लॉकडाउन: घोषणाओं से दिल भले बहल जाएं, पेट कैसे भरेंगे

मज़दूरों के नाम पर हो रही बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बीच यह स्पष्ट दिख रहा है कि सरकार और समाज के पास न तो उनके लिए सरोकार है, न सम्मान की भाषा और व्यवहार. न ही वह गरिमा और आंख का पानी बचा है, जिसके साथ एक मनुष्य दूसरे को मनुष्य समझते हुए देखता है.

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Ghaziabad: Migrants wait at a roadside after police stopped them at the Ghazipur border, during ongoing COVID-19 lockdown, in Ghaziabad, Wednesday, May 20, 2020. (PTI Photo/Vijay Verma) (PTI20-05-2020_000271B)

मज़दूरों के नाम पर हो रही बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बीच यह स्पष्ट दिख रहा है कि सरकार और समाज के पास न तो उनके लिए सरोकार है, न सम्मान की भाषा और व्यवहार. न ही वह गरिमा और आंख का पानी बचा है, जिसके साथ एक मनुष्य दूसरे को मनुष्य समझते हुए देखता है.

Ghaziabad: Migrants wait at a roadside after police stopped them at the Ghazipur border, during ongoing COVID-19 lockdown, in Ghaziabad, Wednesday, May 20, 2020. (PTI Photo/Vijay Verma) (PTI20-05-2020_000271B)
(फोटो: पीटीआई)

अगर घोषणाओं से देश के कामकाजी मेहनतकश प्रवासी मजदूर का पेट भर पाता, अगर उसकी दिक्कतें दूर हो पातीं, अगर उसे लंबी डगर पैदल न चलना पड़ता, उसकी प्यास बुझ पाती, अगर उसे पुलिस के डंडे न खाने पड़ते, उसे इसी देश का सम्मानित वोटर और नागरिक मान लिया जाता, देश के विकास और उसकी अर्थव्यवस्था में उसके योगदान का ठीक-ठाक मोल लगाया जाता।

घोषणाओं से अगर उसे मेहनत करने और दिहाड़ी कमाने के मौके मिलते रहते, अगर उसे घर और गांव छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती, अगर उसे अपने घर आराम से लौटने दिया जाता, अगर उसकी पसीने की गाढ़ी कमाई दलालों और मुनाफाखोंरों से बचा ली जाती।

अगर घोषणाओं से उसे अफरातफरी और भगदड़ से बचा लिया जाता, अगर उसे अपमानित न महसूस करना पड़ता, अगर उन्हें हाशिये के उस तरफ धकेला न जाता, अगर उन्हें भी सगा और अपना समझा जाता, अगर उनके पास जीने, खाने, रहने, बसर करने की न्यूनतम जगह होती…

कितने सारे अगर हैं. अगर वैसा हो पाता, तो शायद बतौर हिंदुस्तानी हम बेहतर मुल्क होते. पर ऐसा नहीं है. एक के बाद एक रोज तस्वीरें और वीडियो आ रहे हैं. घर जाने की जद्दोजहद में लोग सड़कों पर निकले जा रहे हैं.

लॉकडाउन के दो महीने बाद भी ये कम होने का नाम ही नहीं ले रही. दो महीने में देश जितना तैयार होना चाहिए था, नहीं दिख रहा और लोगों की तकलीफें हैं, जो कम होने का नाम ही नहीं ले रहीं. मसलन सड़क पर लोग मर रहे हैं. औरतें और बच्चे फटी चप्पलों में चले जा रहे हैं.

बहुत-से लोग हैं जिन्हें बस या ट्रेन मिलने की उम्मीद थी, वे भीड़ लगाए बैठे हैं. कुछ को बसें मिली हैं, तो उन्हें उनके राज्य में घुसने नहीं मिल पा रहा है. बहुत सारे बेबस रोते लोगों की तस्वीरें हैं. कोई अपने बीमार बच्चों तक नहीं पहुंच पा रहा है, कोई अपनी मां को गोद में लिए जा रहा है. कोई साइकिल पर अपने परिवार को लिए जा रहा है.

बीच में कुछ घोषणाएं हैं, जिनमें यह स्वीकारोक्ति भी ठीक से नहीं है कि हां, लोगों बहुत कष्ट उठा रहे हैं और समाधान नहीं निकल पा रहे. क्योंकि वे अपने घर से बाहर हैं, उनके पास न तो राशन कार्ड हैं, न वोट. उनकी ठीक संख्या का कोई आकलन भी नहीं है.

वे कागजों में लगभग अदृश्य हैं, पर विकास के नाम पर जो भी हम भारत में चमकता देखते हैं- चाहे इमारतें हो, सड़कें हों, फ्लाईओवर हों, इन्हीं लोगों के कारण वे सपने मुमकिन हैं. पर सत्ता और सियासत का भारत उनके बिना चलता है.

प्रवासी मजदूरों के पास अगर वोट और दूसरे नागरिक अधिकार (जैसे राशन कार्ड, बच्चों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं) होते, तो शायद इतने बुरे दिन नहीं देखने पड़ते. राजनीति वोटों से चलती है और भारत की ये प्रवासी आबादी इस लायक नहीं समझी जाती कि उस पर कोई गंभीर निवेश करे.

इसी के बरक्स जो लोग अपने घर और गांवों में ही रहते हैं, जिनके पास एक तरह का स्थायित्व है, जो शायद अर्थव्यवस्था में उतना गहरा योगदान नहीं देते, उतने खतरे, कष्ट और अनिश्चतताओं का उतना सामना नहीं करते, उनका सरकार और राजनीतिक दल ज्यादा ख्याल रखते हैं.

अर्थव्यवस्था खुलने के बाद से भारत में पिछले तीस साल में जितना प्रवास हुआ है, जितने लोग गांवों से उठकर शहर आए हैं, जितनी झोपड़पट्टी बनी हैं, जितनी आबादी शहरों के भीतर के लालडोरा इलाकों में बढ़ी है, जितने ररबन (रूरल + अर्बन) इलाके बढ़े हैं, उतने पहले शायद ही बढ़े होंगे.

इसमें हर तरह के लोग आए हैं. चाहे दिहाड़ी मजदूर हों या थोड़े बहुत हुनर वाले. वे भी जो यहां आए और छोटा-मोटा धंधा शुरू किया और वे जिन्होंने सर्विस इकोनॉमी की निचली पायदानों पर काम किया.

लोग खुद बिना सरकारी मदद के कैसे आत्मनिर्भर हो सकते हैं, प्रवासी मजदूरों की ये आबादी सबसे बड़ी मिसाल है. जो लोग अपनी मेहनत और जज़्बे से अपना खर्चा पानी निकाल रहे थे, मुसीबत में उनके रास्ते आसान करने की बजाय अड़ंगे ज्यादा लगाए गए.

ये इसी विश्वास का नतीजा है कि देश के लाखों लोग दो महीनों से सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल या साइकिल पर अपने गांवों की तरफ निकल चले हैं. उसे किसी के एहसान या भीख की जरूरत न थी, न है. अगर उन्हीं हालात में रहना होता, तो शायद वे अपने गांव और घर से बाहर ही नहीं निकलते.

वे निकले क्योंकि उन्हें एक अपनी मेहनत पर यकीन था, उनके पास सपने थे, वे दो पैसे बचाना चाहते थे और वे अपने परिवार और बच्चों के लिए बेहतर भविष्य की आकांक्षा रखते थे. वे सपने, आकांक्षाएं, बचत, उम्मीद एक झटके में जैसे खत्म और खर्च हो गए हैं.

जो पिछले तीन दशकों में धीरे धीरे शहर की तरफ आ रहे थे, अब उस गांव की तरफ लौट रहे हैं, जो अब वैसा नहीं रहा है, जैसा उन्होंने छोड़ा था. जब वे गांव पहुंच जाएंगे, तो नई तरह के संघर्ष सामने होंगे. चाहे वह काम के मौकों के हों, स्थानीय समीकरणों के, समाज, जाति और दूसरी दिक्कतों के.

वापस लौटने वाले लोगों के लिए वह वैसी ही दुनिया नहीं होगी, जिसे वे छोड़ कर आए थे. पहले वे शहरों के लिए बाहरी थे, अब वे अपने गांवों में भी बाहरी होंगे. इस बार की वापसी बहुत सारी उदासी, अविश्वास, हार और थकान लेकर आई है. कोई भी देश इस ऊर्जा, इस उम्मीद, इस मेहनत, इस सपने पर आगे चलता है.

अब ये प्रवृति भी शक के कटघरे में आ रही है. इन्हें बचाने की कोशिश ठीक से नहीं की गई. चाहे वह बिहार के दरभंगा के किसी गांव से लुधियाना आने वाला मजदूर हो या खन्ना से दिल्ली आने वाला उबर टैक्सी का ड्राइवर या मैकेनिक.

घोषणाओं का क्या है, वे होती रहेंगी. पर ये लोग भी देख रहे हैं कि सरकार और समाज के पास न तो उनके लिए सरोकार है, न तमीज की भाषा और व्यवहार. और न ही वह गरिमा और आंख का पानी, जिसके साथ एक मनुष्य दूसरे को मनुष्य समझते हुए देखता है.

जब ये तमाम लोग अपने घर लौट जाएंगे, तो सरकार फिर से घोषणा करेगी कि लोग अपने काम, अपनी झोपड़पट्टी, उन पुरानी झुग्गी की तरफ लौटें. अगर घोषणा करने से ही सब हो जाता तो क्या बात थी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)