‘हमारा देश इतना महान है कि हैदर जैसी भारत-विरोधी फिल्म को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है’

साक्षात्कार: सेंसर बोर्ड अध्यक्ष के रूप में पहलाज निहलानी का ढाई साल का कार्यकाल कई तरह के विवादों में रहा. उनसे बातचीत.

साक्षात्कार: सेंसर बोर्ड अध्यक्ष के रूप में पहलाज निहलानी का ढाई साल का कार्यकाल कई तरह के विवादों में रहा. उनसे बातचीत.

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फिल्म लिपस्टिक अंडर माय बुरख़ा का नया पोस्टर (साभार: ट्विटर), फिल्म जब हैरी मेट सेजल का एक दृश्य (साभार: facebook.com/ImtiazAliOfficial) सीबीएफसी अध्यक्ष पहलाज निहलानी (फोटो: पीटीआई)

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) या सेंसर बोर्ड अध्यक्ष पहलाज निहलानी का फिल्म में कट की मांग करना, अक्सर छोटे मुद्दों पर आपत्तियां दर्ज करवाना, (हाल ही में उन्होंने एक फिल्म के ट्रेलर में इंटरकोर्स शब्द पर आपत्ति जताई थी) प्रधानमंत्री मोदी की खुलकर तारीफ करना, उनके सम्मान में एक शॉर्ट फिल्म बनाना कुछ ऐसी बातें रहीं, जिन पर उनकी आलोचना हुई.

उन्हें बेहद ‘संस्कारी’ कहा गया, एक ऐसा व्यक्ति जो समय के साथ बदलने की बजाय संकीर्ण सोच का है. द वायर  से बात करते हुए निहलानी ने अपने लिए कुछ फैसलों के बारे में बताया, साथ ही यह भी कहा कि भारतीय सेंसर बोर्ड कई देशों की तुलना में ज़्यादा उदार है.

सीबीएफसी के अध्यक्ष के बतौर ढाई साल हो गए. इन्हें कैसे देखते हैं?

सबसे पहले तो ये कहूंगा कि ये पारदर्शिता बेहतर है. पहले वाला कोई भ्रष्टाचार अब नहीं है.

किस तरह का भ्रष्टाचार?

अगर आपको याद हो तो पहले सीबीएफसी के पूर्व सीईओ राकेश कुमार के ख़िलाफ़ सीबीआई जांच हो चुकी है. ऐसा माना जाता था कि बिना रिश्वत दिए यहां कोई काम नहीं हो सकता. पहले वाला भ्रष्टाचार अब नहीं है. एक निर्माता के बतौर मैंने भी ये अनुभव किया है.

तो समय के साथ कुछ बदला है?

मैं 1967 से सीबीएफसी आ रहा हूं, पहले डिस्ट्रीब्यूटर की तरह आता था, फिर एक निर्माता के बतौर. मैंने 34 फिल्में प्रोड्यूस की हैं और 153 का डिस्ट्रीब्यूशन किया है, इसलिए मैं परेशानियां जानता हूं. बगैर पैसे दिए पिक्चर पास नहीं होती थी. मैं जानता था कि पहले यहां क्या चल रहा था, इसलिए इसे बदलना आसान था.

आज ग़लत तरीके से पैसे बनाना, फिल्म में जानबूझकर देर करना बंद हो चुका है. मुझे गर्व है कि वही पुराना स्टाफ मेरे लिए बिल्कुल अलग तरह से काम कर रहा है. आज सीबीएफसी का कॉरपोरेट माहौल पहले के मछली बाज़ार वाले माहौल से बिल्कुल अलग है.

पर सीबीएफसी अब इसके संकीर्ण रवैये को लेकर विवादों में रहता है कि दर्शकों को क्या देखना चाहिए क्या नहीं. हालिया मामला फिल्म जब हैरी मेट सेजल  का है, जहां आप फिल्म के मिनी ट्रेलर से ‘इंटरकोर्स’ शब्द हटाना चाहते थे. इस शब्द से क्या परेशानी है?

पहली बात तो ये कि मुझे कोई परेशानी नहीं है. हमने सिर्फ ये कहा था कि ये शब्द टीवी पर नहीं दिखाया जा सकता. मैं मानता हूं कि ये शब्द स्कूली किताबों में दिया जाता है, पर सीनियर क्लास में, जब बच्चे 13-14 साल के होते हैं.

अगर आप 12 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए कंटेंट को प्रमाणित कर रहे हैं, तो आपको नियमों का ध्यान रखना होता है. हमने खून-ख़राबे की वजह से बाहुबली  को U/A सर्टिफिकेट दिया था.

ब्रिटेन में 15A होता है यानी 15 साल से अधिक उम्र के लिए. वहां भी वे सेक्सुअल संदर्भ वाले और बास्टर्ड जैसे शब्द हटा देते हैं. ये ब्रिटेन, मलेशिया, ऑस्ट्रेलिया और पाकिस्तान जैसे देशों का सच है. वे हॉलीवुड फिल्मों में भी इस तरह की भाषा या हिंसा की अनुमति नहीं देते. वहां तो खून भी नहीं दिखाने दिया जाता, जो हम दिखाने देते हैं.

जिन निर्माताओं को यहां हमसे परेशानी है, उन्हें उन (देशों) के नियम मानकर ख़ुश रहते हैं और वहां फिल्में रिलीज़ करते हैं. ये पाखंड है.

बोर्ड ने फिल्म लिपस्टिक अंडर माय बुरख़ा  को यह कहते हुए पास नहीं किया क्योंकि ये एक नारीवादी नज़रिये से बनी फिल्म है, जहां कुछ औरतें अपनी सेक्सुअल पहचान तलाश रही हैं.

ये बिल्कुल जाली आरोप है. एनएच 10 को भी पहले राउंड में स्वीकृति नहीं मिली थी. फिर वे सीबीएफसी की रिवाइज़िंग कमेटी के पास गए और तब ये फिल्म पास हुई. बहुत-सी फिल्मों को पहले राउंड में प्रमाणित करने से मना कर दिया जाता है. कई बार उसमें बहुत कट होते हैं, कई बार वे रिवाइज़िंग कमेटी के पास जाते हैं, तो कभी फिल्म ट्रिब्यूनल के पास.

लेकिन अगर मैंने लिपस्टिक अंडर माय बुरख़ा को सर्टिफिकेट दे भी दिया होता, तब भी प्रकाश झा को इसे चुनौती देनी ही होती. उन्हें अपने हक़ के लिए लड़ाई करनी होती है. और इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन सीबीएफसी की इतनी नेगेटिव पब्लिसिटी क्यों करना?

चाहे वो अनुराग कश्यप हों, प्रकाश झा या मुकेश भट्ट, इन सबके पास अपनी फिल्म रिलीज़ करने के लिए बहुत वक़्त होता है. उनका मार्केटिंग प्लान होता है कि पहले हम बिना कोई रिलीज़ डेट तय किए सेंसर बोर्ड के पास जाएंगे. उसके बाद हम दावा करेंगे कि फिल्म को सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया गया है. ये सब मीडिया के लिए एक मार्केटिंग प्लान के तहत होता है. मैं ख़ुद फिल्म इंडस्ट्री से हूं और जानता हूं कि वे कैसे मीडिया को इस्तेमाल कर रहे हैं.

मेरे कार्यकाल में जितनी फिल्में आई हैं, वे सब पास हुई हैं, लेकिन हर फिल्म की अपनी अलग कहानी है. मस्तीज़ादे  और क्या कूल हैं हम, दोनों ही फिल्मों को पास करने से पहले पांच से छह बार देखा गया था पर उस पर कोई हो-हल्ला नहीं हुआ. कुछ लोग सीबीएफसी के कट्स को पब्लिसिटी के लिए इस्तेमाल करते हैं, कुछ नहीं करते.

और जहां तक लिपस्टिक अंडर माय बुरख़ा  के मिडिल फिंगर दिखाते नए पोस्टर की बात है, उसे अब तक पब्लिसिटी कमेटी से अनुमति नहीं मिली है पर ये सबके सामने है. ये नेगेटिव पब्लिसिटी है.

आपको उड़ता पंजाब  से भी कई परेशानियां थीं और फिर सेंसर सर्टिफिकेट मिलते ही फिल्म लीक हो गई.

फिल्म दिन के 11 बजे के करीब लीक हुई थी और शाम तक मेरे पास सीबीएफसी के दफ्तर की पूरी सीसीटीवी फुटेज आ गई थी. सीबीएफसी के हर एक कमरे में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, जो सब रिकॉर्ड करते हैं. ये फिल्म लीक हमारी तरफ से नहीं हुई थी.

ये भी मार्केटिंग का तरीका है. अनुराग कश्यप अपनी फिल्में अपने ही लोगों से लीक करवाते हैं. वो ये हंगामा करना चाहते हैं कि मेरी ओरिजिनल पिक्चर ये है. सीबीएफसी पर हमला करना किसी भी फिल्म की पब्लिसिटी के लिए बहुत अच्छा होता है. फिर आप मीडिया के लोग इसे हद से ज़्यादा प्रचारित कर देते हैं और मेरी छवि ख़राब हो जाती है.

मुझे सबूत दीजिये कि ऐसी कोई फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल रही हो. इसके उलट, इंडस्ट्री ने पैसा ही गंवाया है. अनुराग कश्यप और फिल्में वे जिनका हिस्सा रहे- बॉम्बे वेलवेट, हरामज़ादे या कुत्ते, जो भी उनका नाम हो- जिसने भी उनमें पैसा लगाया, उसने नुकसान ही उठाया है.

भारतीय परम्पराएं बदल रही हैं, क्या आप इन बदलावों के साथ सामंजस्य बिठा पा रहे हैं? क्या आपको अपने नज़रिये को थोड़ा और उदार नहीं करना चाहिए?

हम मॉडर्न हैं पर पश्चिमी रंग में नहीं रंगे हैं. मैं जो काम कर रहा हूं वो कई पश्चिमी देशों से ज़्यादा उदार है. हम और कितने लिबरल हो सकते हैं?

मैं आपको बाहुबली 2 का उदाहरण देता हूं- इस फिल्म का कंटेंट अच्छा था. अगर उन्होंने अपनी फिल्म को उसमें हुए कट्स के आधार पर प्रचारित किया होता, बिना अच्छे कंटेंट के शायद ही ये सफल हुई होती. दूसरा उदाहरण हैदर  का है. तब मैं सेंसर बोर्ड अध्यक्ष नहीं था. हमारा देश इतना महान है कि हैदर जैसी भारत-विरोधी फिल्म को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है. और कितना लिबरल होना चाहिए हमें?

क्या इंडस्ट्री के बदलने के साथ सीबीएफसी की ज़िम्मेदारियां भी बदली हैं?

बड़ी फिल्मों के साथ कोई परेशानी नहीं होती. जैसे दंगल  में कोई कट नहीं था, बजरंगी भाईजान  में कोई कट नहीं था, यहां तक कि जॉली एलएलबी 2 भी ठीक थी- चूंकि ये फिल्में कोर्टरूम ड्रामा थीं, तो कुछ तकनीकी मसले थे पर अश्लीलता के पैमाने पर ये ठीक थी.

मुश्किल आती है कला और फिल्म फेस्टिवल टाइप फिल्मों में, जो अलग-अलग विषयों, क्षेत्रीय पृष्ठभूमि, कहानी और सच्ची घटनाओं पर आधारित होती हैं.  वे फिल्म समारोहों में इन्हें बिना अनुमति (सेंसर सर्टिफिकेट) के दिखाते हैं, लेकिन मुश्किल इसके थियेटर रिलीज़ के समय आती है.

हमारे यहां फिल्मों को रेटिंग देने के लिए तीन ही कैटेगरी हैं- U, U/A और A. अगर कोई फिल्म इन तीनों में से किसी में फिट नहीं होती तब या तो इसे रिजेक्ट करना पड़ता है या कुछ अंश काटना पड़ता है.

मीडिया फिल्मों के बारे में केवल नेगेटिव ख़बरें ही छापता है क्योंकि अगर कोई अच्छी ख़बर देनी है, तो मीडियानेट के साथ अनुबंध करना होगा, जहां 3-4 लेखों के लिए आपको 50 लाख रुपये देने पड़ेंगे.

अगर आपको कुछ मुफ्त में छपवाना है, तब आपके पास ‘ग़लत’ ख़बर होनी चाहिए: कुछ रोमांस, कुछ नेगेटिव ख़बर इससे आपको मुफ्त की पब्लिसिटी मिलती है. प्रिंट, डिजिटल या टेलीविज़न मीडिया, कोई भी बिना किसी विवादित ख़बर के काम नहीं करते, इसीलिए सीबीएफसी के कट इतने चर्चित हो गए हैं.

आज सीबीएफसी ऐसे निर्माताओं के लिए पब्लिसिटी का प्लेटफॉर्म बन गया है, जिनके पास बड़ी स्टारकास्ट नहीं है, जिसके बारे में वो कोई चर्चाएं शुरू करवा सकें या जिनकी फिल्मों को बमुश्किल कोई ख़रीददार मिल रहा है.

सीबीएफसी ख़बरों में बना रहेगा भले ही कोई भी अध्यक्ष हो या ये किसी भी तरह चल रहा है. 82 फीसदी फिल्में बिना किसी कट के पास होती हैं पर उनके बारे में कोई बात ही नहीं करना चाहता.

आपने सीबीएफसी की प्रक्रियाओं में किस तरह के बदलाव किए हैं?

अकेले मुंबई में एक दिन में प्रोमो और तस्वीरों के लिए सैकड़ों सर्टिफिकेट जारी किए जाते हैं. हमने बिचौलियों को बिल्कुल ख़त्म कर दिया है. अगर कोई फिल्म रुकी हुई है, तो हम इस पर पूरा ध्यान देते हैं. जब हम एक बार फिल्म देख लेते हैं, तब निर्माता को अपनी फिल्म की स्थिति पता चल जाती है.

ये बिल्कुल पासपोर्ट या वीसा बनवाने की प्रक्रिया जैसा है. प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया के सपने से हमने ये पाया है. अब निर्माता को केवल आकर अपना सर्टिफिकेट लेना होता है, हमें सही किया हुआ वर्ज़न दिखाना होता है बस.

आप प्रधानमंत्री से काफी प्रभावित लगते हैं.

बचपन से ही मुझे नेताओं को देखना अच्छा लगता था. तब जब कभी जवाहरलाल नेहरू हमारे शहर आते थे, सड़कों के दोनों ओर लकड़ी के बैरिकेड लगा दिए जाते थे और हम सब उनके आने का इंतज़ार करते.

जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री भी असाधारण नेता थे. उसके बाद हमने कुछ समय के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को देखा, उनके साथ लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी को भी.

मोदी जी बहुत सरल व्यक्ति हैं और जो भी काम करते हैं, वहां अपनी पहचान छोड़ देते हैं. उनकी भाव-भंगिमा एक नेता की है. उन्होंने देश की सेवा के लिए सब कुछ क़ुरबान कर दिया, जो मुझे लगता है क़ाबिले तारीफ़ है.

पहले प्रतिष्ठित लोग मिलने पर हाथ मिलाते थे, पर प्रधानमंत्री ने लोगों को गले लगाना सिखाया, जो अभिवादन का भारतीय तरीका है.

80-90 के दशक में बतौर निर्माता आपने द्विअर्थी संवादों से भरी कई फिल्में बनाई थीं.

बैलबॉटम और चुस्त पैंट के फैशन की तरह ऐसे ट्रेंड्स आते-जाते रहते हैं. लेकिन मैं जल्द ही तीन नई फिल्में शुरू करने जा रहा हूं. मैं दिल से हमेशा एक निर्माता हूं और रहूंगा.

ख़ुद को किस तरह देखते हैं, संस्कारी, प्रगतिशील या रूढ़िवादी?

मैं भारतीय भावनाओं और पति-पत्नी, भाई-बहन, बाप-बेटे जैसे पारिवारिक रिश्तों की बहुत इज़्ज़त करता हूं. मेरी पत्नी महाराष्ट्र इक्वेस्ट्रियन (घुड़सवार) एसोसिएशन की अध्यक्ष हैं. फुर्सत में हम हमारे फार्महाउस में अपने 18 घोड़ों के साथ वक़्त बिताते हैं.

मेरे तीन बेटे हैं और मैंने कभी उन्हें किसी काम के लिए मजबूर नहीं किया. मेरी तीन पोतियां हैं, तीन बहुएं हैं जो तीन अलग-अलग समुदायों से हैं- फ्रेंच, मारवाड़ी और पंजाबी. वो मेरी बेटियों की तरह हैं. हम हर बात पर चर्चा करते हैं तब ये कैसे कह सकते हैं कि मैं रूढ़िवादी या पिछड़ा हूं. हम एक ‘हैप्पी फैमिली’ हैं- एक संयुक्त परिवार.

(प्रियंका सिन्हा झा ‘स्क्रीन’ की संपादक और ‘सुपरट्रेट्स ऑफ सुपरस्टार्स’ की लेखक हैं.)

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