गांव वही था, लोग भी वही थे, मगर ईद वह नहीं थी

अपने हिंदू दोस्तों को ईद की दावत दी. सबने चिकन-मटन खाने से मना कर दिया. ये वही दोस्त थे जो इसके पहले सिर्फ़ इस शर्त पर आते थे कि चिकन-मटन खाने को मिलेगा.

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अपने हिंदू दोस्तों को ईद की दावत दी. सबने चिकन-मटन खाने से मना कर दिया. ये वही दोस्त थे जो इसके पहले सिर्फ़ इस शर्त पर आते थे कि चिकन-मटन खाने को मिलेगा.

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फोटो: पीटीआई

गांव से दिल्ली लौटा हूं. ईद की छुट्टी में अपने गांव गया था. ईद से ठीक एक दिन पहले जब गांव में क़दम रखा था तो उस वक़्त तक यह यक़ीन बरक़रार था कि मैं अपने गांव में दाख़िल हुआ हूं और बहुत ख़ुश भी था कि इस बार ईद अच्छी मनेगी.

लेकिन जैसे-जैसे शाम क़रीब आती गई, वैसे-वैसे लगने लगा कि मेरा गांव मेरे भीतर से कहीं निकल भागा है और मैं जहां खड़ा हूं वह ज़मीन मेरे गांव की न होकर किसी ऐसी जगह की नुमाइंदगी कर रही है, जहां हिंदुस्तानियत की जगह तथाकथित धर्मभीरु समाज ने ले रखी हो जो अपने स्वरूप में डरावना हो. डरावना इसलिए, क्याेंकि ऐसा समाज ही हमें कहीं अख़लाक, कहीं पहलू ख़ान, रविंदर सिंह, अयूब पंडित, तो कहीं जुनैद की मॉब लिंचिंग की तरफ़ ले जाता है.

आसमान में ईद का चांद निकलने वाला था. हम सब इंतज़ार में थे. थोड़ी ही देर में शहर को जाने वाली हमारे गांव की सड़क के बीचोबीच एक हुजूम इकट्ठा होने लगा. हुजूम के बीच में एक ‘ठेले’ पर एक भगवा रंग का मंदिर विराजमान था जिसकी दीवारों पर मंदिर वहीं बनाएंगे का उद्घोष दर्ज था. उस ठेले को एक मज़दूर खींच रहा था.

कुछ मनचले शोहदों द्वारा चलाए जा रहे एक ‘मिनी ट्रक’ पर डीजे लगा हुआ था जिसमें एक भड़कीला गाना बज रहा था और उस गाने के अर्थ में यह था कि- ‘‘देश से पापियों का नाश करना है. पापियों का नाश करने के लिए मोदी जी ने अवतार लिया है. और अब मंदिर बनने से कोई नहीं रोक सकता.’’

इस विडंबना को छोड़ दें कि ‘ठेले पर मंदिर’ और ‘मिनी ट्रक पर डीजे’ विराजमान है. आप गाने के बोल में पापियों पर ध्यान दें. वे पापी कौन हैं देश में, इसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है, क्योंकि मैं तो यही जानता हूं कि मोदी जी तो ‘सबका साथ सबका विकास’ के फॉर्मूले पर काम करते हैं.

रह-रहकर उस भीड़ के बीच से एक ख़ास समुदाय के लिए ज़हर बुझी गालियां भी आ रही थीं. उस भीड़ में मेरे कुछ हिंदू दोस्त थे, जिन्होंने मुझे देखकर अपनी नज़रें फेर लीं और दोगुने उत्साह से नाचने लगे और डीजे के उस भड़काऊ गाने को दोहराने लगे. वह दृश्य मुझे बेहद डरावना लगा और मैं भीतर से सिहर उठा. ये वही दोस्त थे जो कभी दीवाली-दशहरे और होली की हुड़दंग का हिस्सा बनने के लिए मुझे मजबूर करते थे, लेकिन उस दिन वे अपनी निगाहों में नफ़रत लिए मुंह फेर रहे थे.

मैं ख़ुद पर गुस्सा होने लगा कि मैं क्यों उन दोस्तों के सामने आ खड़ा हुआ, कम से कम उनके मुंह फेर लेने का दृश्य तो न देख पाता. मैं सोचने लगा कि उन मुंह फेर रहे दोस्तों को कल ईद के दिन सेवई खाने की दावत कैसे दूं. यही सोचते हुए मैं उस भीड़ से कुछ दूर जा खड़ा हुआ और देखने लगा कि वहां क्या कुछ हो रहा है.

उस मंदिर और डीजे के इर्द-गिर्द सैकड़ों की भीड़ माथे पर भगवा पट्टी बांधे नाच-गा रही थी और बीच-बीच में ‘‘जय श्रीराम’’ के नारों के साथ ‘‘मंदिर वहीं बनाएंगे’’ का उद्घोष कर रही थी. उस शोर में ऐसी वहशत थी कि सड़क के आजू-बाजू खड़े या आ-जा रहे लोगों के चेहरे कुछ बुझे हुए से एक ख़ामोश तमाशबीन की शक्ल ले चुके थे.

क़ानून क्या है, प्रशासन क्या होता है, लोगों की लोगों के प्रति ज़िम्मेदारी क्या होती है, बड़े या छोटे का फ़र्ज़ क्या होता है, किसी जश्न का आदाब क्या होता है, धार्मिक उत्सव का उद्देश्य और उसकी नैतिकता क्या होती है, इन सब चीज़ों का कहीं कोई अता-पता नहीं था. अगर कुछ था तो बस एक वहशतनाक शोर, जिसमें इंसानी रिश्ते और मूल्य कहीं दब कर रह जा रहे थे और धार्मिक कट्टरता उन मूल्यों को मुंह चिढ़ा रही थी.

उत्साह में हुजूम एक तरफ़ बढ़ चला और उदास मन से मैं अपने घर की तरफ़. छत से चांद देखा और फिर अपने कुछ हिंदू दोस्तों को सेवई की दावत पर बुलाने के लिए कॉल करने लगा. सबने आने का वादा तो किया, लेकिन हैरत इस बात से हुई कि मेरे बिना कुछ कहे ही सबने पहल करते हुए चिकन या मटन खाने से मना कर दिया और कहा कि सिर्फ़ सेवई खाने आएंगे.

आप सोच रहे होंगे कि इसमें हैरत वाली क्या बात है. बात है. वो यह कि ये वही दोस्त थे, जो बीते सालों की ईद पर इस शर्त पर आते थे कि मेरे यहां चिकन-मटन की व्यवस्था होगी. बल्कि कुछ दोस्त तो यहां तक कहते थे कि अगर चिकन-मटन की व्यवस्था न हो तो रहने दो, ख़ाली सेवई खाने नहीं आएंगे. अचानक एक-दो साल में ही उन्हें क्या हो गया? ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने चिकन-मटन खाना छोड़ दिया हो और ऐसा भी नहीं है कि डिमोनेटाइजेशन को लेकर सरकार को दो-चार गालियां न दी हों. फिर अचानक क्या हो गया?

चांद दिखा कि नहीं, इस कशमकश में लोगों ने इधर-उधर फोन कर पूछना शुरू किया. इस बीच मुझे भी कई फोन आये और चांद दिखने की बात के बाद मैंने उनसे पूछ ही लिया कि कल ईद के दिन सुबह में चिकन-मटन की क्या व्यवस्था है. जवाब कुछ ठीक नहीं था.

उनका कहना था कि शाम को सड़क पर मंदिर वहीं बनाएंगे की भीड़ को देखकर कसाइयों ने भी हाथ खड़े कर दिए कि वे रिस्क नहीं लेंगे. पता नहीं कौन आ धमके और न जाने क्या कर बैठे. इसका नकारात्मक असर यह हुआ कि बाज़ार से चिकन-मटन लाना तो दूर, कुछ लोगों ने अपने घर पर भी चिकन-मटन हलाल करने तक को मुनासिब नहीं समझा और यह अंदेशा भी ज़ाहिर करने लगे कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो अगले दो महीने बाद आने वाली बकरीद पर पता नहीं क्या आलम होगा.

इस मंज़र को देखकर मैं सोचने लगा कि इंतेहाई तौर पर गौमांस के अंदेशे में मारे जाने के डर के बीच बीफ़ से दूर भागा हुआ आदमी अब चिकन-मटन भी नहीं खा सकता.

ईद के दिन जब मेरे दोस्त मेरे घर दावत पर आए, तो मैंने महसूस किया कि उनके चेहरे पर ईद की वह ख़ुशी नहीं थी, जो पहले के सालों में हुआ करती थी. बस एक औपचारिकता भर थी. आख़िर ऐसा क्या हो गया था? गांव भी वही था, दोस्त भी वही थे, लोग भी वही थे, रिश्ते-नाते भी वही थे, मंदिर-मस्जिद भी वही थे, लेकिन इस बार ईद वह नहीं थी, हमारा मेल-मिलाप वह नहीं था, हमारे रिश्ते पहले जैसे नहीं थे, और सबसे बढ़कर हम पहले जैसे नहीं रहे.

अगर यह बदलाव नकारात्मकता की तरफ़ ले जा रहा है, तो सचमुच एक ख़तरनाक बदलाव की ओर हम बढ़ रहे हैं. आज ईद का आलम यह है, कल दीवाली का आलम क्या होगा, यह सोचकर मैं अभी से सिहरने लगा हूं.

इन हालात के बीच दोस्तों के जाने के बाद मेरे ज़ेहन में एक वाकया उभर आया. अभी बीते 18 जून को भारत-पाकिस्तान के बीच चैम्पियंस ट्राॅफी का फाइनल मैच था. उस दिन एकदम सुबह मेरे गांव से एक ब्राह्मण दोस्त ने व्हॉट्सएप पर मैसेज किया कि मैं अपने व्हॉट्सएप की डीपी बदल दूं, जिसमें मेरी तस्वीर लगी थी. और उसकी जगह तिरंगे झंडे की फोटो लगाऊं, जैसा कि उस दोस्त ने लगा रखी थी.

मैंने पूछा किसलिए डीपी बदलूं? तो उसने कहा कि चैम्पियंस ट्रॉफी में भारत को सपोर्ट करना है और पाकिस्तान को हराना है. मैंने कहा मेरे डीपी बदलने से किसी के हार-जीत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा और ऐसा करना मैं मूर्खता का काम समझता हूं, क्योंकि क्रिकेट अब भद्रजनों का खेल नहीं रह गया है, बल्कि करोड़ों की दलाली का खेल बनकर रह गया है.

इस पर मेरे दोस्त ने कहा कि वह हमारा नंबर डिलीट कर रहा है. उसके ऐसा करने पर मैं अवाक हो गया. मुझे बहुत दुख हुआ, क्योंकि वह मेरे बचपन का दोस्त है और किशोरावस्था में हमने एक साथ क़रीब पांच साल तक बेहतरीन क्रिकेट खेला था. सोचने लगा कि हमारी इतनी पुरानी दोस्ती के रिश्ते में दरार के लिए मेरी क्या गलती थी?

मेरे दोस्त की इस हरकत पर मुझे हंसी भी आई कि अगर पाकिस्तान न होता तो हमारे राष्ट्रवाद का क्या होता? क्या पाकिस्तान को गाली देना और सिर्फ़ क्रिकेट में उसे हराना ही राष्ट्रवाद बन गया है? राष्ट्रवाद की ऐसी अवधारणा तो एक क्रूर अवधारणा ही मानी जाएगी. क्या भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच में हार-जीत से हमारे रिश्ते तय होंगे? ऐसे में रिश्तों की परिभाषा तो विकृत ही होगी.

हम धर्मभीरु समाज पहले से ही हैं, लेकिन इसमें पहले इतनी भयावहता और कट्टरता नहीं थी, जैसा कि पिछले दो-तीन सालों में देखने को मिली है. मैं हर उस हिंदू तीज-त्योहार का हिस्सा बनता आया हूं, लेकिन अब से पहले मुझे ज़रा भी डर नहीं लगा था और दिल में ऐसी भयावहता नहीं जन्म लेती थी.हमारे सदियों पुराने रिश्तों में अब गोरक्षा दल घुस गए हैं, जो हिंदू दोस्तों मांसाहार से भले न रोक सकें, लेकिन हमारे घर का चिकन खाने से ज़रूर रोक रहे हैं.

दिल्ली में बैठा मीडिया गांव की इस ख़ामोश भयावहता को नहीं देख सकता और न ही हम बाहर से कुछ ऐसा महसूस ही कर सकते हैं कि भयावहता कहां है. मासूम से मासूम गांव आज भी इस भयावहता को एक मौन स्वीकृति की तरह स्वीकार कर जी रहे हैं. हम तो यह कहकर बच निकलते हैं कि गांव में सब मिलजुल कर रहते हैं, वहां संकीर्ण या कट्टर मानसिकता जैसी कोई चीज़ नहीं ठहर सकती, लेकिन यह हमारी भूल होगी.

हमारी राजनीतिक-सामाजिक संरचना में ऊपरी स्तर की नकारात्मकता और उसकी छिपे तौर पर विभाजनकारी नीतियां समाज के निचले स्तर तक असर करती हैं, लेकिन हमें इसका एहसास तब होता है, जब हम ख़ुद इसके भुक्तभोगी बनते हैं.

इस बार की ईद पर मेरे साथ यही हुआ, जब मैंने अपने गांव को दिल्ली से देखने के बजाय गांव की ज़मीन पर देखा. गांव वही था, लोग भी वही थे, मगर ईद वह नहीं थी.

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