दिल्ली दंगों की साज़िश तो ज़रूर रची गई, लेकिन वैसी नहीं जैसी पुलिस कह रही है

फरवरी महीने में हुए दंगे और उसके बाद हुई 'जांच' का मक़सद सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहराना है, जिससे उनके आंदोलन को बदनाम किया जा सके. साथ ही भविष्य में ऐसा कोई प्रदर्शन करने के बारे में आम नागरिकों में डर बैठाया जा सके.

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(फोटो: पीटीआई)

फरवरी महीने में हुए दंगे और उसके बाद हुई ‘जांच’ का मक़सद सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहराना है, जिससे उनके आंदोलन को बदनाम किया जा सके. साथ ही भविष्य में ऐसा कोई प्रदर्शन करने के बारे में आम नागरिकों में डर बैठाया जा सके.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

(यह लेख फरवरी, 2020 में हुई दिल्ली हिंसा पर लिखी गई पांच लेखों की श्रृंखला का पांचवा और अंतिम भाग है. पहला और दूसरातीसरा  और चौथा भाग यहां पढ़ सकते हैं.)

दंगों के दौरान जमीन से रिपोर्टिंग कर रहे और सच को सामने लाने का काम कर रहे मीडिया के एक हिस्से पर जिस तरह से हमले हुए वह फरवरी, 2020 में दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के सबसे परेशान करने वाले पहलुओं में से एक है.

दो मलयाली चैनलों- एशिया नेट न्यूज और मीडिया वन को निशाना बनाया गया. केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय ने इनके प्रसारण पर 6 मार्च को शाम 7: 30 बजे से 8 मार्च को शाम 7: 30 बजे तक 48 घंटे की पाबंदी लगाने का आदेश दिया.

सूचना प्रसारण मंत्रालय ने 25 फरवरी को एशियानेट न्यूज एंकर/संवाददाता द्वारा की गई जिन टिप्पणियों का हवाला दिया, उनमें से कुछ निम्नवत हैं :

‘ बीते कल की हिंसा आज सुबह भी जारी है. हिंदुओं के एक समूह द्वारा जय श्रीराम और मुस्लिमों द्वारा आजादी के नारे लगाने के बाद हिंसा ने सांप्रदायिक बलवे का रूप ले लिया.

सड़क पर चल रहे राहगीरों को ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाने पर मजबूर किया गया. मुस्लिमों पर बेरहमी के साथ हमला हुआ है. केंद्रीय गृह मंत्रालय का केंद्रीय बलों की 33 कंपनियां (करीब 4, 500 सशस्त्र जवान) तैनात करने का दावा है, लेकिन फिर भी इलाके में हिंसा जारी है. केंद्र इस हिंसा पर कुछ घंटों में काबू पा सकता है, लेकिन फिर भी अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है…

हिंसा पर काबू पाने के लिए सेना को तैनात किया जा सकता है, लेकिन ऐसा कोई फैसला नहीं लिया गया है… दंगाग्रस्त इलाकों में हालात बदतर होते जा रहे हैं.’

इसी तरह सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा 25 फरवरी के प्रसारण में मीडिया वन के एंकर/संवाददाता द्वारा की गई जिन टिप्पणियों का हवाला दिया, उनमें से कुछ इस प्रकार थेः

‘ऐसा लगता है कि उपद्रवियों और पुलिस में मिलीभगत है…

जाफराबाद में भाजपा नेता का भड़काऊ भाषण हिंसा की वजह बना और ऐसा लगता है कि उपद्रवी सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों पर निशाना बनाने के लिए तैयारी के साथ आए थे.

दिल्ली पुलिस हेट स्पीच के लिए एफआईआर दायर करने में नाकाम रही है…लेकिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है हिंसा को रोकने में दिल्ली पुलिस की अक्षमता. कई इलाकों में पुलिस ने उपद्रवियों को हथियारों के साथ खुला घूमने और हमले और आगजनी करने में मदद पहुंचाई.’

यहां यह बताना मुनासिब होगा कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एशियानेट न्यूज या मीडिया वन पर फर्जी खबरों का प्रसारण करने का आरोप नहीं लगाया.

इन दोनों न्यूज चैनलों का एकमात्र कसूर यह था कि उनके द्वारा दिखाई जा रही खबरें दिल्ली दंगों के सरकारी नैरेटिव के बिल्कुल उलट थीं.

दोनों चैनलों पर गैरजरूरी प्रतिबंध के खिलाफ विरोध को देखते हुए मंत्रालय ने 6 मार्च, 2020 के अपने आदेश को एक तरह से वापस ले लिया और दोनों चैनल पाबंदी लगने के 14 घंटे के भीतर ऑन एयर हो गए थे- एशिया नेट 7 मार्च को आधी रात के बाद 1: 30 बजे और मीडिया वन 9: 30 बजे सुबह तक.

मध्यरात्रि की सुनवाई

दंगा/कत्लेआम ग्रस्त इलाकों में खराब हो रहे हालात को लेकर दो मलयालयम न्यूज चैनलों की रपटों- ‘केंद्र चंद घंटों के भीतर हिंसा पर काबू पा सकता है, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है (एशिया नेट न्यूज) और ‘ऐसा लगता है कि उपद्रवी और पुलिस की आपस में मिलीभगत है (मीडिया वन) जिसके कारण उन्हें सूचना-प्रसारण मंत्रालय का कोपभाजन बनना पड़ा, की सटीकता की तस्दीक एक उसी समय हुई एक अन्य घटना से होती है.

जिन हालातों में और जिस तरह से 26 फरवरी को न्यू मुस्तफाबाद के अल-हिंद अस्पताल के हालातों के आलोक में जस्टिस एस. मुरलीधर और जस्टिस अनूप जयराम भम्भानी की सदस्यता वाली दिल्ली हाईकोर्ट की पीठ आधी रात के बाद 00: 30 बजे गठित की गई, वह 25-26 की रात को दंगे/कत्लेआम ग्रस्त इलाकों में हालात की गंभीरता के बारे में बताने के लिए काफी है.

दंगाई गंभीर रूप से जख्मी लोगों को समुचित इलाज के लिए बेहतर अस्पतालों में नहीं ले जाने दे रहे थे.

जख्मी लोगों को अल-हिंद से निकालकर उपयुक्त सरकारी अस्पताल में भर्ती कराने के लिए हाईकोर्ट का आदेश आने तक पुलिस का इस मामले पर हाथ पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना, पुलिस के आचरण के बारे मे बताने के लिए काफी है.

यहां तक कि दंगों के सरकार के खिलाफ साजिश होने के दावे को मजबूती देने के लिए गृह मंत्रालय को सौंपी गई सीएफजे की रिपोर्ट में भी यह तथ्य स्वीकार करना पड़ा :

‘…एडवोकेट सुरूर मंदर के फोन कॉल पर दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस एस. मुरलीधर और जस्टिस अनूप जे. भम्भानी की सदस्यता वाली डिविजनल बेंच ने 26 फरवरी को मध्यरात्रि के बाद 12: 30 बजे मुरलीधर के आवास पर सुनवाई की और पुलिस को जख्मी लोगों को सरकारी अस्पताल तक सुरक्षित पहुंचाने और उनका आपातकालीन उपचार सुनिश्चित कराने का निर्देश दिया.

बेंच ने न्यू मुस्तफाबाद के अल हिंद अस्पताल के डॉक्टर अनवर से बात की, जिन्होंने बताया कि वे 25/02/2020 को शाम 4 बजे से ही दो शवों को संभालने और 22 जख्मी लोगों को उचित मेडिकल उपचार दिलाने के लिए पुलिस की मदद का इंतजार कर रहे थे, लेकिन उन्हें इसमें कोई कामयाबी नहीं मिली.’ [पृ. 31]

संक्षेप में कहें, तो फरवरी, 2020 के कत्लेआम के दौरान दिल्ली पुलिस की पक्षपातपूर्ण भूमिका- जो उसने निभाई या जिसके लिए उसे मजबूर किया गया- को लेकर काफी सबूत हैं.

मृत्यु के 53 ज्ञात मामलों के अलावा, पुलिस का कहना है कि 473 लोग घायल हुए. आगजनी और तोड़फोड़ का नतीजा सैकड़ों घरों, दुकानों और गाड़ियों के नष्ट होने और अन्य संपत्तियों के नुकसान के तौर पर निकला.

इसका मतलब है कि पीड़ितों की एक बड़ी संख्या को समुचित मुआवजा दिए जाने और विस्थापितों का सही तरीके से पुनर्वास कराने की जरूरत है.

इसके अलावा, पीड़ितों में सबसे ज्यादा संख्या अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों (जिन्हें सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों का पर्याय मान लिया गया है) की है.

शिनाख्त किए गए 53 मृतकों में से 40 मुसलमान और 13 हिंदू थे. जिस तरह की धार्मिक इमारतों को नष्ट किया गया (14 मस्जिद और एक दरगाह, लेकिन मंदिर एक भी नहीं) वह भी निशाना बनाकर की गई हिंसा का संकेत देता है.

पांच भागों की इस लेख श्रृंखला का मकसद सीएए-विरोधियों या जैसा कि गृह मंत्रालय को सौंपी गई दो फैक्ट फाइंडिंग रपटों का कहना है, ‘वामपंथी-जिहादी’ तत्वों द्वारा रची गई साजिश से जन्म लेने वाले हिंदू-विरोधी दंगे (जैसा दिल्ली पुलिस का आरोप है) का लेखा-जोखा पेश करना और 23 से 26 फरवरी 2020 के दरमियान दिल्ली पुलिस की भूमिका की तफ्तीश करना था.

पुलिस के बयानों की सूक्ष्म पड़ताल और मीडिया संस्थानों द्वारा मुहैया करायी गई जमीनी हालात की जानकारी, दिल्ली पुलिस द्वारा सामान्यतः निभाई गई या मजबूरीवश निभाई गई सवालिया भूमिका का सबूत देती है.

अंत में कोई यह निष्कर्ष निकाले बगैर नहीं रह सकता है कि पुलिस (और जीआईए और सीएफजे की फैक्ट फांइंडिंग रपटों) द्वारा पूरी तरह से अप्रमाणिक आरोपों पर आधारित जो पक्षपातपूर्ण और विकृत नैरेटिव पेश किया जा रहा है उसका एक ही मकसद है- सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को राष्ट्रविरोधी तत्वों के तौर पर बदनाम करना और उन्हें दंगे फैलाने का जिम्मेदार ठहराना.

गुप्त योजना

जिस तरह से दिल्ली पुलिस के विभिन्न बयान और आरोप पत्र सीएए प्रदर्शनकारियों को दंगों को भड़काने का दोषी ठहराते हैं और ये दावा करते हैं कि उन्होंने इसकी योजना बनाई थी, वह आसाधारण है. जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है.

हां, सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों द्वारा जाफराबाद में सड़क को बंद करना गलत था, लेकिन फिर भी यह एक शांतिपूर्ण धरना था- यह एक ऐसा मामला था, जिससे दिल्ली पुलिस आसानी से निपटा सकती थी.

लेकिन इसकी जगह दिल्ली पुलिस ने न केवल भाजपा नेताओं द्वारा इकट्ठा किए गए सीएए समर्थकों को सीएए विरोधी धरनास्थल के काफी करीब जवाबी धरना देने की इजाजत दी, बल्कि भाजपा के कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण के दौरान मूकदर्शक बनकर खड़ी रही, जिसने तत्काल उनके समर्थकों की भावनाओं को हवा देने का काम किया.

इसके अलावा, जैसा कि हमने भाग 1 में देखा, दिल्ली पुलिस की इंटेलिजेंस विंग ने कम से कम छह बार दिल्ली पुलिस मुख्यालय को हिंसा को फैलने से रोकने के लिए ज्यादा सुरक्षा बल तैनान करने की जरूरत को लेकर आगाह किया था- लेकिन पुलिस मुख्यालय और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस चेतावनी की सुविधाजनक ढंग से उपेक्षा कर दी.

सीएए समर्थकों द्वारा आसानी से सीएए के समर्थन में धरना देने के लिए किसी अन्य जगह का चुनाव किया जा सकता था, अगर उनका इरादा सीएए-विरोध प्रदर्शनकारियों से सीधे दो-दो हाथ करने का नहीं था.

लेकिन इसके उलट उनके द्वारा सीएए विरोधी धरने के नजदीक एक जगह का चुनाव करना, लड़ाई के लिए उकसाने के उनके इरादे का ऐलान था.

अगर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इंटेलिजेंस रिपोर्ट की चेतावनी के हिसाब से हिंसा भड़कने की आशंका वाली जगह पर पर्याप्त संख्या में रैपिड एक्शन फोर्स की सही समय पर तैनाती कर दी होती, तो सीएए समर्थक और सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव को टाला जा सकता था.

लेकिन हुआ यह कि सीएए समर्थक और सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव शुरू होने पर संख्या बल में कम और अपर्याप्त तरीके से तैयार दिल्ली पुलिस महज मूकदर्शक बनकर रह गई.

जब एक अपर्याप्त तरीके से तैयार और संख्या में कम पुलिसकर्मियों ने हस्तक्षेप करने का दिखावा भी किया, तो वे दो संघर्षरत समूहों के बीच पिसकर रह गए. इसी हालात में कई पुलिसकर्मी जख्मी हुए और एक- हेड कॉन्सटेबल रतन लाल- पर हमला किया गया और जख्मी होने के बाद उनकी मृत्यु हो गई.

यह बात समझ से परे है कि एक पुलिसकर्मी की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद भी और कुछ वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के चोटिल होने के बावजूद केंद्रीय गृह मंत्रालय हालात पर काबू पाने के लिए पर्याप्त संख्या में सुरक्षा बल भेजने से क्यों कतराता रहा.

ये तथ्य एक सुनियोजित अशांति की ओर इशारा करते हैं. हिंसा का बढ़ना दुनियाभर में अपने शांतिपूर्ण और समावेशी चरित्र के लिए अच्छी खासी पहचान बना चुके सीएए विरोधी आंदोलन को कुचलने का एक अच्छा मौका होता.

यह आंदोलन मोदी सरकार की साख में बट्टा लगा रहा था. हालांकि गृह मंत्रालय के पास ड्रोनों के इस्तेमाल के जरिये जमीन के हालातों की सटीक जानकारी लेने की क्षमता थी, लेकिन असल में हुआ यह कि ‘सीएए समर्थकों’ को 82 घंटे (दोपहर 2 बजे से 26 फरवरी की मध्यरात्रि तक) के लिए जो मन में आए, करने की खुली छूट दे दी गई.

उपद्रव करने वाले ‘सीएए समर्थक’, ‘बाहरी’ लोग थे. पूरी संभावना है कि उन्हें दिल्ली के बाहर से जमा किया गया था.

प्रभजीत सिंह द्वारा कारवां पत्रिका में की गई रिपोर्ट के मुताबिक दंगा पीड़ितों ने कम से कम दो उल्लेखनीय ‘बाहरियों’ के नाम लिए हैं : भाजपा नेता और उत्तर प्रदेश के बागपत से संसद सदस्य सत्यपाल सिंह, जिन्होंने इससे पहले मुंबई में पुलिस कमिश्नर के तौर पर काम किया था, और लोनी से विधायक नंदकिशोर गुज्जर.

यह बात भरोसे के लायक नहीं है कि उनके समर्थक साथ नहीं आए होंगे. जहां, इन बाहरी लोगों को लेकर दिल्ली पुलिस की जांच में ज्यादा कुछ नहीं निकला है, वहीं दिल्ली पुलिस अधिक से अधिक सीएए विरोधी आंदोलनकारियों को दंगे भड़काने वाले के तौर पर फंसाने के काम में जुटी हुई है.

सरकार की आंखों की किरकिरी बना सीएए विरोधी आंदोलन

इसमें कोई शक नहीं है कि देशभर में सीएए विरोधी आंदोलन का प्रसार गृह मंत्रालय के लिए गंभीर परेशानी का सबब बन गया था.

जहां एक तरफ इसके द्वारा सीएए विरोधी आंदोलन पर ‘राष्ट्रविरोधी’ का ठप्पा लगाने की कोशिश की गई वहीं इसने सीएए के पक्ष में सकारात्मक माहौल बनाने का एक सुनियोजित और व्यापक अभियान भी चलाया, जिसके तहत इस बात को बार-बार दोहराया गया कि सीएए में कुछ भी भेदभावपूर्ण नहीं है.

नागरिकता संशोधन अधिनियम ‘मुस्लिमों’ के अलावा दिसंबर, 2014 से पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आने वाले सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता का अधिकार देता है.

इस अधिनियम के सहारे नागरिकता प्रदान करने के लिए धर्म को एक आधार के तौर पर इस्तेमाल किया गया, जो साफतौर पर भेदभावपूर्ण और इसलिए असंवैधानिक है, क्योंकि अनुच्छेद 14 में यह स्पष्ट कहा गया है कि ‘राज्य भारत की सीमा के भीतर किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा.’

यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि 2014 से पहले भारत प्रवास करने वाले मुस्लिम मूल के लोगों को सिर्फ और सिर्फ धर्म के आधार पर कानून के समान संरक्षण से वंचित किया जा रहा है- जो भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक है.

इसके अलावा, गृहमंत्री द्वारा वर्तमान रूप में प्रस्तावित नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर)-उनके वर्तमान रूप में- को लेकर दिए गए बयानों ने भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह के मन में गहरी चिंता को जन्म दिया कि इन उपायों से भारत में ‘मुस्लिम’ मूल के सभी लोगों की हैसियत, अधिकारों और सुविधाओं पर नकारात्मक असर पड़ेगा.

क्योंकि इनमें से कई की नागरिकता को इस सतही आरोप के आधार पर अमान्य कर दिया जायेगा कि वे पाकिस्तान, अफगानिस्तान या बांग्लादेश से प्रवास करके नहीं आए होने को साबित नहीं कर पाए.

भारत की राजनीतिक मंथन की इस व्यापक पृष्ठभूमि में ही शांतिपूर्ण सीएए-विरोधी आंदोलन की शुरुआत की गई, जिसका नेतृत्व मुख्यतौर पर महिलाओं द्वारा किया गया, जिसने अपने समावेशी चरित्र के कारण समाज के सभी हिस्सों को आकर्षित किया.

इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि अपने देश में समस्याएं खड़ी करने वाले शरारती तत्वों की कोई कमी नहीं है.

हिंदुत्ववादी समूह और मुस्लिमों में उनके भाई-बंधु एक ही वैचारिक सिक्के के दो पहलू हैं, जो अपने फिरकापरस्त हितों को साधने के लिए समाज के तानेबाने को नष्ट कर सकते हैं. इनके कुचक्रों से सावधान रहने की जरूरत है.

लेकिन जिन शक्तियों पर कानून-व्यवस्था का जिम्मा है, जो सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती हैं, अगर वे और कहीं नहीं राष्ट्रीय राजधानी में भीषण हिंसा के सामने मूकदर्शक बन कर खड़ी रहें, तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए?

23-26 फरवरी के दरमियान दंगा/कत्लेआम ग्रस्त इलाकों के निवासियों द्वारा मदद की गुहार लगाने के लिए किए गए करीब 13,000  फोन कॉल्स पर हाथ पर हाथ धड़े बैठे रहना अपने आप में काफी कुछ कहता है.

पुलिस का ड्रोनों के इस्तेमाल द्वारा हासिल किए गए वीडियो सबूतों को छिपाना भी एक परेशान करने वाला तथ्य है.

जहां तक ‘लेफ्ट-जिहादी तत्वों’ द्वारा ‘हिंदू-विरोधी दंगे’ कराने के हिंदुत्ववादी मिथ्या प्रचार का संबंध है, तो तथ्य यह है कि मृतकों में भारी बहुमत (75 फीसदी) मुस्लिमों का है.

इसके अलावा उनके पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि वे समय पर हिंदुओं द्वारा किए गए आपदाकालीन कॉल्स पर भी कोई कार्रवाई करने में नाकाम क्यों रहे.

पुलिस की पूर्ण निष्क्रियता की एकमात्र संभव व्याख्या यह है कि दंगाइयों की पहचान को छिपाने के लिए और दो समुदायों के बीच खाई खड़ी करने के लिए दंगाइयों द्वारा हिंदू समुदाय के एक हिस्से को भी निशाना बनाने दिया जाना जरूरी हो गया.

सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को ‘राष्ट्रविरोधी’, ‘हिंदू विरोधी’ और हिंसक करार देने की इस रणनीति का एक और तत्व पुलिस और हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं द्वारा कांट-छांट किए गए वीडियो के आधार दो प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताओं- हर्ष मंदर और उमर खालिद पर हिंसा की पैरवी करने का आरोप लगाने की कोशिश है.

दिल्ली पुलिस ने अदालत में और अपने आरोप-पत्रों में यह बार-बार कहा है कि मंदर ने 16 दिसंबर, 2019 को जामिया मिलिया इस्लामिया में दिए गए अपने भाषण में हिंसा के लिए उकसाया.

दिल्ली पुलिस के लीगल सेल के डिप्टी कमिश्नर राजेश देव ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर प्रशासनिक अधिकारी से सामाजिक कार्यकर्ता बने मंदर के खिलाफ कोर्ट की अवमानना’ और हिंसा के लिए उकसावा देने के लिए कार्रवाई करने की मांग की:

‘मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरे सामने हर्ष मंदर के भाषण का एक वीडियो क्लिप आया है, जो न केवल हिंसा के लिए उकसाने वाला है, बल्कि गंभीर रूप से अवमानना से भरा है, क्योंकि इसमें लोगों की एक बड़ी भीड़ के सामने भारत के सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियां की गई हैं.’

पुलिस ने मंदर के इन शब्दों पर आपत्ति की है, जो कि एक लंबे भाषण का एक हिस्सा है: ‘मेरा सर्वोच्च न्यायालय में यकीन नहीं है और इसने नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी), अयोध्या मामले और कश्मीर के मामले में मानवता, धर्मनिरपेक्षता और समानता की हिफाजत नहीं की…‘वास्तविक न्याय’ सिर्फ सड़कों पर किया जा सकता है.’

दरअसल पूरा भाषण यह साफ कर देता है कि पुलिस के दावे के उलट मंदर अहिंसक सिविल नाफरमानी की गांधीवादी रणनीति का समर्थन कर रहे थे.

कुछ यही हाल अमरावती में उमर खालिद द्वारा दिए गए भाषण का है, जिसे उनके हिंसा के लिए उकसाने के सबूत के तौर पर न सिर्फ पुलिस ने बल्कि गृहमंत्री अमित शाह ने भी अविश्सनीय ढंग से प्रस्तुत किया है. वे कहते हैं:

‘अभी-अभी जब आईपीएस अब्दुर रहमान (वे व्यक्ति जिन्होंने उमर खालिद के भाषण से पहले उनका परिचय करवाया था) बोल रहे थे, तब उन्होंने गांधी के बारे में बात की और कहा कि लड़ाई लड़ने के लिए महात्मा गांधी ने हमें अहिंसा और सत्याग्रह के हथियार दिए हैं… हम हिंसा का जवाब हिंसा से नहीं देंगे. हम नफरत का जवाब नफरत से नहीं देंगे.

हम इसका जवाब प्रेम से देंगे. अगर वे हमें लाठी से पीटेंगे, हम हाथ में तिरंगा थामे रहेंगे. अगर वे गोलियां चलाएंगे तो हम संविधान को हाथों में लिए रहेंगे. अगर वे हमें जेल भेजेंगे तो हम ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ का तराना गाते हुए जेल जाएंगे.’

पुलिस और हिंदुत्ववादी शक्तियों के द्वारा जिस तरह से मनगढ़ंत कहानियों को सत्य के तौर पर पेश करने की सुनियोजित कोशिश की जा रही है, वह निश्चित तौर पर सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों को 2020 के दिल्ली दंगों को अंजाम देनेवाले के तौर पर फंसाने की सुनियोजित साजिश की ओर इशारा करता है.

दिल्ली पुलिस इस जघन्य अपराध के असली गुनहगारों को पूर्ण संरक्षण देकर इस योजना को सटीक तरीके से अमलीजामा पहनाने में पूरी मुस्तैदी के साथ लगी हुई है.

(एनडी जयप्रकाश दिल्ली साइंस फोरम से जुड़े हैं.)

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