थी के दौर या अमेरिका के पहले लाल खौफ और दूसरे लाल खौफ के बारे में उतनी जानकारी नहीं है जितनी स्टालिन काल में सत्ता विरोधियों के खिलाफ हुए जुल्म की.

वह सिर्फ पार्टी विरोधी गतिविधियों को काबू में रखने के नाम पर नहीं किया गया. इन सारे विरोधियों पर देश या पितृभूमि के विरुद्ध षड्यंत्र का आरोप था.

स्टालिन ने ट्रॉट्स्की, ज़िनोवेव और कामेनेव पर आरोप लगाया कि उन्होंने हिटलर के साथ समझौता करके सोवियत संघ को बेचने की साजिश की है. यह आरोप पार्टी के एक बड़े नेता बुखारिन पर चलाए गए मुकदमे के दौरान स्टालिन ने खुद लगाया.

स्टालिन ने अपने सारे आलोचकों और विरोधियों को नेस्तनाबूद कर दिया. यह सिर्फ राजनीतिक विरोध के खात्मे का दौर न था.

रूस या सोवियत संघ के श्रेष्ठतम लेखक, विचारक, कलाकारों पर पार्टी विरोधी विचारधारा का आरोप लगाया गया. इनकी फेहरिस्त बहुत लंबी है.

लेकिन यह न भूलना चाहिए कि यह सब कुछ लेनिन के वक्त ही शुरू हो गया था. यह नहीं हो सकता कि आप एक साथ बोरिस पास्तरनाक, अन्ना अख्मातोवा के शैदाई हों और लेनिन और स्टालिन के मुरीद भी.

जो ख़ुद को आज़ादी के हिमायती कहते हैं, जो जनतंत्र के पक्षधर हैं, वे इतिहास के इन पन्नों को उलटना न भूलें. जनतांत्रिक शरीर में फासीवाद के कीटाणु पलते हैं, वे वहीं फलते-फूलते हैं और एक वक्त उसे कब्जे में ले लेते हैं.

उस शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को लेकर अगर हम निश्चिंत रहेंगे, तो खतरा भांप भी नहीं पाएंगे. उसी प्रकार प्रगति, जनता के हित की रक्षा आदि तर्क देकर जनता को पालतू बनाया जा सकता है.

यह सब कुछ याद आ गया जब छात्रनेता और दिल्ली आईसा की अध्यक्ष कवलप्रीत के घर दिल्ली पुलिस के पहुंचने और उसके द्वारा उनका मोबाइल फोन जब्त कर लेने की खबर सुनी.

लेकिन इस बार सिर्फ शिकार या निशाने का नाम नया था. कुछ वक्त पहले ‘पिंजरातोड़’ संगठन की दो सदस्यों के घर पहुंचकर इसी तरह उनका फोन जब्त कर लिया गया था.

स्क्रॉल की एक खबर के मुताबिक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कम से कम दो छात्रों के फोन जब्त कर लिए गए हैं. जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों की गिरफ़्तारी का क्रम बना हुआ है.

एक साजिश की कहानी बुनी जा रही है. कहानी का प्लॉट लेकिन कितना पुराना और कितना विदेशी है! न तो मैकार्थी भारतीय नाम है, न स्टालिन.

दोनों ही एक साथ इस धरती के दो कोनों में जीवित और सक्रिय थे. एक दक्षिणपंथी विषाणु का नाश कर रहा था, तो एक लाल क़हर से देश को बचा रहा था.

ध्यान रहे अब दोनों ही राज्य की एक खास प्रवृत्ति या प्रकृति के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. स्टालिनवाद और मैकार्थीवाद! भारत क्या इस जनतंत्र कोश में अपना योगदान करेगा?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)