गुजरात सरकार के पास किसी को अपने पैसे से टेस्ट कराने से रोकने का अधिकार नहीं: न्यायमित्र

गुजरात सरकार द्वारा हाईकोर्ट में दिए हलफ़नामे में कहा गया है कि कोविड टेस्टिंग को मोटे तौर पर संविधान में बताए गए बुनियादी अधिकारों में रखा जा सकता है, लेकिन इस पर वाज़िब प्रतिबंध हो सकते हैं. इसके विरोध में न्यायमित्र बृजेश त्रिवेदी का कहना है कि सरकार के पास किसी को टेस्ट कराने से रोकने का अधिकार नहीं है.

(फोटोः रॉयटर्स)

गुजरात सरकार द्वारा हाईकोर्ट में दिए हलफ़नामे में कहा गया है कि कोविड टेस्टिंग को मोटे तौर पर संविधान में बताए गए बुनियादी अधिकारों में रखा जा सकता है, लेकिन इस पर वाज़िब प्रतिबंध हो सकते हैं. इसके विरोध में न्यायमित्र बृजेश त्रिवेदी का कहना है कि सरकार के पास किसी को टेस्ट कराने से रोकने का अधिकार नहीं है.

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(फोटोः रॉयटर्स)

अहमदाबादः गुजरात हाईकोर्ट में कोरोना टेस्ट को लेकर राज्य सरकार द्वारा बनाई गई नई नीति से संबंधित शिकायतों पर सुनवाई हो रही है. इस मामले में न्यायमित्र बृजेश त्रिवेदी ने गुजरात सरकार के रुख का विरोध किया है.

गुजरात सरकार द्वारा हाईकोर्ट में दिए गए हलफनामे में कहा गया था कि कोविड 19 की टेस्टिंग को मोटे तौर पर संविधान में बताए गए बुनियादी अधिकारों में रखा जा सकता है, लेकिन इस पर वाजिब प्रतिबंध हो सकते हैं. न्यायमित्र और अधिवक्ता बृजेश त्रिवेदी इसका विरोध किया है.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात सरकार ने हाईकोर्ट में कहा था कि वह जीवन के मौलिक अधिकार पर उचित प्रतिबंध लगाने के लिए सशक्त है. इसका विरोध करते हुए न्यायमित्र बृजेश त्रिवेदी ने कहा कि सरकार के पास किसी को भी कोविड-19 टेस्ट कराने से रोकने का कोई अधिकार नहीं है.

राज्य सरकार का यह जवाब ऐसे समय में आया है, जब अहमदाबाद मेडिकल एसोसिएशन (एएमए) ने प्रतिदिन की दर से 40,000 टेस्ट कराने पर जोर दिया है.

गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस विक्रम नाथ के नेतृत्व में पीठ ने शुक्रवार को कोरोना महामारी से संबंधित कई मामलों में सुनवाई की.

अधिवक्ता त्रिवेदी ने राज्य सरकार के इस रुख का विरोध किया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है और यह प्रतिबंधों के अधीन है.

उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि, ‘क्या हम 1975 जैसे राजनीतिक आपातकाल की स्थिति में हैं, जहां मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए दिए गए थे.’

उन्होंने कहा, ‘यह महामारी है और राज्य के संसाधन सीमित हैं. सरकार को खुद के खर्च पर कोरोना टेस्ट कराने से किसी को रोकने का अधिकार नहीं है.’

उन्होंने कहा कि इस मामले पर सरकार का रुख नकारात्मक मानसिकता का नतीजा है और यह कोई राजनीतिक आपात स्थिति नहीं है, जहां किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन कर लिया जाए.

इस बीच गुजरात के स्वास्थ्य विभाग की ओर से तैयार की गई नई टेस्टिंग नीति पर एएमए ने सवाल उठाए हैं.

एएमए का कहना है कि गुजरात में रोजाना की दर से कोरोना टेस्टिंग बढ़ाई जानी चाहिए. 1.9 करोड़ की आबादी वाले दिल्ली शहर में केंद्र सरकार ने रोजाना की दर से 18,000 टेस्टिंग कराने के निर्देश दिए हैं.

वकील मितुल शलत के साथ अदालत में एएमए का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील रोहन शाह ने कहा, ‘6.5 करोड़ की आबादी वाले गुजरात में रोजाना की दर से टेस्ट की रफ्तार 40,000 की जानी चाहिए. हमने यह भी बताया कि सात लैब को टेस्टिंग के लिए आईसीएमआर से मंजूरी मिल गई है लेकिन अभी तक राज्य सरकार से मंजूरी मिलना बाकी है.’

बता दें कि गुजरात सरकार की नई नीति के तहत अब एक एमडी डॉक्टर ही कोरोना टेस्ट के लिए योग्य हो सकता है.

एएमए की ओर से डॉ. मोना देसाई, रोहन शाह और मितुल शलत ने अदालत में हलफनामा दायर कर बताया कि ग्रामीण इलाकों में जहां अधिकतर सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों का संचालन एमबीबीएस डॉक्टरों द्वारा किया जाता है, वहां अब कोरोना के एक संदिग्ध मरीज को इलाज के लिए शहर जाना पड़ेगा जहां एमडी डॉक्टर उपलब्ध हैं.

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