गुलज़ार देहलवी: मिटती हुई दिल्ली के निशां हैं हम लोग…

गुलज़ार देहलवी साहब का जाना उस आख़िरी क़िस्सागो का जाना है, जिसकी कहानियों में दिल्ली की तहज़ीब और ज़बान सांस लेती थी.

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गुलज़ार देहलवी. (फोटो साभार: रेख्ता)

गुलज़ार देहलवी साहब का जाना उस आख़िरी क़िस्सागो का जाना है, जिसकी कहानियों में दिल्ली की तहज़ीब और ज़बान सांस लेती थी.

गुलज़ार देहलवी. (फोटो साभार: रेख्ता)
गुलज़ार देहलवी. (फोटो साभार: रेख्ता)

वो जो खो गए एक सदी का किस्सा थे…

शहरज़ाद हर रात बादशाह को कहानी कहती थी… और कहानी इसलिए कहनी थी कि जिंदा रहना है. फिर कहानी में ऐसी खो गई कि जिंदा रहने का ख़याल कहीं पीछे छूट गया.

शहरज़ाद ने इतिहास और शायरी के अलावा भी बहुत कुछ पढ़ रखा था. उसके पास हजार किताबें थीं. शायद इसलिए वो ‘हजार जानलेवा रातों’ से सलामत गुजर गई.

हमारे सामने भी जाने पिछले कितने ज़मानों और जहानों का एक आखिरी किस्सागो था, लेकिन हमने उसको सुना ही नहीं… हालांकि, उसकी कहानियों में गुमशुदा चेहरों और गर्द-आलूद गलियों का मुकम्मल पता था.

किस्सा सुनने का शौक़ मर गया इसलिए तहज़ीब भी मर गई…

जी, वो हमारी ‘कारोबारी महफ़िलों’ में बस एक नुमाइश की तरह था…जैसे हमारी तहज़ीब, सभ्यता और संस्कृति किसी म्‍यूज़ियम का सिक्का हो… जिसे हम हैरत से निहारते तो हैं, लेकिन उसके ‘खोटा’ होने के एहसास में एक पूरे कल्चरल डिस्कोर्स से अपनी उचटती नज़र को भी अक्सर फेर लेते हैं.

ख़ैर, वो जो एक तहज़ीब थी, जाने किन-किन वक़्तों के दिल्ली की यादगार थी. जो हमारी बदहवास दिल्ली में चलती-फिरती, उठती-बैठती और बातें करती थीं.

शायद एहसास भी दिलाती थी कि अतीत के पर्दे से तुम्हारे वर्तमान के चेहरे को जोड़ने वाली शहरज़ाद मैं ही हूं. उसी शहरज़ाद को एक दुनिया ने पंडित आनंद मोहन ज़ुत्शी ‘गुलज़ार देहलवी’ के नाम से जाना.

गोया, गुलज़ार साहब का जाना उस आखिरी किस्सागो का जाना है जिसकी कहानियों में दिल्ली की तहज़ीब और ज़बान सांस लेती थी.

सफेद शेरवानी में खिलता हुआ सुर्ख़ गुलाब, चूड़ीदार पाजामा और नेहरू-कट टोपी से सुसज्जित इस कश्मीरी पंडित को देखकर शायद उनके दास्तानी मिज़ाज का एहसास न होता रहा हो, लेकिन जिन्होंने उनको सुन रखा है और मुशायरों में उनके हाव-भाव से लुत्फ़-अंदोज़ हुए हैं वो जानते हैं कि कभी न थकने वाली उनकी उम्र और ज़बान, उर्दू के भाषा-विज्ञान और इतिहास का व्यावहारिक रूप थी.

और ये उनके पहनावे की शालीनता थी, जो वो हुजूम में भी अलग से पहचान लिए जाते थे. शायद कोई भी उनसे सरसरी नहीं गुजर सकता था.

और शायद इसलिए जब जवानी ढलान पर थी तब ख़्वाजा अहमद अब्बास ने उनसे अपनी मुलाक़ात को यूं क़लम-बंद किया-

साठ के होने पर भी ख़ूबरू (बेहद ख़ूबसूरत),जामा-ज़ेब (वेल ड्रेस्ड), कॉलेज के नौजवान और हसीन शहज़ादे मालूम होते हैं. नौजवानी उनके सुर्ख़-ओ-सफेद चेहरे पर लिखी हुई है.

ख़ैर, बहुत सी किताबों में दर्ज हिंदुस्तानी तहज़ीब के कई संदर्भों को साकार होते देखना या मूर्त रूप धारण करते हुए महसूस करने का मतलब था गुलज़ार देहलवी और हिंदुस्तानी तहज़ीब का दास्तानी मिजाज़ रोशन हो चुका है.

मिर्ज़ा ग़ालिब ने शायद ऐसे ही लोगों के लिए कहा था कि, देहली की ज़बान दास्तान कहने वालों के हाथ में है. अब ऐसे किस्सागो का परिचय कोई क्या लिखे कि वो एक ‘मुकम्मल तहज़ीब’ की किताब थे. मगर फिर भी…

पंडित आनंद मोहन ज़ुत्शी ‘गुलज़ार देहलवी’ (1925-2020) देहली बाज़ार, सीताराम, पुरानी दिल्ली के गली कश्मीरियान में पंडित त्रिभुवन नाथ ज़ुत्शी ‘ज़ार देहलवी’ और बृज रानी ज़ुत्शी ‘बेज़ार देहलवी’ उर्फ विक्टोरिया ज़ुत्शी के घर जन्मे.

पिता ज़ार देहलवी, दाग़ देहलवी के पहले शागिर्द थे; जो अंग्रेजी, संस्कृत और फारसी समेत कई भाषाओं के विद्वान होने के अलावा इस्लामियात, वेदांत और गणित की गहरी जानकारी रखते थे.

वो सेवानिवृत्त के बाद भी 39 साल तक इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर वूमेन में पढ़ाते रहे, जहां चर्चित फिक्शन राइटर कुर्रतुलऐन हैदर और जानी-मानी शायरा अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा भी उनकी स्टूडेंट रहीं.

यूं समझें कि पिता को दाग़ से निस्बत थी, वही दाग़ जो ज़बान का मालिक था. कहते हैं दिल्ली की लिंग्विस्टिक्स हिस्ट्री में सबसे ऑथेंटिक टकसाली ज़बान दाग़ की थी.

गोया गुलज़ार देहलवी हमारे ज़माने में इसी ज़बान की एक कड़ी थे. तभी ख़्वाजा अहमद अब्बास को कहना पड़ा-

उर्दू ज़बान पर उनकी क़ुदरत, बला की फ़साहत (अलंकार से बचते हुए रोज़मर्रा के बेहद आसान शब्दों का प्रयोग) और उर्दू से वालिहाना इश्क़ ज़बरदस्त मुत्तासिर करने वाला था. और क्यों न हो जब वालिद अल्लामा प्रोफ़ेसर ज़ार देहलवी यादगार-ए-दाग़ के फ़रजंद हैं और मए वालिदा हज़रत बेज़ार देहलवी के सारा ख़ानदान शायर है.

इसी बात को ज़मीर हसन देहलवी ने यूं लिखा कि-

जादू-बयानी क्या होती है, लब-ओ-लहजे की झंकार क्या होती है तो उसे हम गुलज़ार देहलवी से भर देते हैं.

जब गुलज़ार देहलवी सिर्फ 13-14 बरस के थे तब बाबा-ए-उर्दू मौलवी अब्दुल हक़ ने कहा था-अपने बुज़ुर्गों की तरह फ़सीह (Eloquent) उर्दू लिखता और बोलता है.

और ये तो हम जैसों का देखा-भाला है कि गुलज़ार जब बोलने पर आते थे तो पर्यायवाची शब्दों का ढेर लगा देते थे. हालांकि वो ख़ुद अपने ज़माने में ‘जोश’ को ज़बान का सबसे बड़ा उस्ताद बताते थे. ये और बात है कि जोश भी इनके क़ायल थे.

वहीं, मां ‘बेज़ार’ की बात करें तो वो साइल देहलवी जैसे शायर की शागिर्द थीं. उनके बारे में कहा जाता था कि अगर देहली की औरतों की टकसाली ज़बान सुनना हो तो इस पंडिताइन से सुनो.

ये बात भी मशहूर थी कि अगर दिल्ली आकर गुलज़ार की वालिदा से नहीं मिले तो दिल्ली ही नहीं देखी.

दरअसल दिल्ली की तहज़ीब गुलज़ार साहब के लालन-पालन का हिस्सा थी. वो तमाम धर्मों से परिचित थे. गीता, बाइबिल क़ुरान और जाने क्या-क्या पढ़ रखा था.

संस्कृत के श्लोक के अलावा वो इस रवानी से क़ुरान की आयतें सुनाते थे कि कई बार उनको मुसलमान समझ लिया जाता था. वो जमीयत उलेमा-ए-हिंद की बैठकों में भी इस तरह शरीक होते थे कि लोगों ने उनको ‘शायर-ए- जमीयत’ कहना शुरू कर दिया था.

उनकी शेरवानी में मोतियों की एक ख़ास लड़ी होती थी जिसके लॉकेट में गीता का श्लोक और क़ुरान की आयतें दर्ज थीं.

इसी तरह रमज़ान में ‘रोज़ा रवादारी’ हो या रामलीला कमेटी, दरगाह हज़रत निज़ामुद्दीन और फूल वालों की सैर आदि से उनका रिश्ता… यूं कहें कि धर्मनिरपेक्षता अगर सचमुच कोई चीज होती है तो गुलज़ार साहब उसके अमानतदार थे. उन्होंने कहा भी कि-

मैं वो हिंदू हूं कि नाजां हैं मुसलमां जिस पर
दिल में काबा है मिरे दिल है सनम-ख़ानों में
‘जोश’ का क़ौल है और अपना अक़ीदा गुलज़ार
हम सा काफ़िर न उठा कोई मुस्लमानों में

घर में शेर-ओ-शायरी का माहौल था और उस ज़माने में इश्क़िया शायरी का ज़ोर था इसलिए मां उनको बाला ख़ाने (मुजरे) की शायरी से बचाने के लिए हसरत, चकबस्त और इक़बाल जैसे शायरों का कलाम पढ़वाती और सुनती थीं.

अलग-अलग धर्मो के बारे में किताबें पढ़ने को देती थीं. और ये भी बताती थीं कि गजल कहनी है तो दिल्ली के किस शायर को दिखाओ और नज़्म कहनी है तो किससे मशविरा करो.

इसी तरह भाई पंडित रत्न मोहन नाथ ज़ुत्शी ‘ख़ार देहलवी’ और मामू ‘पंडित गिरधारी मोहन कोल आशिक़’ समेत सब बड़े शायर थे. ख़ार देहलवी ने भी दाग़ वाले सिलसिले को आगे बढ़ाया और कहा-

घराना है हमारा ‘दाग़’ का हम दिल्ली वाले हैं
ज़माने में मुसल्लम ‘ख़ार’ अपनी ख़ुश-बयानी है

इन सबसे से अलग मगर आर्ट की दुनिया में ही बड़े भाई पंडित दीनानाथ ज़ुत्शी रेडियो, टीवी और स्टेज के मशहूर आर्टिस्ट थे.

फ़िल्म ‘गर्म हवा’ में ‘हलीम मिर्ज़ा’ का रोल उनसे यादगार है. 1977 में 76 साल की आयु में उनका निधन हो गया. मशहूर अभिनेता राजेंद्रनाथ ज़ुत्शी उन्हीं के पोते हैं.

ये गुलज़ार का सामने का परिचय था, जिसमें ये जोड़ते हुए कि वो ख़ुद हिंदुस्तानी साहित्य और संस्कृति पर बेहद गहरी नज़र रखते थे, कह सकते हैं कि उनके पुरखे दस-दस ज़बानें जानते थे, जिनमें फ्रेंच से लेकर मैथिली तक शामिल है.

पुरखे मुग़ल बादशाह शाहजहां के निमंत्रण पर कश्मीर से दिल्ली आए थे. उनको कई जागीरें दी गई थीं और ‘राय-रायान’ (मुग़लशासन काल की एक उपाधि) कि उपाधि से नवाज़ा गया था.

मुग़ल शहज़ादे-शहज़ादियों को तालीम देना और फारसी में स्थानीय भाषाओं एवं बोलियों का तर्जुमा करना उनके पुरखे का बुनियादी काम था. यूं कहें कि वो सत्ता और अवाम के बीच पुल की तरह थे.

Gulzar Dehlvi Photo Twitter
गुलज़ार साहब की शेरवानी में मोतियों की एक ख़ास लड़ी रहती थी, जिसके लॉकेट में गीता का श्लोक और क़ुरान की आयतें दर्ज थीं. (फोटो साभार: ट्विटर)

इसी घराने के चश्म-ओ-चराग़ और स्वतंत्रता सेनानी गुलज़ार देहलवी ने 1933-34 से शायरी शुरू की और कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलनों में देशप्रेम और इंक़लाब की नज़्में पढ़ने लगे.

कांग्रेस के साप्ताहिक ‘स्टूडेंट्स कॉल’ और हिंदू कॉलेज मैगज़ीन के संपादक रहे. भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की तरफ़ से 1975 में शुरू की गई विज्ञान और प्रौद्योगिकी को समर्पित पहली उर्दू पत्रिका ‘साइंस की दुनिया’ के संस्थापक संपादक हुए और यहीं से डायरेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए.

उल्लेखनीय है कि मौलाना आजाद के कहने पर वो 1953 में सीएसआईआर से जुड़े और बाद में इंदिरा गांधी के कहने पर यहां उर्दू के सलाहकार बोर्ड से जुड़े और संपादक बने.

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने इस पत्रिका को भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी तरह का बेमिसाल कारनामा कहा था.

1933 से ही वो दिल्ली के मुशायरों में भी शरीक होने लगे थे. जहां अपने वक़्त के तमाम बड़े शायरों, साहित्यकारों और क़द्दावर रहनुमाओं के साथ उनका उठना-बैठना रहा.

बाद के दिनों में पूरे देश और 60 से ज्यादा मुल्कों में उन्होंने उर्दू और हिंदुस्तान का परचम बुलंद किया और दिल्ली की गुजरी हुई ज़बान का हवाला बनते चले गए.

जवाहरलाल नेहरू की ख़्वाहिश पर 1951 के वर्ल्ड पीस फेस्टिवल बर्लिन (जर्मनी) में युवा कवियों की अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में शामिल हुए और दूसरा अवार्ड (Youth Poet Laureate) हासिल किया.

इस प्रतियोगिता में 104 देशों के 950 कवियों ने हिस्सा लिया था. यहां उन्होंने 150 शेर की एक नज़्म ‘नग़्मा-ए-इंसानियत’ पढ़ी.

उसी ज़माने में उनको नाज़िम हिकमत और पाब्लो नेरूदा जैसे शायर और साहित्यकारों से भी मिलने और उनके साथ सफर करने का अवसर मिला. नाज़िम हिकमत ने उनको जर्मन सीखने और उर्दू पढ़ाने की दावत तक दी थी.

साल 2000 में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के 36 देशों के शायरों की कॉन्फ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व और उसकी अध्यक्षता भी गुलज़ार ने की.

गुलज़ार ऐसी तमाम उपलब्धियों से आगे ज़बान के शायर थे, इसलिए उनकी शायरी को एक ख़ास तरह से देखते हुए कहा जा सकता है कि वो सिर्फ शायर नहीं थे बल्कि हिंदुस्तानी तहज़ीब की साझी विरासत और परंपरा के संरक्षक के तौर पर उनका योगदान अतुलनीय है.

हाल ही में उन्होंने कहा था, ऐसे हालात न पैदा किए जाएं कि ये गंगा जमुनी ज़बान सिर्फ मुसलमानों की ज़बान बनकर रह जाए.

इसके अलावा वो 8वीं तक हर हाल में बच्चों की उर्दू की तालीम की वकालत करते रहे. उर्दू के लिए उनका समर्पण और जोश बस उन्हीं का हिस्सा था.

उनके योगदान को एक परोपकारी सेवा की तरह देखना चाहिए, हालांकि उनको बेशुमार उपाधियों और पुरस्कारों से नवाज़ा गया. जिनमें नवाब छतारी रामपुर की तरफ़ से दिया जाने वाला सोने का पदक भी शामिल है.

उन्होंने अपनी संस्था ‘अंजुमन-ए-तामीर-ए-उर्दू’ के माध्यम से उर्दू और उसकी तालीम के लिए उल्लेखनीय काम किया. और विभाजन के बाद उर्दू की लड़ाई में अगले मोर्चे पर खड़े रहे.

कुर्रतुलऐन हैदर के शब्दों में कहें तो, गुलज़ार देहलवी का अहम कारनामा ये है कि तक्सीम-ए-हिंद के बाद उन्होंने बे-ख़ौफ़ी से उर्दू का परचम बुलंद किया.

और तो और विभाजन के बाद हिंदुस्तान में वो पहले शख़्स थे जिन्होंने इक़बाल को याद किया और ‘यौम-ए-इक़बाल’ मनाया, जिसमें मौलाना आज़ाद भी शरीक हुए .

ऐसी बहुत सी बातों की वजह से उन्हें याद-ए-असलाफ़, इमाम-ए-उर्दू, शायर-ए-क़ौम, गुलज़ार-ए-ख़ुसरो, बुलबुल-ए-हिंद, चकबस्त सानी और बाबा-ए-उर्दू आदि कहा गया.

उर्दू में इंक़लाबी नज़्में कहने वाले गुलज़ार शायरी में अपनी बड़ी पहचान नहीं बना सके. लेकिन ये भी एक किस्सा है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ उनके नज़्मों की पहली किताब ‘ललकार’ ज़ब्त कर ली गई थी. जिसको उर्दू दैनिक ‘तेज’ के मालिक लाला देशबंधु गुप्ता ने छापा था.

एक तरह से उनकी शायरी गुजरे हुए हिंदुस्तान की आत्मकथा है, वो ख़ुद भी अपनी शायरी के बारे में कह गए- आने वाली नस्लें मेरी नज़्मों और रुबाइयों से देश के इतिहास का सुराग़ तलाश कर सकेंगी.

उनकी बे-ख़ौफ़ी की वजह से उनको ग़ाज़ी और शहीद-ए-उर्दू भी कहा गया. क़ाज़ी अब्दुल वदूद जैसे बड़े स्कॉलर ने लिखा, आपको राष्ट्र कवि और मुजाहिद-ए-उर्दू कहलाने के लायक़ सझता हूं.

यूं भी कहें कि वो दिल्ली की लिविंग हिस्ट्री थे, इसलिए उनको अबरू-ए-देहली भी कहा गया.

एक दिलचस्प बात ये है कि उनकी शायरी के अंदाज़ को देखते हुए माता-पिता और भाई के ज़ार (रोना), बेज़ार (उकताया हुआ) और ख़ार (कांटा) जैसे नकारात्मक अर्थ वाले नामों की मौजूदगी में इनका नाम गुलज़ार (गुलाबों का बिस्तर) रखा गया.

अपने व्यक्तिव से मंत्रमुग्ध कर देने वाले गुलज़ार साहब की याददाश्त कमाल की थी. वो पिछले ज़मानों की हर बड़ी शख़्सिय्त का नाम सुनते ही कोई न कोई किस्सा लेकर बैठ जाते थे.

उम्मीद से भरे गुलज़ार बाबरी मस्जिद विध्वंस से पहले तक कांग्रेस और उसकी सियासत को न सिर्फ पसंद करते थे बल्कि उसकी सरगर्मियों में शामिल भी होते थे.

लेकिन 1992 के बाद उन्होंने ख़ुद को अलग-थलग कर लिया था. अपनी एक नज़्म में उन्होंने कहा था, तंग नज़री से हुई इस मुल्क की मिट्टी पलीद.

वो अक्सर इस मुल्क के उलेमा और रहनुमाओं के बारे में बताते हुए कहते थे अफसोस है कि मुसलमान इस मुल्क में अपने इतिहास को नहीं जानता. वो ज़ोर देकर कहते थे कि इस मुल्क में मुसलमान बराबर के शहरी हैं.

ख़ैर, गुलज़ार नौजवानी के दिनों से ही कांग्रेसी रहनुमाओं के इतने अज़ीज़ थे कि वो नेहरू और मौलाना आज़ाद जैसे लोगों को भी अपनी शेरी महफ़िलों में बुलवा लेते थे. और तो और मौलाना आज़ाद जैसे सख्त-मिजाज़ आदमी से भी अपनी बात मनवाना जानते थे.

दिलचस्प बात है कि जो आज़ाद दरगाहों या मज़ारों पर जाना तक पसंद नहीं करते थे और पीर ज़ामिन निज़ामी साहब को एक बार मना भी कर चुके थे उस आज़ाद से दरगाह पर अमीर ख़ुसरो और हिंदू मुस्लिम एकता के बारे में घंटा भर तक़रीर करवाने का श्रेय भी गुलज़ार को जाता है.

कहते हैं इस तक़रीर को सुनने के लिए हिंदू और सिखों के साथ आज़ादी के बाद का डरा हुआ मुसलमान भी बाहर निकल आया था.

दरअसल गुलज़ार साहब उस तहज़ीब का प्रतिनिधित्व करते थे जिसमें हमारे समय की नफ़रत, घृणा और कट्टरता नहीं थी. गुलज़ार के लिए सामाजिक और राजनीतिक सौहार्द से बड़ी कोई चीज शायद थी ही नहीं. वो अपनी नज़्मों से भी हमेशा शांति, एकता और भाईचारे का ही संदेश देते रहे.

ऐसे में जब-जब दिल्ली की तहज़ीब और ज़बान की बात आएगी उनका नाम लिया जाएगा और उनके ये शेर ख़ास तौर पर दर्ज किए जाएंगे-

मिटती हुई दिल्ली के निशां हैं हम लोग
ढूंढोंगे कोई दिन में कहां हैं हम लोग
गुलज़ार अबरू-ए-ज़बां अब हमीं से है
दिल्ली में अपने बाद ये लुत्फ़-ए-सुख़न कहां
तारीख़ अब जो होगी मुरत्तब ज़बान की
गुलज़ार देहलवी को भुलाया न जाएगा

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