‘सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को मरने के लिए छोड़ दिया है, क्या वे देश की नागरिक नहीं हैं’

आशा कार्यकर्ताओं ने कोरोना वायरस को लेकर स्वास्थ्य उपकरण मुहैया कराने, नियमित वेतन देने और कोरोना वॉरियर्स के तौर पर बीमा राशि जैसी मांगों के साथ दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया था, जिसके बाद इनके ख़िलाफ़ लॉकडाउन का उल्लंघन करने के आरोप में केस दर्ज किया गया है.

राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर पर बीते नौ अगस्त को आशा कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया था. (फोटो: पीटीआई)

आशा कार्यकर्ताओं ने कोरोना वायरस को लेकर स्वास्थ्य उपकरण मुहैया कराने, नियमित वेतन देने और कोरोना वॉरियर्स के तौर पर बीमा राशि जैसी मांगों के साथ दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया था, जिसके बाद इनके ख़िलाफ़ लॉकडाउन का उल्लंघन करने के आरोप में केस दर्ज किया गया है.

राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर पर बीते नौ अगस्त को आशा कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया था. (फोटो: पीटीआई)
राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर पर बीते नौ अगस्त को आशा कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया था. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: देश में कोरोना महामारी के जोखिम के बीच शहरों से लेकर दूरदराज के गांवों तक घर-घर जाकर आंकड़े जुटाने का काम कर रहीं मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता यानी आशा कार्यकर्ताओं ने सरकार की भेदभावकारी नीतियों के खिलाफ बिगुल बजा दिया है.

सरकारी नीतियों से खफा इन आशा कार्यकर्ताओं ने अपनी कुछ मांगों के साथ बीते नौ अगस्त को दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन भी किया था, जिसके बाद इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है.

आशा कार्यकर्ताओं ने प्रशासन के समक्ष अपनी कई मांगें रखी हैं, जिनमें इनका नियमित वेतन सुनिश्चित करना, सरकारी कर्मचारियों के तौर पर मान्यता देना, कोरोना वॉरियर्स के तौर पर इनके लिए बीमा राशि का बंदोबस्त करना शामिल हैं.

कोरोना के खतरे और निश्चित वेतन नहीं होने की दोहरी मार से जूझ रहीं आशा कार्यकर्ता बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने को मजबूर हैं.

असुरक्षित माहौल के बीच काम कर रहीं आशा कार्यकर्ता न आर्थिक रूप से सुरक्षित हैं और न ही स्वास्थ्य की दृष्टि से महफूज हैं. इनके लिए सामाजिक सुरक्षा की बात करना भी बेमानी हैं, क्योंकि ड्यूटी के दौरान आशा कार्यकर्ताओं पर हमले के कई मामले सामने आ चुके हैं.

दिल्ली आशा कामगार यूनियन की अध्यक्ष श्वेता राज ने द वायर  से बातचीत में कहा, ‘आशा कार्यकर्ता कोरोना के खिलाफ लड़ाई में फ्रंट वॉरियर्स के तौर पर काम कर रही हैं. केंद्र सरकार की योजनाओं के तहत काम करने पर उन्हें कर्मचारी के तौर पर मान्यता नहीं दी गई है. वह वॉलेंटियर के तौर पर काम कर रही हैं.’

वे कहती हैं, ‘ये सरकार की निष्ठुरता है कि आशा कार्यकर्ताओं से जोखिम भरा काम कराया जा रहा है, जिसमें वह या तो कोरोना संक्रमित लोगों के सीधे संपर्क में होती हैं या कंटेनमेंट जोन में, लेकिन मेहनताने के रूप में उन्हें महीने में दो से तीन हजार रुपये ही बेमुश्किल मिल पाते हैं.’

श्वेता आगे बताती हैं, ‘सिर्फ दिल्ली की बात करूं तो हर दो डिस्पेंसरी के अधीन कार्यरत एक से दो आशा कार्यकर्ता कोरोना संक्रमित हैं. प्रशासन की तरफ से इनको पीपीई किट, मास्क, ग्लव्ज और सैनेटाइजर कुछ भी मुहैया नहीं कराया जाता. कोविड केयर सेंटर से लेकर आइसोलेशन वॉर्ड तक में इनकी ड्यूटी लगी होती है. इतनी असुरक्षा के माहौल के बीच ये काम कर रही हैं, लेकिन कर्मचारी तक का दर्जा इन्हें नहीं दिया गया.’

कौन हैं आशा कार्यकर्ता

देश में मौजूदा समय में लगभग आठ लाख आशा कार्यकर्ता हैं. ग्रामीण आबादी के स्वास्थ्य देखभाल के लिए साल 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की स्थापना की गई थी, लेकिन 2013 में इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कर दिया गया, जिसके तहत आशा कार्यकर्ता ग्रामीण इलाकों के साथ-साथ शहरी इलाकों में भी काम करने लगीं.

आशा कार्यकर्ता सरकार के 60 से अधिक कार्यक्रमों और योजनाओं में अपनी सेवाएं दे रही हैं, जिनमें प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य कार्यक्रम, मातृ एवं शिशु सेवाएं, परिवार कल्याण, सर्वेक्षण, मलेरिया, कुष्ठ, एड्स जैसी बीमारियों के नियंत्रण, एनसीडी टीकाकरण कार्यक्रम, गर्भवती एवं महिलाओं के प्रसव बाद की देखभाल, कुपोषण नियंत्रण जैसे कार्यक्रम शामिल हैं.

आशा कार्यकर्ताओं के कामों की इस लंबी फेहरिस्त में कोरोना भी शामिल हो गया है, जिसके तहत वह चिह्नित किए गए इलाकों में रोजाना जाकर घर-घर दस्तक देकर सूचनाएं और जरूरी आंकड़ें इकट्ठा कर रही हैं.

आशा कार्यकर्ताओं का मानदेय

आशा कार्यकर्ता रोजाना लगभग आठ घंटे काम करती हैं और इनका कोई निश्चित मानदेय निर्धारित नहीं है. आशा कार्यकर्ताओं को मिलने वाले मानदेय को कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि इन्हें पॉइंट्स के आधार पर मेहनताना मिलता है यानी इनका मानदेय इंसेंटिव आधारित है.

महीने में छह पॉइंट हासिल करने पर आशा कार्यकर्ताओं को 3,000 रुपये मिलते हैं, जबकि छह पॉइंट हासिल करने में एक पॉइंट की कमी रहने पर इन्हें प्रतिमाह 500 रुपये ही मिलते हैं.

हालांकि, इसमें भी एकरूपता नहीं है, क्योंकि यह मानदेय अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है. जैसे दिल्ली में जहां इन्हें टारगेट पूरा करने पर प्रतिमाह 6,000 रुपये मिलते हैं तो बिहार में यह 3,000 रुपये ही हैं.

केंद्र सरकार ने कोविड-19 से संबंधित काम के लिए आशा कार्यकर्ताओं को अलग से प्रतिमाह 1,000 रुपये दिए जाने का ऐलान किया था, लेकिन बीते दो महीनों से उसका भी भुगतान नहीं किया गया है.

श्वेता कहती हैं, ‘यह हास्यास्पद है. मार्च, अप्रैल और मई महीने में तो सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं से नि:शुल्क काम कराया था, वो भी बेहद खतरनाक काम, जहां उन्हें संक्रमित इलाकों में आंकड़े इकट्ठा करने के काम में लगाया गया.’

उन्होंने कहा, ‘विरोध के बाद सरकार को होश आया और तब सरकार ने कोविड-19 से जुड़े काम के लिए आशा कार्यकर्ताओं को 1,000 रुपये दिए जाने का ऐलान किया, जिसे बाद में बढ़ाकर 2,000 रुपये प्रतिमाह किया गया.’

वह कहती हैं, ‘आशा कार्यकर्ताओं का काम कितना जटिल है, उसे समझना जरूरी है, घर-घर जाकर ओआरएस के पैकेट बांटने से लेकर संबंधित इलाके में गर्भवती महिला की डिलीवरी तक उसके स्वास्थ्य का लेखा-जोखा तैयार करने तक का काम इनके जिम्मे होता है.’

उनके अनुसार, ‘अगर ऐसे में कोई गर्भवती महिला किसी निजी अस्पताल में शिशु को जन्म दे दे तो आशा कार्यकर्ता के पॉइंट में कटौती कर दी जाती है, जिससे से उसे मिलने वाला मानदेय घट जाता है.’

आशा कार्यकर्ताओं के समक्ष चुनौतियां

कोरोना महामारी से पहले भी आशा कार्यकर्ताओं की स्थिति कुछ खास ठीक नहीं थी, लेकिन महामारी फैलने के बाद इनकी स्थिति दयनीय हो गई है.

जरा सोचकर देखिए, ऐसे समय में जब कोरोना की वजह से सरकार ने आमजन को घरों के भीतर रहने की हिदायत दी थी, तब आशा कार्यकर्ता दिनभर कोरोना जोखिम के बीच घर-घर जाकर आंकड़े इकट्ठा कर रही थीं.

वे कंटेनमेंट जोन में दिनभर रहकर ब्योरा तैयार कर रही थीं. सरकार इन्हें न मास्क मुहैया कराई पाई, न पीपीई किट, ग्लव्स और न ही सैनेटाइजर.

ऐसी स्थिति में जब इनके पास निश्चित वेतन नहीं है, ये अपनी तरफ से पैसा खर्च कर दूरदराज के इलाकों में जाकर सेवाएं दे रही थीं.

सेंटर फॉर इंडियन ट्रेड यूनियन (सीआईटीयू) की राष्ट्रीय सचिव एआर सिंधु द वायर  को बताती हैं, ‘आशा कार्यकर्ताओं की दिक्कतों के बारे में एक बड़ी आबादी कुछ नहीं जानती है. सरकार उनसे दिहाड़ी मजदूरों की तरह काम ले रही हैं लेकिन मानदेय के नाम पर उन्हें कुछ दिया नहीं जा रहा.’

वे कहती है, ‘उन्हें संक्रमित इलाकों में घर-घर से आंकड़े इकट्ठा करने को कहा जा रहा है लेकिन सरकार उन्हें बेसिक सुरक्षा उपकरण नहीं दे पाई. एक मास्क तक इन्हें नहीं दिया गया. सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को उनके हाल पर छोड़ दिया है.’

सिंधु बताती हैं, ‘दिल्ली के जंतर मंतर पर दो दिनों तक आशा कार्यकर्ताओं का जो विरोध प्रदर्शन हुआ था, वह जरूरी था. सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को मरने के लिए छोड़ दिया है. ये कार्यकर्ता क्या देश के नागरिक नहीं हैं.’

वे आगे कहती हैं, ‘इस सरकार को तो शर्म आनी चाहिए कि वह न्यूनतम मेहनताना तक इन्हें नहीं दे रही है. आशा कार्यकर्ताओं और सीआईटीयू के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है. एफआईआर में हम पर कोरोना फैलाने का आरोप लगाया गया है जबकि हमने प्रदर्शन के दौरान कोविड-19 नियमों का पालन किया था.’

लॉकडाउन के दौरान आशा कार्यकर्ताओं पर हमले की कई घटनाएं भी सामने आई थीं, जिसमें एक-दो गिरफ्तारियां भी हुईं, लेकिन इस मामले को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया.

कार्यकर्ताओं को कोरोना वॉरियर्स के बजाय कोरोना कैरियर माना जा रहा

महाराष्ट्र आशा वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष शंकर पुजारी द वायर  से बातचीत में कहते हैं, ‘आशा कार्यकर्ताओं की स्थिति यह है कि उनसे गुलामों की तरह काम कराया जा रहा है और भुगतान किया नहीं जा रहा है. बीते दो महीनों से कोरोना संबंधी कार्यों के लिए केंद्र सरकार की ओर से निर्धारित मानदेय आशा कार्यकर्ताओं को नहीं दिया गया है.’

वह कहते हैं, ‘सिर्फ इंजेक्शन या सर्जरी के काम को छोड़कर उनसे हर तरह के काम कराए जा रहे हैं. वे घर-घर जाकर आंकड़े जुटा रही हैं, कोविड केयर सेंटर, आइसोलेशन वॉर्ड, क्वारंटीन सेंटर्स हर जोखिमभरी जगह पर ड्यूटी दे रही हैं.’

उन्होंने कहा, ‘आशा कार्यकर्ता पूरा-पूरा दिन कंटेनमेंट जोन में खड़ी रहती हैं, किसी इलाके में कोरोना का मरीज सामने आ जाए तो उसके आगे की कार्यवाही में भी उनको भेज दिया जाता है. हमले भी उन्हीं पर हो रहे हैं, मारपीट भी उनसे की जा रही है और वे कोरोना संक्रमित भी हो रही हैं.

शंकर कहते हैं, ‘वे जहां भी जाती हैं, उन्हे कोरोना कैरियर (वाहक) के तौर पर देखा जाता है और यही वजह है कि उन पर हमले भी बढ़े हैं.’

दिल्ली की आशा कार्यकर्ता मीना कुमारी अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, ‘लॉकडाउन के दौरान दिल्ली के कई गांवों में मैंने काम किया. घर-घर जाकर लोगों के आंकड़े जुटाने के काम के दौरान अधिकतर लोगों ने हमारे लिए घर का दरवाजा ही नहीं खोला. कई बार तो ऐसा हुआ कि हमें गालियां दी जाती थीं, गांव में नहीं आने की धमकी भी दी गई थी.’

वे आगे कहती हैं, ‘जब इसकी शिकायत हमने अपने अधीनस्थ अधिकारी से की तो हमसे एडजस्टमेंट के साथ काम करने को कहा गया. एक-दो जाट बहुल गांव थे, जहां जाने से डर लगता था क्योंकि गाली-गलौच, धमकियां आम बात थीं. अपनी सुरक्षा को लेकर बना रहता था.’

सीआईटीयू की राष्ट्रीय सचिव सिंधु कहती हैं, ‘अकेले आंध्र प्रदेश में मार्च से मई महीने के बीच 15 आशा कार्यकर्ताओं की कोरोना की वजह से मौत हुई है और हर राज्यों में यह आंकड़ा बढ़ रहा है.’

आशा कार्यकर्ताओं की मांगें

आशा कार्यकर्ताओं और कई ट्रेड यूनियन ने आठ और नौ अगस्त को दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया. इनकी मांगों में आशा कार्यकर्ताओं के लिए पॉइंट सिस्टम को खत्म कर निश्चित वेतन सुनिश्चित करने, सरकारी कर्मचारियों के तौर पर मान्यता देने, बीमा राशि का बंदोबस्त करने, फील्ड वर्क के लिए उपयुक्त सुरक्षा उपकरणों का प्रबंध करना शामिल है.

महाराष्ट्र आशा वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष शंकर पुजारी का कहना है कि राज्य में आशा कार्यकर्ताओं की बुरी स्थिति को देखते हुए यूनियन ने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की है, जिस पर अभी तक सुनवाई नहीं हुई है.

हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई कि जल्द ही याचिका पर सुनवाई होगी, ताकि आशा कार्यकर्ताओं को सम्मान के साथ काम करने के साथ-साथ उनकी मेहनत के अनुरूप वेतन भी मिले, जो हर नागरिक का अधिकार है.

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