महागुन सोसाइटी मामले को कैसे देखा जाना चाहिए?

महागुन सोसाइटी में हुई मज़दूर वर्ग की हिंसा तो नज़र आती है मगर इस सोसाइटी में रहने वाले संपन्न तबके द्वारा इन मज़दूरों पर की जा रही हिंसा किसी को दिखाई नहीं पड़ती.

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महागुन सोसाइटी में हुई मज़दूर वर्ग की हिंसा तो नज़र आती है मगर इस सोसाइटी में रहने वाले संपन्न तबके द्वारा इन मज़दूरों पर की जा रही हिंसा किसी को दिखाई नहीं पड़ती.

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11 जुलाई को नोएडा सेक्टर 78 स्थित महागुन मॉडर्न सोसाइटी में हुए पथराव के बाद एक महिला मजदूर को बाहर निकालती पुलिस. (फोटो: पीटीआई)

समाज के संपन्न वर्गों का एक बड़ा हिस्सा अपने से कमज़ोर लोगों के साथ रोज़ कितनी तरह से, कितने रूपों में हिंसा करता रहता है, उसका व्यवहार क्यों सामान्यतः इनके प्रति लगभग हिंसक ही बना रहता है, जिसे बस एक छोटी सी चिंगारी चाहिए, भले ही वह बुझती हुई हो कि वह भड़क उठता है.

इस पहलू पर शायद ही यह वर्ग कभी सोचना ज़रूरी समझता है. इन वर्ग की लगभग दैनिक हिंसा झेलनेवाला गरीब वर्ग इनके इस आक्रामक-हिंसक व्यवहार का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि उसे अपने पर हो रही यह हिंसा भी एक हद तक स्वाभाविक सी लगने लगती है क्योंकि उसे झेलना पेट भरने की अनिवार्यता सी है.

वह ऐसी हिंसा की भरसक उपेक्षा करने की कोशिश करता है लेकिन किसी भूले-भटके क्षण में स्थितियां जब हद से असहनीय लगने लगती हैं, प्रतिकार करना तत्काल ज़रूरी लगता है और गरीब-कमजोर वर्ग अपने पर हो रही हिंसा का जवाब देने की कोशिश करता है तो श्रेष्ठी वर्ग उसे कभी माफ नहीं करता.

और अगर कमज़ोर की इस हिंसा का स्वरूप थोड़ा सा सामूहिक हो तो फिर वह मीडिया की मदद से ऐसा तूफान खड़ा कर देता है कि पूछो मत.

वैसे इसके अनगिनत उदाहरण हमें अपने आसपास मिलते हैं मगर फिलहाल हम सबसे ताज़ा उदाहरण दिल्ली से जुड़े नोएडा का लेते हैं. वहां एक नौकरानी पर एक मालकिन द्वारा की गई हिंसा और एक रात तक उस कामगार का पता न चलने के कारण ऐसे हालात पैदा हो गए कि उसका जवाब गरीब वर्ग ने भी आक्रामकता से ही देने की कोशिश की.

जिन्होंने उन दो दिनों का अख़बार न पढ़ा हो या जो दिल्ली-नोएडा से बाहर देश के अन्य क्षेत्रों में रहते हैं, उनकी जानकारी के लिए इस घटना के विवरण देना जरूरी है.

11 जुलाई से घटना शुरू होती है. नोएडा के सेक्टर 78 में स्थित अत्याधुनिक महागुन मॉडर्ने अपार्टमेंट के 12 नंबर फ्लैट में तीन जनों का एक सेठी परिवार रहता है. पति मितुल (35) मर्चेंट नेवी में कमांडर बताया जाता है, पत्नी हर्षिता (32) एक प्ले स्कूल चलाती हैं और उनका सात साल का बेटा है आर्यन.

मर्चेंट नेवी में होने के कारण शायद मितुल तो काफी समय बाहर ही रहते होंगे. उस सुबह आठ बजे दो कामवलियां लगभग एकसाथ उस घर में काम करने आती हैं.

इनमें से एक खाना बनाती है- ममता बीबी और दूसरी ज़ोहरा बीबी हैं जो झाड़ू-पोंछा लगाती हैं. घर की मालकिन उनके कुछ देर से आने पर चीखती-चिल्लाती है, कुछ उल्टा-सीधा भी कहती हैं.

इस बीच वह दोनों पिछले दो महीनों से नहीं मिलीं अपनी तनख्वाह मांगती हैं (12-12 हज़ार रुपये) तो उनसे कहा जाता है कि मुझे पहले ही तुम्हारी वजह से देरी हो चुकी है, तुम लोग शाम को पांच बजे आना और पैसे ले जाना.

ज़ोहरा के मुताबिक मालकिन उससे उसी समय यह भी कह देती है कि शाम को पैसे ले जाने के बाद दोबारा अपना मुंह मत दिखाना. संयोग से उस दिन शाम को काफी बारिश हो जाती है तो ममता नहीं आ पातीं.

ज़ोहरा बाकी पांच घरों का काम निपटाने के बाद तय समय पर फ्लैट नंबर 12 पर पहुंच जाती है. मालकिन उससे थोड़ा-बहुत कुछ काम करने को कहती हैं, वह कर देती हैं.

इस बीच सच्चाई जो भी हो, वह ज़ोहरा पर पर्स से रुपये चुराने का आरोप लगा देती हैं. ज़ोहरा के मुताबिक वह इसके लिए मारपीट करती हैं.

एक अखबार के अनुसार, मालकिन आरोप लगाती हैं कि उनके पर्स के दस हज़ार ज़ोहरा ने चुराए हैं और दूसरे अख़बार के अनुसार, मालकिन 17 हज़ार रुपये चुराने का आरोप लगाती हैं और जोहरा इसमें से दस हज़ार रुपये चुराने की बात मंज़ूर कर लेती है.

शायद ज़ोहरा पहले चोरी के आरोप से इंकार करती है लेकिन जब बाद में मालकिन कहती हैं कि उसकी चोरी सीसीटीवी कैमरे में दर्ज है तो वह स्वीकार कर लेती है कि हां उसने ही दस हज़ार रुपये चुराए हैं.

इस पर मालकिन कहती हैं कि वह इसकी शिकायत सोसाइटी के पदाधिकारियों से करेंगी. ज़ोहरा मालकिन से कहती हैं कि आप मेरी शिकायत मत कीजिएगा वरना बाकी घरों का काम भी छूट जाएगा. आप मेरी तनख्वाह में से दस हज़ार रुपये काट लीजिए.

एक अखबार के अनुसार, मालकिन यह बात मान लेती हैं. दूसरे अख़बार के अनुसार मालकिन कहती हैं कि मैं शिकायत ज़रूर करूंगी क्योंकि तुमने मेरा विश्वास तोड़ा है. वह दुपट्टा लेने अंदर जाती हैं.

जोहरा से वह वहीं रुकने को कहती हैं लेकिन वह पकड़े जाने के डर से घबराहट में मोबाइल वहीं छोड़कर भाग जाती है. उधर ज़ोहरा के अनुसार वह छोड़ कर नहीं आती बल्कि उसका मोबाइल छीन लिया जाता है.

शाम हो जाने के बाद भी ज़ोहरा वापस नहीं पहुंचतीं तो उनके पति अब्दुल सत्तार घबराते हैं. महागुन अपनी बीवी को ढूंढने रात करीब आठ बजे पहुंचते हैं.

चौकीदार कामकाजी लोगों के लिए अलग बनाए रजिस्टर को देखकर बताता है कि ज़ोहरा के आने का समय तो यहां दर्ज है लेकिन जाने का नहीं.

दो चौकीदार उनके साथ बारह नंबर फ्लैट पर जाते हैं. वहां मालकिन कहती हैं कि दस हज़ार रुपये की चोरी करके वह भाग गई. उसके बाद क्या हुआ, उन्हें नहीं मालूम.

पति घबराकर पुलिस को सौ नंबर पर फोन करता है. दो घंटे बाद पुलिस आती है. फिर अब्दुल सत्तार के साथ उसी 12 नंबर के फ्लैट में जाती है. नतीजा कुछ नहीं निकलता.

सत्तार हताश होकर वापस अपनी झुग्गी-झोपड़ी में लौट जाते हैं, वहां के लोगों से विचार-विमर्श करते हैं. उन्हें सलाह मिलती है कि सुबह-सुबह हम सब महागुन पर हल्ला मचाए तो शायद कोई नतीजा निकले.

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महागुन सोसाइटी में हुआ उपद्रव. (फाइल फोटो: पीटीआई)

एक अख़बार के अनुसार, कई लोग सुबह चार बजे ही पहुंच जाते हैं और बाकी बाद में आते हैं. एक अखबार के मुताबिक छह बजे तक इनकी संख्या 150 तक पहुंच जाती है, दूसरे के अनुसार 300 तक. करीब छह बजे ज़ोहरा बीबी को चौकीदारों के साथ महिला पुलिस जैस-तैसे उठाकर भारी सामान की तरह बाहर लाती है.

जोहरा के पति के अनुसार उसके कपड़े फटे होते हैं, वह ठीक से बोल भी नहीं पातीं. फिर भी वह बताती हैं कि उन पर चोरी का आरोप लगाकर मालकिन ने उन्हें मारा-पीटा, उनका मोबाइल छिन लिया.

इस पर भीड़ उत्तेजित हो जाती है. महागुन के दरवाज़े पर तोड़फोड होती है और पुलिस तथा चौकीदारों के बावजूद वे मालिकन के फ्लैट पर पहुंच जाते हैं.

आरोप है कि लोग फ्लैट का शीशा वगैरह तोड़कर अंदर घुस जाते हैं. मालकिन और उसका बेटा डरकर बाथरूम में घुस जाते हैं.

घटना के बाद दोनों तरफ से प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होती है. महागुन की तरफ से अलग-अलग तीन और ज़ोहरा की तरफ से कुल एक.

उसी दिन महागुन सोसायटी के सदस्यों की एक बैठक में कुछ फौरी निर्णय लिए जाते हैं कि अगले कुछ दिनों में होने वाली एक बैठक तक सभी भरे हुए 2000 फ्लैट में किसी कामवाले-कामवाली को अंदर नहीं आने दिया जाएगा, जिनकी संख्या करीब 500 है.

इस बीच एक उपसमिति सुझाव देती है कि काम करने वालों से पहले कुछ ज़मानत राशि वसूल की जाए. एक सुझाव यह भी आता है कि इन सबका पुलिस वैरिफिकेशन करवाकर ही फिर आने दिया जाए.

उधर पुलिस भी महागुन के सदस्यों द्वारा कामकाज करने वालों को बांग्लादेशी बताए जाने पर इनकी नागरिकता की जांच शुरू करने की बात करती है जबकि पुलिस का एक अधिकारी कम से कम ज़ोहरा को भारतीय नागरिक पहले ही बता चुका है.

एक अखबार के अनुसार, महागुन से करीब एक किलोमीटर दूर रहने वाले ये लोग पश्चिम बंगाल के कूचबिहार ज़िले के रहने वाले हैं, जिनमें से कई एक-डेढ़ दशक पहले यहां आकर बस गए थे.

जितना कूचबिहार उनका है, उतना ही वे नोएडा को भी अपना मानते हैं. वहां की महिलाएं नोएडा सेक्टर के एक थाने पर प्रदर्शन करके अपना भारतीय निर्वाचन कार्ड और आधार कार्ड सबको दिखाती हैं.

ये तथाकथित बांग्लादेशी जहां रहते हैं, उसका वर्णन यही है कि ये छोटी सी झुग्गियों में रहते हैं, जिसके ऊपर टीन की छत है, जिसमें गर्मियों में रहना कैसा होता होगा, इसकी कल्पना भी बाकी लोग अपनी सारी संवेदनशीलता के बावजूद नहीं कर सकते.

घरों में शौचालय नहीं हैं. रास्ते, रास्ते जैसे नहीं हैं. चारों तरफ कीचड़ है. उसी के बीच अमानवीयता को सहते हुए न जाने किस उम्मीद में 500 रुपये महीने किराया देकर ये रहते हैं.

यहाँ रहने का एक ही फायदा उन्हें अभी तक रहा है कि यह जगह काम की जगह से करीब एक ही किलोमीटर दूर है यानी पास है.

महागुन सोसाइटी में होने वाली बैठक में क्या होगा, नहीं कहा जा सकता लेकिन शुरुआती संकेत यही हैं कि सेठी परिवार को किसी तरह का दोषी नहीं माना जाएगा. न उस परिवार के दावों की जांच की जाएगी, न प्रतिदावों की.

यह भी फिलहाल जांच का विषय शायद नहीं माना जा रहा कि क्या सेठी परिवार ने वाकई दोनों कामवालियों को पिछले दो महीनों से वेतन नहीं दिया?

जिस घर का पुरुष मर्चेंट नेवी में कैप्टन हो और पत्नी प्ले स्कूल चलाती हो, क्या उसके वासी इतनी बुरी हालत में हो सकते हैं कि अपने काम करने वालो को दो-दो महीने तक तनख्वाह देने के काबिल भी न हों?

क्या उनके लिए हर महीने इनके लिए बारह हज़ार रुपये जुटाना मुश्किल था? तब क्यों समय पर उन्हें उनकी मज़दूरी नहीं दी गई?

यह जांच करने की उत्सुकता भी शायद नहीं है कि जब ज़ोहरा अपनी मज़दूरी लेने पहुंचती है, तब उस पर चोरी का जो आरोप मढ़ा जाता है, वह उसका मेहनताना न देने का एक बहाना था या वास्तव में चोरी हुई थी?

जो भी आरोप ज़ोहरा पर थे, क्या उनके बारे में पदाधिकारियों को सूचित किया गया था और किया गया था तो मालकिन ने ज़ोहरा को मारने-पीटने की जरूरत अगर समझी तो क्यों?

क्या उसे पदाधिकारियों के हवाले करके इसका इंतज़ार नहीं किया जा सकता था कि वे क्या-कैसे इस मामले से निपटते हैं? क्या सचमुच ही ज़ोहरा को मारा-पीटा गया था और क्या सचमुच ही सेठी परिवार के घर के अंदर सीसीटीवी कैमरा लगा है, जिसके आधार पर ज़ोहरा पर आरोप लगाया गया? तो क्या उसमें यह मारपीट भी दर्ज है?

और सारी समस्या की जड़ में मालकिन हैं या घर की साफ सफाई करने वाली ज़ोहरा? ये साधारण सवाल ज़रूर उन बुद्धिमान महागुनवासियों में से कम से कम कुछ के दिमागों में आए होंगे लेकिन फिलहाल शायद यह सोचकर इनकी अनदेखी की जा रही होगी कि उनका कर्तव्य अपनी एक सदस्य के प्रति है, न कि संपूर्ण न्याय करना उनका उद्देश्य है.

उनका उद्देश्य कामकाजी लोगों को उनकी ‘असली’ जगह दिखाना है, न कि अपनी सदस्य को घेरने की कोशिश करना. ऐसा करने से कामगारों का ‘हौसला’ बढ़ेगा और ‘हौसला’ हमारा बुलंद रहना चाहिए, उनका नहीं.

उन्हें मज़दूर वर्ग की सामूहिक हिंसा तो हिंसा नज़र आएगी मगर अपनी यह हिंसा नहीं. कह गया है न वैदिक हिंसा, हिसा न भवति. यह हिंसा वैदिक हिंसा है, जिसके कई कोण सीधे और टेढ़े ढंग से हिंदू सांप्रदायिकता से भी जुड़ते हैं.

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महागुन सोसाइटी में हुआ उपद्रव. (फाइल फोटो: पीटीआई)

इधर महागुन की कामवालियों के काम करने पर रोक लग गई है, उधर बुधवार को आधी रात को नोएडा पुलिस झुग्गी-झोपड़ी पहुंच जाती है.

वह ज़ोहरा के अवयस्क बेटे समेत 58 लोगों को पूछताछ के लिए थाने ले जाती है और उनमें से 13 को गिरफ्तार कर लेती है. जो कि दिहाड़ी मज़दूर हैं. जोहरा का बेटा संयोग से इसमें शामिल नहीं है. अगली सुबह उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है, जो इन्हें न्यायिक हिरासत में भेज देते हैं.

इधर कामवालियों का काम बंद है. उधर उनमें से 13 मज़दूर जेल में बंद होने के कारण काम पर नहीं जा सकते. भयानक यातना का समय है.

मामला अदालत में गया है तो लंबा खिंचेगा. इधर झुग्गी-झोपड़ी बस्ती की औरतें, जिनकी आमदनी के सभी ज़रिये ख़त्म हो चुके हैं, उनके पास इतना पैसा नहीं है कि अपने पक्ष में वे कोई वकील खड़ा कर सकें. इधर उनके ख़िलाफ़ यह जांच भी शुरू है कि इनमें कौन बांग्लादेशी है.

यह फैसला आप स्वयं कर सकते हैं कि इस हालत में क्या हो सकता है. एक तरफ भूख, गरीबी, बीमारी, मौत और पलायन है, दूसरी तरफ ताकतवरों की फौज है उनके महंगे वकीलों समेत.

जिस समाज में आर्थिक और सामाजिक असंतुलन बहुत गहरा हो तो पुलिस और कानून भी अंततः ताकतवरों की ओर झुक जाता है. शायद मीडिया की दिलचस्पी भी सोसाइटी की होने वाली बैठक के बाद ख़त्म हो जाएगी, जब सोसाइटी के सदस्य कोई एकमत फैसला लेंगे. उस दिन की रिपोर्टिंग शायद एकतरफा हो. जिसकी कुछ-कुछ छाया तो अभी से पड़ने लगी है.

इस शोर-शराबे के बीच यह भुला दिया जाएगा कि किस तरह नए बन रहे बड़े-बड़े फ्लैट समूहों में काम करने वाली तमाम औरतों ने अपने साथ अमानवीय व्यवहार की शिकायत की है.

किस तरह माला नामक एक कामगार ने कहा है कि वह एक घर में दिनभर बुजुर्गों और बच्चों की देखभाल करती है लेकिन उसके काम की तारीफ करना तो दूर, ज़रा-ज़रा सी बात नाराज़ होकर उससे कुछ भी अंट-शंट बक दिया जाता है.

ज़ोहरा के पति ने भी कहा था कि किस तरह उसकी बीवी के साथ सेठी परिवार में पहले से ख़राब व्यवहार होता रहा है.

इसके अलावा यह बात भी आसानी से भुला दी जाएगी कि आजकल ऐसे जितने भी हाउसिंग काम्प्लेक्स खड़े हो रहे हैं, वहां कामकाज करने आने वाले लोगों के आने-जाने के दरवाज़े अलग होते हैं, लिफ्ट भी अलग होती है उनका बाथरूम, उनका गिलास, उनकी प्लेट सब अलग होती है.

किस-किस तरह से उन्हें गरीब कामगार होने के कारण असंख्य तरीकों से अपमानित किया जाता है और रोज़-रोज़ अपमान का घूंट पीकर वे काम करने आ जाते हैं क्योंकि जाएं भी कहां?

ये और भी बहुत से अन्य सवाल हैं जो कभी हमारे समाज के तथाकथित भद्रवर्ग को नहीं कचोटते. कोई इस चुभन को महसूस करता भी है तो सामूहिक निर्णय की आक्रामक आवाज़ उसे दबा देती है.

ज़रूर महागुन में भी ऐसे लोग होंगे लेकिन शायद आक्रामक बहुमत के आगे अपनी आवाज़ बुलंद करने का हौसला वे भी न कर सकें क्योंकि उन्हें इसी समाज के बीच और शायद ऐसे ही फ्लैटों, इन्हीं फ्लैटों में अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ारनी है. जहां तक काम करने वाले लोगों का सवाल है, वे तो आते-जाते रहते हैं. उनकी चिंता क्या और क्यों?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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