चीन के साथ मौजूदा टकराव भारत के लिए ख़तरा नहीं, मौक़ा है

अगर नरेंद्र मोदी भूटान पर पड़ रहे दवाब को कम करके चीन द्वारा पेश किए जा रहे क़ानूनी तर्कों पर ध्यान लगाएं, तो वे ख़ुद को भारत-चीन सीमा विवाद को जल्दी सुलझाने की स्थिति में पाएंगे.

//

अगर नरेंद्र मोदी भूटान पर पड़ रहे दवाब को कम करके चीन द्वारा पेश किए जा रहे क़ानूनी तर्कों पर ध्यान लगाएं, तो वे ख़ुद को भारत-चीन सीमा विवाद को जल्दी सुलझाने की स्थिति में पाएंगे.

Modi-Xi-2
चीन, भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता, इसलिए मोदी के लिए यह मौक़ा है कि वे नया रास्ता बनाएं. (फोटो: रॉयटर्स)

इतिहास एक बार फिर ख़ुद को दोहराने का ख़तरनाक इरादा करता दिख रहा है और वह भी वैसे ही डरावनेपन के साथ. 1962 में जिन परिस्थितियों में चीन के हाथों भारत की अपमानजक हार हुई थी, उनसे मिलती-जुलती परिस्थितियां फिर से तैयार हो गई हैं. हम एक बार फिर हिमालय की विवादित सीमा पर चीनी सेना के आमने-सामने हैं. हमारा नेतृत्व एक ऐसे प्रधानमंत्री के पास है, जो उत्तर में ड्रैगन की तरफ एक के बाद एक उकसाऊ चाल चल रहे हैं, वे इस उम्मीद पर पर जुआ लगा रहे हैं कि ड्रैगन शांत रहेगा और हमें जला देनेवाली आग नहीं उगलेगा.

हमारे पास एक बार फिर एक ऐसी सेना है जो युद्ध के लिए तैयार नहीं है. जिसकी क्षमताओं को एक ऐसे सेना प्रमुख के द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है, जिन्हें राजनीतिक कारणों से प्रथम श्रेणी के दो क़ाबिल अफ़सरों की वरिष्ठता को लांघ कर सेना की कमान सौंपी गई है, क्योंकि प्रधानमंत्री को ऐसा लगा कि वे दोनों सेना की आचार संहिता के ख़िलाफ़ जानेवाले आदेशों का पालन करने के मामले संभवतः उतने आज्ञाकारी न साबित हों. इस बार भी पिछले युद्ध में धोला चौकी की तरह सिक्किम, भूटान और चीन का एक तिराहा अगले युद्ध का कारण बनता दिख रहा है.

एक लिखी हुई पटकथा को दोहराना

अगर जवाहर लाल नेहरू की जगह नरेंद्र मोदी पढ़ा जाए; अगर धोला चौकी की जगह दोकलांग पढ़ा जाए; अगर बीएम कौल की जगह बिपिन रावत पढ़ा जाए; अगर जनरल थिमय्या की जगह जनरल प्रवीण बक्शी पढ़ा जाए; अगर खिनजमैने (Khinzamane) की जगह गिपमोची पढ़ा जाए, तो सारे क़िरदार एक ही नज़र आएंगे. बस उनको निभाने वाले चेहरे बदल गए हैं.

रंगमंच पर बस एक किरदार की कमी थी. 1962 के नवंबर में नेहरू ने भारतीय सेना को चीनियों को थागला रिज़ से बाहर खदेड़ने का आदेश दिया था. शनिवार को तिब्बत की तथाकथित निर्वासित सरकार के मुखिया, लोबसैंग सैंगे ने लद्दाख में पोंग गोंग झील पर तिब्बती राष्ट्रीय ध्वज को सलामी दी. इस बात से बहुत फ़र्क नहीं पड़ता कि सैंगे को ऐसा करने की इजाज़त मोदी सरकार ने दी थी या नहीं. चीनियों के लिए यह गंभीर उकसावा है, जिसका असर सिर्फ़ दोकलाम पठार पर ही नहीं, बल्कि भारतीय लद्दाख पर भी पड़ेगा.

तो, क्या एक और संघर्ष को टाला नहीं जा सकता? क्या भारत को एक बार फिर अपने हज़ारों जवानों की क़ुर्बानी देनी होगी, पहले से भी ज़्यादा भू-भाग गंवाना होगा और चीन के साथ रिश्तों को एक बार फिर 25 वर्षों तक ठंडे बस्ते में डालना होगा? नहीं ऐसा ज़रूरी नहीं है. एक समझदार नेता वह होता है, जिसे यह मालूम होता कि विपरीत परिस्थितियों में किस बिंदु पर सम्मान के साथ क़दम पीछे कर लेना चाहिए.

एक दूरदर्शी राजनेता वह होता है जो न सिर्फ़ ऐसा करता है, बल्कि स्थितियों को अपने देश के हित में मोड़ देता है. लेकिन अफ़सोस की बात है कि मोदी ने अब तक न बुद्धिमानी न दूरदर्शी राजनीतिक कौशल का ही परिचय दिया है. लेकिन अच्छी बात ये है कि चीनी भारत के साथ एक और युद्ध नहीं चाहते हैं. इसलिए अब भी एक शुरुआत करने के लिए थोड़ा वक़्त बचा हुआ है.

मोदी को सबसे पहला सवाल यह पूछना चाहिए कि आख़िर चीनियों ने सड़क बनाने के लिए अब दोकलाम पठार को क्यों चुना है? कई टिप्पणीकारों का कहना है कि चीन ने ऐसा भारत को ग़लत क़दम उठाने के लिए उकसाने के लिए किया है. लेकिन यह भी मुमकिन है कि चीन के बुनियादी ढांचे से जुड़े उद्योगों के पास कोई मांग नहीं होने के कारण चीन की एक बेहद रसूखदार कंपनी ने तिब्बत की सैन्य कमान के सामने इस सड़क के निर्माण का प्रस्ताव रखा हो, जिससे उसे कोई काम मिल सके. चूंकि चीनी सेना के पास ख़र्च करने के लिए काफ़ी भारी-भरकम बजट है, इसलिए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.

मुमकिन है कि इस सड़क निर्माण का कोई सैन्य मक़सद न हो. इस सड़क से भारत के चिकन नेक (सिलिगुरी गलियारा) पर पड़ने वाले संभावित ख़तरे को तिल का ताड़ बनाकर पेश किया गया है. लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हम नाथू-ला दर्रे से चीन के साथ व्यापार कर रहे हैं. चीन पर नज़र रखने वाले ज़्यादातर जानकार यह मानते हैं कि चीन में हर फ़ैसला पार्टी की केंद्रीय समिति या पोलित ब्यूरो में लिया जाता है. लेकिन, यह हक़ीक़त से काफ़ी परे है.

मिसाल के लिए थ्री गॉर्जेस डैम परियोजना भव्य केंद्रीय योजना नहीं थी. बल्कि यह यह निजी कंपनी के दिमाग़ की उपज थी, जिसका स्वामित्व और प्रबंधन देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री ली पेंग के परिवार के पास है. अब यही कंपनी या थ्री गॉर्जेस डैम कंपनी बीजिंग से अरुणाचल प्रदेश के उत्तर में ब्रह्मपुत्र के आलपिन मोड़ पर, जहां कुछ किलोमीटर के भीतर ब्रह्मपुत्र 3000 मीटर नीचे आ जाता है, 40,000 मेगावाट क्षमता की बिजली परियोजना के निर्माण की इजाज़त मांग रही है.

ग़लत क़दमों का सिलसिला

इसलिए दिल्ली की पहली प्रतिक्रिया यह जानने की होनी चाहिए थी कि आख़िर इस सड़क निर्माण के पीछे किसका हाथ है और इस सड़क निर्माण से चीन क्या हासिल करना चाहता है. नाथू-ला से व्यापार को हटा दें, तो भी चीनियों को यह पता होना चाहिए कि हिमालय में एक सही ढंग से रखे हुए बम या किसी पुल के नीचे रखा विस्फोटक किसी सड़क पर आवाजाही को वर्षों तक रोक सकता है. इसलिए मोदी के सलाहकारों को इस नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए थी कि दोकलाम पठार के आरपार सड़क के निर्माण का एकमात्र मक़सद इस पर टैंकों को दौड़ाकर सिलिगुड़ी गलियारे तक लाना ही है.

बहरहाल, अगर इस परियोजना के पीछे कई तरह की मंशाएं काम कर भी रही हों, तो पिछले दो वर्षों में भारत-चीन संबंध में तेज़ गिरावट के बाद, बीजिंग ने ज़रूर इस सड़क परियोजना को भूटान-भारत संबंध को दबाव में लाते हुए मोदी को गंभीर ग़लती करने के लिए उकसाने के एक मौक़े के तौर पर देखा होगा, ताकि दक्षिण एशिया में भारत को और ज़्यादा अलग-थलग किया जा सके.

मोदी ने इस जाल में फंसने की वैसी ही तत्परता दिखाई, जैसी उन्होंने नोटबंदी की घोषणा करते हुए दिखाई थी. यह नहीं भूलना चाहिए कि भूटान एक संप्रभु देश है. भूटान द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर सैन्य मदद की गुहार लगाए जाने के बिना, भारत द्वारा उसकी सीमा के भीतर सड़क निर्माण कर रहे चीनियों से दो-दो हाथ करने के लिए अपने सैनिकों को भेजने का कोई क़ानूनी औचित्य नहीं है.

ठीक है, कि भारत और भूटान के बीच नज़दीकी रिश्ता है, ठीक है कि भारत का भूटान के साथ सैन्य समझौता भी है, लेकिन चीनियों को अपनी सीमा से बाहर निकालने की कोशिश में भारतीय सैनिकों को शामिल करने का फ़ैसला सिर्फ़ भूटान की तरफ़ से ही लिया जाना चाहिए था. यह फ़ैसला भूटान की तरफ़ से भारत नहीं ले सकता था. और भूटान की तरफ़ से ऐसी कोई गुज़ारिश की गई थी, इसका धुंधला सा भी संकेत हमारे पास नहीं है.

इसके उलट इस मामले में थिंपू की सोची-विचारी चुप्पी यह संकेत दे रही है कि भूटान की रक्षा करने को लेकर भारत द्वारा दिखाई गई अधीरता का वहां पूरी तरह से स्वागत नहीं किया गया है. भूटानी अख़बारों ने इस टकराव की रिपोर्टिंग अपनी तरफ़ से कोई टिप्पणी किए बग़ैर पूरी तरह से तथ्यात्मक आधार पर की है.

सरकारी अख़बार क्युंसेल ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि चीन और भूटान के बीच सिर्फ़ चार सीमा विवाद हैं, जिनमें दोकलाम भी एक है. क्या इसे दूर की कौड़ी लाना कहा जाएगा, अगर यह कहा जाए कि ऐसा कहकर भूटान ने नई दिल्ली को यह संकेत दिया है कि चूंकि वह चारों विवादों को सुलझाने के लिए आगे नहीं आ सकता, इसलिए इस विवाद को भी भूटान के हवाले छोड़ देना अच्छा होगा?

अगर ऐसा है, तो इसके कारण की खोज करना ज़्यादा मुश्किल नहीं है. दो बड़े पड़ोसियों के बीच फंसे भूटान के लिए अपने हितों की रक्षा करने का सबसे अच्छा तरीक़ा दोनों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना है. भूटान की सरकार की तरफ़ से औपचारिक गुज़ारिश के बग़ैर सेना भेजकर मोदी ने भूटान को एक ऐसी स्थिति में ला खड़ा किया है, जहां उसे भारत और चीन में से किसी एक को नाराज़ करना पड़ेगा. ऐसे में भारत हारे हुए पाले में दिखाई दे सकता है.

चीन की तरफ़ से एक ‘क़ानूनी’ दावा

मौजूदा टकराव की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है कि अपने सामान्य आचरण के उलट चीन इस बार दोकलाम पठार पर अपने दावे की क़ानूनी वैधता को साबित करने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा है. वह अपने दावे को 1890 के भारत के ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड लैंड्सडाउन और चीन के ‘‘इंपीरियल एसोसिएट रेजिडेंट इन तिब्बत’’ के बीच हुए समझौते के आधार पर सही ठहरा रहा है. इस समझौते का अुनच्छेद 1 कहता है:

‘‘सिक्किम और तिब्बत के बीच सीमा रेखा- सिक्किम की तीस्ता और इसकी सहायक नदियों में बहने वाले पानी को तिब्बत की मोचू और उत्तर की तरफ़ तिब्बत की दूसरी नदियों में बहने वाले पानी को अलग करने वाले पर्वत श्रृंखला की चोटी (जल-विभाजक) होगी. यह रेखा भूटान की सीमा पर माउंट गिपमोची से शुरू होती है और ऊपर उल्लिखित जल-विभाजक का अनुसरण करते हुए नेपाल की सीमा पर स्थित बिंदु तक जाती है.’’

इस 1890 के समझौते ने सिक्किम और तिब्बत के बीच- या कहें, ब्रिटिश भारत और चीन के बीच सीमा को तय कर दिया, लेकिन इसने तिब्बत और भूटान के बीच सीमा का निर्धारण नए सिरे से किया. क्योंकि तीस्ता और मोचू के बीच जल-विभाजक भूटान की वास्तविक सीमा के दक्षिण से होकर गुज़रता है. दोकलाम पठार इसके काफ़ी उत्तर में पड़ता है.

चीनी इस पर अपना दावा चरवाहों को जारी किए गए टैक्स रसीदों के आधार पर कर रहा है, जो ल्हासा की सरकार को 1960 तक चरवाहा कर (हर्डर्स टैक्स) भर रहे थे. लेकिन, भूटान और चीन इस विवाद को 2002 में दस्तख़त किए गए यथास्थिति समझौते के बाद ठंडे बस्ते में डालने पर राजी हो गए थे. यह विवाद ही वह चारा है, जिसका इस्तेमाल चीन ने भूटान में भारत को एक मुश्किल स्थिति में डालने के लिए किया है.

आज, मोदी एक ऐसी स्थिति से दो- चार हैं, जिसमें उनके सामने वैसा कुछ करने की नौबत आ गई है, जैसा उन्होंने आज तक नहीं किया है. यानी, उन्हें परोक्ष तौर पर ही सही, यह स्वीकार करना होगा कि उनसे ग़लती हो गई है और दोकलाम पठार से भारतीय सेना को पीछे करके अपने क़दम को वापस लेना होगा. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं, तो चीन ने यह बिल्कुल साफ़ कर दिया है कि वह भारतीयों को दोकलाम से बाहर निकालने के लिए सैन्य कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगा. सबसे ख़राब ये है कि यह संघर्ष भूटानी सीमा के भीतर, इसके नेताओं और लोगों की आपत्तियों के बीच होगा.

यह पूछे जाने पर कि क्या मौजूदा संघर्ष एक युद्ध की शक्ल अख़्तियार कर सकता है, ज़्यादातर भारतीय विश्लेषकों ने इसका जवाब एक त्वरित ‘ना’ में दिया है. यह बिल्कुल वैसी ही सदिच्छा से भरी सोच है, जो 1962 के युद्ध से पहले आम थी. लेकिन हक़ीक़त ये है कि भारत को एक असंभव स्थित में धकेलने के बाद यह बीजिंग की मूर्खता ही होगी, अगर वह इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर एशिया में अपने एकमात्र प्रतिद्वंद्वी भारत को एक और ज़बरदस्त शिकस्त देने की कोशिश न करे.

चीन ने भले औपचारिक तौर पर आख़िरी चेतावनी जैसा न दिया हो, लेकिन इसने खरी-खरी सुनाने का कोई मौक़ा जाने नहीं दिया है. 4 जुलाई के अपने संपादकीय में ग्लोबल टाइम्स ने यह चेतावनी जारी की:

‘‘हम उम्मीद करते हैं कि भारत हमारे बुनियादी हितों पर अपनी उद्दंड कार्रवाइयों से होने वाले नुकसान को समझेगा और बिना कोई समय गंवाए अपनी सेना को वापस बुला लेगा. इस स्थिति से निपटने के लिए हमें अपने राजनयिक और सैन्य अधिकारियों को पूरी ताक़त देने की ज़रूरत है. हम चीनी समाज का आह्वान करते हैं कि वह इस मसले पर आला दर्जे की एकजुटता का प्रदर्शन करे और…इस बार हमें ज़रूर से भारत को एक कड़वा सबक सिखाना चाहिए.’’

उसी दिन भारत में चीन के राजदूत लुओ झाओहुई ने एक संवाददाता द्वारा बार-बार पूछने जाने पर प्रकट तौर पर युद्ध की संभावना से इनकार नहीं किया और भारत को यह चेतावनी दी, ‘पहली प्राथमिकता ये है कि भारतीय सेना बिना किसी शर्त के अपनी सीमा में लौट आए. यह चीन और भारत के बीच किसी भी सार्थक संवाद की पूर्वशर्त है.’’

एक दिन के बाद सौम्य भाषा में लिखे गए बेहद सख़्त संपादकीय में चीन की आधिकारिक न्यूज एजेंसी शिन्हुआ ने कहा कि अगर भारत दोकलाम में टकराव को और बढ़ाना नहीं चाहता, तो उसे अनिवार्य रूप से अपनी सेना को वापस बुलाना होगा.

एक रास्ता बचा है

तो क्या भारत के सामने पीठ दिखाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है. इसका जवाब है कि भारत के पास एक रास्ता है और यह रास्ता और किसी ने नहीं, चीन ने ही खुला छोड़ रखा है. बीजिंग ने 1890 के समझौते को ही पूरी तरह से दोकलाम पर अपने दावे का आधार बनाया है. लेकिन ऐसा करते हुए यह सीमा निर्धारण के लिए उन दो सिद्धांतों पर निर्भर है, जिसे इसने 1962 के युद्ध से पहले और बाद में खुलेआम खारिज कर दिया था-

पहला, उपनिवेशी शक्तियां हमारी सीमाओं का निर्धारण नहीं कर सकतीं. दूसरा, जल-विभाजक के सिद्धांत पर सीमा का निर्धारण.

चीनी नेतृत्व ने 1962 में युद्ध शुरू होने के कुछ दिनों के बाद पीपुल्स डेली के एक अहस्ताक्षरित संपादकीय में पहला पक्ष रखा था. लेकिन जल-विभाजक के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए और इसे म्यांमार और दूसरे देशों के साथ सीमा के निर्धारण के लिए इस्तेमाल में लाते हुए, उसने उसी साल नक्शे पर भारत द्वारा मैकमोहन रेखा में किए गए एक सुधार को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था.

भारत ने यह सुधार तब किया था, जब भारतीय मानचित्रकारों ने यह पाया कि जल्दबाज़ी में मैकमोहन ने, जो सीमा निर्धारण के लिए जल-विभाजक के सिद्धांत का इस्तेमाल कर रहे थे, संभवतः ग़लती से भूटान, तिब्बत और भारत के तिराहे को अपनी सही जगह के बदले जल विभाजक से 6 किलोमीटर दक्षिण में रख दिया था.

अब उपलब्ध हेंडरसन-ब्रूक्स रिपोर्ट ने यह उजागर किया है कि 1962 का युद्ध वास्तव में एक दुर्घटना का नतीजा था- आर्मी जनरल हेडक्वार्टर्स, नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी में अग्रिम चौकियां लगाने के लिए भेजे गए सैनिकों को यह सूचना देने में नाकाम रहा कि चीनियों ने नए तिराहे को अस्वीकार कर दिया है. इसका नतीजा यह हुआ कि कैप्टन महेश प्रसाद ने उस जगह धोला चौकी की स्थापना कर दी, जो उनके मुताबिक तिराहा या तीन भूमियों का मिलन स्थल था. जल्द ही उन्हें 600 चीनी सैनिकों ने घेर लिया. धोला को सेना द्वारा सहायता पहुंचाने की कोशिश ने जंग की शुरुआत कर दी.

आज मोदी को भले अंततः भूटान झमेले से पीछे हटना पड़े मगर, उनके पास यह दावा करने का मौक़ा है कि दोकलाम पठार पर भारत की कार्रवाई ने चीन को हिमालय में सीमा निर्धारण के जल-विभाजक सिद्धांत को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया है. वे एक क़दम और आगे जाकर ऐतिहासिक तौर पर मिली सीमाओं के किसी संदर्भ के बग़ैर पूरे हिमालय में सीमा विवाद को समग्र तौर पर सुलझाने की पेशकश भी कर सकते हैं.

इससे लद्दाख में कुछ छिटपुट फेरबदल हो सकता है, जिससे पाकिस्तान और चीन को लाभ पहुंचा सकता है, लेकिन यह अरुणाचल प्रदेश में दशकों से चले आ रहे पीड़ादायक सीमा-विवाद को भी उस सिद्धांत के रास्ते से सुलझाने का एक आधार तय करेगा, जिसकी पैरोकारी भारत हमेशा करता रहा है. अगर सही तरीक़े से योजना बनाकर वार्ता की जाए, तो इस तरह के फेरबदल से हर कोई अंततः विजेता नज़र आएगा.

(प्रेमशंकर झा वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने ‘क्राउंचिंग ड्रैगन, हिडेन टाइगर: कैन चाइना एंड इंडिया डोमिनेट द वेस्ट’ सहित कई किताबें लिखी हैं.)

इस लेख के अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq