क्या आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा का प्रसार उनकी ही संस्कृति के लिए ख़तरा है

विश्व आदिवासी दिवस: मूल निवासियों की पहचान उनकी अपनी विशेष भाषा और संस्कृति से होती है, लेकिन बीते कुछ समय से ये चलन-सा बनता नज़र आया है कि आदिवासी क्षेत्र के लोग मुख्यधारा की शिक्षा मिलते ही अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं.

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Tribal painting, though popular among most tribes in MP, is extremely well honed as an art among the Gond tribe of Mandala

विश्व आदिवासी दिवस: मूल निवासियों की पहचान उनकी अपनी विशेष भाषा और संस्कृति से होती है, लेकिन बीते कुछ समय से ये चलन-सा बनता नज़र आया है कि आदिवासी क्षेत्र के लोग मुख्यधारा की शिक्षा मिलते ही अपनी भाषा, संस्कृति और परंपराओं को हेय दृष्टि से देखने लगते हैं.

Tribal painting, though popular among most tribes in MP, is extremely well honed as an art among the Gond tribe of Mandala
फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

गोंडी भारत की प्राचीनतम भाषाओं में से एक है, जिसे देश के बीचोंबीच बसे ‘गोंडवाना’ क्षेत्र में बोला जाता है.

छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और ओडिशा से सटे हुए एक व्यापक इलाके में रहने वाले लाखों-करोड़ों लोगों की ये मातृभाषा आज अपनी आख़िरी सांसें गिन रही है.

आज सिर्फ दूर-दराज़ के जंगली क्षेत्रों में बसे गांवों तक ही ये भाषा सिमटकर रह गई है. हालांकि इसे नए सिरे से संजोए रखने का जद्दोजहद भी कुछ हद तक जारी है लेकिन इसके भविष्य पर अभी भी प्रश्नचिह्न लगा हुआ है.

मेरा जन्म बस्तर क्षेत्र में एक गोंड परिवार में हुआ है. मैं जैसे-जैसे बड़ी हुई, मैंने अपने ही घर-परिवार और गांव के अंदर गोंडी भाषा का पतन होते हुए देखा है.

मेरे परिवार में गोंडी भाषा मेरे माता-पिता की पीढ़ी के साथ ही खत्म होने जा रही है क्योंकि मेरे अलावा मेरे भाई-बहनों में किसी को भी अब गोंडी बोलना नहीं आता.

मेरे माता-पिता को गोंडी इसलिए आती थी क्योंकि वे स्कूल नहीं गए थे जहां उन्हें किसी अन्य भाषा में सीखना अनिवार्य कर दिया जाना था.

बचपन में हम, यानी मेरे भाई-बहन सब घर में आपस में थोड़ी-बहुत गोंडी बोल लेते थे. लेकिन जैसे-जैसे हम प्राथमिक से माध्यमिक शालाओं में बढ़ते गए, हम अपनी मातृभाषा गोंडी से दूर होते गए और अब हम में से किसी को भी को उसमें सहजता से बोलना भी नहीं आता.

अपने अनुभव में मैंने यही देखा कि लोगों में शिक्षा का प्रसार शुरू होते ही गोंडी परिवारों में उनकी मातृभाषा का पतन भी शुरू हो जाता है.

ये मेरे अकेले परिवार की बात नहीं, बल्कि एक पूरे इलाके में, जहां मैं पली-बढ़ी हूं, कमोबेश यही स्थिति है. बल्कि कई जगहों में तो हालत और भी खराब है.

खासकर स्कूलों में और कुछ हद तक ‘बाहरी’ समाज में भी गोंडी भाषा को लेकर एक ऐसा माहौल बना दिया गया है कि इसे बोलना गंवार या पिछड़ेपन की निशानी समझा जाने लगा है.

जो गोंडी बोलता है उसे अनपढ़ या गंवार समझा जाता है, जिससे लोग अनजाने में ही अपनी भाषा से दूरी बनाना शुरू कर देते हैं. इतना ही क्यों, कई लोग तो अपनी आदिवासी या गोंडी पहचान को भी छुपाने की कोशिश करते हैं.

बचपन में मेरी पढ़ाई रामकृष्ण मिशन की एक आश्रमशाला में हुई थी. वहां स्कूल के चौखट पर कदम रखते ही अपनी मातृभाषा के प्रति विमुखता के बीज हमारे मन में बोए गए थे.

बाद में ये पता चला कि देश के दूसरे आदिवासी क्षेत्रों में चलने वाली भिन्न-भिन्न आश्रमशालाओं में यही कुछ हो रहा है.

हाल ही में एक प्रेस विज्ञप्ति नजर में आई थी जिसमें ये बताया गया कि ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में आदिवासी-मूलवासी बच्चों के लिए बनी विशालकाय फैक्ट्री स्कूल- कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (किस) में कैसे आदिवासी बच्चों को अपनी जड़ों से दूर किया जा रहा है.

इसकी एक खास बात यह भी है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा मूल निवासी आवासीय-स्कूल है. यहां देशभर के तकरीबन तीस हजार आदिवासी बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं.

ये स्कूल आदिवासी बच्चों में उनके इतिहास और समाज के प्रति अनिच्छा या अनादर की भावना भर देता है. उनके रहन-सहन, जीवनशैली, भाषा… इन सबसे उन्हें दूर कर देता है. उनकी तमाम जीवनशैली को पिछड़ेपन का संकेत मानने पर मजबूर कर देती है, ऐसा उस विज्ञप्ति में कहा गया.

इंटरनेशनल यूनियन ऑफ एंथ्रोपालॉजिकल एंड एथ्नोलॉजिकल साइंसेज के नाम कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा लिखे गए उस पत्र में कहा गया है कि आदिवासी बच्चों को अपनी मातृभाषाओं से भी वंचित कर दिया जाता है और उड़िया, अंग्रेजी बोलने और पढ़ने पर जोर दिया जाता है.

यह भी कहा गया था कि वहां अपने आदिवासी तीज-त्योहार मनाना मना है, उन्हें हिंदू पर्व और हिंदू देवी-देवताओं की ही पूजा करनी होगी.

इसे पढ़कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मैं जिस क्षेत्र से आती हूं, वहां भी कमोबेश यही स्थिति थी और आज भी है. मेरे अनुभव भी लगभग इसी प्रकार के हैं.

रामकृष्ण मिशन आश्रम की जिस स्कूल में मैंने प्राथमिक स्तर तक पढ़ाई की थी, वहां हिंदी बोलने पर हम पर ज्यादा जोर डाला जाता था. वहां एक अघोषित नियम-सा था कि कोई अपनी मातृभाषा में नहीं बोलेगा, चाहे वह आपस में ही क्यों न हो.

हालांकि स्कूल में दाखिला लेने वालों में गोंडी, माड़िया, हल्बी, छत्तीसगढ़ी बोलने वाले बच्चे होते थे लेकिन किसी को अपनी मातृभाषा में बात करने की अनुमति नहीं थी.

बच्चों को आपस में आपनी आदिवासी भाषा में बोलते हुए देखने पर शिक्षक टोका करते थे. वहां हमें सुबह से शाम तक पढ़ाई के अलावा हिंदू धर्म के नियम-कायदे भी सीखने पड़ते थे.

सुबह उठते ही हमें मंदिर जाकर पूजा करनी होती थी. शाम को भी मंदिर में पूजा के साथ हमारी दिनचर्या समाप्त होती थी. खाने से पहले मंत्र पढ़ना होता था. यानी हमारी दिन मंत्र पाठ से शुरू होकर मंत्र पाठ से समाप्त होता था.

ये सब हमारी संस्कृति और रीति-रिवाजों से पूरी तरह अलग था. यानी हमारी पढ़ाई के साथ हमारे हिंदूकरण की प्रक्रिया भी सुनियोजित तरीके से चल रहा था जिसके बारे में, कम से कम उस समय तो हमें कुछ भी मालूम नहीं था.

ये सब मुझे बहुत सालों बाद, जब मेरी राजनीतिक सोच विकसित हुई, समझ में आया.

आदिवासी समाज में कभी किसी को पैर छूने का रिवाज नहीं था. अपने बचपन में, कम से कम हमारे आसपास में तो मैंने ऐसे रिवाज कभी नहीं देखे थे.

अगर हमउम्र हैं, तो हाथ मिलाकर ‘जोहार’ बोलते थे और छोटे हैं तो बड़ों के द्वारा गाल छूकर जोहार बोला जाता था. लेकिन हमें स्कूल में बड़ों को पैर छूना सिखाया गया था.

जब भी मिशन के स्वामी या महाराज दौरे पर आते थे तो हमें घुटने टेककर या साष्टांग दंडवत प्रणाम करना पड़ता था. यानी जो रिवाज या जो संस्कृति हम पर थोपी गई थी उससे हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का कोई लेना-देना नहीं था.

हालांकि उस समय ये सब हमें ‘थोपना’ नहीं लगता था क्योंकि उन रिवाजों और पद्धतियों को ‘श्रेष्ठ’ या ‘उन्नत’ मानने पर पहले ही हमें मानसिक रूप से मजबूर किया जा चुका था.

और अंदर ही अंदर हमें ये लगने लगता था कि हम अपने घरों में जो भाषा या जो संस्कृति-रीति-रिवाज सीख कर आए थे, वो सब ‘पिछड़े’ या ‘बुरे’ थे.

रामकृष्ण मिशन आश्रम बस्तर के नारायणपुर जिला में आदिवासी बच्चों को 12वीं तक निशुल्क पढ़ाई और रहने की सुविधा उपलब्ध कराता है.

खासकर अबूझमाड़ इलाके में, जहां विलुप्तप्राय माड़िया जनजाति निवास करती है, इनके स्कूल ही एक मात्र आसरा है.

अविभाजित मध्य प्रदेश सरकार ने साल 1989 में माड़िया जनजाति को विलुप्तप्राय जनजातियों की सूची में रखकर उस इलाके में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद सरकार ने 2009 में इस प्रतिबंध को हटा दिया.

माड़िया आदिवासी बच्चों को पहली से 12वीं कक्षा तक यानी बारह साल आश्रम में ही रखकर पढ़ाया जाता है. यानी एक प्रकार से 12 सालों के अंदर उन बच्चों को पूरी तरह से उनके समाज से ही नहीं, बल्कि परिवार से भी काट दिया जाता है.

गर्मी की छुट्टियों या अन्य तीज-त्योहारों में भी उन्हें उनके गांवों में जाने नहीं दिया जाता है या बहुत कम जाने दिया जाता है. कोचिंग, खेलकूद, टूर आदि के नाम पर बच्चों को छुट्टियों में एंगेज करके रखा जाता है.

जब वे वहां से निकलते हैं तो उनके अंदर ‘आदिवासीपन’ बहुत कम रह जाता है. उनके सारे तौर-तरीके बदल चुके होते हैं, यहां तक कि उनको अपने मूल गांवों में रहना भी पंसद नहीं आता.

वहां के खान-पान आदि उनको भिन्न या अनजाना-सा लगने लगता है. उनके अंदर अपने समाज के प्रति हीनदृष्टि पैदा हो चुकी होती है.

अपनी पहचान का कोई भी पहलू, यानी भाषा, रीति-रिवाज, पहनावा, खानपान… कुछ भी उनके लिए गौरव या गर्व करने योग्य नहीं लगता.

ये सब वह जानबूझकर तो नहीं करेगा या ऐसा करने के लिए सीधा-सीधा कोई प्रेरित नहीं करता, लेकिन 12 सालों में उसका दिलोदिमाग अपने आप ऐसा तैयार हो जाता है.

छत्तीसगढ़ का एक गोंडी स्कूल. (फोटो: तामेश्वर सिन्हा/द वायर)
छत्तीसगढ़ का एक गोंडी स्कूल. (फोटो: तामेश्वर सिन्हा/द वायर)

ये मेरा खुद का अनुभव भी है. मैं भी पढ़ाई के बीच में छुट्टियों में जब घर जाती थी, परिवार में चलने वाली परंपरागत रस्में बिना किसी कारण के ही ‘ख़राब’ लगने लगती थीं.

हालांकि उम्र गुजरने के साथ जब मुझे अपने अस्तित्व और पहचान की राजनीतिक समझ मिली, तब जाकर मैं विश्लेषण कर पाई कि ‘पढ़ाई’ ने मुझे क्या से क्या बनाया था.

ऐसे स्कूलों में 10-12 साल पढ़ने के बाद आदिवासी बच्चे क्या बन रहे हैं, ये जानना भी दिलचस्प होगा.

अधिकतर चपरासी, नर्स, टीचर जैसी छोटी-छोटी नौकरियों तक ही पहुंच पाए हैं. बहुत कम संख्या में लेक्चरर, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियरिंग बन पाए हैं.

पिछले 30-35 सालों से जारी प्रयासों से कोई ऐसा बच्चा तो आज तक नहीं निकला, जिसने वापस जाकर अपने समुदाय की संस्कृति पर शोध किया हो या फिर अपनी पहचान को लेकर समुदाय में सजगता लाने का प्रयास किया हो.

सांस्कृतिक हमला

ब्रिटिशों द्वारा भारत पर कब्जा करने के बाद भारतीय संस्कृति पर हमले के बारे में तो हमने बहुत कुछ पढ़ा-सुना है, लेकिन आदिवासी इलाकों में शिक्षा के नाम पर उनकी संस्कृति पर हमला जो उस समय में शुरू हुआ, वो आज भी बेरोकटोक जारी है.

हालांकि शिक्षा के अभाव ने बेशक आदिवासियों को बेहद नुकसान पहुंचाया, लेकिन सरकारी या विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के माध्यम से उनको दी जा रही शिक्षा से भी उनकी संस्कृति को जो नुकसान हो चुका है और आज भी हो रहा है वो कम नहीं है. बल्कि उसकी भरपाई भी मुमकिन नहीं है.

स्कूल में दाखिला लेने के साथ ही आदिवासी बच्चों के नामों का ‘हिंदूकरण’ शुरू होता है. माता-पिता द्वारा आदिवासी परंपराओं के तहत दिए गए नामों को बदलकर या उनके नामों के आगे ‘राम’ को जोड़कर रजिस्टर में दर्ज किया जाता है.

उदाहरण के तौर पर ‘चमरू’ है तो उसे ‘चंद्रेश’ या ‘चंद्रूराम’ कर दिया जाता है. ‘बंडू’ है ‘भावेश’, ‘कोसा’ है तो ‘कन्हैया’ के रूप में बदला जाता है.

ऐसे ही हर नाम के आगे ‘राम’ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया जाता है, जैसे कि ‘मानूराम’, ‘चैनूराम’ ‘संतूराम’ आदि. इसका प्रभाव इतना ज्यादा है कि कई युवतियों-युवकों ने तो बड़े होकर अपने नामों को बदल लिया.

सरकारी दस्तावेजों में सिर्फ इंसानों के नाम ही नहीं बदले हैं, बल्कि उनके गांवों, नदियों, पहाड़ों आदि के नामों को बदल दिया जाता है. जैसे नारायणपुर का ही असली आदिवासी नाम है ‘नगुर,’ वहां के ग्रामीण लोग आज भी उसे ‘नगुर’ ही कहते हैं.

(फाइल फोटो: पीटीआई)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

नारायणपुर से होकर बहने वाली ‘कुकुर नदी’ का असली नाम है ‘नैयबेरेड़’ (दरअसल लोग बताते हैं कि इस नदी का नाम ‘नायुम’ यानी नाग सांप, ‘बेरेड़’ यानी नदी से बना है लेकिन गोंडी में कुत्ता को ‘नैयु’ कहा जाता है तो इस तरह उसे ‘कुकुर नदी’ कर दिया.) जैसे कोंडागांव का नाम कोडानार था, (कोडा यानी घोड़ा).

स्कूलों में हमें ये भी बताया जाता था कि हमारा आदिवासी समाज जिस संस्कृति को मानता है वह ‘राक्षसी संस्कृति’ है.

हिंदू देवी-देवताओं को आदिवासियों के प्राकृतिक मान्यताओं से श्रेष्ठ होने की सीख दी जाती थी. इसके कारण के तौर पर ये बताया जाता था कि चूंकि आदिवासी मांसाहारी हैं और मांस खाना राक्षसी संस्कृति का हिस्सा है.

आदिवासियों के देवी-देवताओं को भी मुर्गे, बकरी, सुअर, भैंस आदि जंतुओं की बलि दी जाती है, इसलिए वह सब देवता नहीं बल्कि भूत-प्रेत हैं, ऐसा सिखाया जाता था.

बचपन में मेरे मन भी यही बैठ गया था कि हमारी संस्कृति बहुत ही नीच होगी. इसको लेकर हम घर में अपने मां-बाप से भी बहस करने लगते थे. उन्हें समझाने की कोशिश करते थे कि हम जिन परंपराओं को मान रहे हैं वो अच्छी नहीं हैं.

स्कूलों में हुए हमारे ‘ब्रेनवॉश’ का असर इतना ज्यादा था कि मैं और मेरे दोनों भाइयों ने मांस खाना ही छोड़ दिया था. हिंदू देवी-देवताओं को श्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा-पाठ करने लगे थे. घर में दीवारों पर हिंदू देवताओं की तस्वीरें टांगने लगे थे.

समय के साथ मैं तो बदल गई, लेकिन मेरे दोनों भाई आज भी नहीं बदले. उसके प्रभाव से निकलने का मौका या माहौल उन्हें आज तक नहीं मिल पाया.

स्कूलों में हमारे देश की विविधता के बारे में बड़ी-बड़ी बातें बताई जाती हैं लेकिन सभी संस्कृतियों का सम्मान करना या सभी को समान दृष्टि से देखना नहीं सिखाया जाता है.

सीधे तौर न सही, लेकिन कदम-कदम पर हमें यही बोध कराया जाता था और आज भी यही होता है कि हिंदू तौर-तरीके ही सभ्य और श्रेष्ठ हैं, बाकी सब तुच्छ या नीच हैं.

मैं यहां हिंदू तौर-तरीकों के बारे में इसलिए कह रही हूं क्योंकि हमारे आसपास में इसी का बोलबाला है. हालांकि देश के दूसरे इलाकों, जैसे झारखंड या पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में ईसाईकरण का क्रम भी लगभग ऐसा ही कुछ होगा.

वैसे हिंदूकरण का माध्यम सिर्फ स्कूल ही नहीं  था. मेरे बचपन में हमारे गांव में गायित्री मठ वालों का भी बोलबाला रहा था. इन लोगों ने हमारे गांव में या इलाके में कब और कैसे प्रवेश किया पता नहीं.

हमारे गांव में एक सामूहिक भवन हुआ करता था, जो पहले गोटूल था. वहां हफ्ते में एक दिन रामायण का पाठ होता था. पौराणिक कहानियां सुनाई जाती थीं. मेरी दादी मां हमें लेकर वहां जाती थी.

कुछ समय बाद गणेश चतुर्थी के दौरान गणेश उत्सव बड़े धूमधाम से मनने लगा जोकि पहले कभी नहीं था. दुर्गा पूजा के दौरान नौ दिनों तक उत्सव होने लगा जो पहले कभी नहीं हुआ करता था.

दुर्गा उत्सव प्रचलित होने से पहले हमारे गांव में एक त्योहार मनाया जाता था, जिसे हम ‘जगार’ कहते थे. इस पर्व में खेत से धान के कुछ पौधों को गाजे-बाजे के साथ धूमधाम से सामुदायिक भवन (गोटूल) में लाया जाता था.

वहां नौ दिनों तक रोज शाम को गांव की महिलाएं, युवक, बच्चे जमा होकर नाचते-गाते, खेलते, कहानियां सुनाते थे. नौवें दिन उसे तालाब में धूमधाम से बहा दिया जाता था. दुर्गा मूर्ति की स्थापना के साथ ही ये त्योहार भी अब पुरानी यादों में सिमटकर रह गया है.

दशहरे का त्योहार हमारे गांव में पीढ़ियों से बड़े धूमधाम से मनाने का रिवाज रहा है क्योंकि विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे में हमारे गांव और हमारे परिवार से प्रतिनिधि जाते थे.

हमारे दादा जी को ढोल-नगाड़ों के साथ जगदलपुर दशहरा में प्रतिनिधि के तौर पर विदा करते थे, लेकिन उसमें भी समय के साथ परिवर्तन आया.

अब हमारे आसपास के गांव में रामलीला होने लगी है. गांव में रावण दहन होने लगा जो पहले कभी नहीं था.

आदिवासियों के देवी-देवताओं का स्थान अब लगभग पूरी तरह से हिंदू देवी-देवताओं ने ले ली. अब कई आदिवासी इलाकों में उनके पारंपारिक तीज-त्योहारों की जगह हिंदू तीज-त्योहारों ले चुके हैं.

मेरे दादा जी बताया करते थे कि हमारे गांव में मांस खाने को लेकर काफी विवाद हुआ था. मामला मारपीट तक पहुंच गई थी. जो लोग हिंदू मठों के धार्मिक प्रभाव से मांस खाना छोड़ चुके थे वो लोग बाकी लोगों पर दबाव डालते थे कि कोई मांस न खाए.

बीफ को लेकर कई लड़ाई-झगड़े हुए थे, जिनके किस्से हिंदू पुराणों में दर्ज ब्राह्मणों और राक्षसों की लड़ाइयों की कहानियों से मेल खाते हैं.

बचपन में हमारे गांव में गोटूल हुआ करता था. शाम को युवक-युवतियां जमा होकर नाच-गाने आदि करते थे. लेकिन हिंदू रीति-रिवाजों के फैलाव के साथ ही गोटूल की संस्कृति समाप्त हो गई.

ऊपर से उसको लेकर ढेर सारी गलतफ़हमियां! गोटूल के साथ ही आदिवासी नाच-गाने भी लगभग खत्म हो गए. अब गांवों में मादर, ढोल, चिटकुरी जैसे वाद्ययंत्र और आदिवासी साज-सज्जा की चीजें लगभग विलुप्त हो गईं.

शादी-ब्याह के तौर तरीके बदल गए. अब शादियां भी हिंदू रीति-रिवाजों के साथ हो रही हैं जो खर्चीली भी हो चली हैं.