‘चीन के अड़ियल रवैये का कारण उसकी नई अर्थव्यवस्था और मिलिट्री क्षमता है’

द वायर ने भारत और चीन के बीच चल रहे तनाव पर पूर्व विदेश सचिव और चीन में भारतीय राजदूत रहीं निरूपमा राव से बातचीत की.

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Nirupma Rao Reuters

द वायर  ने भारत और चीन के बीच चल रहे तनाव पर कुछ विशेषज्ञों से जाना कि क्या दोनों देशों के बीच सीमा पर कोई बड़ी घटना होने की उम्मीद है और भारत को इस स्थिति से कैसे निपटना चाहिए. इस कड़ी में पूर्व विदेश सचिव और चीन में भारतीय राजदूत रहीं निरूपमा राव से बातचीत.

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(फोटो: रॉयटर्स)

भारत और चीन के बीच भूटान ट्राई जंक्शन पॉइंट सीमा के पास के डोकलाम क्षेत्र के पास सड़क बनाने को लेकर आमने-सामने हैं. जहां चीन ने इसका समाधान निकलने के लिए भारत के सामने इस क्षेत्र से पहले सेना को हटाने की शर्त रखी है, वहीं भारत का कहना है कि ये दोनों देशों के बीच हुए समझौते का सीधा उल्लंघन है.

द वायर ने चीन से भारत के संबंधो पर कुछ ऐसे जानकारों से बात की, जो या तो सीधे इससे जुड़े रहे हैं या इस विषय के शिक्षाविद हैं. इनमें से अधिकतर का मानना है कि चीन के इस कदम का उद्देश्य दोनों देशों के बीच हुए समझौते में बताए गए ट्राई-जुन्क्टिन पॉइंट की स्थिति को बदलना है. पर साथ ही वे ये भी मानते हैं कि इस मुद्दे से बहुत सावधानी से निपटना होगा क्योंकि इससे भूटान भी जुड़ा है, जो लंबे समय से भारत का सबसे करीबी रहा है.

इस कड़ी में पूर्व विदेश सचिव और चीन में भारतीय राजदूत रहीं निरूपमा राव से बातचीत.

क्या भारत और चीन के बीच सीमा पर कोई बड़ी घटना होने की उम्मीद थी?

बीते कुछ महीनों में भारत और चीन के रिश्ते की कमज़ोरियां और तनाव खुलकर सामने आए हैं. रिश्तों में किसी भी तरह का संतुलन अपने निचले स्तर पर है. तनाव बढ़ने के साथ इसे कम करने का कोई भी प्रयास सामने नहीं आया है. भारत की कुछ मूल समस्याएं हैं, चीन की जिनके बारे में ज़्यादा समझ ही नहीं है. मिसाल के तौर पर चीन का पाकिस्तान-चीन इकोनॉमिक कॉरिडोर मुद्दे को संभालना. दूसरा मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र की सूची में शामिल करना. ऐसे कई मुद्दे हैं जिनसे हम असल में बुरी तरह जूझ रहे हैं. अच्छे रिश्ते केवल आपसी संवेदनशीलता के आधार पर बनाए रखे जा सकते हैं.

चीन द्वारा भारत के साथ विवाद में भूटान को लाने का क्या मकसद हो सकता है?

डोकलाम क्षेत्र को लेकर होने वाला विवाद जगजाहिर है. इसमें कुछ नया नहीं है. पर यहां सड़क बनाने का कदम भारत और भूटान की प्रतिक्रिया जानने के लिए जानबूझकर उठाया गया है. ऐसे कदम से चीन तीन देशों की सीमा को लेकर अपनी अलग परिभाषा थोपना चाहता है. इस कदम से भारत और भूटान दोनों की ही सुरक्षा को लेकर गंभीर समस्याएं खड़ी हो सकती हैं.

अब जब भूटान भारत-चीन की इस खींचतान का हिस्सा है तो भारत को भूटान के प्रति किस तरह का रवैया रखना चाहिए?

भूटान और भारत के बीच काफ़ी गहरा संबंध है, जो आपसी विश्वास और भरोसे पर टिका है. इन दोनों देशों के बीच किसी तरह की समझदारी या मिलिट्री सहयोग को लेकर कोई विवाद नहीं है. भारत भूटान की संप्रभुता को अनुल्लंघनीय मानता है. 2007 में भारत और भूटान के बीच हुई एक मैत्री संधि के अनुच्छेद-2 में स्पष्ट कहा गया है कि दोनों देश, अपने राष्‍ट्रीय हितों से संबंधित मुद्दों पर एक-दूसरे के साथ घनिष्‍ठ सहयोग करने तथा एक-दूसरे की राष्‍ट्रीय सुरक्षा और हितों के विरुद्ध क्रियाकलापों के लिए अपने क्षेत्रों का उपयोग न करने देने के लिए प्रतिबद्ध होंगे.

भारत और भूटान का अपनी रणनीति को लेकर समान नजरिया है, साथ ही वे सुरक्षा और सीमा प्रबंधन को लेकर एक-दूसरे के सहयोगी रहे हैं, चाहे वो क्षमता बढ़ाने का मुद्दा हो या भूटानी सैनिकों को प्रशिक्षित करना.

क्या चीन का 1890 की एंग्लो-चाइना संधि का हवाला देना सिक्किम के संदर्भ में कोई मुश्किल खड़ी कर सकता है?

मेरे ख्याल से फ़िलहाल जो तनाव दोनों देशों के बीच है, उसका संबंध डोकलाम क्षेत्र और चीन के ट्राई-जंक्शन पॉइंट को बदलने से है. पर इस तरह के तनाव से भी सतर्कता से निपटना चाहिए. वरना ये सीमा के अन्य विवादित हिस्सों तक भी पहुंच जाएंगे, जो ज़ाहिर है दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों रिश्तों के लिए ही अच्छा नहीं होगा.

क्या ये कह सकते हैं कि सीमा पर हो रही गतिविधियों को बीजिंग से मंज़ूरी मिलने के बाद होती हैं?

पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के कमांडर उनके वरिष्ठों द्वारा उन्हें विवादित क्षेत्रों के बारे दिए गए टेम्पलेट के अनुसार काम करते हैं. डोकलाम की बात करें तो ये मानना मुश्किल है कि ऐसा उन्होंने अपनी पहल पर किया है. सीमा के संवेदनशील इलाकों में चीन की मिलिट्री गतिविधियों का एक पैटर्न होता है. मुझे लगता है कि वहां (ऐसा करने के) आदेश दिए गए होंगे.

क्या चीन के पास इस मुद्दे को बढ़ाने की घरेलू वजहें भी हैं?

क्षेत्रीयता के मुद्दे पर चीन के अड़ियल और दबंग रवैये के पीछे उसकी नई अर्थव्यवस्था, मिलिट्री क्षमता और सुपरपावर बन जाने की छवि से मिली ताकत है. नेतृत्व और पार्टी दोनों ने ही सदियों पहले विदेशी द्वारा की हुई ‘शर्मिंदगियों’ को आम जनता के मन में जिंदा रखा हुआ है, जिससे ‘अति-राष्ट्रवादी’ प्रतिक्रियाएं उपजती हैं, जिससे किसी पड़ोसी देश के साथ सीमा से जुड़ी किसी समस्या का वाजिब और निष्पक्ष समाधान ढूंढना मुश्किल हो जाता है.

चूंकि चीन ने तिब्बत जैसे छोटे क्षेत्र पर अपनी मज़बूत पकड़ बना ली है, ऐसे में पुरानी सीमाई समस्याओं को लेकर उनका रवैया केवल और अड़ियल हुआ है, जिससे कोई हल नहीं निकलने वाला. मुझे लगता है कि इसके गणतंत्र बनने के शुरुआती सालों में चीनी नेताओं का रवैया इतना कठोर नहीं था, शायद इसलिए क्योंकि ये देश को बनाने का प्रमुख समय था और तब चीन सीमा से जुड़े मुद्दे सुलझाने के लिए ज़्यादा वास्तविक और व्यावहारिक कदम उठाना चाहता था. लेकिन दुर्भाग्य यही है कि द्विपक्षीय रिश्तों के शुरुआती सालों में हम ये ठीक से समझ ही नहीं पाए. उसके बाद जो हुआ वो सब जानते ही हैं.

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