राजस्थान: खनन क्षेत्र के लाखों मज़दूर भुगत रहे हैं लॉकडाउन का ख़ामियाजा

कोरोना संक्रमण के मद्देनज़र हुए लॉकडाउन के बाद राजस्थान में खानें भी बंद हो गई थीं. अप्रैल से राज्य सरकार ने खनन कार्य की अनुमति दी थी, लेकिन अधिकतर मज़दूर घर लौट गए हैं या फिर उनके पास खान तक पहुंचने का साधन नहीं है.

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बूंदी जिले के बुधपुरा के मजदूर राजू भील और उनका परिवार.

कोरोना संक्रमण के मद्देनज़र हुए लॉकडाउन के बाद राजस्थान में खानें भी बंद हो गई थीं. अप्रैल से राज्य सरकार ने खनन कार्य की अनुमति दी थी, लेकिन अधिकतर मज़दूर घर लौट गए हैं या फिर उनके पास खान तक पहुंचने का साधन नहीं है.

भालूराम देवनगर के रहने वाले अचलाराम अपनी माता-पिता और बच्चों के साथ. (सभी फोटो: Special Arrangement)
भालूराम देवनगर के रहने वाले अचलाराम अपने माता-पिता और बच्चों के साथ. (सभी फोटो: Special Arrangement)

जयपुर: कोरोना संक्रमण के चलते लगे लॉकडाउन का असर राजस्थान के लगभग 30 लाख खान मजदूरों पर सबसे ज्यादा पड़ा है. 25 मार्च से हुए देशव्यापी लॉकडाउन के बाद खानें बंद हो गईं और लाखों मजदूर एक झटके में बेरोजगार हो गए.

जोधपुर के बालेसर की खानों में काम करने वाले मोहब्बतराम (48) को 25 मार्च के बाद काम नहीं मिला है. मोहब्बतराम बीवी, पांच बच्चों और अपने माता-पिता के साथ भालूराम देवनगर गांव में रहते हैं.

वे बताते हैं, ‘लॉकडाउन के बाद खानें बंद हो गईं. मेरी तरह बालेसर की खानों में काम करने वाले हजारों मजदूर बेरोजगार हो गए. मैंने दो महीने में 15 हजार रुपये उधार लेकर खर्चा चलाया है. बेहद मुश्किल हालातों में ये वक्त गुजारा है.’

मोहब्बतराम राजस्थान की खानों में काम करने वाले लाखों मजदूरों में से एक हैं. काम न होने और असंगठित क्षेत्र से होने के कारण इन्हें सरकारी योजनाओं में लाभ नहीं मिला है. इससे लाखों लोगों के परिवारों पर रोटी का संकट खड़ा हो गया है.

राज्य सरकार ने 20 अप्रैल से खनन कार्य शुरू करने की अनुमति दी है, लेकिन खानों में मजदूर नहीं लौटे हैं क्योंकि अधिकतर मजदूर अपने घरों-गांवों को लौट आए हैं.

भालूराम देवनगर के ही रहने वाले अचलाराम खानों में काम करते हुए सिलिकोसिस के मरीज हो गए. जोधपुरी सैंड स्टोन की खानों में अपने फेफड़े खराब कर चुके अचलाराम छह बच्चे, माता-पिता और भाई के साथ रहते हैं और घर में अकेले कमाने वाले हैं.

वे बताते हैं, ‘जब से लॉकडाउन लगा है, काम नहीं मिला है. मां मिर्गी की मरीज है और पिता भी बीमार हैं. गरीब कल्याण योजना में पांच सौ रुपये और दो महीने में 60 किलो गेहूं मिले जो मेरे परिवार के लिए नाकाफी थे. अब मां की दवा और घर के खर्च के लिए 10 हजार रुपये उधार लिए हैं.’

अपनी परेशानी बताते हुए अचलाराम कहते हैं, ‘खान मजदूर होने की हैसियत से न तो खान मालिकों ने मदद की और न ही सरकार की कोई मदद मिल पाई है. मैं पहले महीने में 12-15 हजार रुपये कमाता था, लेकिन 2018 में सिलिकोसिस प्रमाणित होने के बाद 15-20 हाजिरी से ज्यादा नहीं कर पाता, इसीलिए 7-9 हजार रुपये महीना ही मिल पाता है.’

उनका कहना है कि अगर सरकार लॉकडाउन में खान मजदूरों की मदद करती तो लाखों लोगों को फायदा होता और मजदूर काम की जगह छोड़कर भी नहीं जाते.

बूंदी जिले के बुधपुरा के मजदूर राजू भील और उनका परिवार.
बूंदी जिले के बुधपुरा के मजदूर राजू भील और उनका परिवार.

वे आगे बताते हैं, ‘मेरे गांव से बालेसर करीब 30 किमी दूर है. सरकार ने खान शुरू की हैं, लेकिन उनमें मजदूर नाम के हैं. जिन मजदूरों के पास जाने के लिए खुद का साधन है, वे ही खानों में पहुंच पा रहे हैं. सरकारी या प्राइवेट बस और अन्य साधनों को अभी अनुमति नहीं है इसीलिए मैं काम पर नहीं जा पा रहा हूं.’

खान मजदूरों के साथ काम करने वाली तमाम एसोसिएशन सरकार से खान मजदूरों के लिए स्पेशल पैकेज की मांग कर रही हैं. इनकी मांग है कि प्रदेश में खान श्रमिक असंगठित हैं और ये किसी भी सरकारी राहत योजना में कवर नहीं हो रहे.

खान मालिकों ने आदेश के बाद भी लाखों मजदूरों को दो महीने की मजदूरी नहीं दी है. खान मजदूर सुरक्षा अभियान के मैनेजिंग ट्रस्टी राणा सेनगुप्ता कहते हैं, ‘निर्माण क्षेत्र के मजदूरों के लिए बीओसीडब्ल्यू बोर्ड बना हुआ है, लेकिन 30 लाख खान मजदूरों के लिए ऐसा कोई बोर्ड ही नहीं है. राजस्थान सरकार सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में कवर न होने वाले परिवारों को कोरोना लॉकडाउन के बीच 2,500 रुपये देने के घोषणा की थी. खान मजदूरों को इसका लाभ भी नहीं मिला है.’

वे आगे कहते हैं, ‘अगर राज्य सरकार ने चुनावों के वक्त किए वादे के मुताबिक खान मजदूर कल्याण बोर्ड बना दिया होता तो करीब 30 लाख खान मजदूरों को लाभ मिलता. अगर एक परिवार में 5 सदस्य भी मानें तो 1.5 करोड़ लोगों तक सरकारी मदद पहुंचती क्योंकि अभी अधिकतर खान मजदूर किसी सरकारी योजना से जुड़े नहीं हैं. बहुत कम मजदूरों के पास बीपीएल कार्ड हैं.’

राणा बताते हैं, ‘हम लगातार खान मजदूर कल्याण बोर्ड बनाने की मांग सरकार से कर रहे हैं. खनन प्रभावित क्षेत्रों और लोगों के विकास के लिए 2016 में बने ड्रिस्टिक्ट मिनिरल फाउंडेशन ट्रस्ट (डीएमएफटी) में बिना उपयोग के पड़े सैंकड़ों करोड़ रुपये मजदूरों के भले के लिए काम में आने चाहिए. इस फंड के उपयोग की सरकार और खान विभाग के पास कोई योजना ही नहीं है. खान मजदूरों के हक़ का पैसा उन पर ही खर्च होना चाहिए.’

डीएमएफटी में से कोरोना के लिए 30% उपयोग की अनुमति

राजस्थान विधानसभा में सरकार के एक जवाब के अनुसार प्रदेश के सभी 33 जिलों के पास जनवरी 2020 तक 2755 करोड़ रुपये जमा हैं.

केंद्र सरकार के सर्कुलर के बाद राजस्थान सरकार ने डीएमएफटी में से 30 फीसदी राशि कोरोना से जंग में उपयोग की अनुमति दी थी. सर्कुलर के बाद प्रदेश के जिला प्रशासन इस राशि का 30 प्रतिशत यानी 826.5 करोड़ रुपये खर्च कर पाएंगे.

खान विभाग के अनुसार 600 करोड़ रुपये जिला कलक्टरों को अब तक आवंटित किए हैं. इस राशि को जिला कलेक्टर कोरोना से लड़ने के लिए मेडिकल उपकरण और राहत के किसी भी काम में इस्तेमाल कर सकते हैं.

डीएमएफटी फंड का सही उपयोग नहीं होने की गवाही खुद सरकार के आंकड़े ही कर रहे हैं. माह जनवरी तक राजस्थान में डीएमएफ ट्रस्ट के फंड से जारी हुए कामों में से सिर्फ 38 फीसदी ही पूरे हो पाए हैं. कार्य आवंटन के तीन साल बाद भी 62 फीसदी विकास कार्य या तो शुरू ही नहीं हुए या अभी तक अधूरे हैं.

बीते तीन सालों में 1420 करोड़ रुपये का बजट आवंटन कर 8,550 कार्यों की अनुमति दी गई थी, लेकिन धीमी सरकारी कार्यप्रणाली के चलते सिर्फ 3,325 कार्य ही पूरे हो पाए हैं, 5,225 विकास कार्य अभी अधूरे हैं. आवंटित 1,420 करोड़ रुपये में से 3,325 कार्यों पर 676.34 करोड़ रुपये ही खर्च किए जा सके हैं.

सिलिकोसिस मरीजों की हालत भी खराब

लगातार खनन कार्य के चलते खान मजदूरों में सिलिकोसिस बीमारी आम है. ये लाइलाज बीमारी है और इससे मरीज के फेफड़े खराब हो जाते हैं. हालत ज्यादा खराब होने पर मरीजों को ऑक्सीजन की भी जरूरत होती है.

लॉकडाउन के दौरान ऐसे बहुत से सिलिकोसिस मरीज हैं जिनकी ऑक्सीजन की जरूरत पूरी नहीं हो पाई. इसके अलावा जिन खान मजदूरों का मेडिकल बोर्ड में रजिस्ट्रेशन हुआ उन्हें भी लॉकडाउन की वजह से सिलिकोसिस प्रमाण पत्र नहीं मिल सके हैं.

देवाराम (45) जोधपुर जिले के भालू लक्ष्मणगढ़ ग्राम पंचायत के शेर नगर के रहने वाले थे. 30 साल खानों में काम करने के बाद वे बीते दो साल से अपना इलाज करा रहे थे. मार्च के बाद तबीयत लगातार बिगड़ती गई और 3 मई को उनकी जान चली गई.

देवाराम के बड़े भाई भैराराम ने बताया, ‘2018 में उनका सिलिकोसिस सर्टिफिकेट बन कर आया, लेकिन आज तक उन्हें या परिवार को एक रुपया भी नहीं मिला है. देवाराम की विधवा जसू देवी (40) पांच बच्चों के साथ अब बेसहारा हैं. हम लोग अपने स्तर पर मदद कर रहे हैं.’

देवाराम की पत्नी और बच्चे.
देवाराम की पत्नी और बच्चे.

एसोसिएशन फॉर रूरल एडवांसमेंट थ्रू वॉलेंट्री एक्शन एंड लोकल इन्वॉल्वमेंट (अरावली) में प्रोग्राम डायरेक्टर वरुण शर्मा बताते हैं कि कमजोर फेफड़ों के कारण सिलिकोसिस मरीजों को कोरोना संक्रमण होने का सबसे ज्यादा खतरा है.

वहीं, कोरोना वायरस की वजह से मजदूरों के नए रजिस्ट्रेशन और सर्टिफिकेट नहीं बन पा रहे हैं. सैंकड़ों मजदूर मुआवज़े का इंतजार कर रहे हैं.

राजस्थान सरकार के जन सूचना पोर्टल की रिपोर्ट के मुताबिक 2016 से 22 मई तक प्रदेश में 86,288 खान श्रमिकों ने अपना रजिस्ट्रेशन कराया है. इसमें से सिर्फ 15,803 श्रमिकों को ही सिलिकोसिस सर्टिफेकेट दिए गए हैं.

14,940 केस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और 2819 केस मेडिकल बोर्ड के पास लंबित हैं. 53,775 खान श्रमिकों के आवेदन निरस्त किए गए हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर्टिफिकेट प्राप्त मजदूरों में से 6865 लोगों को सहायता राशि का इंतजार है.

बता दें कि राजस्थान में अक्टूबर 2019 में सिलिकोसिस मरीजों के लिए राज्य सरकार न्यूमोकॉनियोसिस पॉलिसी लेकर आई थी. इसमें खान मजदूर को सिलिकोसिस प्रमाणित होने के बाद 2 लाख रुपये और मृत्यु के बाद तीन लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी जाती है. इसके अलावा मरीज की विधवा को 1,500 रुपये प्रति माह पेंशन भी दी जाती है.

खान मजदूरों की इन सभी समस्याओं को लेकर द वायर  ने खान विभाग के डायरेक्टर गौरव गोयल से बात की. उन्होंने बताया,‘लॉकडाउन के कारण हमने 30 मार्च से 19 अप्रैल तक माइनर मिनरल्स खदानों को बंद किया था. इसके बाद 20 अप्रैल को सोशल डिस्टेंसिंग की बाध्यता के साथ विभाग ने रवन्ना देना शुरू किया. सामान्य स्थिति में जहां हम 30 हजार रवन्ना रोज जारी करते थे, अब वे 18 हजार हो गए हैं. यानी खनन क्षेत्र में 50 फीसदी से ज्यादा काम होने लगा है.’

वे आगे कहते हैं, ‘लॉकडाउन में बहुत से मजदूर अपने गांवों में लौट गए हैं. खनन का ज्यादातर हिस्सा निर्माण क्षेत्र में जाता है और निर्माण क्षेत्र में अभी मांग नहीं है, इसीलिए थोड़ी परेशानी आ रही है.’

मजदूरों के लिए डीएमएफटी फंड को इस्तेमाल करने के सवाल पर गोयल कहते हैं कि डीएमएफटी का नियमों के अनुसार जिला स्तर पर उपयोग होता है. कोविड-19 से जंग के लिए 30 फीसदी उपयोग की अनुमति दी थी. बाकी जो सभी मजदूरों के लिए योजनाएं हैं, वे खान मजदूरों पर भी लागू होती हैं. अलग से कोई योजना इनके लिए नहीं बनी है. खान विभाग ने अलग-अलग जिलों के लिए 600 करोड़ रुपये डीएमएफटी में से जारी किए हैं.

सरकार और उसके अधिकारी भले कुछ बोलें, लेकिन कोरोनावायरस संक्रमण के डर के अलावा खान मजदूरों के लिए भुखमरी, बेकारी और पलायन का दुख भी लाया है.

बूंदी जिले के बुधपुरा गांव में खानों से निकलने वाले पत्थरों को तोड़कर गिट्टी बनाने वाले राजू भील बीमार हैं. इन्हें राज्य सरकार की ओर से मिलने वाली आर्थिक सहायता अब तक नहीं मिली है.

वे कहते हैं, ‘लॉकडाउन में ठेकेदार से एडवांस में पैसा लिया है, अब मुझे तब तक उसके यहां काम करना पड़ेगा जब तक मैं ये राशि नहीं चुकाऊंगा.’

बीमार राजू बताते हैं, ‘दो साल से मेरी तबीयत खराब है, लेकिन सिलिकोसिस सर्टिफिकेट नहीं बन सका है. अगर सर्टिफिकेट होता तो सरकारी सहायता राशि मिल जाती और मुसीबत के इस वक्त में मेरे काम आती.’

यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जिस खनन क्षेत्र का राजस्थान के सकल घरेलू उत्पादन में 6 फीसदी का योगदान है. 33 हजार से ज्यादा खानें और 5301.48 करोड़ रुपये राजस्व है, उसके मातहत काम करने वाले मजदूर इलाज और तंगहाल हैं.

उनके अधिकार के नाम पर जमा हुए डीएमएफटी फंड भी सरकारी तिजोरी में रखा है, लेकिन मजदूरों के हितों के काम में नहीं लिया जा रहा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)