कश्मीर में सेना के जवान ‘शहीद’ होते हैं, पुलिस के जवान ‘मारे’ जाते हैं

जब एक आतंकवादी मारा जाता है, तो उसे भी उसके हिस्से का सम्मान मिलता है, उसके परिवार को खुलकर मातम मनाने की आजादी मिलती है. लेकिन, पुलिसकर्मियों की मातमपुर्सी में बहुत कम लोग आते हैं.

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एक आतंकवादी मारा जाता है, तो उसे भी उसके हिस्से का सम्मान मिलता है, उसके परिवार को मातम मनाने की आजादी मिलती है. लेकिन, पुलिसकर्मियों की मातमपुर्सी में बहुत कम लोग आते हैं.

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फारूक अहमद डार की मां. फोटो: अवनी रे

वे परिवार में हम सैकड़ों लोगों का ख्याल रखा करते थे. वे कहा करते थे, ‘मैं जहां तक मुमकिन हो सका, सबका ख्याल रखूंगा’… ऐसे बेग़रज़ और दरियादिल आदमी कम ही होते हैं. मैंने कभी नहीं सोचा था कि उनकी मौत हो सकती है.’ ये एक मृत व्यक्ति के रिश्तेदार के शब्द हैं.

बेटे की मौत की बातें शोक में डूबे हुए पिता को झकझोर देती हैं, ‘हम सिर्फ शांति चाहते हैं. एक सामान्य ज़िंदगी. हमें हर शाम कगार पर बैठ कर अपने बच्चों के सही-सलामत घर लौटने की फिक्र न करनी पड़े.’ कश्मीर जैसी अशांत जगह में यह किसी बाप की नामुमकिन सी ख्वाहिश है. बच्चों का घर वापस न लौटना यहां एक आम बात है.

16 जून को शुक्रवार के दिन, जब अब्दुल रहीम डार ने अपने बेटे फ़िरोज़ अहमद डार से देर दोपहर बात की, तब फ़िरोज़, जम्मू और कश्मीर पुलिस में पुलिस स्टेशन हाउस ऑफिसर की अपनी ड्यूटी में लगे थे. उन्होंने अपने अब्बा से यह वादा किया था कि वे वक्त पर घर पहुंच जाएंगे और मग़रिब की नमाज में सबके साथ शरीक होंगे और साथ में इफ्तार करेंगे. लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि कुछ घंटों के बाद वे अपने बेटे को एंबुलेंस मृत देखेंगे वह भी एक ऐसी हालत में कि उन्हें पहचान पाना तक मुमकिन न होगा.

फ़िरोज़ दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग जिले के ताझिवारा, अचाबल में रूटीन गश्त लगा रहे उस पुलिस दस्ते का हिस्सा थे, जिस पर हथियारबंद आतंकवादियों ने उसी शाम हमला किया. इस हमले में फ़िरोज़ समेत छह पुलिसकर्मी जख्मी हुए. अस्पताल पहुंचाए जाने पर वहां ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर ने इन्हें मृत घोषित कर दिया. आतंकवादियों ने सिर्फ इनकी हत्या नहीं की थी, बल्कि इनके शरीर को बुरी तरह से क्षत-विक्षत कर दिया था, खासतौर पर उनके चेहरे को. उन पर बेहद नजदीक से गोलियां दागी गई थीं.

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अब्दुल अहमद डार अपने बेटे फ़िरोज़ अहमद डार की फोटो दिखाते हुए. फोटो: अवनी रे

यह हमला कुलगाम के अरवानी गांव में दो घरों में छिपे आतंकवादियों पर सशस्त्र बलों के संयुक्त ऑपरेशन के कुछ घंटों के बाद हुआ, जिसमें दोनों तरफ से हुई गोलीबारी में पांच लोग मारे गए थे. मारे जानेवाले वालों में तीन का संबंध पाकिस्तान के इस्लामी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से था. इनमें लश्कर का कमांडर जुनैद मट्टू भी शमिल था. दोतरफा गोलीबारी में मारे गए दो अन्य लोगों में एक 34 वर्षीय अशरफ खान था, दूसरा 15 वर्षीय अहसान मुश्ताक था. ये दोनों आम नागरिक थे.

इस वाकये से ठीक एक दिन पहले, पंद्रह जून को कुलगाम के बोगुंद में और श्रीनगर के हैदरपुरा में हुए दो अलग-अलग हमलों में दो पुलिसवालों की हत्या कर दी गई थी. यह दो दिनों के भीतर तीसरा हमला था, जो घाटी में जम्मू-कश्मीर पुलिस के खिलाफ बढ़ रही हिंसा की गवाही दे रहा है. अपने प्रवक्ता अब्दुल्ला ग़ज़नवी द्वारा एक न्यूज एजेंसी को भेजे गए ई-मेल के जरिए लश्कर-ए-तैयबा ने इस हमले की जिम्मेवारी ली है.

मट्टू के जनाजे में कश्मीर भर से हजारों लोग मातम मानाने के लिए शामिल हुए और उसे आतंकवादियों ने बंदूकों की सलामी दी. फ़िरोज़ की आंसुओं में डूबी हुई बेवक्त की आखिरी विदाई इसी के साए में हुई. जिस समय फ़िरोज़ के परिवारवाले, पड़ोसी और जम्मू-कश्मीर पुलिस विभाग के उनके सहकर्मी उन्हें सुपुर्द-खाक करने के लिए उनके पारिवारिक कब्रगाह में जमा हुए, वहां माहौल काफी तनावपूर्ण था. फ़िरोज़ को दफनाने के एक दिन के बाद श्रीनगर-अनंतनाग की ओर जानेवाली गांव की संकरी सड़क पार्क की गई गाड़ियों से पूरी तरह से जाम हो गई थी.

फ़िरोज़ का दोमंजिला पारिवारिक घर एक खूबसूरत हरे-भरे स्थान पर बना है. यह घर साधारण सा है, मगर आरामदेह है. यह जगह इतनी सुंदर और दिलकश है कि कोई इस पर कविता लिख सकता है, मगर वहां मातमपुर्सी करने के लिए जमा लोगों के लिए शामियाने लगे हैं और घर के चश्म-ओ-चिराग के बुझ जाने का विलाप एक लम्हे के लिए भी नहीं थम रहा.

ग़मज़दा औरतें फिरोज की मां और फ़िरोज़ की बेवा पत्नी को चारों ओर से घेरकर बैठी हैं. वे आपस में मिलकर इस पहाड़ से दुख को हल्का करने की कोशिश कर रही हैं. फिरोज की पांच साल की बेटी सिमरन और तीन साल की अद्दाह, जिनके सर से बाप का साया उठ गया है, बगीचे के झूले पर बैठी हैं. वे या तो सच से अनजान हैं या या उन तक धीमी जुबान में एहतियात के साथ छन कर पहुंच रही सूचनाओं से सुन्न-सी हो गई हैं.

फ़िरोज़ के पिता और दूसरे मर्द भीतर बैठे हैं. इस भारी शोक के बीच भी अब्दुल कश्मीरी मेहमाननवाज़ी नहीं छोड़ रहे. वे आनेवालों को फ़िरोज़ के कमरे तक लेकर जाते हैं और वहां क्षणभर यादों में खोकर, गर्व के साथ किताबों की रैक की ओर दिखाते हैं. यह घर में न के बराबर फर्नीचरों में से एक है, जिसमें अकादमिक किताबें भरी हुई हैं.

अगर फ़िरोज़ में थोड़ी सी भी ख़़ुदगर्ज़ी होती, तो महाराष्ट्र में एमफिल करने के बाद फ़िरोज़ ने पीएचडी की पढ़ाई की होती, जो उसका सपना था. वे अपने लोगों के कहने पर लौटकर कश्मीर नहीं आते. अगर फिरोज घाटी में इंसानियत को फिर से बहाल करने को लेकर प्रतिबद्ध नहीं होते, तो वे अपनी शिक्षा को छोड़कर कश्मीर पुलिस की बेहद खतरनाक जिंदगी नहीं अपनाते. उन्होंने न सिर्फ अपने लोगों की सेवा करने को अपनी निजी ख्वाहिशों के ऊपर तरजीह दी, बल्कि इर्द-गिर्द के लोगों को भी ऐसा करने और अपनी घाटी में शांति बहाल करने में मदद करने के लिए आगे आने की प्रेरणा दी.

फ़िरोज़ के एक पड़ोसी ने कहा, ‘जब तब हमारी सांसें हैं, उसे हम अपने नेता, अपने गाइड की तरह याद करते रहेंगे.’’

साक्षरता और खेल को बढ़ावा देने से लेकर जरूरतमंदों के बच्चों की शादी की योजना बनाने और उन्हें पैसों की मदद करने तक, सालाना पिकनिक आयोजित करने से लेकर गांव के बुजुर्गों को अहम फैसले लेने में मदद करने तक, फ़िरोज़ अपने गांव में इंसानियत का प्रतीक थे. उस गांव के लोग उन्हें ‘दोगरीपुरा गांव का गर्व’ कह कर पुकारते हैं.

कई लोगों की इस कल्पना के उलट कि हर कश्मीरी एक दहशतगर्द है, फ़िरोज़ में न तो भारत विरोध की भावना थी, न ही वह पाकिस्तान और कश्मीर के विलय के ही समर्थक थे.

लेकिन कश्मीर को लेकर मीडिया के परदे पर होनेवाले शोरगुल के बीच तथ्य आसानी से खो जाते हैं. गैरजिम्मेदार मीडियाकर्मी ये समझ नहीं पाते कि उनके पूर्वाग्रहों से भरी रिपोर्टों से भले उनकी टीआरपी बढ़ती हो, लेकिन, इसका कहीं ज्यादा खतरनाक असर 60 लाख लोगों की ज़िंदगियों पर पड़ता है, जो सुरक्षा और आजीविका जैसे सबसे बुनियादी मानवीय अधिकारों की बाट जोह रहे हैं.

इस तरह की अनैतिक मीडिया रिपोर्टिंग सबसे ज्यादा शायद उन्हें प्रभावित करती है, जो मीडिया द्वारा गढ़ी गई दो विरोधी पहचानों के मिलनबिंदु पर खड़े हैं. ये है जम्मू-कश्मीर पुलिस, जो एक साथ आम कश्मीरी और शोषक निज़ाम दोनों को प्रतिनिधित्व करती है.

अपनी जमीन के प्रति उनका लगाव और ड्यूटी की पुकार उन्हें आतंकियों और आतंकियों को समर्थन देनेवाले भटके हुए स्थानीय लोगों की घृणा का पात्र बना देता है. लेकिन जहां भारतीय सेना, सीआरपीएफ और बीएसएफ के जवानों को घाटी कर रक्षा करते हुए निश्चित समय ही बिताना होता है, स्थानीय पुलिसबल जीवनभर लगातार चलनेवाली लड़ाई में भाग ले रहे हैं. फिर यह लड़ाई चाहे आतंकियों के खिलाफ हो या फिर स्थानीय प्रदर्शनकारियों के खिलाफ.

‘जम्मू-कश्मीर देश में सबसे कम अपराध वाले राज्यों में से एक है. जम्मू-कश्मीर पुलिस हमारे लिए इतनी मेहनत करती है, मगर फिर भी…’ ऐसा कहते हुए अब्दुल का गला भर्रा आता है. वे भर्राए गले से जोड़ते हैं, ‘हमें समझ में नहीं आता, यह कैसा इंसाफ है?’

कश्मीर में सेना के जवान मारे नहीं जाते, शहीद होते हैं और पूरा देश मिलकर उन्हें श्रद्धांजलि देता है. जब एक आतंकवादी मारा जाता है, तो भी उसे उसके हिस्से का सम्मान मिलता है और उसके परिवार को खुल कर मातम मनाने की आजादी मिलती है. यहां तक कि वे प्रेस और लोगों से इस बारे में बात भी कर सकते हैं. लेकिन, जब एक कश्मीरी पुलिस अधिकारी आतंकवादियों के हाथों, यहां तक कि दोतरफा गोलीबारी में मारा जाता है, तो यह कोई बड़ी खबर नहीं बनती. बहुत कम लोग उसकी मातमपुर्सी में आते हैं. जो आते भी हैं, उनकी आंखों में भी दुख से कहीं गहरा डर का भाव होता है. वे इतने जोखिमों में घिरे हैं कि सरकार या आतंकवादी में से किसी के भी गुस्से को भुगतने की हालत में नहीं हैं. अगर वे अपनी चुप्पी तोड़ते हैं तो यह पुलिस और सरकार दोनों को नागवार गुजरेगा.

अब अब्दुल अहमद डार पर ही परिवार की देख-रेख की पूरी जिम्मेदारी है, जिसमें उनकी पत्नी, फ़िरोज़ की बेवा और फिरोज की दो बेटियां हैं. अब्दुल, जम्मू-कश्मीर सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग इरिगेशन एंड फ्लड कंट्रोल में काम करते हैं. उनके पास जीवन के अरमान के नाम पर अब ज्यादा कुछ नहीं बचा है. वे कहते हैं, ‘मुझे बस अब हौसले की जरूरत है.’

(अवनी रे और अनुशी सहगल स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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