भारतीय फिल्मों में कभी अल्पसंख्यकों को सही तरह से दिखाया ही नहीं गया: एमएस सथ्यू

साक्षात्कार: भारतीय उपमहाद्वीप के बंटवारे का जो असर समाज पर पड़ा, उसकी पीड़ा सिनेमा के परदे पर भी नज़र आई. एमएस सथ्यू की 'गर्म हवा' विभाजन पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है. इस फिल्म समेत सथ्यू से उनके विभिन्न अनुभवों पर द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ भाटिया की बातचीत.

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फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो साभार: ट्विटर)

साक्षात्कार: भारतीय उपमहाद्वीप के बंटवारे का जो असर समाज पर पड़ा, उसकी पीड़ा सिनेमा के परदे पर भी नज़र आई. एमएस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ विभाजन पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है. इस फिल्म समेत सथ्यू से उनके विभिन्न अनुभवों पर द वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ भाटिया की बातचीत.

फिल्मकार एमएस सथ्यू (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)
फिल्मकार एमएस सथ्यू (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

1974 में फिल्म ‘गर्म हवा’ भारत के साथ ही दुनियाभर में रिलीज़ हुई और इसे हर जगह बेहद सराहना मिली. यह एक छोटे बजट की फिल्म थी, जिसे सरकार के फिल्म फाइनेंस कॉर्पोरेशन के सहयोग से बनाया गया था.

बंटवारे ने किस तरह कई  परिवारों को तोड़ा- इसका भारतीय सिनेमा पर बहुत गहरा असर पड़ा है.

बलराज साहनी, शौकत आज़मी, फारुख शेख, जलाल आगा, गीता सिद्धार्थ जैसे दिग्गजों से सजी यह फिल्म आगरा के मिर्ज़ा परिवार की कहानी थी, जो नए बने मुल्क पाकिस्तान जाने को लेकर बंटा हुआ है.

इसकी पटकथा शमा ज़ैदी और कैफ़ी आज़मी ने लिखी थी. आज यह बंटवारे पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है. यह एमएस सथ्यू की पहली फिल्म थी और इसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

द वायर  के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ भाटिया से बात करते हुए सथ्यू ने अपने शुरुआती करिअर के बारे में बताया और ‘गर्म हवा’ बनाने के अनुभव साझा किए.

(फोटो साभार: cinematerial.com)
(फोटो साभार: cinematerial.com)

गर्म हवा बनाने से पहले आप थिएटर का एक बड़ा नाम थे, असिस्टेंट डायरेक्टर के रूप में काम कर चुके थे, आर्ट डायरेक्टर रह चुके थे और फिल्मफेयर अवॉर्ड भी जीत चुके थे. इन सबके बारे में बताइए.

मैंने बॉम्बे में अपना करिअर शुरू किया था, हालांकि इससे पहले मैं बैंगलोर में पढ़ रहा था. 1952 में मैंने पढ़ाई छोड़ी और फिल्मों में काम करने का मौका तलाशने के लिए बॉम्बे चला गया.

करीब चार साल तक मुझे इंडस्ट्री में कोई नौकरी नहीं मिली. मैं बॉम्बे में बोली जाने वाली कोई भी भाषा- मराठी, गुजराती या हिंदी नहीं जानता था. मुझे बस कन्नड़, अंग्रेजी और थोड़ी-बहुत तमिल आती थी.

यही थोड़ी मुश्किल की बात थी, इसलिए मैंने थिएटर के तकनीकी आयाम- जैसे लाइटिंग, मेकअप और डिजाइनिंग पर ध्यान लगाया.

मैंने लंबे समय तक इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के साथ काम किया और नाटकों का निर्देशन किया. मैं फिल्मों में कोई मौका पाने में असमर्थ रहा, लेकिन बाद में बस अचानक ऐसा हुआ कि चेतन आनंद को मेरे बारे में पता चला.

वे बुद्ध की 2,500वीं सालगिरह के मौके पर ‘अंजलि’ फिल्म बना रहे थे. ये बुद्ध के एक शिष्य आनंद के जीवन पर आधारित थी.

उन्होंने मुझे फोन किया और असिस्टेंट डायरेक्टर बनने को कहा. मुझे उस समय नहीं पता था कि इसका क्या मतलब होता है, तो मैंने कहा, ‘आप मुझे डिज़ाइनर क्यों नहीं बनाते? मैं इस तरह की पीरियड फिल्म के लिए सेट और कॉस्ट्यूम बनाना ज्यादा पसंद करूंगा.’

लेकिन उन्होंने मना कर दिया, उनके पास पहले से ही एक आर्ट डायरेक्टर था. उन्होंने मुझसे कहा, ‘तुम किसी बात की चिंता मत करो. अगर तुम कुछ जानते हो तो यह अच्छी बात है. तुम  स्क्रिप्ट पढ़ सकते हो, यह अंग्रेजी में होगी. तुम एक असिस्टेंट के तौर पर काम करोगे.’

और वे खुद इस फिल्म में मुख्य कलाकार के बतौर काम कर रहे थे. और फिर मैं एक असिस्टेंट डायरेक्टर के रूप में निर्णय लेने लगा- ये बहुत अजीब था, बहुत कम लोगों को ऐसा करने का मौका मिलता है.

1950 के शुरुआती दशक में इप्टा का माहौल कैसा था? तब हमें नई-नई आज़ादी मिली थी, जहां तक मुझे याद है, यह उस दौर में यह अपने शिखर पर था.

इप्टा की गतिविधियां बहुत कम थीं. वे एक शो करने में छह महीने का समय लिया करते थे. कम शो हुआ करते थे. तो हमने इसे रिवाइव करने की कोशिश शुरू की. शुरू में ये काफी सक्रिय रहा करता था.

बॉम्बे ग्रुप सबसे सक्रिय थिएटर ग्रुप में से एक हुआ करता था, लेकिन नेतृत्व की कमी थी, गतिविधियों की कमी थी और एक तरह से कहें तो कुछ भी नहीं हो रहा था. थिएटर के लिए सबसे महत्वपूर्ण है उसके देखने वालों, उसके दर्शकों से हमेशा संपर्क में रहना. ऐसा नहीं हो रहा था.

बाद में ग़ालिब की जन्मशती पर हमने एक नाटक किया थाआखिरी शमा  और एक तरह से उससे इप्टा वापस खड़ा हो गया. हमने इस नाटक को पहली बार दिल्ली में लालकिले पर किया था… दीवान-ए-आम पर… ये उस समय एक मुशायरे की तरह हुआ था.

शायद ऐसा पूरे सौ साल बाद हुआ था कि ग़ालिब को केंद्र में रखकर कोई मुशायरा हुआ था. इसके बाद से नियमित गतिविधियां फिर से शुरू हो गईं. फिर देश पर में कई जगह शो हुए. इसके बाद और नाटक होना शुरू हो गए.

फिल्म गर्म हवा के सेट पर गीता सिद्धार्थ, जलाल आगा और एमएस सथ्यू. (फोटो: Special Arrangement)
फिल्म गर्म हवा के सेट पर गीता सिद्धार्थ, जलाल आगा और एमएस सथ्यू. (फोटो: Special Arrangement)

और यह दिग्गजों से भरा हुआ था…

हां, ऐसे बहुत से लोग थे जो काफी जाने-माने थे, जैसे ख्वाजा अहमद अब्बास, हबीब तनवीर, कैफ़ी आज़मी, विश्वामित्र आदिल और दीना पाठक. और भी बहुत से लोग थे, लेकिन एक ग्रुप जो था, वो टूट गया. कुछ ने फिर इसे छोड़ दिया.

उत्पल दत्त जैसे लोगों ने अपना थिएटर शुरू कर दिया, सोमभू मित्र ने अपना बहुरूपी समूह शुरू किया, दीना  पाठक ने अहमदाबाद में अपना थिएटर शुरू कर दिया.

एक बात ये है कि थिएटर के इंसान लिए कहीं न कहीं उसका नाम जरूरी हो जाता है, लेकिन इप्टा का अपना नारा है, इप्टा किसी एक व्यक्ति को श्रेय नहीं देता है- वे बस कलाकारों का एक समूह हैं.

क्रेडिट उन सभी को जाता है जो इप्टा के लिए काम करते हैं.  तो वहां व्यक्तिगत पहचान नहीं है और इसी तरह लोग इप्टा छोड़कर जाने लगे.

फिर चेतन साहब पर लौटते हैं, जहां तक मुझे याद है अंजलि कोई बड़ी कमर्शियल हिट नहीं रही थी…

हां. आप देखिए चेतन साहब पूरी तरह से कमर्शियल फिल्मकार नहीं थे. उसके लिए उन्होंने नीचा नगर जैसी फिल्म बनाईं. वे एक ऐसे इंसान थे, जो थिएटर भी जानते थे. और एक तरह से कहें तो उन्होंने मध्यम मार्ग चुना. न बहुत कमर्शियल न बहुत बौद्धिक.

उन्होंने एक नए तरह के थिएटर की शुरुआत की, जिसका दृष्टिकोण ज्यादा यथार्थवादी था.

1962 में जब चीन के साथ गतिरोध बढ़ा, तब समझिए पूरा देश ही चीन और चाउ एनलाई से नाराज था. चेतन दिल्ली आए और मुझसे मिले- मैं तब एक अख़बार के दफ्तर में काम करता था, जो लिंक एंड द पैट्रियट नाम से टैब्लॉयड निकालता था.

उन्होंने मुझे बताया कि वे इस विषय पर काम कर रहे हैं और मुझसे पूछा कि क्या मैं इससे जुड़ना चाहूंगा. मैंने कहा, ‘बिल्कुल, क्यों नहीं.’

बतौर आर्ट डायरेक्टर, स्टूडियो के अंदर लद्दाख को बनाना मेरे लिए बहुत चुनौतीपूर्ण था. इसने आखिरकार मुझे फिल्मफेयर अवॉर्ड दिलवाया. मैं उस समय एक अजनबी की तरह था. मेरे लिए भी यह नया था. पहली बार मैंने किसी फिल्म आर्ट डायरेक्शन किया था.

तब चीन ने कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा किया था. क्या आज जो हो रहा है, वैसा ही कुछ है?

हां, वही बात है. उस समय पर भी जिन क्षेत्रों पर उन्होंने कब्ज़ा किया था, वे तब भी उन पर अपना दावा जता रहे थे. तो इसमें कुछ नया नहीं है.

चेतन आनंद की फिल्म हकीकत के एक दृश्य में बलराज साहनी. (फोटो साभार: apotpourriofvestiges.com)
चेतन आनंद की फिल्म हकीकत के एक दृश्य में बलराज साहनी. (फोटो साभार: apotpourriofvestiges.com)

लेकिन अगर आज कोई फिल्म बनाए, तो यह हक़ीक़त से थोड़ी अलग होगी. देश का महौल बदल गया है. आज ये थोड़ी ज़्यादा राष्ट्रवादी और कट्टर होगी.

हां, हमारा भी अनुभव कुछ ऐसा ही है. हक़ीक़त के बाद युद्ध पर बहुत-सी फिल्में बनीं. मिसाल के तौर पर भाजपा के पहले कार्यकाल में देशभक्ति के नाम पर एंटी-पाकिस्तान फिल्में बनाई गईं. और जब आप ऐसी कोई पाकिस्तान-विरोधी फिल्म बनाते हैं तो आम जनता उसे भारतीय मुस्लिमों के खिलाफ समझती है- जो बेहद खतरनाक है.

युद्ध के मामले आसान नहीं होते हैं. आपको पॉलिटिकली करेक्ट होना पड़ता है. बॉर्डर, रिफ्यूजी, फ़र्ज़- ये जैसी फिल्में हैं, इन्हें बहुत मेहनत से बनाया गया है, ये जंग पर बनी फिल्मों में वास्तविकता लाने की कोशिश करती हैं. यह दृष्टिकोण गलत है.

आप एंटी-पाकिस्तान फिल्म नहीं बना सकते क्योंकि वहां से ज्यादा मुस्लिम भारत में हैं.

तो बात गर्म हवा तक आ ही गई है. लेकिन मैं जानना चाहूंगा कि क्या इसके लिए पैसे और अनुमतियां जुटाना मुश्किल था. इस तरह की फिल्म बनाना कैसा था.

असल में ये दुर्घटनावश बनी फिल्म है. गर्म हवा बनाने का कोई इरादा नहीं था. मैंने इंडियन फाइनेंस कॉर्पोरेशन से संपर्क किया था और (बीके) करंजिया साहब ने वो स्क्रिप्ट पढ़ी, जिस पर मैं फिल्म बनाना चाहता था. फिर उन्होंने  कहा,’ये बहुत नेगेटिव कहानी है. तुम कुछ और क्यों नहीं लाते हो. कोई और स्क्रिप्ट? हम फाइनेंस करना चाहेंगे.’

फिल्म गर्म हवा के सेट पर ओपी कोहली के साथ एमएस सथ्यू. (फोटो: Special Arrangement)
फिल्म गर्म हवा के सेट पर ओपी कोहली के साथ एमएस सथ्यू. (फोटो: Special Arrangement)

फिर मेरी पत्नी शमा, जो उस समय फिल्म की स्क्रिप्ट लिख रही थीं, इस्मत चुगताई के पास गईं और उनसे फिल्म बनाने के बारे में बात शुरू की. उन्होंने बंटवारे के समय की कुछ कहानियां साझा कीं, जो उत्तर प्रदेश में खुद उनके शहर में हुई थीं.

तो इस तरह गर्म हवा की शुरुआत हुई और ये ऐसे संयोग से बनी, थिएटर से जुड़े बहुत से लोगों के साथ- जिसमें बहुत से थिएटर के कलाकारों ने काम किया. अगर मैं ये कहूं कि यह इप्टा की फिल्म थी, तो गलत नहीं होगा. एक तरह से ये इप्टा ही की फिल्म थी. ये सफल हुई.

हालांकि मुझे इसके लिए सेंसर सर्टिफिकेट लेने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी. मुझे इसमें 11 महीने लगे थे.

ऐसा क्यों?

बहुत सारी आशंकाएं थी इसे लेकर. वे इसे लेकर संशय में थे- आप जानते हैं क्यों- क्योंकि ये मुस्लिमों के बारे में थी. यह एक नाजुक मसला है. सवाल ये था कि देश इसे लेकर कैसी प्रतिक्रिया देगा.

तो इस बारे में सेंसर बोर्ड के लिए कोई फैसला लेना बहुत संदेहास्पद था. वे अनिश्चितता की स्थिति में थे, सो वे इसे टालते रहे. आखिरकार मुझे कई प्रभावी लोगों के संपर्क का इस्तेमाल करना पड़ा.

फिल्म गर्म हवा के सेट पर शमा ज़ैदी के साथ एमएस सथ्यू. (फोटो: Special Arrangement)
फिल्म गर्म हवा के सेट पर शमा ज़ैदी के साथ एमएस सथ्यू. (फोटो: Special Arrangement)

मैं इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत तौर पर जानता था. इंद्र कुमार गुजराल, जो तब सूचना मंत्री थे, उनसे मेरी निजी पहचान थी. जब मैंने उन्हें फिल्म दिखाई, तब जाकर इस सब से निकल सका.

जब तक फिल्म रिलीज़ हुई, तब तक कई राजनेता इसे देख चुके थे. पहले इसे कांग्रेस ने देखा, फिर विपक्ष ने देखा. तो उस समय काफी आशंकाएं थीं इसे लेकर.

क्या कोई गंभीर आपत्ति भी उठाई गई थी?

नहीं, ऐसी तो कोई आपत्ति नहीं थी. वे बस इसे लेकर बहुत अनिश्चय में थे. उन्हें इसके बारे में बहुत से संदेह थे.

क्या फिल्म फाइनेंस कॉर्पोरशन, जो एक सरकारी एजेंसी है, उसने फिल्म बनाते समय कभी कोई दखल दिया कि इसे काटो-उसे काटो या ऐसा कुछ?

नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ. उन्होंने उस समय बस फिल्म के लिए ढाई लाख रुपये का लोन दिया था.

बस?

इस बात में कोई शक नहीं है कि मैंने इससे कहीं ज्यादा खर्च किया था, लगभग 12-15 लाख रुपये. मुझे याद है कि उस समय मैंने दोस्तों से उधार लेकर ऐसा किया था. इस तरह से ये फिल्म बनी और दुनियाभर में रिलीज़ हुई.

लेकिन सेंसर सर्टिफिकेट मिलने में हुई देरी से काफी परेशानियां हुईं. मेरे सारे डिस्ट्रीब्यूटर्स ने साथ छोड़ दिया.

गरम हवा का असली प्रीमियर पेरिस में हुआ था. जनता के लिए फिल्म का पहला शो वहीं हुआ था. फिर इसे कांस फिल्म फेस्टिवल के लिए चुन लिया गया. किसी क्रिटिक ने इसका नाम सुझाया था.

तब इसे मुख्य फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था. वहां एकेडमी से आए लोगों ने देखा और इसे उस साल के ऑस्कर के लिए गैर-अंग्रेजी फिल्मों की श्रेणी में चुना. ये अपने आप में इतिहास बनने जैसा था.

फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो: Special Arrangement)
फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो: Special Arrangement)

बलराज साहनी को चुनने की क्या वजह थी, क्या वे हमेशा से ही आपके दिमाग में थे? उन्होंने इस फिल्म में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ किरदार निभाया है.

मैं और बलराज साहनी एक साथ थिएटर में थे. मैंने उनके जुहू आर्ट थिएटर के लिए काम किया था और वे इप्टा का हिस्सा भी थे. मेरे नाटक आखिरी शमा में उन्होंने ग़ालिब का किरदार निभाया था. तो एक तरह से उनसे नजदीकी रिश्ता था और मैं उनकी क्षमताओं का मुरीद था.

अगर विचारधारा के हिसाब से बात करें, तो वो भी हम जैसे ही थे. इन सबसे काफी मदद मिली. तो मेरे लिए यह अपने आप हुआ कि फिल्म की मुख्य भूमिका के लिए मैंने उन्हें चुना.

अम्मी के किरदार जैसी प्रतिभा आपको कहां मिली?

हां, अम्मी एक बड़ी परेशानी थीं. उस भूमिका को करने के लिए बेगम अख्तर राज़ी हुई थीं, लेकिन आखिरी समय पर जब हम आगरा में शूटिंग कर रहे थे, तब उनकी तरफ से यह संदेसा मिला कि वो नहीं आ सकेंगी क्योंकि उनके पति नहीं चाहते कि वे फिल्मों में एक्टिंग करें.

हालांकि वे पहले फिल्मों में काम कर चुकी थीं, उन्होंने महबूब खान की एक फिल्म में काम किया था. तो तब हमें आगरा में ही किसी को ढूंढने की जरूरत आन पड़ी.

हमें वहां एक बुजुर्ग महिला मिलीं. उनका नाम बद्र बेगम था. उन्होंने उस किरदार को देखा और हालांकि वे कोई अभिनेत्री नहीं थीं. वे कभी 16-17 की उम्र में एक्टिंग करने के लिए बंबई गई थीं, लेकिन कोई अवसर नहीं मिला तो वापस आगरा आ गईं और एक वेश्या का काम करने लगीं.

जब हम उनसे मिलने गए, तब वे आगरा में एक कोठा चलाती थीं. लेकिन जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वो ये रोल करेंगी, हम माथुर साहब की हवेली में शूटिंग कर रहे हैं, क्या वे हमारे साथ आएंगी- वो रोने लगीं.

यही तो उनकी जिंदगी भर की तमन्ना थी- एक अभिनेत्री बनना, जिसमें वो कामयाब नहीं हो पाई थीं. ये अपने आप में एक दिल छूने वाली कहानी है.

फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो: Special Arrangement)
फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो: Special Arrangement)

जब आप ये फिल्म बना रहे थे, तब इसमें काम कर रहे कलाकारों को भी वो समय याद आया होगा. सन 1947 में उनकी जिंदगी, उनके परिवार, उनके अपनों की कहानियां कि कौन उस तरफ गया, कौन नहीं. जब फिल्म बन रही थी, तब भी इसने काफी लोगों को प्रभावित किया रहा होगा. 

भारत की जिन फिल्मों में मुस्लिमों को दिखाया गया था, उसमें नवाबों, तवायफों और ऐसी ही अय्याशी की जिंदगी जीते हुए दिखाया गया था. फिल्मकारों ने उन्हें कभी आम लोगों की तरह, आम जनता के हिस्से की तरह नहीं दिखाया था.

मुझे लगता है कि ऐसा पहली बार गर्म हवा में ही हुआ था. हम मुख्यधारा का हिस्सा बन गए- जो पहले नहीं था. कई फिल्में बनी रही होंगी लेकिन एकाध को छोड़कर कभी ऐसा नहीं हुआ. मिसाल के तौर पर व्ही. शांताराम की पड़ोसी में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व. उसमें कुछ कोशिश जरूर हुई थी, लेकिन उन्हें भारत की जनता के हिस्से के बतौर दिखाने का प्रयास पहले कभी नहीं हुआ था.

भारत में अल्पसंख्यकों, जैसे ईसाई और मुस्लिमों को कभी असल में सही तरह से दिखाया ही नहीं गया और यह दुर्भाग्यपूर्ण है.

फिल्म में कई बेहतरीन सीन हैं. दो दृश्य जिन्होंने मुझे बेहद प्रभावित किया है- पहला जहां बलराज साहनी कमरे में आते हैं और वहां उनकी बेटी को मृत पड़े देखते हैं… हम जानते हैं कि इसके पीछे एक असल जिंदगी की कहानी भी है और वे इसे लेकर काफी व्यथित रहे होंगे. दूसरा- जहां वे अपनी मां से चलने की कहते हैं और वे साफ इनकार कर देती हैं कि उस घर छोड़कर कहीं नहीं जाएंगी… इनके बारे में बताइए.

वो दृश्य जहां बेटी की मौत हो चुकी है- उसने ख़ुदकुशी की है. ये मेरी ओर से थोड़ी ज्यादती थी उन पर. उनकी असल जिंदगी में बिल्कुल यही हुआ था, उनकी बेटी की मौत ख़ुदकुशी से हुई थी. वे मध्य प्रदेश में कहीं कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे और ये घटना बंबई में हुई.

जब उन्हें आखिरकार इसके बारे में मालूम चला तब मुख्यमंत्री ने उनके लिए एक छोटे-से निजी एयरक्राफ्ट का इंतजाम किया. वे तब सांताक्रूज़ एयरपोर्ट उतरे थे, मैं ही गाड़ी लेकर उन्हें लेने पहुंचा था और उन्हें घर लाया था.

वे सीधे शबनम के कमरे में गए और दरवाजे पर ठहरकर खड़े हो गए और अपनी बेटी को जमीन पर निस्पंद पड़े देखते रहे. हम तब तक अंतिम संस्कार की इजाज़त ले चुके थे क्योंकि हम बलराज के आने का इंतजार नहीं करना चाहते थे.

बिल्कुल इसी तरह गर्म हवा में मैंने ये सीन फिल्माया था. वे सीढ़ियों से ऊपर जाते हैं, दरवाजा खोलते हैं और अपनी बेटी का शव देखते हैं. उस समय वहां उनको ये सीन समझाना बहुत मुश्किल था. उस दौरान पूरे समय मैं यही कहता था, ‘ये गीता है, जिसकी मौत हुई है.’ मैं कभी नहीं कह सका कि ये तुम्हारी बेटी है.

मैंने कहा, ‘इसने ख़ुदकुशी कर ली है. तुम दरवाजा खोलते हो लेकिन तुम्हारी आंख से एक आंसू भी नहीं आना चाहिए.’ उन्होंने दरवाजा खोला और चुपचाप वहां खड़े रहे.

सिनेमा में इस तरह की छोटी-छोटी क्रूरताएं होती हैं. मुझे ऐसा करना पड़ा. मैं असल में बलराज के प्रति क्रूर रहा.

उनकी प्रतिक्रिया क्या थी?

उन्होंने इस पूरी बात को समझा. वे काफी प्रोफेशनल थे. एक अभिनेता के रूप में वे पेशेवराना रवैया रखते थे.

उनकी जिंदगी में यह निजी त्रासदी काफी शुरुआती सालों में हुई थी. अगर किसी निर्देशक या दृश्य की कोई मांग होती थी, तो वे बस वही करते थे. वे इसे मिलाते नहीं थे. भावनात्मक रूप से वे कभी उस तरह से दुखी नहीं हुए.

फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो: सोशल मीडिया)
फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो: सोशल मीडिया)

जिस दूसरे दृश्य की बात मैंने की, वहां उनका किरदार बेहद गुस्से में है. मां जाने से इनकार कर दिया है, वे गुस्से में कहते हैं कि उठाकर ले चलो इन्हें. इसे देखते समय कई लोगों को ये उनकी अपनी कहानी जैसा लगा होगा.

ये बेहद अच्छी तरह से लिखा गया सीन है. वे सारी तस्वीरें जब वो कहती हैं, ‘मैं उस हवेली में वापस जाना चाहती हूं,’ पर वे उसे ले जाते हैं. वो जिस तरह से एक दुल्हन की तरह उस हवेली में आई थी पालकी में… वे उसी तरह वहां मरने के लिए जाती हैं- एक पालकी में. इसी तरह उन्होंने पहली दफा हवेली में कदम रखा था. आखिरी हिस्से को भी इसी तरह फिल्माया गया था. ये बेहद मार्मिक सीक्वेंस है.

उन्हें लोगों की बातें, उनके चेहरे याद आते हैं, पुराने दृश्य लौट-लौटकर आते हैं.

भारतीय दर्शकों ने फिल्म को किस तरह लिया था. क्या हिंदुओं और मुस्लिमों की प्रतिक्रियाओं में फर्क था?

हां, कुछ तो गलत था, खासकर बाल ठाकरे के साथ. जब फिल्म बंबई के रीगल में रिलीज़ होनी थी, किसी ने इसके बारे में ठाकरे को बताया और उन्होंने इसे रिलीज़ से पहले देखने की इच्छा जाहिर की. मैंने कहा, ‘आपको इसे रिलीज़ से पहले क्यों देखना चाहिए? आप लोग इसे देखने क्यों नहीं आते? शिवसेना प्रीमियर में आ सकती है.’

प्रीमियर का उद्घाटन विजयलक्ष्मी पंडित द्वारा किया जाना था, वे उस समय महाराष्ट्र की राज्यपाल थीं. लेकिन वे अड़े रहे कि उन्हें फिल्म रिलीज़ से पहले देखनी है. तब हमने उनके और शिवसेना के कुछ लोगों के लिए अलग से स्क्रीनिंग रखवाई.

उन सभी ने फिल्म देखी, लेकिन न मैं न ही मेरा कोई पार्टनर वहां गए. हम में से कोई उस स्क्रीनिंग में मौजूद नहीं था. उन्होंने पूरी फिल्म देखी और उसके बाद फिर हमारे बारे में पूछा कि निर्देशक कहां है, प्रोड्यूसर कहां है. बताया गया कि वो नहीं आए हैं बस आपके देखने के लिए प्रिंट भेज दिया है.

तब उन्होंने कहा, ‘यही तो मैं भी चाहता हूं. भारतीय मुस्लिमों को मुख्यधारा का हिस्सा होना चाहिए. फिल्म भी यही संदेश दे रही है.’ इसके बाद कोई मुश्किल नहीं हुई. तो इसी तरह की आशंकाएं थीं उस वक्त.

यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी ने भी अपनी पार्टी के मुखपत्र में इसके बारे में गलत तरह से लिखा था. उन्होंने कहा था कि ऐसा लगता है कि जैसे इस फिल्म के लिए पाकिस्तान ने पैसा दिया है. उस समय उन्होंने इसी तरह की टिप्पणी की थी.

बाद में वे मद्रास में एक फिल्म फेस्टिवल में मिले और कहने लगे, ‘मुझसे गलती हो गई. मैंने तब फिल्म नहीं देखी थी लेकिन इसके बारे में लिख दिया क्योंकि किसी ने मुझे फिल्म के बारे में इस तरह से बताया था.’ तो उन्होंने ऐसा लिखने के बारे में मुझसे माफी मांगी.

फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो साभार: ट्विटर)
फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो साभार: ट्विटर)

मुस्लिमों का क्या कहना था? किसी मुस्लिम ने आपसे कुछ कहा?

नहीं, कुछ रूढ़िवादी मुस्लिम थे, जो इसे लेकर असहज थे, खासकर परिवार में भाई-बहनों के बीच प्रेम संबंध होने वाले हिस्से को लेकर. लेकिन ऐसे प्रतिबंधित माहौल में, किसी-किसी मुस्लिम परिवार में ऐसी बातें होती हैं. मेरे कहने का अर्थ है कि कजिंस के बीच अक्सर ऐसा हो जाता है क्योंकि उन्हें बाहर जाने और लोगों से मिलने की आजादी नहीं होती है.

कुछ मुस्लिमों का कहना था कि नहीं ऐसा नहीं होता है. वैसे ये बेहद निजी प्रतिक्रिया थी. सामान्य तौर पर भारत की मुस्लिम आबादी को ये फिल्म पसंद आई थी.

क्या ये फिल्म पाकिस्तान में देखी गई थी?

जी, पाइरेटेड वर्जन वहां देखे गए थे. आज भी वहां काफी पाइरेटेड कॉपी हैं.

फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो: Special Arrangement)
फिल्म गर्म हवा का एक दृश्य. (फोटो: Special Arrangement)

क्या भारत में आज की तारीख में अपने आसपास उसी तरह का माहौल दिखता है, जो भारतीय समाज में मुस्लिमों के साथ 1940 के दशक में हुआ था.

सांप्रदायिक तौर पर कहें तो हालत और ख़राब ही हुई है. भारतीय समाज मुस्लिमों की निष्ठा को हमेशा से शक की नजर से देखता आया है, लेकिन अब हिंदू कट्टरवाद में इज़ाफ़ा हुआ है.

बहुत सांप्रदायिक झड़पें होती हैं. कहने का अर्थ है कि वर्तमान सरकार द्वारा पूरे धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने की धज्जियां उड़ा दी गई हैं. भाजपा द्वारा किसी एक राज्य में मुस्लिम राज्यपाल बनाना या कैबिनेट में एक मुस्लिम मंत्री का होना बस दिखावे के लिए है. उनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है, उन्हें खरीद लिया गया और पद दे दिया गया है.

मुझे तो कम से कम यही लगता है कि भाजपा गरीब-विरोधी और मुस्लिम विरोधी दल है.

केरल के मुस्लिम को पंजाब में स्वीकार नहीं किया जाएगा. उसे कमाने के लिए खाड़ी देशों, सऊदी अरब या कनाडा या इसी तरह का कोई विकल्प देखना होगा.

हालांकि हिंदुस्तान फिर भी एक सेकुलर देश रहेगा. और धर्मनिरपेक्षता का यह ताना-बाना बहुत ताकतवर है और काफी मजबूती से बुना गया है, ये नष्ट नहीं होगा. यहां कोई सांप्रदायिक आंदोलन संभव नहीं है. हिंदुस्तान का चरित्र ही यह है.

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