क्या यह दावा कमज़ोर हुआ है कि हिंदू बहुसंख्यक हैं इसलिए देश धर्मनिरपेक्ष है?

2017 की ढलती जून की इस सुबह ईद मुबारक कहना झूठी तसल्ली जान पड़ती है, एक झूठा आश्वासन, सच्चाई से आंख चुराना! सच यह है कि यह ईद मुबारक नहीं है.

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2017 की ढलती जून की इस सुबह ईद मुबारक कहना झूठी तसल्ली जान पड़ती है, एक झूठा आश्वासन, सच्चाई से आंख चुराना! सच यह है कि यह ईद मुबारक नहीं है.

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(फोटो: पीटीआई)

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है. कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है. वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है.आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है. गांव में कितनी हलचल है. ईदगाह जाने की तैयारियां हो रही हैं.किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है. किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है.जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें. ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी. तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है.

जब भी ईद करीब आती है मुझे ईदगाह की याद आने लगती है. मुझे ईद की आमद की खुशी का, बल्कि सही लफ्ज़ उल्लास ही होगा, इससे बेहतर इज़हार कहीं और नहीं मिलता.

प्रेमचंद को, जो अपने ही शब्दों में एक कायस्थ बच्चा ठहरे, ईद के चलते कुदरत भी बदली-बदली नज़र आती है.

और प्रेमचंद से बेहतर किसी ने ईद की नमाज़ का वर्णन भी किया हो, इसका इल्म मुझे नहीं:

सहसा ईदगाह नजर आई. ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है. नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है. और रोजेदारों की पंक्तियां एक के पीछे एक न जाने कहां तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहां जाजम भी नहीं है. नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं. आगे जगह नहीं है. यहां कोई धन और पद नहीं देखता. इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं. इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए. कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियां एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएं, और यही क्रम चलता रहे. कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएं, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानो भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं.

क्यों प्रेमचंद एक साथ हजारों मुसलमानों को देख घबरा नहीं उठते, क्यों मुसलमानों की मिल्लत में उन्हें भाईचारे का एक अनंत सूत्र नज़र आता है?

आज मैं प्रेमचंद के सामने सर उठाने के काबिल नहीं. जिस तरह प्रेमचंद दिल से ईद मुबारक कह सकते थे, मैं आज नहीं कह पाता.

इसलिए कि जिस बच्चे हामिद के साथ साथ प्रेमचंद का बालिग़ दिल भागता रहता है, आज वह अपनी टोपी की वजह से ईदगाह जाते हुए अपने ही गांववालों के हाथों क़त्ल कर दिया जा सकता है.

और यह कि जिस ईदगाह की सुंदरता से प्रेमचंद मुग्ध रह जाते हैं, उसे ही उनके देशवासी हिंदू अब जगह-जगह ढाह भी सकते हैं.

इसलिए 2017 की ढलती जून की इस सुबह ईद मुबारक कहना झूठी तसल्ली जान पड़ती है, एक झूठा आश्वासन, अपने आपको धोखा देना मालूम पड़ता है! सच्चाई से आंख चुराना! सच यह है कि यह ईद मुबारक नहीं है.

जुनैद ईद की खरीददारी करके ही लौट रहा था और उसी वजह से मारा गया. क्योंकि वह मुसलमान लग रहा था.और उसके भाई भी मारे जा सकते थे. चाकुओं का निशान लेकर वे ज़िंदा हैं क्योंकि ज़िंदगी फिर भी जूझती है. कातिल अपनी पूरी क्रूरता के बावजूद कई बार ज़िंदगी की ज़िद से हार जाता है.

चाकुओं से वार से अधिक गहरा ज़ख्म जो जुनैद के बच गए भाइयों के दिलों पर है वह है उन मुसाफिरों की हंसी, उकसावे और ख़ामोशी का जो चाकू के वार का साथ दे रही थीं. यह हिंदू बेहिसी है, बल्कि उससे बढ़कर यह उस क़त्ल में उनकी साझेदारी है.

पिछले तीन साल में अगर मुसलमान मारे गए हैं या बेइज्जत किए जाते रहे हैं तो यह उनकी हार नहीं है. यह है उस दावे की पोल खुल जाना जो अब तक हिंदुओं के नाम पर किया जाता रहा है. वह दावा यह है कि इस मुल्क में अगर धर्मनिरपेक्षता है तो इस वजह से कि हिंदू यहां बहुमत में हैं.

अब तक कहा जाता रहा था कि चूंकि हिंदू उदार हैं, इस देश में अन्य धर्मों के लोग अपनी पूरी पहचान के साथ,अपनी उपासना पद्धति के साथ, बिना कोई समझौता किए, बिना खुद को हिंदुओं के मुताबिक़ बदले रह पा रहे हैं.

और यह एक हद तक सच भी था. इस वजह से हम हर जगह सर ऊंचा रख पाते थे. लेकिन कुछ बदलने लगा.

यह अब साबित होता लगता है, गुजरात में पहले ही हो गया था कि यह सिर्फ एक भ्रम है, एक छलावा जो हम खुद को देते रहे थे.

यह बार-बार साबित हुआ है कि हिंदुओं को राजनीतिक तौर पर गोलबंद करने के लिए उनके बहुमत के दबदबे का अहसास दिलाया गया है. ईसाई और मुसलमान तथाकथित हिंदू क्रोध के शिकार हुए हैं, मारे और उजाड़े गए हैं. सिख भी जिन्हें वे हिंदू धर्म के रक्षक कहां जाता रहा है कम से कम एक बार इस क्रोध का सामना कर चुके हैं.

यह ठीक है कि इन हमलों में सारे हिंदू शामिल नहीं होते और एक खासा हिस्सा इन सिर्फ इससे अलग है बल्कि इसे नापसंद करता है,लेकिन अब पारिवारिक बातचीत में भी वह खुद को लाचार अनुभव करने लगा है और ख़ामोश रह जाता है.

और इसलिए अब हिंदू उदारता का इत्मीनान मुसलमानों को नहीं हो पा रहा है. प्रेमचंद की जगह सावरकर और गोलवलकर की शिक्षा लेकर हिंदू जगह जगह मुसलमानों को यह बता रहे हैं कि वे उनके रहमोकरम पर ही ज़िंदा रह सकते हैं. उनकी शर्तों पर.

न-नुकुर करने पर उनके साथ वह होगा जो वल्लभगढ़ के पास हरियाणा के अटाली में तीन साल पहले हुआ. अदालत के आदेश के बावजूद अपनी ही ज़मीन पर मुसलमान मस्जिद नहीं बना पाए. कोशिश की तो उनकी बस्ती जलाकर बर्बाद कर कर दी गई.

यही कहानी दुहराई गई अभी-अभी ठीक दिल्ली की सीमा पर, सोनिया विहार के एक इलाके में जहां हिंदू आबादी के बीच सिर्फ पच्चीस मुसलमान परिवार हैं.

रमज़ान के महीने में कुछ हिंदुओं ने मुसलमानों के बनाए एक ढांचे को तोड़ डाला जिसे लेकर मुसलमानों का दावा था कि वो यहां मस्जिद बना रहे थे.

उन्हें रोका न जा सका, लेकिन अधिक तकलीफ की बात यह है कि और गांव में इसे लेकर प्रायः किसी संकोच में नहीं हैं.

क्या मस्जिदें अब हिंदुओं के दिलों में चुभने लगी हैं? क्या अज़ान की पुकार में उन्हें अपनी नींद तोड़ने की साजिश नज़र आने लगी है? क्या उन्होंने प्रेमचंद को पढ़ना बिल्कुल ही छोड़ दिया है?

यह उम्मीद करना तो खामख्याली ही है कि इनको बुलबुले हिंद की याद होगी, जिन्होंने लिखा:

‘यह(इस्लाम) पहला मजहब था जिसने ज़म्हूरियत की तालीम दी और उसका अभ्यास भी किया, क्योंकि जब मस्जिदों की मीनारों से अजान उठती है और आबिद एक साथ इकट्ठा होते हैं, इस्लाम की ज़म्हूरियत का दिन में पांच बार मुजाहरा होता है जब एक किसान और एक बादशाह एक दूसरे के अगल बगल सजदा करते हैं और कहते हैं, “अल्लाहो अकबर!”. बार-बार मैं इस्लाम की इस अदृश्य एकता से हैरान रह जाती हूं जो एकबारगी इन्सान को बिरादर बना देती है, जब आप लन्दन में एक मिस्री से मिलते हैं या एक अल्जीरियाई से एक हिन्दुस्तानी या तुर्क से, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि एक की मातृभूमि मिस्र है और दूसरे की भारत?’

सरोजिनी नायडू राष्ट्र के संकोच से ऊपर इस एकजुटता की जगह क्यों देश की धरती से वफादारी की कसम खाने को एक मुसलमान को नहीं कहतीं?

क्या था प्रेमचंद में और सरोजिनी नायडू में जिससे अब हम महरूम हो गए हैं?

इस ईद की नमाज़ अगर मुसलमान इन बेचैन दिलों के साथ पढ़ेंगे तो क्या इसमें वे हिंदुओं एक हिस्से में घर करती जा रही तंगनज़री के लिए माफ़ी भी मांग पाएंगे जिन्होंने खुद को शैतान के हवाले कर दिया है और जो मुहब्बत के लिए नाकाबिल रह गए हैं?

(अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं.)

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