ऑनलाइन शिक्षा: राज्य ने अपनी ज़िम्मेदारी जनता के कंधों पर डाल दी है

संरचनात्मक रूप से ऑनलाइन शिक्षण में विश्वविद्यालय की कोई भूमिका नहीं है, न तो किसी शिक्षक और न ही किसी विद्यार्थी को इसके लिए कोई संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं. यानी शिक्षा, जो सार्वजनिक और सांस्थानिक ज़िम्मेदारी थी वह इस ऑनलाइन मॉडल के चलते व्यक्तिगत संसाधनों के भरोसे है.

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(फोटो: रॉयटर्स)

संरचनात्मक रूप से ऑनलाइन शिक्षण में विश्वविद्यालय की कोई भूमिका नहीं है, न तो किसी शिक्षक और न ही किसी विद्यार्थी को इसके लिए कोई संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं. यानी शिक्षा, जो सार्वजनिक और सांस्थानिक ज़िम्मेदारी थी वह इस ऑनलाइन मॉडल के चलते व्यक्तिगत संसाधनों के भरोसे है.

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

‘हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती. महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है. उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है. या तो फीस दीजिए या नाम कटवाइए या जब तक फीस न दाख़िल, रोज कुछ जुर्माना दीजिए.

कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फीस दुगुनी कर दी जाती है और किसी दूसरी तारीख को दुगुनी फीस न दी तो नाम कट जाता है… सातवीं तारीख को फीस न दो, तो इक्कीसवीं तारीख को दुगुनी फीस देनी पड़ती थी या नाम कट जाता था.

ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था कि गरीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जाएं. वही हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है.

वह किसी के साथ रियायत नहीं करता. चाहे जहां से लाओ, कर्ज लो, गहने गिरो रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फीस जरूर दो, नहीं दूनी फीस देनी पड़ेगी या नाम कट जाएगा.’

ये शब्द जुलाई महीने में ही जन्मे प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘कर्मभूमि’ (1932) के आरंभिक हिस्से के हैं. इन्हें पढ़कर लगता है कि भारत के शिक्षालयों की स्थिति अब भी न केवल ऐसी ही है बल्कि कुछ मामलों में इससे भी क्रूर हो गई है.

जुलाई का महीना आधा से ज्यादा बीत चुका है. भारत के विश्वविद्यालयों में नए सत्र के लिए ऑनलाइन शिक्षण और पुराने सत्रों के विद्यार्थियों की परीक्षा से संबंधित अधिसूचनाएं विश्वविद्यालयों से लेकर यूजीसी तक जारी कर रही है.

नए सत्र की शुरुआत में विद्यार्थियों द्वारा पंजीयन और फीस जमा करने का रिवाज अब भी भारत के विश्वविद्यालयों में पाया जाता है. चूंकि अभी सब कुछ ‘ऑनलाइन मोड’ में है इसलिए शिक्षण कार्य भी ऑनलाइन ही होगा.

ऐसी स्थिति में  विद्यार्थियों को यह निर्देश दिया जा रहा है कि वे पंजीयन करवाएं और निर्धारित फीस भी जमा करें. ऐसा न  करने पर उन्हें ‘ऑनलाइन क्लास’ की अनुमति नहीं दी जाएगी.

इतना ही नहीं जो फीस ऑफलाइन शिक्षण के दौर में ली जाती थी, वही फीस ऑनलाइन शिक्षण के समय में भी ली जा रही है.

अब विद्यार्थी भौंचक हो सिर धुनते हुए यह पूछ रहे हैं कि जब सबकुछ ऑनलाइन हो रहा है तो कंप्यूटर लैब, पुस्तकालय, खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए फीस लेने का क्या तर्क है?

जो विद्यार्थी ये सवाल पूछ रहे हैं उन्हें सदा की तरह धमकी की व्यंजना में कहा जा रहा है कि ‘और किसी को कोई दिक्कत नहीं है, बस केवल तुम्हीं लोगों को परेशानी हो रही है?’ 

निर्धारित फीस दिए बिना ऑनलाइन शिक्षण की अनुमति नहीं देने का आदेश न केवल अतार्किक है बल्कि हास्यास्पद होने के साथ-साथ क्रूर भी है.

ऐसा इसलिए कि संरचनात्मक रूप से ऑनलाइन शिक्षण में विश्वविद्यालय की कोई भूमिका नहीं है. न तो किसी भी शिक्षक और न ही किसी विद्यार्थी को ऐसे संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं जिससे ऑनलाइन शिक्षण में किसी तरह की सुविधा हो.

उदाहरण के लिए ऑनलाइन शिक्षण में शिक्षकों और विद्यार्थियों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा मोबाइल, लैपटॉप या कंप्यूटर नितांत निजी है. ठीक इसी तरह ऑनलाइन शिक्षण के लिए आवश्यक इंटरनेट कनेक्शन की व्यवस्था भी नितांत निजी है.

विश्वविद्यालयों ने मार्च के महीने से लेकर अब तक समय-समय पर शिक्षकों और विद्यार्थियों को केवल निर्देश या आदेश दिए हैं लेकिन कभी भी उपर्युक्त संसाधनों के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है.

यह विडंबना ही है कि यूजीसी द्वारा जारी ‘गाइडलाइन’ में भी इस पर कोई चर्चा नहीं है. इन सब बातों से क्या नजारा बनता है?

मोबाइल, लैपटॉप या कंप्यूटर विद्यार्थी और शिक्षक का! इंटरनेट कनेक्शन विद्यार्थी और शिक्षक का! अध्यापन के लिए जरूरी सामग्री यानी किताबें या प्रयोगशाला की सामग्री भी विद्यार्थी और शिक्षक की! और शिक्षण का सारा श्रेय विश्वविद्यालय, यूजीसी से ले कर मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक ले रहे हैं.

इतना ही नहीं इसी परिवेश में विश्वविद्यालयों और शिक्षकों से रोज के शिक्षण की रिपोर्ट भी मांगी गई.

इससे यह भी साफ पता चलता है कि अब भारत में शिक्षण के लिए न तो स्तरीय पुस्तकों से युक्त पुस्तकालय की जरूरत है और न ही आधुनिक उपकरणों से लैस प्रयोगशालाओं की क्योंकि शिक्षक और विद्यार्थी सब कुछ अपने घर से कर सकते हैं!

ऑनलाइन शिक्षण की प्रक्रिया पर और विचार करें तो यह भी स्पष्ट होता है कि कोरोना महामारी के कारण विश्वविद्यालय बंद हैं तो सामान्य स्थिति में उन पर या उनके द्वारा होने वाला खर्च भी नहीं हो रहा है.

उदाहरण के लिए न तो बिजली का कोई खर्च हो रहा है और न ही दूसरी जरूरतों का. अगर परीक्षा भी आयोजित की जा रही है तो विद्यार्थी अपने घर में अपनी कॉपी में उत्तर लिख अपने मोबाइल से स्कैन कर शिक्षक को भेज रहा है.

जैसा कि ऊपर कहा गया कि शिक्षक अपने संसाधन का प्रयोग कर इस कॉपी की जांच कर रहा है. तो जो शिक्षा सार्वजनिक और सांस्थानिक जिम्मेदारी थी वह ऑनलाइन शिक्षण के कारण सीधे-सीधे व्यक्तिगत प्रणाली में तब्दील हो गई है.

यानी राज्य की जिम्मेदारी कितनी सफाई से जनता के कंधों पर आ गई. विडंबना यह कि विश्वविद्यालय इसे कर्तव्यनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता का रूप देकर यह बता रहे हैं कि वे कितने जिम्मेदार हैं!

यह और दुखद है कि शिक्षक साथी सामान्य बातचीत में यह कहते हैं कि ‘सरकार बैठाकर तो हम लोगों को वेतन देगी नहीं. अपनी नौकरी को औचित्य प्रमाणित करने के लिए यह सब तो करना ही होगा न!’

उनका यह कथन राज्य के वर्चस्वकारी विचार की यंत्रणा को ही बता रहा है. जाहिर है कि यह सभी शिक्षकों के मन में है कि तालाबंदी के कारण भारत में लगभग दस करोड़ लोगों के रोजगार छिन गए हैं.

इन दस करोड़ लोगों में वे लोग भी हैं ही, जिनकी संतानों को पढ़ने के लिए विश्वविद्यालय की फीस चुकानी है. पर शिक्षकों की नौकरी सुरक्षित है. उन्हें हर महीने तय वेतन भी मिल रहा है.

उन दस करोड़ लोगों में वे नहीं हैं इस बात की तसल्ली और वे भी कहीं उन दस करोड़ लोगों में न आ जाएं, इसका डर उन्हें मौन रहने पर विवश करता है.

इसलिए तमाम दिक्कतों के बावजूद शिक्षक अपने संस्थान से ऑनलाइन शिक्षण के संसाधनों के बारे में पूछ तक नहीं पा रहे हैं.

ऊपर यह संकेत किया गया कि यदि विद्यार्थी ऑनलाइन शिक्षण के बारे में वाजिब सवाल पूछ रहे हैं तो उन्हें सदा की तरह विद्रोही और उद्दंड बताया जा रहा है.

बेशर्मी से यह तर्क भी प्रस्तुत किया जा रहा है कि विद्यार्थी के पास वेब-सीरीज देखने के लिए इंटरनेट है परंतु ऑनलाइन क्लास के लिए इंटरनेट नहीं है!

विद्यार्थी इन परिस्थितियों में ‘कहां जाई, का करी और देखि हहा करी’ की हालत में हैं. शिक्षक डरे हैं. अभिभावक सिर पर हाथ धरकर यह सोच रहे कि विश्वविद्यालय की फीस जमा करने के लिए कहां से कर्ज लें या सच में थाली-लोटा बेचें!

यह सब महसूस कर त्रासद लगता है कि ऑनलाइन शिक्षण की चकाचौंध में गहरा अंधेरा है और हम सब किसी-न-किसी कारण से चुप हैं. मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’ की कुछ पंक्तियां याद आती हैं :

सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं;
उनके ख़याल से यह सब गप है
मात्र किंवदंती.

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)