विश्व आदिवासी दिवस: ये आदिवासियों के लिए ख़ुद से सवाल पूछने का समय है

किसी भी संगठित धर्म में गया आदिवासी अपनी मूल पहचान बचाए रखने के नाम पर प्रकृति से जुड़े उत्सवों में हिस्सा लेकर इस भ्रम में रहता है कि वह ज़मीन से जुड़ा हुआ है. लेकिन क्या वह कभी ये महसूस करता है कि अपनी संस्कृति, भाषा आदि को लेकर उसका नज़रिया कैसे कथित मुख्यधारा के नज़रिये जैसा हो जाता है?

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बीरभूम में हूल उत्सव में आदिवासी समाज के लोग. (फाइल फोटो: पीटीआई)

किसी भी संगठित धर्म में गया आदिवासी अपनी मूल पहचान बचाए रखने के नाम पर प्रकृति से जुड़े उत्सवों में हिस्सा लेकर इस भ्रम में रहता है कि वह ज़मीन से जुड़ा हुआ है. लेकिन क्या वह कभी ये महसूस करता है कि अपनी संस्कृति, भाषा आदि को लेकर उसका नज़रिया कैसे कथित मुख्यधारा के नज़रिये जैसा हो जाता है?

बीरभूम में हूल उत्सव में आदिवासी समाज के लोग. (फाइल फोटो: पीटीआई)
बीरभूम में हूल उत्सव में आदिवासी समाज के लोग. (फाइल फोटो: पीटीआई)

‘विश्व आदिवासी दिवस’ आदिवासियों के लिए खुद से सवाल पूछने का समय है. इस मौके पर आदिवासी नाचते-गाते हैं लेकिन आदिवासी समाज के बीच जो महत्वपूर्ण सवाल है, लोग उन सवालों से जूझने का काम नहीं करते.

उन्हें अपने समाज के भीतर देखना चाहिए और पूछना चाहिए कि क्या नाच-गान तक सीमित रहने से आदिवासी समाज बचा रह सकता है?

किसी भी संगठित धर्म में चला गया आदिवासी, अपनी आदिवासी पहचान को बचाए रखने के नाम पर प्रकृति से जुड़े आदिवासी उत्सवों में नाचता- गाता रहता है और इस भ्रम में रहता है कि वह आदिवासी पहचान के साथ जुड़ा हुआ है.

लेकिन क्या वह कभी महसूस करता है कि आदिवासी संस्कृति, भाषा, जल, जंगल, ज़मीन को लेकर उसका नज़रिया भी कैसे धीरे-धीरे कथित मुख्यधारा के नज़रिये की तरह हो जाता है.

किस तरह वह भी ब्राह्मणवाद या श्रेष्ठतावाद को ढोता है? उसी नज़रिये से रास्ता निकालना चाहता है. ब्राह्मणवादी विचारधारा, जीवन शैली और जीवन-मूल्य को ढोते हुए कोई आदिवासी, कैसे यह दावा कर सकता है कि वह आदिवासी है?

कैसे उसका जीवन-मूल्य व्यापक और ज्यादा मानवीय है? हर आदिवासी समुदाय के नाम का अर्थ जब मनुष्य होता है, फिर वह आदिवासी मनुष्य कहां रहता है? उसके पास अपना क्या नज़रिया है?

क्या उस नज़रिये से विकास के रास्ते तय नहीं हो सकते? अगर हो सकते हैं फिर व्यापक आदिवासी समाज एक साथ गलत को गलत कहने के लिए क्यों नहीं खड़ा हो पाता, क्यों सही को सही कहने के लिए भी एकजुट नहीं हो पाता?

बदले समय में जब आदिवासी पहनावा, भाषा, जीवन शैली ख़त्म हो रही फिर भी कोई आदिवासी हर बार सिर्फ अपने बचे-खुचे जीवन-मूल्यों से पहचान लिया जाता है.

आदिवासी प्रकृति से जुड़े अपने जीवन दर्शन से ही जाना जाता है. लेकिन अगर जीवन-मूल्य भी बदल चुका हो तब सिर्फ आदिवासी गोत्र लगा देने, पेड़ के निकट कोई घर बना लेने, आदिवासी गीतों पर नाच-गा लेने भर से कोई आदिवासी कैसे बचा रह सकता है?

हर आदिवासी को अपनी संस्कृति और जीवन-मूल्य को समझना होगा. अपने समाज की कुरीतियों और कमियों से लड़ने, भीतर और बाहर रूढ़िवादी विचारधाराओं को तोड़ने का काम भी खुद ही करना होगा.

देखना होगा कि वह कौन-सा बंधन है जो उसे बदलने नहीं देता और कौन-सा रास्ता है जो उसको बदलना चाहता है लेकिन उसकी मूल संस्कृति, जीवन-मूल्य को छीन लेता है, उसे मनुष्य रहने नहीं देता.

यह सारे सवाल आदिवासियों को खुद से ही करने होंगे. आदिवासी प्रकृति से जुड़े लोग हैं. उनके पुरखे भी हजारों साल से प्रकृति से जुड़े थे. प्रकृति के साथ जुड़े रहने की वजह से उनकी एक व्यवस्था है.

उसी व्यवस्था से सामूहिकता, सहभागिता, एकजुटता की बात पैदा होती है. एक दूसरे को सुनने, सबकी सहमति जानने, सबकी पसंदगी और नाराज़गी को समझने, कोई रास्ता निकालने की एक संस्कृति जन्म लेती है.

आदिवासियों की इसी व्यवस्था से उनकी आस्था भी जुड़ी होती है. यह लोगों को दिल से जोड़े रखती है. और एक साथ दिल से जुड़े होने के कारण वे प्रकृति की धुन में साथ नाच और साथ गा पाते हैं.

साथ गाने और नाचने के बीच यह मानसिक स्थिति जरूरी होती है कि किसी को भी अपनी नकारात्मकता, श्रेष्ठतावाद, नफ़रत, कुंठा छोड़कर साथ आना पड़ता है. इन बातों को छोड़े बिना साथ नाचना मुश्किल है. इसलिए आदिवासी सामूहिक रूप से नृत्य कर पाता है.

यह सब आदिवासी समाज के भीतर प्रकृति के साथ जीते हुए एक प्रक्रिया में पैदा हुई है. वह कब , क्यों और कैसे टूटती चली गई? इसलिए टूटती चली गई क्योंकि बदलते समय में नए तरीके से खुद को समझने की कोशिश नहीं हुई.

लोग यह नहीं समझ सके कि जब प्रकृति से कनेक्शन टूटता है और मुनाफे की एक पूंजीवादी जीवन शैली से कोई समाज जुड़ता है, तो वहां आदिवासी संस्कृति के बचने की संभावना ख़त्म होती है.

आदिवासी समाज संगठित धर्म के साथ उस संस्कृति का जब भी हिस्सा हो जाता है तब वह आंख बंदकर, बिना सवाल पूछे अंधानुकरण करने लगता है.

और अंधानुकरण में सवाल पूछने की जगह नहीं होती और सवाल पूछते लोग खतरनाक घोषित किए जाते हैं. इसलिए उनको समाज से बहिष्कृत किया जाता है.

कोई संगठित धर्म अपनी जगह बुरा नहीं है, लेकिन जब उसका इस्तेमाल सबके हिस्से के संसाधनों पर कब्ज़ा करने के लिए हथियार के रूप में होता है, राजनीति उसका प्रयोग हथियार के रूप में करती है तब धर्म अपने ख़तरनाक रूप में होता है.

संगठित धर्म ने आदिवासी समाज के भीतर बड़े बदलाव किए हैं. आदिवासी समाज के भीतर मिशनरियों के प्रवेश ने क्रांतिकारी बदलाव लाए हैं. इसमें कोई दो मत नहीं है.

संघ सुदूर आदिवासी इलाकों में लंबे समय से शिक्षा, स्वास्थ्य को लेकर मिशनरियों की तरह ही काम करने का प्रयास कर रहा लेकिन उनसे जुड़े लोग खुले तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि उनका मकसद आदिवासी समाज को, उनकी पहचान से उखाड़कर खुद में शामिल करना है. ताकि संसाधनों का प्रयोग देश के विकास के लिए हो सके.

संगठित धर्म आखिरकार किस संस्कृति और जीवन शैली का वाहक है और आदिवासी समाज किस व्यवस्था और संस्कृति का वाहक है?

इसे समझने की जरूरत है. दोनों की संस्कृति को समझे बिना हम चीज़ों को ठीक तरीके से समझ नहीं सकते हैं. धर्म अपने साथ कौन-सी संस्कृति लेकर आता है और कौन-सी चीजों से आदिवासी समाज को उखाड़ता है, इसे देखने की जरूरत है.

संगठित धर्म और उससे जुड़ी जीवन शैली कहीं न कहीं मुनाफे की संस्कृति से मजबूती से जुड़ा रहता है.

उसी संस्कृति के भीतर वह सेवा और लोगों को कुछ सुविधा देने का काम करता है लेकिन वह आदिवासियों को उजाड़ने, उनकी भाषा-बोली छीन लेने, उसको विस्थापित करने के खिलाफ मजबूती से लड़ नहीं पाता. धार्मिक संस्था, श्रेष्ठतावादी व्यवस्था इतनी व्यापक और बंधन मुक्त नहीं होती.

इसलिए धर्म बदलने वाले आदिवासी समाज भी ऐसे राजनीतिक पार्टियों के पक्षधर हो जाते हैं, जो धार्मिक स्वतंत्रता से छेड़छाड़ नहीं करती लेकिन वह विकास के नाम पर आदिवासियों को ख़त्म करती है और इसके खिलाफ , धर्म के नाम पर बंटा आदिवासी समाज कभी भी एक साथ नहीं आ पाता.

आदिवासियों को, देश का व्यापक हिंदू समाज खुद के पेड़ और स्त्री की पूजा करने की समानता पर सनातन धर्म का हिस्सा बताता है. पर आदिवासी जब पेड़ और स्त्री को बचाने के लिए लड़ता है तब यह व्यापक हिंदू समाज उसके साथ क्यों नहीं खड़ा हो पाता है?

क्यों वह हमेशा आदिवासियों को विकास विरोधी भी समझता है? आदिवासियों के जंगल-ज़मीन बचाने की लड़ाई में व्यापक हिंदू समाज कभी भी साथ आकर खड़ा नहीं होता है.

और इस समाज से जो भी समर्पित लोग आदिवासी समाज के हक के लिए लड़ते हैं, वह उनके भी खिलाफ लड़ता है. क्योंकि उनकी पूरी संस्कृति पूंजीवादी व्यवस्था, मुनाफे की व्यवस्था से चलती है.

वह धार्मिक रूप से आदिवासियों को एक बताता है और दूसरी ओर उनका अस्तित्व खत्म होने पर चुप भी रहता है. इस फर्क को समझे बिना आदिवासी समाज अपने आप को सही तरीके से रेखांकित नहीं कर सकता है.

आदिवासी समाज दुनिया के लिए एकमात्र उम्मीद है, जहां से पूंजीवादी जीवन शैली और व्यवस्था के खिलाफ लड़ते लोग रास्ता पा सकते हैं.

दुनिया को रास्ता आदिवासी समाज की मूल मानवीय व्यवस्था, आदिवासियत से ही मिल सकती है. एक दिन समय यह सब लिखेगा. लेकिन आदिवासी समाज को अपने आप से पूछना चाहिए प्रकृति से जुड़ी उनकी अपनी व्यवस्था पर उनका विश्वास क्यों नहीं है?

कहां से वह कमतर हैं? क्यों आदिवासी खुद को असभ्य, कमतर मनुष्य समझता है? क्यों आदिवासी कहलाने से डरता है और दूसरों की तरह नहीं दिखने पर कुंठित होता है?

यह सब इसलिए क्योंकि हजारों साल से उसे यही सब बताया गया है. वह सब सुनते-सुनते वह उन्हीं बातों पर यकीन करता है. उसके पास खुद की परिभाषा नहीं है.

अपनी कोई व्याख्या नहीं है. दूसरों ने जो व्याख्या कर दी है, उसी व्याख्या से वह खुद को परिभाषित करता है. विश्व आदिवासी दिवस के दौरान उनको अपने आदिवासी होने को नए नज़रिये से देखना होगा.

अपनी परिभाषा खुद ही लिखनी होगी, अपनी व्याख्या खुद करनी होगी, अपने होने पर भरोसा करना होगा. उस भरोसे से ही अपने बारे दुनिया को बताना होगा और अपने प्रति दुनिया का नज़रिया बदलना होगा.

इसी तरह यह समाज अपने आप को ढूंढ सकता है. इसी तरह प्रकृति से जुड़े लोग, प्रकृति की व्यापक समझ के साथ दूसरे समाज को भी मानवीय होना और नए नज़रिये से आदिवासी दुनिया को देखना सिखा सकते हैं.

(जसिंता केरकेट्टा स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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