फाइनल ईयर परीक्षाएं: विद्यार्थी की जान और यूजीसी की शान

अगर यूजीसी को अंतिम परीक्षा लेने का अपना निर्णय इतना उचित लग रहा है तो वह इसके तर्क विस्तार से क्यों नहीं बता रहा और उसमें जो विकल्प हो सकते हैं उन पर विचार क्यों नहीं कर रहा? हड़बड़ी में सिर्फ अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए छात्रों के स्वास्थ्य की परवाह किए बिना शिक्षा की गुणवत्ता पर ज़ोर देना अमानवीयता है.

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Varanasi: Students come out after appearing in the B.Ed entrance exam, at Banaras Hindu University in Varanasi, Sunday, Aug 30, 2020. (PTI Photo)(PTI30-08-2020_000045B)

अगर यूजीसी को अंतिम परीक्षा लेने का अपना निर्णय इतना उचित लग रहा है तो वह इसके तर्क विस्तार से क्यों नहीं बता रहा और उसमें जो विकल्प हो सकते हैं उन पर विचार क्यों नहीं कर रहा? हड़बड़ी में सिर्फ अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए छात्रों के स्वास्थ्य की परवाह किए बिना शिक्षा की गुणवत्ता पर ज़ोर देना अमानवीयता है.

Varanasi: Students come out after appearing in the B.Ed entrance exam, at Banaras Hindu University in Varanasi, Sunday, Aug 30, 2020. (PTI Photo)(PTI30-08-2020_000045B)
उत्तर प्रदेश में एक प्रवेश परीक्षा देने आए परीक्षार्थी. (फोटो: पीटीआई)

‘बगैर आखिरी इम्तिहान लिए आप अपने छात्रों को आगे नहीं भेज सकते.’ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने देश भर के आखिरी सत्र के छात्रों के प्रसंग में सारे विश्वविद्यालयों को आदेश दिया है.

उसका कहना है कि अगर ऐसा न किया गया तो शिक्षा की गुणवत्ता को भारी नुकसान पहुंचेगा. आयोग इस गुणवत्ता की हिफाजत के लिए बनाई गई संस्था है.

यह उसका जिम्मा है कि इस मामले में अगर विश्वविद्यालय कहीं विचलित हो रहे हों तो वह उनकी तम्बीह (सचेत) करे और उन्हें सही रास्ते पर ले आए.

सर्वोच्च न्यायालय उससे सहमत है. सारे छात्रों को जो अपने अपने आखिरी सत्रों में हैं, अनिवार्यतः परीक्षा देनी होगी. इस मामले के कई पहलू हैं. उन पर विचार करना फौरी संदर्भ में तो ज़रूरी है ही, इसके दीर्घकालिक निहितार्थ भी हैं.

आयोग के आग्रह और सर्वोच्च न्यायालय की उस पर मुहर का सैद्धांतिक पक्ष यह है कि विश्वविद्यालय को स्वायत्तता नहीं है कि वह अपने शिक्षण का संचालन खुद अपने निर्णय से करे.

हर विश्वविद्यालय या तो संसद या राज्य की विधानसभा के कानून के जरिए सृजित किया गया है. इसका मतलब यह है कि हरेक का अपना वजूद है और उसके काम करने के अपने कायदे हैं.

वे उसके कानून में और उस कानून को लागू करने के लिए बनाए गए नियमों और परिनियमों में वर्णित हैं. एक संस्थान दूसरे की प्रतिलिपि नहीं है.

दिल्ली विश्वविद्यालय अपने यहां जिस पद्धति से दाखिला और परीक्षा लेता है, वही पद्धति उसी शहर में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नहीं अपनाता. अपने निर्णय ये संस्थान अपने निकायों के माध्यम से करते हैं.

विभाग, स्कूल, संकाय, विद्या परिषद, कार्य परिषद ये निकाय हैं. इनमें विचार-विमर्श करके दाखिला, पाठ्यक्रम, परीक्षा, आदि का निर्णय लिया जाता है.

अध्यापकों की बहाली के तरीके भी हर जगह एक से नहीं हैं. इस स्वायत्तता के बिना विश्वविद्यालय का कोई अर्थ नहीं है. लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का आग्रह इसके ठीक उलट है.

वह हर विश्वविद्यालय को एक ही काट और एक ही नाप का कुर्ता पहनने को मजबूर कर रहा है. यह प्रायः एकरूपता के नाम पर किया जाता है. लेकिन एकरूपता के तर्क के खतरों से हम सब परिचित हैं.

दूसरा सैद्धांतिक आशय यह है कि उच्च शिक्षा के मामले में आखिर निर्णय केंद्रीय संस्था करेगी, राज्यों को इसका अधिकार नहीं है. वह भी तब जब शिक्षा समवर्ती सूची में है.

समवर्ती सूची में उसके होने का मतलब ही है कि राज्य उसके संबंध में अपने तरीके से निर्णय ले सकते हैं. भारत एक संघीय गणराज्य है. संघ की इकाइयों को संविधान ने अपनी परिस्थितियों की विलक्षणता को ध्यान में रखते हुए अपने यहां और अपने लिए शिक्षा के संचालन की व्यवस्था और नियमन का अधिकार दिया है.

यह ठीक है कि यह बात भी संविधान में दर्ज है कि एक जैसे मामले में अगर राज्य और केंद्र के कानूनों में अंतर आ जाए, तो केंद्रीय कानून को वरीयता मिलेगी. लेकिन इससे संघीय सिद्धांत का महत्त्व कम नहीं होता.

कुलपति की नियुक्ति हो या अध्यापक की बहाली या वेतन, उसमें राज्य को अपने संसाधनों के अनुसार फैसले का अधिकार है. मिजोरम वहीं करे, जो बिहार कर रहा है, यह संघीय सिद्धांत के खिलाफ है.

कोरोना वायरस के समय राज्यों की परिस्थितियों की अपनी खासियत या जटिलता उभरकर सामने आ गई है. वे अपने संसाधनों की सीमा को ध्यान में रखते हुए जीवन के अलग-अलग क्षेत्र में नियम बना रहे हैं.

केंद्र उन्हें साधन न दे और नियम बनाकर मजबूर करे कि वे उन्हें लागू करें, यह उचित नहीं और न न्यायसंगत है. वायरस के संक्रमण की तीव्रता और गंभीरता हर राज्य की अलग है. उसे कहना कि वह एक केंद्रीय निर्देश का पालन करे, गलत होगा.

अब हम परीक्षा के मुद्दे पर विचार करें. मामला आखिरी सत्र का है. उसकी परीक्षा के बाद डिग्री मिलती है इसलिए उसका बाकी सत्रों की परीक्षाओं से अधिक महत्त्व माना जाता है.

हालांकि इस पर भी हमें विचार करना चाहिए कि उसका महत्त्व किसके लिए क्या है. अगर आप स्नातक की डिग्री लेते हैं, तो ज़रूरी नहीं कि उसके अंक या श्रेणी के आधार पर आपको स्नातकोत्तर कक्षाओं में प्रवेश मिल जाए.

अब प्रायः हर विश्वविद्यालय में हर विषय की अपनी प्रवेश परीक्षा होती है. तो आखिरी साल की डिग्री सिर्फ एक पासपोर्ट है.

उसी तरह अब कहीं काम भी डिग्री के आधार पर नहीं मिलता. वहां भी वह उस काम या नौकरी के लिए आपकी योग्यता की जांच के लिए अलग इंतजाम है.

वहां भी डिग्री सिर्फ यही करती है कि इस प्रक्रिया में शामिल होने की अनुमति आपको मिल जाए. इसलिए आखिरी सत्र की परीक्षा को लेकर इतने हाहाकार की आवश्यकता न थी.


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यही रुख तीन महीने पहले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने लिया था. उसने यह फैसला विश्वविद्यालयों पर छोड़ दिया था कि वे इसे कैसे करेंगे.

फिर उसने अपने निर्णय को बदलकर यह शर्त क्यों लगा दी कि बिना बाकायदा परीक्षा लिए अगले स्तर तक छात्रों को प्रोन्नत नहीं किया जा सकता?

इसका कारण था उसके पिछले सुझाव के बाद अचानक केंद्रीय गृह मंत्रालय का एक निर्देश. यह ख़ासा अजीब-सा निर्देश था.

मंत्रालय ने कहा कि हर विश्वविद्यालय को लाजिमी तौर पर इम्तिहान लेना होगा. इस निर्देश के बाद आयोग ने फिर अपनी बैठक की और अपने पिछले सुझाव को बदल दिया.

कई राज्यों ने आखिरी सत्र की परीक्षा आयोजित करने में असमर्थता जताई. पिछले 5 महीने से आवागमन बंद है. विश्वविद्यालय बंद हैं. छात्र अपने अपने गांव, शहर में हैं और अगले दो महीने तक उनका कहीं आना-जाना मुमकिन नहीं है.

स्वास्थ्य की चिंता को ध्यान में रखते हुए उन्हें एक जगह इकठ्ठा होकर परीक्षा देने को बाध्य करना उचित न होगा. उनकी हिफाजत का इंतजाम करने के साधन राज्यों के पास नहीं हैं.

राज्यों ने कहा और इसके लिए पहले आयोग भी राजी था कि इस समस्या का हल दो तरीकों से निकाला जा सकता है. एक अधिक सरल है.

आज पूरे भारत में सेमेस्टर पद्धति लागू है. स्नातक स्तर की परीक्षा की परीक्षा कर रहे छात्र 5 सेमेस्टर की परीक्षाएं दे चुके हैं. अगर उनके पिछले सत्रों के अंकों के औसत के आधार पर अंतिम सत्र में उन्हें अंक दे दिए जाएं तो उनके साथ अन्याय न होगा.

एक सवाल होगा कि हो सकता है आखिरी सत्र में असाधारण रूप से कोई बेहतर प्रदर्शन करे और अपना कुल नतीजा सुधार ले.

यह ठीक है कि ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जिससे मालूम किया जा सके कि पिछले पांच या तीन सत्रों के प्रदर्शन की अपेक्षा क्या अंतिम सत्र में कोई नाटकीय तबदीली आ जाती है.

लेकिन एक कुलपति मित्र ने एक छोटे नमूने की जांच करके पाया कि ऐसा नहीं है. यानी आखिरी सत्र में छात्र का प्रदर्शन प्रायः पिछले सत्रों जैसा ही होता है.

तो इसमें कोई हर्ज नहीं कि स्नातक स्तर पर पिछले तीन और स्नातकोत्तर स्तर पर तीन सत्रों के औसत के आधार पर अंतिम सत्र में अंक दिए जाएं और फिर सारे सत्रों के अंक मिलाकर नतीजा निकाल दिया जाए.

यह प्रावधान इस बार किया जा सकता है कि अनुकूल परिस्थिति में छात्र चाहे तो दोबारा बाकायदा परीक्षा दे दे.

आयोग ने यह कहकर इसका विरोध किया कि इससे डिग्री की गुणवत्ता प्रभावित होगी. अदालत ने उसकी बात यह कहते हुए मान ली कि आखिर आयोग इस क्षेत्र के विशेषज्ञों की राय लेकर ही कह रहा होगा.

लेकिन यही आयोग अभी कुछ दिनों पहले कुछ और कह रहा था. वह भी उसके विशेषज्ञ ही कह रहे थे. क्या दो महीनों में अलग-अलग विशेषज्ञ राय दे रहे थे या एक ही विशेषज्ञ गृह मंत्रालय के आदेश के बाद अपनी राय बदल रहे थे?

जो राज्य आयोग की राय से अलग राय लेकर सामने आए हैं वे भी तो विशेषज्ञों से चर्चा के बाद ही आए होंगे?तो क्या दिल्ली के द्वारा चुने हुए विशेषज्ञ राज्यों के विशेषज्ञों से बेहतर हैं?

हम जानते हैं कि इनका चुनाव भी उपलब्धतता, निकटता और अनुकूलता के आधार पर ही अक्सर किया जाता है.

हाल में सीबीएसई ने 12वीं कक्षा के परिणाम घोषित किए हैं. याद रहे कि सारे पर्चों या विषयों की परीक्षा पूरी नहीं हुई थी क्योंकि लॉकडाउन कर दिया गया था.

इसके नतीजे इस आधार पर तैयार किए गए कि जो पर्चा रह गया था, उसमें छात्रों को बाकी पर्चों के अंकों का औसत अंक दिया गया.

यह बोर्ड परीक्षा है. इसके अंक बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्हीं के आधार पर स्नातक कक्षा में दाखिला मिलता है.

हम जानते हैं कि 0.5% के फर्क से दाखिला रह जाता है. इस आशंका से छात्र आत्महत्या तक कर लेते हैं. फिर भी इसमें औसत अंक का सिद्धांत स्वीकार कर लिया गया. क्यों?

इसे अनुकरण लायक क्यों नहीं माना जाए, विश्वविद्यालय आयोग को इसका उत्तर देने की ज़रूरत जान नहीं पड़ती, लेकिन इस वजह से सवाल अप्रासंगिक नहीं हो जाता.

आखिर इस अनुभव के बारे में आयोग का क्या ख्याल है? राज्यों ने शिकायत की है कि आयोग ने बिना उनसे विचार-विमर्श किए उनके बारे में निर्णय कर दिया है.

यह विचार-विमर्श आयोग ने क्यों नहीं किया? यह आयोग के गठन की भावना के भी खिलाफ है. आयोग का गठन मुख्य रूप से सुझाव देने वाली संस्था के रूप में किया गया था, आदेश देनेवाली संस्था के रूप में नहीं.

धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों ने उसके आगे अपनी शक्तियों का समर्पण करके अपनी स्वायत्तता खो दी. शुक्रवार का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय उनकी अपनी आज़ादी के ताबूत में एक और कील है.

अंतिम बात परीक्षा के बारे में. तरीके और भी हो सकते हैं. यह छात्रों की संख्या पर निर्भर होगा. क्या आयोग ने उन विश्वविद्यालयों से राय ली जो आकार में छोटे हैं, जैसे अशोका यूनिवर्सिटी या अहमदाबाद यूनिवर्सिटी?

इन्होंने इस समस्या का समाधान कैसे किया? या विदेशों में श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों ने इस मामले में क्या किया? उनसे कुछ रोशनी मिल सकती थी. आयोग ने यह क्यों नहीं किया?

अगर उसे अंतिम परीक्षा लेने का अपना निर्णय इतना उचित लग रहा है तो इसके तर्क विस्तार से वह क्यों नहीं बता रहा और उसमें जो विकल्प हो सकते हैं उनपर विचार क्यों नहीं कर रहा?

हड़बड़ी में सिर्फ अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए छात्रों के स्वास्थ्य की परवाह किए बिना शिक्षा की गुणवत्ता पर जोर देना अमानवीयता है.

छात्रों की आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थति को नज़रअंदाज करके अंतिम परीक्षा को सामान्य समय की तरह लेने की जिद से मालूम होता है कि आज हम अपने नौजवानों को मजबूर करके घुटने पर लाने की अपनी ताकत का कितना इस्तेमाल कर सकते हैं.

अकेले दिल्ली विश्वविद्यालय में ही ऑनलाइन इम्तिहान में भी जो समस्याएं आई हैं, उनका अधययन और विश्लेषण किए बिना क्या छपरा, बलिया और शिलॉन्ग में उसे लागू करना उचित होगा?

भारत में स्मार्टफोन कितने छात्रों के पास होगा? वे कमजोर नेटवर्क के रहते हुए किस तरह लिखेंगे और किस तरफ अपने उत्तर मेल करेंगे?

जो उत्तर अध्यापकों तक पहुंच भी जाएंगे, उन्हें कैसे अध्यापक कैसे उतनी संख्या में डाउनलोड करके प्रिंट किस प्रकार करेगा? परीक्षा की जिद करने वाले यह भी भूल गए हैं कि जो छात्र अपने घरों में हैं, उनके पास पाठ्य-सामग्री नहीं है.

परीक्षा की तैयारी के लिए जो साधन चाहिए, वे उसके पास नहीं हैं. यह क्या विचार योग्य है ही नहीं?

हम उस तरह की फब्तियों पर कुछ नहीं करना चाहते जो कुछ असभ्य लोग छात्रों पर कस रहे हैं. वे उन पर हमला करते हुए कह रहे हैं कि जब सैनिक इस समय भी सीमा पर लड़ सकते हैं तो छात्र क्यों परीक्षा नहीं दे सकते!

आजकल हर नागरिक के मुकाबले सैनिक खड़ा कर दिया जाता है जैसे सैनिक के बेटे या बेटी या परिजन की यह समस्या होगी ही नहीं.

विश्वविद्यालय और आयोग ने यह सब कुछ छात्र और शिक्षक की क्षमता पर छोड़ दिया है. साधन उन्हें जुटाने हैं, वे किसी भी स्थिति में क्यों न हों. जो छूट गए,रह गए, यह उनका अपना भाग्य!

इस घोर और अप्रत्याशित संकट के समय ऐसी असंवेदनशीलता पर क्या टिप्पणी की जा सकती है? इसके अलावा यह फैसला केंद्रीयकरण का एक और उदाहरण है.

यह उसी समय किया गया है और उसी सरकार के द्वारा जो नई शिक्षा नीति में विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता देने का संकल्प व्यक्त कर रही है.

तो क्या वह तभी से शुरू होगा जबसे नीति लागू हो जाएगी और उसके पहले प्रत्येक प्रकार की स्वायत्तता का दमन कर दिया जाएगा? जब वह ध्वस्त हो जाएगी तब फिर नए सिरे से स्वायत्तता का सरकारी अभियान शुरू होगा?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)