संकट की घड़ी में ऑनलाइन शिक्षा सही है, पर इसे कक्षाओं का विकल्प नहीं बनाया जा सकता

कोरोना संकट के दौर में शैक्षणिक संस्थानों के आगे जो चुनौती है उसमें ऑनलाइन एक स्वाभाविक विकल्प है. ऐसे समय में विद्यार्थियों से जुड़ना समय की ज़रूरत है, लेकिन इस व्यवस्था को कक्षाओं में आमने-सामने दी जाने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का विकल्प बताना भारत के भविष्य के लिए अन्यायपूर्ण है.

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A student takes classes online with his companions using the Zoom app at home in El Masnou, north of Barcelona, Spain April 2, 2020. REUTERS/Albert Gea

कोरोना संकट के दौर में शैक्षणिक संस्थानों के आगे जो चुनौती है उसमें ऑनलाइन एक स्वाभाविक विकल्प है. ऐसे समय में विद्यार्थियों से जुड़ना समय की ज़रूरत है, लेकिन इस व्यवस्था को कक्षाओं में आमने-सामने दी जाने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का विकल्प बताना भारत के भविष्य के लिए अन्यायपूर्ण है.

A student takes classes online with his companions using the Zoom app at home in El Masnou, north of Barcelona, Spain April 2, 2020. REUTERS/Albert Gea
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

शिक्षा अपने मूल में सामाजीकरण की एक प्रक्रिया है. जब-जब समाज का स्वरूप बदला शिक्षा के स्वरूप में भी परिवर्तन की बात हुई. आज कोरोना संकट के दौर में ऑनलाइन शिक्षा के जरिये शिक्षा के स्वरूप में बदलाव का प्रस्ताव नीति निर्धारकों के द्वारा पुरजोर तरीके से रखा जा रहा है.

ऐसे में यह देखना जरूरी है कि समाज की संरचना और उसके उद्देश्य में ऐसा कौन-सा मूलभूत परिवर्तन हो गया है कि इसे अवश्यंभावी बताया जा रहा है. आजादी के बाद स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित राष्ट्रीयता वाला सार्वभौमिक शिक्षा का मॉडल क्या अब किसी काम के लायक नहीं बचा?

क्या सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समानता को अर्जित किया जा चुका है ? ऑनलाइन शिक्षा के साथ ही जिस नई शिक्षा नीति को लागू करने की तरफ सरकार बढ़ रही है उससे शिक्षा का कौन सा सामाजीकरण भविष्य का उद्देश्य है?

ऑनलाइन शिक्षा मात्र तकनीक नहीं सामाजीकरण की नई प्रक्रिया है जिसके जरिये सरकार और नीति निर्धारकों की नीति व नीयत को समझा जा सकता है और उसे उसी रूप में देखने की भी जरूरत है.

कोरोना संकट में शारीरिक दूरी बनाए रखकर शिक्षा के लिए तकनीकी का प्रयोग एक बात है. वैसे भी तकनीकी के विकास के साथ ही शिक्षा में भी उसका उपयोग होता रहा है. यह होना जरूरी भी है.

ब्लैकबोर्ड से लेकर स्मार्टबोर्ड तक बदलती तकनीकी का उपयोग क्लासरूम टीचिंग को मजबूत और रुचिकर बनाने के लिए किया जाता था है. लाइब्रेरी का डिजिटल होना उसी प्रक्रिया का एक रूप है.

प्रोफेसरों के व्याख्यान को रिकॉर्ड करना और उन्हें ऑनलाइन उपलब्ध कराना भी तकनीकी का उपयोग करना ही है. इन तकनीकों का उपयोग कर सामाजीकरण की प्रक्रिया को शिक्षा के द्वारा बढ़ाया जाता रहा था.

आज जिस तरह नई शिक्षा नीति और ऑनलाइन शिक्षा की बात की जा रही है, उसका इससे कोई संबंध नहीं है. उसका संबंध शिक्षा के निजीकरण के मॉडल से है, जिसकी जड़ में बिड़ला-अंबानी कमेटी की रिपोर्ट है. ऐसे में उसकी ऐतिहासिकता में जाने बिना इसे समझना संभव नहीं.

वैसे यह तथ्य भी बहुत मजेदार है कि शिक्षाविदों के द्वारा शिक्षा नीति बनाने की परंपरा जो राधाकृष्णन से चली आ रही थी, उसे खत्मकर बिड़ला-अंबानी जैसे पूंजीपतियों के नेतृत्व में शिक्षा नीति तैयार करने का निर्णय अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार के द्वारा किया गया.

स्वाभाविक है कि इससे नजरिये में भी फर्क आना था सो आया. पहली बार शिक्षा के क्षेत्र को अरबों-खरबों डॉलर के वैश्विक-बाजार के तौर पर पहचाना गया. सुझाव दिया गया कि इस क्षेत्र को व्यवसाय यानी मुनाफा कमाने का धंधा घोषित किया जाए.

शिक्षा में निजीकरण की प्रक्रिया तो पहले ही से चल रही थी, लेकिन अब व्यवसायीकरण की तरफ जाने की घोषणा हो गई. शिक्षा को वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन(डब्ल्यूटीओ) के जनरल एग्रीमेंट ट्रेड एंड सर्विस (GATS) के तहत व्यावसायिक क्षेत्र में शामिल किए जाने का लगातार वैश्विक दबाव डाला जाने लगा.

इसका मतलब ही था कि सरकार के द्वारा दी जाने वाले सभी सब्सिडी या अनुदान को खत्म करना. आज उसी के तहत नई शिक्षा नीति में यूजीसी को खत्म करना तय हुआ है.

यूजीसी की स्थापना का उद्देश्य ही राष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षा के विकास के लिए अनुदान देना और देशभर के उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए नियमन (रेग्युलेशन) बनाना था. जब सब्सिडी ही खत्म कर दी जानी है तो यूजीसी की जरूरत कहां!

आवंटन के लिए स्वायत्त संस्थान के तौर पर जैसे योजना आयोग को पहले खत्म किया गया, वैसे ही आज उच्च शिक्षा के आवंटन के लिए जो स्वायत्त संस्था यूजीसी है, उसे भी खत्म करना तय किया जा रहा है.

यूजीसी अनुदान के साथ ही देशभर की उच्च शिक्षा के रेग्युलेशन का काम भी करता है. वह उच्च शिक्षण संस्थान के कर्मचारियों, शोधार्थियों और शिक्षकों की सेवा-शर्तों को भी निर्धारित करता है.

शिक्षा का क्षेत्र राज्य के अधीन था जिसमें इमरजेंसी के दौरान परिवर्तन कर कॉन्करेंट लिस्ट में लाया गया था और अब नई शिक्षा नीति में इसका केंद्रीकरण किया जा रहा है. राज्य सरकारों की भागीदारी नीति निर्धारण में न्यूनतम है.

जिस केंद्रीकृत व्यवस्था की अवधारणा लाई जा रही है, पहले इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री को करनी थी, अब उसमें थोड़ा परिवर्तन कर शिक्षा मंत्री को जिम्मेदारी देने की बात की गई है.

शिक्षाविदों की उसमें भूमिका को भी एक तरह से इतना कम कर दिया गया है कि वे बस प्रतीक बनकर रह जाएंगे. इसमें जिनकी भूमिका को बढ़ाया गया है, वे हैं व्यावसायिक घराने और राजनीतिक हस्तक्षेप.

नीति निर्धारण के अलावा बाकी सभी तरह के नियमन और सेवा-शर्तों को उच्च शिक्षण संस्थान के बोर्ड ऑफ गवर्नर के द्वारा तय किया जाएगा. नई शिक्षा नीति में सभी संस्थानों के स्वायत्तता का प्रस्ताव है.

स्वायत्तता का मतलब है उस संस्थान को मिलने वाला अनुदान का खत्म होना और उस संस्थान के बोर्ड ऑफ गवर्नर यानी मैनेजमेंट की स्वायत्तता. ये संस्थान अब इन गवर्नरों की प्राइवेट कंपनी की तरह होंगे.

अब ये मैनेजर ही शिक्षा के नीति निर्धारक होंगे और नियम तय करेंगे. यही तय करेंगे कि उस शिक्षण संस्थान का उद्देश्य क्या होगा! शिक्षकों और कर्मचारियों की सेवा-शर्तों को भी अब यही गवर्नर्स तय करेंगे. प्रमोशन से लेकर निलंबन तक सब यहीं तय होगा. यही भाग्य विधाता होंगे.

आप देखना चाहें तो देख सकते हैं कि राष्ट्र निर्माण के लिए शिक्षा की जरूरत और उस उद्देश्य के लिए नियमों और सेवा-शर्तों के लिए जिस राष्ट्रीय स्वायत्त संस्था यूजीसी का निर्माण किया गया था, आज राष्ट्रवाद के नारे के पीछे उसे खत्म कर कंपनी राज में तब्दील किया जा रहा है. कंपनी जिसे किसी भी तरह मुनाफा चाहिए.

इस पृष्ठभूमि में ही ऑनलाइन शिक्षा पर विचार किया जाना चाहिए. उसे कोरोना संकट के तात्कालिक रूप से मात्र जोड़कर देखना सही नहीं होगा.

इस नई शिक्षा नीति में शिक्षक और छात्र की परिभाषा ही बदल गई है. आधुनिक भारत की शिक्षा नीति में मध्यकालीन गुरु-शिष्य की एकलव्य वाली परंपरा को खत्म कर शिक्षक और विद्यार्थी की परिभाषा गढ़ी गई थी.

शिक्षा के सार्वभौमिक स्वरूप से इसका संबंध था, सार्वभौमिक ज्ञान से इसका संबंध था. सार्वभौमिक ज्ञान पर आधारित विश्व-दृष्टि से जुड़े मूल्यों से ही विश्वविद्यालय की परिभाषा बनी थी.

शिक्षा का अर्थ ही उन मूल्यों से राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाना था. स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, आदि जैसे सार्वभौमिक मूल्यों के जरिये नागरिक के निर्माण की भूमिका शिक्षा की थी. शिक्षक-छात्र संबंध इन्हीं मूल्यों से निर्मित थे.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

आज कंपनी राज की शिक्षा नीति में शिक्षक ‘फैसिलिटेटर’(सुविधाप्रदाता) की भूमिका में है और छात्र ‘कंज्यूमर’(उपभोक्ता) है. यह सब मैकाले की शिक्षा नीति के विरोध के पर्दे के पीछे किया जा रहा है.

स्वाभाविक है कंज्यूमर वही हो सकता है जिसकी जेब में खरीदने की क्षमता हो या कर्ज पाने की योग्यता हो. अक्सर आरक्षण को ‘योग्यता पर हमला’ के तौर पर देखने वाले लोग इसे कैसे देखेंगे यह तो भविष्य ही बताएगा, पर इसकी वजह से समाज की परिधि पर स्थित योग्यता को पूरी तरह से बाहर करने की व्यवस्था का निर्माण किया जा चुका है.

एकलव्य का अंगूठा नहीं उसकी भ्रूण हत्या की तैयारी हो चुकी है. उच्च शिक्षण संस्थान रूपी ये कंपनियां अपने मुनाफे के लिए लागत को कम करेंगी.

दुनिया भर में जहां भी यह व्यवस्था है वहां स्थायी शिक्षकों की जगह ठेके पर शिक्षकों, कर्मचारियों की बहाली देखी जा सकती है. यही मॉडल यहां भी लाया जा रहा है.

इसके साथ ही तकनीक का सहारा लेकर लागत को कम किया जाना इस प्रस्ताव का हिस्सा है. स्थायी शिक्षक की जगह ठेके पर नियुक्तियों की सामान्य व्यवस्था बनाई जा रही है, जिससे लागत को कई गुना कम किया जा सके.

इसके साथ ही ऑनलाइन कंटेंट के जरिये लागत को जबरदस्त तरीके से घटाने का काम किया जा रहा है. मजेदार यह है कि इसका विज्ञापन देकर दूसरी तरफ छात्रों से ऊंची फीस वसूल की जा रही है.

तमाम निजी संस्थानों के विज्ञापन को देखेंगे तो आपको इसका सबूत भी मिल जाएगा. कोरोना संकट का उपयोग करते हुए ऑनलाइन की अनिवार्यता को धकेलने की वर्तमान सरकार की नीति को इस परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है.

कोरोना संकट के दौर में शैक्षणिक संस्थानों के आगे जो चुनौती है उसमें ऑनलाइन एक स्वाभाविक विकल्प दिखाई देता है. शारीरिक दूरी बनाए रखने की सोच को स्थापित करने, लॉकडाउन और एक जगह इकट्ठा न होने का असर शिक्षण संस्थानों पर कितने दिनों तक लागू रहेगा यह कहना कठिन है.

ऐसे में विद्यार्थियों के साथ इंगेज रहना समय की जरूरत थी और है भी. इसे ऑनलाइन ही संभव किया जा सकता है लेकिन इस इंगेजमेंट को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का विकल्प बताना भारत के भविष्य के लिए अन्यायपूर्ण है.

लगातार के तकनीक व्यवधान हम सभी झेल रहे हैं. चेहरे के हर हावभाव से अपने तर्कों को जोड़ने और नए-नए उदाहरणों से उन्हें संतुष्ट करने की जो प्रक्रिया है वह ऑनलाइन में संभव नहीं.

आप सबके माइक को बंद कर दें तो प्रक्रिया एकतरफा होगी, माइक खोल दें तो शोर में सब गुल हो जाएगा. किसी के घर से टीवी का शोर तो किसी के रसोई से आती चीख पुकार.

आप उन लड़कियों की दास्तान नहीं समझ सकते जिनके घरों में एकांत तो नहीं ही है और प्राथमिक जिम्मेदारी पढ़ाई भी नहीं है. घंटों ऑनलाइन मोबाइल के साथ अकेले बैठकर पढ़ने की स्थिति कितने घरों में है?

फिर भारत में कश्मीर भी है जहां 4जी नेटवर्क की संभावना भी नहीं. उन दूर दराज के इलाकों में इस ऑनलाइन को कैसे देखेंगे, जहां अभी बिजली और सड़क भी नहीं पहुंचे. जिन घरों में यह सब है भी उनमें भी क्लासरूम की सामूहिकता और एकाग्रता का माहौल बन सकता है क्या?

नहीं बन सकता. ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा वर्तमान संकट की घड़ी में ‘मजबूरी में जरूरी’ तो हो सकता है, पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का विकल्प बिल्कुल भी नहीं हो सकता.

कुछ लोग ऑनलाइन शिक्षा में सामाजिक भेदभाव को देख रहे हैं. उनका तर्क है कि पिछड़े तबके के पास स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, डेटा, आदि नहीं है, इसलिए वे ऑनलाइन के लाभ से वंचित रह जाएंगे.

यह चिंता सही है. यह कोरोना संकट की तात्कालिक समस्या से उपजी परिस्थिति है. स्मार्टफोन, कम्प्यूटर, डेटा, आदि की लागत और क्लासरूम शिक्षा की लागत का अंतर अगर देखें तो समझ आ जाएगा कि इसी तर्क का इस्तेमाल कर दलित-पिछड़े तबके को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से बाहर किया जा रहा है.

उन्हें ऑनलाइन की तरफ धकेला जा रहा है. सरकार गरीब दलित पिछड़ों को इन तकनीकी सुविधाओं के जरिये ऑनलाइन शिक्षा का विकल्प देने की बात कर रही है. उसे ही वे सस्ती शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का नाम दे रहे हैं. मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्सेज (MOOCs) पर जोर इसी कारण से दिया जा रहा है.

आजादी के बाद देश की जरूरत के हिसाब से शिक्षण संस्थानों का निर्माण किया गया. डॉक्टर, इंजीनियर के साथ कानून आदि की पढ़ाई को ध्यान में रखा गया. इन सबके निर्माण में एक नागरिक के निर्माण की भावना निहित थी.

ऐसा नागरिक जिसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे उदार मूल्यों के साथ आलोचनात्मक विवेक हो. यही नैतिक मूल्य भी था. साहित्य और समाज विज्ञान के जरिये इन नैतिक मूल्यों को निर्मित करने की नीति थी. आज वह पूरी नीति ही गलत बताई जा रही है.

‘धर्मनिरपेक्षता’ पर हमले के बहाने जिस भारतीयता के नैतिक मूल्यों को स्थापित करने की नीति लागू की जा रही है वह सांप्रदायिक नैतिक मूल्य हैं. जो किसी भी तरह के आलोचनात्मक विवेक को बर्दाश्त नहीं कर सकता. इसलिए जो नई नीति है वह मात्र व्यावसायिक शिक्षा को ही राष्ट्र की जरूरत बताता है.

उदारवादी सार्वभौमिक मूल्यों को मैकाले की शिक्षा नीति बताकर उसे पश्चिमी मूल्य कहकर उस पर हमला करता है. इसका विकल्प भारतीयता का गैर बराबरी वाला ब्राह्मणवादी मूल्य है.

यही कारण है कि सार्वभौमिक उदारवादी मूल्य के निर्माण की जगह वे ‘नैतिक मूल्यों के जरिये सांप्रदायिकरण’ और आलोचनात्मक विवेक निर्माण की जगह ‘व्यवसायीकरण शिक्षा’ पर जोर दे रहे हैं. ऐसे में सार्वभौमिक मूल्य से पैदा राष्ट्रवाद को खत्म कर ‘नव राष्ट्रवाद’ को बढ़ाने की कोशिश है.

राष्ट्रनिर्माण में शिक्षा की भूमिका का अर्थ अब ऐसी व्यावसायिक शिक्षा है जिसका उद्देश्य मात्र रोजगार पैदा करना है. रोजगार का सीधा संबंध अर्थव्यवस्था से होता है न कि व्यावसायिक शिक्षा मात्र से. आज तकनीकी को विज्ञान का विकल्प बताया जा रहा है और स्किल यानी कौशल को शिक्षा का विकल्प.

असल मकसद एक ही है और वह है शिक्षा को मुनाफा कमाने का धंधा बनाना और इसमें आने वाले तमाम रुकावटों को खत्म करना. जिसकी जेब में इतना धन होगा कि वह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पा सके उनके लिए अशोका और जियो जैसे चंद संस्थान होंगे जिसकी फीस लाखों में होगी.

बाकी के लिए व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था विभिन्न संस्थानों के निजीकरण और व्यवसायीकरण के जरिये किया जा रहा है. बाकी के शोषित दलित, पिछड़े, गरीब और महिलाओं के लिए ऑनलाइन की सस्ती सुविधा उपलब्ध कराने की योजना सरकार की नीति है.

भारतीय परंपरा में शिक्षा का यही स्वरूप तो था- शास्त्र की शिक्षा ब्राह्मण, शस्त्र की शिक्षा क्षत्रिय और बाकी के लिए स्किल इंडिया. धोबी का बेटा धोबी, लोहार का बेटा लोहार- स्किल उन्हें उनकी पृष्ठभूमि से मिलती थी. यही आज के स्किल इंडिया का भी लक्ष्य है. उन्हें शिक्षा से दूर रखा जाए ताकि आलोचनात्मक विवेक से यह बड़ा हिस्सा महरूम रहे.

गैर बराबरी की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था में किसी भी तरह के प्रतिरोध की चेतना को पैदा न होने दिया जा सके. यह दर्द मात्र शिक्षा का ही नहीं है.

खेती से लेकर छोटे-छोटे तमाम व्यवसाय तक का यही दर्द है. एक तरफ बड़ी व्यावसायिक पूंजी उन्हें तबाह करने में लगी हैं, तो दूसरी तरफ वे किसी भी तरह से संगठित न हो सकें – इसकी कोशिश जारी है.

श्रम कानून में बदलाव किया जा रहा है. काम के घंटे बढ़ाने के साथ ही ट्रेड यूनियन बनाने के नियम को भी खत्म किया जा रहा है. छात्रों और शिक्षकों को किसी भी तरह के यूनियन बनाने पर रोक लगाने का नियम बनाया जा रहा है.

समाज का 70% आज गरीबी की रेखा के नीचे जाने की स्थिति में पहुंच गया है. कोरोना संकट के कारण बेरोजगारी के बढ़ने की दर लगातार बढ़ रही है. पहले से ही आर्थिक मंदी की तरफ जा रही भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने कोरोना संकट चुनौती की तरह खड़ा है. लोगों की खरीद क्षमता न्यूनतम स्तर पर है.

ऐसे में जहां विकल्प है सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र को मजबूत करना, सरकारी निवेश को बढ़ाना ताकि नागरिकों की क्षमता और योग्यता को बढ़ाया जा सके, उनकी खरीद क्षमता को बढ़ाया जा सके, अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सके!

लेकिन सरकार की मंशा एकदम अलग है. वह संकट का आधार लेकर बिड़ला-अंबानी की पूंजीपरस्त नीतियों को ही आगे बढ़ाने में लगी है. कहते हैं कि संकट के समय ही दोस्त की पहचान होती है. वर्तमान सरकार की पहचान भी इस कोरोना संकट के समय देखी जा सकती है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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