संवैधानिक मूल्य और बहुसंख्यक विचार हमेशा एक समान नहीं होते: जस्टिस कुरियन जोसेफ

एक वेबिनार में 'कोर्ट और संवैधानिक मूल्य' विषय पर बोलते हुए जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा कि संवैधानिक संस्थानों की विश्वसनीयता कम हो गई हैं, क्योंकि यहां पदों पर बैठे लोगों के पास संविधान को बरक़रार रखने की हिम्मत नहीं है.

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जस्टिस कुरियन जोसेफ (फोटो: पीटीआई)

एक वेबिनार में ‘कोर्ट और संवैधानिक मूल्य’ विषय पर बोलते हुए जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा कि संवैधानिक संस्थानों की विश्वसनीयता कम हो गई हैं, क्योंकि यहां पदों पर बैठे लोगों के पास संविधान को बरक़रार रखने की हिम्मत नहीं है.

जस्टिस कुरियन जोसेफ (फोटो: पीटीआई)
जस्टिस कुरियन जोसेफ (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा कि संवैधानिक मूल्य बहुसंख्यकों के विचार के अनुसार नहीं होते हैं.

लाइव लॉ द्वारा आयोजित एक वेबिनार में उन्होंने कहा, ‘जजों की नियुक्ति संविधान की मर्यादा बनाए रखने के लिए होती है. हम कई बार फेल हो जाते हैं क्योंकि संवैधानिक रूप से निष्पक्ष होने के बजाय हम व्यक्तिपरक संवैधानिक होते हैं.’

जस्टिस जोसेफ ‘कोर्ट एवं संवैधानिक मूल्य’ विषय पर बोल रहे थे. वेबिनार में जस्टिस कुरियन जोसेफ के अलावा सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील मीनाक्षी अरोड़ा और दिनेश द्विवेदी भी मौजूद थे.

ये पूछे जाने पर कि संवैधानिक मूल्य क्या हैं और क्या सुप्रीम कोर्ट ने इन मूल्यों को समान रूप से लागू किया है, इस पर जस्टिस जोसेफ ने कहा कि ‘संवैधानिक नैतिकता’ शब्द का इस्तेमाल पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने नहीं किया था, बल्कि डॉ. बीआर आंबेडकर ने इस शब्द का इस्तेमाल किया था.

उन्हें कहा कि पिछले कुछ सालों में दिए गए फैसलों के कारण ये शब्द चलन में रहा है जैसे कि पुट्टास्वामी मामला और सबरीमाला मामला.

उन्होंने कहा, ‘हमारे पवित्र मूल्यों को कौन सुरक्षित करता है? यह संरक्षक का कर्तव्य है और हमारा संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय है. हमारा भी कर्तव्य है और हमारा कर्तव्य है कि हम संविधान का पालन करें.’

जस्टिस जोसेफ ने भारत में प्रैक्टिस किए जाने वाले धर्मनिरपेक्षता की विशेषता के बारे में बताया.

उन्होंने कहा, ‘हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता को लेकर क्या विशेषता है? भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और इसका कोई धर्म नहीं है लेकिन ये सभी धर्मों को स्वीकार करता है. ये हमारी धर्मनिरपेक्षता की खूबसूरती है. हम अपने धर्म का पालन कर सकते हैं और उसका प्रचार-प्रसार कर सकते हैं. धार्मिक सहिष्णुता और स्वीकार्यता भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है.’

ये पूछे जाने पर कि क्या भारत ने अपने मूल संवैधानिक मूल्यों को महसूस किया है, जस्टिस जोसेफ ने कहा कि जजों को आत्मअवलोकन करने की जरूरत है जिन्हें देश के नागरिकों को बचाने और उनके हितों के लिए काम करने की जिम्मेदारी दी गई है.

उन्होंने कहा, ‘कोर्ट हमेशा बहुसंख्यकों के खिलाफ होती है क्योंकि इसका पहला काम संवैधानिक मूल्यों को बरकरार रखना है. एक जज की नियुक्ति संवैधानिक मूल्यों के प्रति सच्चा रहने के लिए होती है. उन्हें निष्पक्ष होना चाहिए और इस तरह के बहुसंख्यक को जवाब देने की स्थिति में आएंगे.’

जस्टिस जोसेफ ने कहा कि संवैधानिक मूल्य और बहुसंख्यक विचार हमेशा एक समान नहीं होते हैं.

उन्होंने कहा, ‘समाजिक मूल्य संवैधानिक मूल्यों से अलग होते हैं. सामाजिक मूल्य बहुसंख्यकों के विचार पर आधारित हो सकता है लेकिन न्यायालयों को इस बहाव में नहीं बहना होता है क्योंकि उनकी जिम्मेदारी संविधान को बरकरार रखने की है. प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति सिर्फ भारत के संविधान को मानने की शपथ लेते हैं, उन्हें इसे बरकरार नहीं रखना होता है. कोर्ट को जरूर इसे बरकार रखना चाहिए और इसमें सच्ची श्रद्धा और निष्ठा होनी चाहिए.’

जस्टिस जोसेफ ने न्यायालयों में बहुसंख्यकों के विचारों का जवाब देने वाले लोगों के होने पर जोर दिया. उन्होंने कहा, ‘जिस पल आप बहुसंख्यक के विचारों के खिलाफ अपनी राय देते हैं, आपकों शोर मचाने वाला व्यक्ति करार दे दिया जाता है. हमें ऐसे जजों की जरूरत है जो कि संवैधानिक आवाज उठा सके.’

जस्टिस जोसेफ ने कहा कि संवैधानिक संस्थानों की विश्वसनीयता कम हो गई है क्योंकि यहां पदों पर बैठे लोगों के पास संविधान को बरकरार रखने की हिम्मत नहीं है.

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