‘बड़े संगठन हमेशा से छोटे व्यापारियों के नाम पर राजनीति करते आए हैं’

जीएसटी के मसले पर कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के महामंत्री प्रवीण खंडेलवाल के साथ द वायर के संस्थापक संपादक एमके वेणु की बातचीत.

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जीएसटी के मसले पर कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के महामंत्री प्रवीण खंडेलवाल के साथ द वायर के संस्थापक संपादक एमके वेणु की बातचीत.

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हम चर्चा करने जा रहे हैं जीएसटी यानी ‘गुड एंड सर्विसेज़ टैक्स पर. इतना महत्वपूर्ण टैक्स सुधार पहली बार आज़ाद भारत में लागू होने जा रहा है. ताज्जुब की बात ये है कि जीएसटी से प्रभावित होने वाले जो 6 करोड़ छोटे व्यापारी, ट्रेडर्स, दुकानदार हैं, वो कह रहे हैं कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि इसका अमल किस तरह से होगा. इसका कारण यह है कि 1 जुलाई से लागू होने वाली इस टैक्स आप फिजि़कली यानी किसी फॉर्म आदि के द्वारा नहीं भर सकते. सरकार ने एक बहुत बड़ा ‘मदर कंप्यूटर’, जिसे जीएसटी नेटवर्क कहा जा रहा है बनाया है और इन सारे ये छोटे व्यापारी, दुकानदारों को कंप्यूटर के ज़रिए ये टैक्स भरना पड़ेगा, महीने में तीन बार रिटर्न फाइल करनी पड़ेगी, इनवॉइस डालने पड़ेंगे. मगर समस्या ये है कि ये तकरीबन 6 करोड़ छोटे व्यापारी या दुकानदार कंप्यूटर लिटरेट यानी कंप्यूटर की जानकारी नहीं रखते. कइयों के पास कंप्यूटर भी नहीं हैं. इन सभी समस्याओं पर चर्चा करने के लिए हमारे साथ मौजूद हैं कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स एसोसिएशन के महामंत्री प्रवीण खंडेलवाल. कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स एसोसिएशन से लगभग 40 हज़ार व्यापारी और दुकानदार जुड़े हुए हैं. प्रवीण पिछले कुछ महीनों से सरकार के साथ इस मुद्दे पर जूझ रहे हैं कि कैसे इन छोटे व्यापारियों, दुकानदारों को कंप्यूटर की इस तकनीक के लिए तैयार किया जाए, जिससे वे टैक्स को समझ पाएं, इसे भर सकें और ये टैक्स रिफार्म अमल में आ पाए.

1 जुलाई से जीएसटी लागू होने जा रहा है, पर जीएसटी नेटवर्क के अध्यक्ष नवीन कुमार ने एक इंटरव्यू में बताया कि उनकी तैयारी पूरी नहीं है, ज़रूरी सॉफ्टवेयर की टेस्टिंग नहीं हुई है. आप भी कह चुके हैं कि अभी समय की ज़रूरत है, जीएसटी लाने की तैयारी नहीं. इस पूरे जीएसटी के अमल की प्रक्रिया और योजना पर आप क्या कहेंगे?

सबसे बड़ी बात ये है कि इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत जैसे देश के लिए जीएसटी एक सर्वश्रेष्ठ टैक्स व्यवस्था साबित होगा

जी, इस के आइडिया और सिद्धांतों पर किसी को कोई एतराज़ नहीं है

जी, लेकिन आज सबसे बड़ी चुनौती है कि जब दो दिन रह गए हैं जीएसटी लागू होने में पर बड़ी संख्या में ऐसे छोटे व्यापारी हैं, उन्हें जीएसटी की बुनियादी जानकारी भी नहीं है. उनको नहीं पता उनके दायित्व क्या हैं, उन्हें नहीं पता कि वो इनवॉइस कैसे निकालेंगे, इनवॉइस के बाद उनको इनपुट क्रेडिट किस प्रकार मिल पाएगा. जीएसटी में जो नया कॉन्सेप्ट लाया गया है, उसे कैसे लागू किया जाएगा.  ऐसे एक नहीं अनेक सवाल हैं जिनका संबंध जीएसटी के लागू होने से है.  अभी आपने बताया कि जीएसटी नेटवर्क के चेयरमेन ने सॉफ्टवेयर टेस्टिंग भी  नहीं की है. और ये एक बड़ा सवाल है क्योंकि देशभर के लोग अब तक अपने-अपने राज्यों के नेटवर्क से जुड़े होते थे पर अब सारा देश यानी लगभग 80 लाख लोग उस एक पोर्टल से जुड़ जाएंगे, जिसके चेयरमेन का ज़िक्र आपने किया.

अगर ये पोर्टल तकनीकी ज़रूरतों के अनुरूप नहीं है तो ये कहीं न कहीं जीएसटी की पूरी व्यवस्था के ऊपर सवाल खड़ा करता है. ये बात ठीक है कि उस पोर्टल की असली ज़रूरत हमें पहली बार सितंबर में होगी जब सभी लोग रेतुर्न दाखिल करेंगे और इस पोर्टल की टेस्टिंग होगी 11 तारीख को जब यह परचेज़ रजिस्टर बनाकर भेजेगा.

तो क्या यह अर्थ है कि सभी व्यापारियों को कंप्यूटर के जरिये ही रिटर्न फाइल करना होगा.

देखिए इसके दो तरीके हैं. एक तरीक़ा तो ये है कि जीएसटी पोर्टल में ऑफलाइन टूल है, जहां आप एक्सेल शीट पर अपना स्टेटमेंट बनाए और इसको वहां फाइल कर दें. लेकिन जितना काम आप करेंगे आपको हर बार एक्सेल शीट बनानी होगी  और उस एक्सेल शीट को अपलोड करना पड़ेगा.

कौन अपलोड करेगा दुकानदार करेगा?

दुकानदार करे या उसका कोई प्रतिनिधि करे.

कहां जाकर करेगा? क्या उसके लिए कोई जीएसटी सेंटर होगा?

जीएसटी नेटवर्क के पोर्टल पर.

पर उसके लिए जाएगा कहां?

उसके लिए या तो उसके पास कंप्यूटर होना चाहिए या वो किसी ऐसे व्यक्ति की मदद ले जिसके पास कंप्यूटर हो.

क्या आज की तारीख में ऐसा कोई प्रावधान है कि वो कहीं जाकर ऐसा कर सकता है?

नहीं वो करवा सकता है. अगर उसके पास कंप्यूटर नहीं है और मान लीजिए मेरे पड़ोसी के पास है और मैं उससे मदद लूं.

तो ऐसे कोई जीएसटी सेंटर है क्या जो सरकार ने बनाए हों?

ऐसा सुनने में तो आया है कि उन्होंने कुछ कन्विनियेंस (सुविधा) सेंटर खोलें हैं.

मगर आपने देखे नहीं है?

मैंने देखे नहीं हैं. मगर इसका बुनियादी सवाल ये है कि मान लीजिए मेरा व्यापारी आज करोलबाग में है और सेंटर ग्रेटर कैलाश में है. तो अगर मैं करोलबाग के व्यापारी से उम्मीद करूं कि वो ग्रेटर कैलाश जाकर सेंटर का उपयोग करे तो मुझे लगता है उसके साथ ज़्यादती होगी क्योंकि उसका एक दिन तो उसी काम में ख़र्च हो जाएगा.

तो ऐसे में कोई न कोई टेक्नोलॉजी का साधन होगा उसी के माध्यम से ये सिस्टम पर अपलोड किया जा सकता है.

पहली बात तो ये है कि जिसके पास कंप्यूटर है और जो लोग किसी भी कंपनी का एकाउंटिंग सॉफ्टवेयर प्रयोग कर रहे हैं वे उसके माध्यम से जीएसटी नेटवर्क तक जा सकते हैं. जीएसटी नेटवर्क ने 34 कंपनियों को जीएसपी का दर्जा दिया है यानी गुड्ज़ सर्विस यानी सुविधा प्रोवाइडर.

पर उनका भी कहना कि उन्हें अभी समय चाहिए.

उन्होंने ने भी कहा है कि उनको टाइम चाहिए

जीएसपी भी समय मांग रहा है क्योंकि वो तैयार नहीं है. जीएसपी भी तभी काम करेगा जब जीएसटी नेटवर्क का पोर्टल उसे एपीआई देगा. ये एक बड़ा सवाल है कि कब पोर्टल एपीआई देगा और कब जीएसपी काम. मगर इस टेक्नोलॉजी का व्यापारी से कोई लेना-देना नहीं है. हमें सुविधा मिलेगी तो हम वहां जाएंगे.

लेकिन सबसे बड़ी चुनौती है कि हमारी संस्था (कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स एसोसिएशन)के अपने पूरे प्रयास के साथ हमने पूरे देश में 120 दिनों में 136 कांफ्रेंस की हैं पर देश में 60% व्यापारी ऐसे हैं जिनके पास कंप्यूटर नहीं है, उन्हें जीएसटी में कैसे कंप्लायंस करनी है, ये पता नहीं है.

सरकार ये कह रही है कि उन्होंने भी ऐसे कई कार्यक्रम किए हैं.

पर सरकार तो ये कह रही है कि सरकार तैयार है. रेवेन्यू सेक्रेटरी साहब ने कहा कि व्यापारी तैयार नहीं हैं.

व्यापारी कैसे तैयार होगा? क्या हमने इस बात के बारे में सोचा कि जिस दिन जीएसटी लागू होगा और तकनीक की ज़रूरत पड़ेगी, तब जो हमारा स्टेक होल्डर होगा, क्या हम उसे तकनीक दे भी पाएंगे? पर ऐसा तो हुआ नहीं है.

सवाल अब ये है कि हमें किसी से टेक्नोलॉजी उधार लेनी पड़ेगी. जीएसटी जैसे सिस्टम में उधार की टेक्नोलॉजी पर कितने दिन काम किया जा सकता है ये एक अलग सवाल है.

मतलब व्यापारियों को एक कंप्यूटर की ज़रूरत पड़ेगी और किस तरह उसको ऑपरेट करना है और किस तरह जीएसटी नेटवर्क जुड़ना है, उसके लिए निर्देशन चाहिए होगा.

मैन्युअल आप कर सकते हैं. मैन्युअल में कहीं कोई रुकावट नहीं है.

अगर वो अगर कंप्यूटर में फ़ाइल करना है तो मैन्युअल कैसे कर सकते हैं? इन्वॉइसेज़ तो कंप्यूटर में चेक होंगे न?

दो बातें हैं. अगर आप मेरी दुकान पर आए और मेरे पास कंप्यूटर नहीं है तो मैं आपको मैन्युअल दे सकता हूं. उससे मेरा व्यापार प्रभावित नहीं होगा. लेकिन बाद में मुझे उसे कंप्यूटर में लोड करना होगा. यानी दोगुनी मेहनत हो जाएगी.

जीएसटी पोर्टल या सरकार से हमारा जो संवाद होगा वो मैन्युअल नहीं है. उसके लिए टेक्नोलॉजी की ज़रूरत होगी. तो हमने सरकार को सुझाव दिया कि देशभर में हमारे लगभग 20 हज़ार व्यापारिक संगठन हैं, उनके अपने दफ्तर हैं, तो सरकार उन दफ्तरों को जीएसटी फैसिलिटेशन (सुविधा) सेंटर में तब्दील कर दे.

इस सुझाव पर सरकार की कोई प्रतिक्रिया आई?

अभी तक तो नहीं आई है. पर हमने सुझाव दिया है. दूसरा सुझाव यह दिया है कि बाज़ारों में डिजिटल किओस्क बनाए जाएं. उन किओस्क पर जाकर किसी न्यूनतम राशि का भुगतान करके ख़ुद को इस तकनीक से जोड़ सकता है. तीसरा सुझाव हमने देशभर के व्यापारिक संगठनों को दिया है. उनसे कहा कि वो अपने यहां इस बात की जानकारी इकट्ठी करें कि किस व्यापारी के पास कंप्यूटर नहीं है. फिर उन व्यापारियों को 20, 30 या 40 के समूह में बांटकर उन्हें एक ऐसे अकाउंटेंट से जोड़े दें, जिसके पास कंप्यूटर हो, जो टेक्नोलॉजी से वाकिफ़ हो. और फिर ये उसकी ज़िम्मेदारी हो कि वो 20, 30 या 40 के समूह के इन व्यापारियों को टेक्नोलॉजी का प्रयोग करने में सक्षम बनाए.

अगर ये सब सुझाव मान लिए जाएं, तो इसके अमल में कितना समय लगेगा? 6-8 महीने?

देखिए हमारे व्यापारिक संगठन तो आज से और अभी से तैयार हैं. सरकार निर्णय ले. लेकिन इससे भी पहले जो ज़रूरी है वो ये समझना कि जीएसटी काम कैसे करता है. कहा जाता है कि ये एक ‘डेस्टिनेशन बेस्ड टैक्सेशन’ व्यवस्था है, जहां आखिरी टैक्स कंज्यूमर को देना होगा. यहां सवाल आता है कि कंज्यूमर का लास्ट माइल कनेक्ट कौन है. वो है ट्रेडर यानी व्यापारी. तो अगर हमने उस ट्रेडर को शिक्षित और सशक्त नहीं बनाया तो पूरी व्यवस्था में कहीं न कहीं गड़बड़ी आने की संभावना रहेगी.

इस समय के तैयारी के स्तर को देखकर क्या लगता है कि इसे लागू करना आसान रहेगा?

देखिए भारत जैसे इतने विभिन्नताओं भरे देश में इतना बड़ा सुधार लाया जा रहा है तो भय, संशय, चिंताएं आदि जैसे मसले सामने आएंगे ही आएंगे, और ऐसे में जब अनुपालना या कंप्लायंस के बारे में नहीं पता होगा, तो थोड़े ज़्यादा मसले खड़े होंगे.

तो मुझे लगता है कि हम वित्त मंत्री अरुण जेटली जी को पत्र लिखें और उनसे ये आग्रह करें कि फ़िलहाल कुछ समय के लिए जो हमारी बुनियादी ज़रूरत है रिटर्न फाइलिंग की, जीएसटी को उस तक ही सीमित रखें. बाकी ई-बिलिंग, एचएसएम कोड, रिवर्स चार्ज मैकेनिज्म या पेनल्टी क्लॉज़ के जो मुद्दे हैं, उन्हें बाद में देखा जाए.

जब तक व्यापारी सीख न जाए…

केवल व्यापारी ही नहीं, सरकार के लिए भी ये एक लर्निंग एक्सपीरियंस होगा क्योंकि ये टैक्सेशन सिस्टम व्यापारी और सरकार दोनों के लिए नया है.

आपको क्या लगता है कि इनडायरेक्ट टैक्स विभाग के जो सरकारी अधिकारी हैं, वो जीएसटी के लिए तैयार हैं या नहीं?

देखिए आज की तारीख में सिस्टम बहुत अप्रत्याशित है. मैं ये दावे के साथ कह सकता हूं कि जब तक हम ऑपरेशनंस यानी अमल पर आएंगे, तब ऐसे सवाल भी सामने आएंगे जिनके बारे में अब तक सोचा भी नहीं है. फिर उनके जवाब खोजने होंगे. तो हम ये कहें कि कोई भी व्यक्ति सब-कुछ जनता है तो ये थोड़ी बड़ी बात हो जाएगी. तो क्यों न इस व्यवस्था को ऐसे अपनाया जाए कि जिसमें मैक्सिमम वॉलैंट्री कंप्लायंस के द्वारा हम टैक्स कंप्लायंट हो जाएं और जो बाकी बुनियादी बिंदु हैं, उन्हें समय के साथ लोगों को बताकर-समझा कर, उनकी रज़ामंदी से जोड़ते जाएं. इससे धीरे-धीरे एक साल में ये व्यवस्थित और सक्षम टैक्सेशन सिस्टम बन सकता है.

मेरी छोटे व्यापारियों से बात हुई. छोटे व्यापारियों से बात करें तो अलग समस्या पता चलती है. जिनकी मासिक आय 80 हज़ार से 1 लाख रुपये है, उनके पास वक़ील और अकाउंटेंट आकर कहते हैं कि हमें 10 हज़ार दीजिए, हम सब काम कर देंगे क्योंकि यानी उन्हें कुछ नहीं पता है. तो इस तरह छोटे व्यापारियों का ट्रांसैक्शन कॉस्ट बढ़ रहा है. बड़ी इंडस्ट्री को ये बात नहीं खटकती क्योंकि उनके पास संसाधन हैं. और अब तक जीएसटी के विषय में सरकार की बातचीत भी बड़े उद्योगों से ही हुई है पर छोटे व्यापारियों से अब तक कोई बात नहीं हुई है.

जी, छोटे व्यापारियों से अब तक कोई बात नहीं हुई है.

वहीं कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) के डायरेक्टर जनरल का दावा है कि सीआईआई वेब के जरिये छोटे व्यापारियों के साथ सेमीनार कर रहे हैं पर छोटे व्यापारियों का कहना है कि उन्हें इसके बारे में नहीं मालूम.

मुझे भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. आपके द्वारा मुझे पता चल रहा है कि सीआईआई ने ऐसा कुछ किया है. ये जो बड़े संगठन हैं, ये हमेशा से छोटे व्यापारियों के नाम पर राजनीति करते आए हैं. इस बात को इन्हें भी और सरकार को भी समझना होगा कि अब वो ज़माने चले गए. अब छोटा व्यापारी अपने आप में सक्षम है. अपनी बातों को कहने में हमें उनकी बैसाखी की आवश्यकता नहीं है.

पर सरकार का ज़्यादातर वक़्त तो इन दो-तीन बड़े उद्योगों के एसोसिएशन के साथ ही गुज़र रहा है.

ये प्रथा चली आ रही है 70 सालों से, इसमें कहीं न कहीं बदलाव की ज़रूरत है. अभी आप छोटे व्यापारियों का ज़िक्र कर रहे थे. जीएसटी में दो अच्छे प्रावधान हैं, जो हमें समझने चाहिए. पहला तो ये कि जिसका वार्षिक टर्नओवर लगभग 20 लाख रुपये तक का है, तो उसको जीएसटी में आने की आवश्यकता नहीं है. तो जो बहुत छोटे व्यापारी हैं, उन्हें जीएसटी से डरने की ज़रूरत नहीं है.

पर क्या आपको नहीं लगता कि 20 लाख बहुत कम है? मैंने छोटे व्यापारियों से बात की है, बिल्कुल साधारण जो दूध, ब्रेड और किराने का सामान बेचते हैं, उनका भी टर्नओवर 1-1 करोड़ रुपये तक का है और इस पर उनकी मार्जिन 6% है. अगर औसत 5% मार्जिन भी मान लें, तो 1 करोड़ टर्नओवर में उनके बिजली, किराये आदि के ख़र्चे निकाल के उनके पास तो कुछ बचता नहीं है.

इसमें भी दो बातें हैं. 20 लाख के अलावा इसमें जो स्कीम है वो है कम्पोजीशन स्कीम. इसमें जिसकी 75 लाख रुपये तक की टर्नओवर है, उनको जीएसटी से रजिस्टर तो करवाना है, लेकिन रिटर्न उनको तिमाही भरनी है, टैक्स उनको तिमाही भरना है और सबसे बड़ी बात उन्हें किसी भी प्रकार की कोई अकाउंट बुक रखने की आवश्यकता नहीं है.

तो क्या इसकी सीमा बढ़ाई नहीं जा सकती है? 1 या 2 करोड़ के टर्नओवर वालों को ये सुविधा नहीं मिल सकती है.

मुझे लगता है कि आने वाले समय में ज़मीनी हक़ीक़त जानने के बाद सरकार को भी कहीं न कहीं महसूस होगा कि ये 75 लाख की सीमा एक करोड़ होनी चाहिए. हालांकि सरकार ने ये अच्छा काम किया कि पहले ये प्रस्तावित 50 लाख थी, इसे बढ़ाकर 75 लाख किया. तो सरकार को भी ये समझ में आ रहा है कि ये जो छोटे व्यापारी हैं, ये डिजिटल तकनीक के द्वारा जीएसटी की अनुपालना नहीं कर पाएंगे, इसलिए उन्होंने इसे 75 लाख किया. मुझे लगता है कि अगर इसे 1 करोड़ रुपये किया जाएगा तो काफ़ी बड़ी संख्या में छोटे व्यापारियों को इससे राहत मिलेगी. क्योंकि इसमें अकाउंट बुक रखनी नहीं है. अगर मैं व्यापारी हूं तो बस अपने मुनाफ़े का आधा परसेंट टैक्स एसजीएसटी में देना है और आधा परसेंट टैक्स सीजीएसटी में देना है. अगर मैन्युफैक्चरर हूं तो 1% एसजीएसटी में देना है और 1% सीजीएसटी. लेकिन अगर मुझे कुछ खरीदना है तो मैं टैक्स देकर गया हूं और मुझे केवल अपनी परचेज़ इनवॉइस रखनी होगी. इसके अलावा न मुझे किसी टेक्नोलॉजी की ज़रूरत है न कोई अकाउंट बुक रखने की.

तो मेरा अपना अंदाज़ा है कि 2-3 करोड़ व्यापारी इन दो प्रावधानों के अंदर आ जाएंगे. इससे छोटे व्यापारी को बड़ी रहत मिलने की संभावना दिखाई देती है. देखते हैं कि 1 जुलाई के बाद क्या होता है.

बताया जा रहा है कि वर्तमान में जो टैक्सपेयर है, चाहे वो वैट दे रहा हो या एक्साइज या सर्विस टैक्स देता हो. देश में छोटे सर्विस प्रोवाइडर बहुत हैं. उनकी संख्या जीएसटी नेटवर्क के हिसाब से 80 लाख है. तो इन सभी का माइग्रेशन होगा जीएसटी पर. तो अगर प्रक्रिया सरल बनाई जाए तो इनकी संख्या 80 लाख अगले 4-5 साल में बढ़के 2 करोड़ हो सकता है.

मुझे लगता है कि एक साल बाद ही 2 करोड़ हो जाएंगे.

यानी नए टैक्सपेयर सिस्टम में आ जाएंगे.

बिल्कुल आएंगे. आज बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो शायद इनकम टैक्स तो दे रहे थे लेकिन इनडायरेक्ट टैक्स के किसी वर्टीकल में वो नहीं थे. पर जीएसटी का दायरा जो है वो बहुत विस्तृत है. इसमें केवल गुड्स एंड सर्विस ही नहीं बल्कि exchange, barter, lease, rent, transfer, license, disposal या फिर import of goods and services भी है. तो अगर इसमें एजेंट भी अगर काम कर रहा है, तो वो भी इसी परिधि में आ गया. तो जब दायरा बड़ा होगा तो टैक्सपेयर का नेटवर्क भी निश्चित रूप से बढ़ेगा. और उसका जो सबसे बड़ा फायदा होगा वो ये हो सकता है कि जब इनडायरेक्ट टैक्स का दायरा बढ़े तो एक स्टेज ये आएगी, शायद वो 2019 ही हो कि इनकम टैक्स की स्लैब कहीं न कहीं नीचे आएगी. वो एक आशा ज़रूर लगती है.

आपने बड़े दायरे की बात की लेकिन अर्थशास्त्रियों की एक आलोचना ये भी है कि ये ‘आधा पका हुआ’ जीएसटी है क्योंकि इसमें बड़े-बड़े सेक्टर हैं जैसे पेट्रोलियम, जिससे 25% राजस्व आता है, वो इसके दायरे से बाहर है. अल्कोहल बाहर है, रियल एस्टेट बाहर है. आपको लगता है कि इसे जीएसटी में लाना चाहिए.

आना चाहिए. और पेट्रोल आएगा भी. पेट्रोल को लाए बगैर जीएसटी को पूरा नहीं कह सकते. लेकिन इसमें यदि दोष देना है तो वो देना होगा राज्य सरकारों को. इसमें केंद्र सरकार का कोई दोष नहीं है. कारण क्या है कि राज्य सरकार अपना हक़ नहीं छोड़ना चाहतीं. अरे भई! जब आपका टैक्स नेटवर्क बढ़ रहा है, केंद्र सरकार आपको 5 साल के लिए आश्वस्त कर रही है कि अगर आपको राजस्व का नुकसान होगा तो उसकी भरपाई की जाएगी, तो आपको परेशानी क्या है? पेट्रोल-डीज़ल को क्यों आप जीएसटी में लेकर नहीं आते? क्यों शराब को आपने बाहर छोड़ा है?

पर इससे तो केंद्र को भी फायदा है न. वो भी अपना एक्साइज बढ़ाती है. अगर मां लीजिए कल पेट्रोल-डीज़ल 18% पर आ गया तो जेटली साहब को भी तो एक्साइज ड्यूटी कम करना पड़ेगा.

लेकिन फिर उससे देश की अर्थव्यवस्था को कितना फायदा होगा ये भी तो सोचना होगा.

रियल एस्टेट को बाहर रखना तो मुझे बिल्कुल समझ नहीं आया. सब जानते हैं कि इससे कितना काला धन जेनरेट होता.

ये भी एक बड़ा सवाल है क्योंकि इसमें राज्य सरकार की ओर से स्टाम्प ड्यूटी लगती है. राज्य सरकारें कहती हैं कि स्टाम्प ड्यूटी में केंद्र सरका का किस बात का हिस्सा है. ये काम तो मेरे राज्य में हो रहा है.

तो जब हर चीज़ इकठ्ठा करके बांटा जा रहा है तो सब होना चाहिए. मैं मानता हूं कि रियल एस्टेट में राज्य सरकारें चाहती हैं कि स्टाम्प ड्यूटी तय करने की आज़ादी रहे. पर अभी तो 15 राज्यों में भाजपा की ही सरकार है, तो कम से कम वो अपने राज्यों में तो लागू करें.

ये हमने वैट में भी देखा है कि जहां राज्य की बात आती है, जब एम्पावर्ड कमेटी की मीटिंग होती थी तो वे सारे लोग कमेटी के सदस्य के रूप में फैसला लेते थे पर फिर उन्हीं लोगों ने अपने राज्य में जाकर अपने ही निर्णय की धज्जियां उड़ायीं हैं. ये कम से कम जीएसटी में तो नहीं हो सकता क्योंकि इसमें जीएसटी काउंसिल की रज़ामंदी ज़रूरी है. कहीं न कहीं राज्यों को भी कार्नर करना होगा.

यानी आगे जाकर जीएसटी को सुधारने की ज़रूरत पड़ेगी.

हमें हर राज्य को जाकर कहना होगा कि आप पेट्रोल, डीज़ल और अल्कोहल को इससे बाहर नहीं रख सकते हैं, आपको इसे जीएसटी के दायरे में लाना ही पड़ेगा. और इसके लिए सहानुभूति बनाने में केवल सरकार से बात नहीं बनेगी बल्कि आपको स्टेकहोल्डरों पर भी दबाव बनाना होगा.

ये थोड़ा फिलोसोफिकल-सा सवाल है. नोटबंदी के बाद से ही छोटे व्यापारियों में ये शक़ या कहें डर भी है कि ज़बर्दस्ती छोटे व्यापारियों को फॉर्मल इकोनॉमी में लाने की कोशिश की जा रही है और ये नैचुरल तरीके से नहीं हो रहा, उन पर दबाव बनाया जा रहा है. संघ के स्वदेशी जागरण मंच ने भी यह कहा है. इससे उनको नुकसान होगा और इससे बड़े उद्योग बहुत ख़ुश हैं. ग्लोबल कैपिटल इससे ख़ुश है क्योंकि उनको लगता है कि जितना फॉर्मूलाइज़ेशन होगा उतना उनका मार्केट शेयर बढ़ेगा. क्या आप इससे सहमत हैं?

किसी न किसी स्तर पर कॉरपोरेट घरानों और मल्टीनेशनल के लिए हिंदुस्तान बहुत बड़ा बाज़ार है. हमारे लिए ये बाज़ार नहीं है. हमारे लिए ये रोजी-रोटी कमाने का जरिया है. इसलिए हम भावनात्मक रूप से इस बाज़ार से जुड़े हैं. वो व्यावसायिक रूप से इस बाज़ार से जुड़ना चाहते हैं. ये बुनियादी फर्क़ है. तो वे कोई भी मौका नहीं छोड़ेंगे कि हिंदुस्तान आकर के या यहां के कॉरपोरेट घरानों से जुड़कर वे उन आइटम पर कब्ज़ा न कर लें जिन पर आज हम काम कर रहे हैं. तो ये जो चीज़ों को व्यवस्थित करने वाली बात आई है तो कुछ लोग इसके तार वहां से जोड़ते हैं. लेकिन एक बात ज़रूर है कि जितना विस्तार ग़ैर-संगठित अर्थव्यवस्था का है, (जिस भी कारण से हो) पर इसे धीरे-धीरे हिंदुस्तान से कम करना पड़ेगा अगर हम अपनी अर्थव्यवस्था में वृद्धि चाहते हैं. लेकिन इसे आप इसे ज़बर्दस्ती नहीं कर सकते. अगर ज़बर्दस्ती ऐसा करने की कोशिश भी करेंगे तो उसका प्रतिरोध होगा. पर अगर आप वॉलैंट्री कंप्लायंस के साथ उनको विश्वास में लेकर कोई भी कदम उठाएंगे तो वो आपसी सहमति के आधार पर होगा. तब दोनों मिलकर काम करेंगे जो दोनों के लिए ही एक अच्छी स्थिति होगी.

यानी ये एक तरह से सरकार के लिए एक राजनीतिक सबक भी है.

हां. और जहां तक व्यापारियों का सवाल है, हम सरकार के साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं लेकिन पहल सरकार को करनी होगी. व्यापारियों के साथ संवाद सबसे पहले शुरू करना होगा. हमारे जो आधारभूत मुद्दे हैं,  हो सकता है जिस पर हम बात कर रहे हैं वो ग़लत हों, तो आप हमें समझाओ कि हम ग़लत मुद्दों पर बात कर रहे हैं. हम अपने मुद्दे ठीक कर लेंगें. पर यदि हम सरकार को ये समझा पाते हैं कि सरकार की सोच में कहीं न कहीं बदलाव लाने की ज़रूरत है तो सरकार सोच में बदलाव लाये. एक बात और है कि जीएसटी को लेकर हम सब एक ही जगह पर खड़े हैं, सिर्फ अप्रोच का फर्क़ है. अगर हम सब मिलकर अप्रोच ठीक कर लें, तो एक बहुत अच्छा टैक्सेशन सिस्टम हम देश को दे सकते हैं.

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