लॉकडाउन: हैदराबाद से साइकिल चलाकर मज़दूर दिवस पर महराजगंज पहुंचे सात कामगार

पूर्वी उत्तर प्रदेश के महराजगंज के सात मज़दूर काम करने हैदराबाद गए थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया. ऐसे में उन्होंने थोड़ी-बहुत जमापूंजी से साइकिल खरीदी और घर की ओर निकल पड़े.

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पूर्वी उत्तर प्रदेश के महराजगंज के सात मज़दूर काम करने हैदराबाद गए थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया. ऐसे में उन्होंने थोड़ी-बहुत जमापूंजी से साइकिल खरीदी और घर की ओर निकल पड़े.

Maharajganj Migrant Workers (1)
हैदराबाद से साइकिल चलाकर महराजगंज लौटे सातों कामगार. (सभी फोटो: राममिलन यादव)

देशव्यापी लॉकडाउन में विभिन्न राज्यों में फंसे प्रवासी मजदूरों का अपने गांव आने का सिलसिला जारी है. रोज सैकड़ों की संख्या में मजदूर पैदल, साइकिल, बाइक से चलते हुए चले जा रहे हैं.

एक बार फिर से हर जिले के क्वारंटीन सेंटर मजदूरों से भर रहे हैं. तमाम प्रतिबंधों का सामना करते हुए अपने गांव पहुंचने के लिए प्रवासी मजदूरों का संघर्ष सबको चकित कर रहा है.

ऐसा ही संघर्ष हैदराबाद में फंसे उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले के सात युवा मजदूरों ने किया. इन मजदूरों ने हैदराबाद से अपने घर पहुंचने के लिए सात साइकिलें खरीदीं और करीब 1,300 किलोमीटर चलते हुए दस दिन बाद मजदूर दिवस एक मई को अपने गांव पहुंचे.

इस दौरान उन्हें मध्य प्रदेश के रीवा में तीन दिन तक क्वारंटीन भी रहना पड़ा. गांव पहुचने के बाद वे दो सप्ताह के लिए फिर क्वारंटीन कर दिए गए हैं.

ये सभी मजदूर किसी तरह गांव पहुंचने में कामयाब तो हो गए लेकिन इस प्रयास में हैदराबाद प्रवास में की गई सारी कमाई तो खर्च हो ही गई, हरेक मजदूर 15-20 हजार रुपये का कर्जदार भी हो गया.

ये सभी मजदूर महराजगंज जिले के पनियरा क्षेत्र के हैं. राम प्रवेश यादव और राममिलन यादव भवानीपुर गांव के हैं, तो रामअशीष और रामकिशोर अमरहिया के हैं. दीपू कुमार निषाद, धर्मेन्द निषाद और रंजीत मसूरगंज के रहने वाले हैं.

ये मजदूर हैदराबाद के लिए अपने गांव से चार मार्च को रवाना हुए थे. ये हैदराबाद के हफीजपेट इलाके में प्रेमनगर गए और वहां पेंट-पॉलिश करने का काम करने लगे.

यह जगह हैदराबाद से 22 किलोमीटर की दूरी पर है. वे आठ-दस दिन ही काम कर पाए थे कि कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन हो गया और वहीं फंस गए.

राममिलन यादव ने बताया कि वे 20 मजदूरों के साथ दस बाई नौ के तीन कमरे में रहते थे. हर कमरे का किराया चार हजार रुपये महीना था. लॉकडाउन में जल्द ही उनके पैसे खत्म हो गए.

स्थानीय प्रशासन ने उनका कोई सहयोग नहीं किया. वे कई बार पुलिस के पास गए और अपनी मुसीबत बतायी और राशन दिलाने का अनुरोध किया लेकिन उनकी एक न सुनी गई.

काफी प्रयासों के बाद सिर्फ एक दिन 20 लोगों के लिए तीन किलो राशन मिला. राममिलन के अनुसार, उन लोगों को अपने कमरे से बाहर नहीं निकलने दिया जा रहा था. पुलिस उन्हें डंडों से मारती थी.

फिर सभी लोगों को खाने-पाने की दिक्कत होने लगी. काफी प्रयास के बाद वे यहां से नहीं निकल पाए. इस बीच काफी सोचने-विचारने के बाद उन्हें एक तरीका सूझा.

उन्होंने मोबाइल से साइकिल की दुकान का नंबर ढूंढकर फोन लगाया और दुकानदार से कहा कि उन्हें साइकिल खरीदनी है. दुकानदार मान गया.

दुकानदार ने एकदम सुबह दुकान खोली. राममिलन और उनके छह साथियों ने सात साइकिलें खरीदीं. इसमें छह नई थीं जबकि एक सेकेंड हैंड.

नई साइकिल की कीमत करीब पांच हजार पड़ी, जिसके लिए उन्होंने घर से पैसे मंगवाए. राममिलन के चाचा ने पैसे भेजे, बाकी साथियों ने भी यही किया. घर वालों ने इधर-उधर से कर्ज व उधार लेकर पैसा भेजा.

साइकिल खरीदने के बाद उन्होंने अपना सामान समेटा और 20 अप्रैल को तड़के चार बजे अपने कमरे से निकल पड़े. कई घंटे तक साइकिल चलाने के बाद वे नेशनल हाइवे पर पहुंचे.

रास्ता जानने के लिए उन्होंने मोबाइल पर गूगल मैप का सहारा लिया. इसके जरिये उन्हें रास्ता ढूंढने में मदद मिली हालांकि वे पहले ही दिन गूगल मैप से सही रास्ता ढूंढने के प्रयास में भटक गए और करीब 80 किलोमीटर दूसरे रास्ते पर चले गए.

Maharajganj Migrant Workers (1)
भवानीपुर गांव के स्कूल में बना क्वारंटीन सेंटर.

सभी मजदूर रोज 100 किलोमीटर से अधिक साइकिल चलाते हुए आगे बढ़ते गए. हैदराबाद से नागपुर होते हुए वे 27 अप्रैल को रीवा पहुंचे. रीवा में पुलिस ने उन्हें रोक लिया और कहा कि वे आगे नहीं जा सकते.

काफी अनुरोध के बावजूद उन्हें आगे नहीं जाने दिया गया और उन्हें नेशनल हाइवे के पास मानिकबार स्थित एक शेल्टर होम में क्वारंटीन कर दिया गया.

यहां उनकी जांच हुई. इस क्वारंटीन सेंटर पर खाने-पीने की व्यवस्था ठीक नहीं थी. यहां पर और भी मजदूर थे. तीन दिन बाद 29 अप्रैल को उन्हें जाने दिया गया.

साइकिल चलाते हुए राममिलन और उनके साथी 30 अप्रैल को इलाहाबाद पहुंचे. इलाहाबाद में रात डेढ़ बजे उन्हें महराजगंज जाने वाली बस मिली. उन्होंने अपनी साइकिलें बस पर रखी और उस पर सवार हो गए.

शुक्रवार को दोपहर एक बजे सभी मजदूर महराजगंज जिले के फरेंदा स्थित जयपुरिया इंटर कालेज पहुंचे. यहां पर उनकी जांच हुई और सभी के नाम-पते नोट किए गए.

इसके बाद उन्हें गांव भेजा गया और वहां क्वांरटीन किया गया. राममिलन अपने गांव भवानीपुर के प्राथमिक विद्यालय में रामप्रवेश के साथ शुक्रवार रात आठ बजे से क्वांरटीन हैं.

उन्होंने बताया, ‘स्कूल में हम दोनों के अलावा 20 और लोग हैं. यहां कोई व्यवस्था नहीं है. स्कूल की सफाई तक नहीं कराई गई है. जहां-तहां गंदगी है. स्कूल के टॉयलेट ऐसे हैं कि इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.’

उन्होंने आगे बताया कि रात में भोजन और सोने के लिए बिस्तर घर से आया. सभी मजदूर जमीन पर सो रहे हैं. शनिवार की सुबह ग्राम प्रधान से व्यवस्था ठीक करने के बारे में बात की, तो उन्होंने असमर्थता जतायी और कहा कि सरकार-प्रशासन से इसके लिए कुछ नहीं मिला है.

राममिलन ने बताया, ‘हैदराबाद से निकलते हुए सभी साथी मजदूरों ने तय किया कि केवल एक व्यक्ति का मोबाइल ऑन रहेगा और उसी से बातचीत भी होगी और गूगल मैप के जरिये रास्ता भी देखा जाएगा. बाकी सभी के मोबाइल बंद रहेंगे. जब एक मोबाइल डिस्चार्ज होगा, तब दूसरा मोबाइल ऑन किया जाएगा. इसी तरह हम पूरे रास्ते चलते चले.’

उन्होंने आगे बताया, ‘हम पूरे दिन व आधी रात तक साइकिल चलाते. रात में साइकिल चलाना आसान था क्योंकि ट्रैफिक बहुत कम होता. आधी रात बाद हाइवे किनारे सुरक्षित जगह देखकर खुले आसमान तीन-चार घंटा सो लेते. अल सुबह उठकर फिर साइकिल चलाना शुरू कर देते.’

दीपू ने बताया कि रास्ते में उनकी तरह सैकड़ों मजदूर चल रहे थे. कोई पैदल था तो कोई साइकिल से. नजदूर आने-जाने वाले ट्रक व अन्य वाहनों से गुजारिश कर रहे थे कि वे उन्हें ले चलें. कुछ मजदूरों को ट्रक, एम्बुलेंस का सहारा भी मिला.

राम प्रवेश ने बताया कि रास्ते में उन्हें खाने-पीने की ज्यादा दिक्कत नहीं हुई. जहां भी उन्हें रोका गया, कुछ न कुछ खाने का सामान दिया गया. रास्ते में कार से चल रहे लोग भी उन्हें रोककर फल, दूध व खाने का सामान दे रहे थे.

राममिलन इंटर तक पढ़े हैं जबकि दीपू बीए तक पढ़ाई की है. राममिलन ने पहले सेना में भर्ती होने का प्रयास किया लेकिन मेरिट में नहीं आ सके. इसके बाद उन्होंने सिपाही भर्ती परीक्षा में हिस्सा लिया लेकिन असफल हो गए.

जब आजीविका का कोई सहारा नहीं मिला तो वे अपने बड़े भाई सिकंदर यादव की तरह पेंट-पॉलिश का काम अपना लिया. उनके बड़े भाई हैदराबाद में पहले से मजदूरी करते थे. उनके जरिये ही वह हैदराबाद पहुंचे.

राममिलन पिछले वर्ष दिसंबर महीने में हैदराबाद गए थे. तब वह जनवरी तक रहे. फरवरी महीने में घर में एक शादी थी, इसलिए लौट आए, जिसके बाद चार मार्च को हैदराबाद के लिए रवाना हुए. उनके साथ छह और लोग भी गए.

23 वर्षीय राममिलन ने बताया कि वह हैदराबाद जाते ही बीमार पड़ गए थे इसलिए वह चार दिन तक मजदूरी नहीं कर पाए. बमुश्किल आठ दिन मजदूरी की थी.

एक दिन की मजदूरी 550 से 600 रुपये मिलती थी. लॉकडाउन अवधि में हैदराबाद रहने और गांव तक लौटने में उनके 20 हजार रुपये खर्च हुए हैं. इसमें पांच हजार रुपये में खरीदी गई रेंजर साइकिल भी शामिल है.

गांव लौटने के बाद वह 15 हजार रुपये से अधिक के कर्जदार हो गए हैं.. यही हाल उनके साथियों का भी है. राममिलन और उनके सभी साथियों की आयु 25 वर्ष से कम है. उनमें सबसे कम उम्र के 17 वर्षीय राम प्रवेश हैं.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)