कोसी की बाढ़ और कटान: हर साल गुम हो रहे गांव और रहवासियों के दुखों की अनदेखी

विशेष रिपोर्ट: कोसी योजना को अमल में लाए छह दशक से अधिक समय हो चुका है. सरकारी दस्तावेज़ों में योजना के फ़ायदे गुलाबी हर्फ़ में दर्ज हैं लेकिन बुनियादी सुविधाओं से वंचित कोसीवासियों की पीड़ा बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई के नाम पर लाई गई एक योजना की त्रासदी को सामने लाती है.

/
खोखनाहा के अमीन टोला का स्कूल.

विशेष रिपोर्ट: कोसी योजना को अमल में लाए छह दशक से अधिक समय हो चुका है. सरकारी दस्तावेज़ों में योजना के फ़ायदे गुलाबी हर्फ़ में दर्ज हैं लेकिन बुनियादी सुविधाओं से वंचित कोसीवासियों की पीड़ा बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई के नाम पर लाई गई एक योजना की त्रासदी को सामने लाती है.

कोसी नदी. (सभी फोटो: मनोज सिंह)
कोसी नदी. (सभी फोटो: मनोज सिंह)

मधुबनी जिले के मधेपुरा प्रखंड का मैनाही गांव कोसी नदी की बाढ़ और कटान से कई वर्षों से प्रभावित हो रहा था. इस बार कोसी नदी की मुख्य धारा ने पूरे गांव को अपने आगोश में ले लिया और पूरा गांव नदी में विलीन हो गया.

गांव के लोगों को भागकर इधर-उधर शरण लेनी पड़ी. जिन लोगों का घर पुनर्वास स्थल में था, उन्हें तो थोड़ी राहत है, बाकी लोग ऊंचे स्थानों पर या रिश्तेदारों के यहां शरण लिए हुए हैं.

इस गांव की 35 वर्षीय पूनम का पूरा खेत नदी की धार में चला गया है. वह खरैल मलदह पुनर्वास में रहती हैं. खेती करने मैनाही जाती थीं. वे कहती हैं कि जहां उनका घर व खेत था, वहां अब नदी बह रही है.

मैनाही कोसी नदी पर बने तटबंध के अंदर है. पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के अंदर स्थित 300 से अधिक गांवों की हर साल की यही कहानी है. वे हर वर्ष कोसी नदी के कटान और बाढ़ से विस्थापित होते रहते हैं.

आपदा प्रबंधन विभाग के अनुसार, इस वर्ष कोसी की बाढ़ से मधुबनी जिले के चार प्रखंडों के 51 गांव, मधेपुरा के तीन प्रखंडों के 27 गांव, सहरसा के चार प्रखंडों के 33 गांव, खगड़िया के सात प्रखंडों के 41 गांव और सुपौल जिले में पांच प्रंखडों के 30 गांव प्रभावित हुए है. बाढ़ से हुई फसल क्षति का अभी मूल्यांकन हो रहा है.

इस वर्ष भी पूर्वी और पश्चिमी तटबंध पर कई स्थानों पर नदी का दबाव बढ़ गया था. पूर्वी कोसी तटबंध के 10.9 किमी स्पर पर दस मीटर नोज कट गया.

सिकरहट्टा-मझारी निम्न तटबंध पर दीघिया गांव के पास स्पर पर कोसी नदी का दबाव काफी बढ़ गया था और इसको बचाने के लिए ग्रामीणों को प्रदर्शन करना पड़ा था. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आठ अगस्त को पूर्वी तटबंध का निरीक्षण करते हुए कहा कि दोनों तटबंधों को और मजबूत किया जाए.

कोसी परियोजना और उसके बाद के निर्माण कार्यों ने कोसी बेसिन की इकोलॉजी को तो प्रभावित किया ही है, कोसी बेसिन में रहने वाले किसानों की आजीविका और कृषि को भी बुरी तरह प्रभावित किया है.

इस क्षेत्र से लोगों का पलायन बढ़ता गया है. तटबंध के अंदर और बाहर बाढ़ व जलजमाव से सैकड़ों एकड़ जमीन खेती के लिए अनुपयुक्त होती गई.

कोसी के अंदर सैकड़ों गांवों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, बिजली, आवागमन की सुविधा जैसी बुनियादी जरूरतें अब भी आकाश कुसुम की तरह हैं.

सबसे बुरी स्थिति तटबंध के अंदर के गांवों की है. उनकी व्यथा सुनने वाला कोई नहीं है. दोनों तटबंधों के अंदर नदी द्वारा लाए गए सिल्ट का जमाव बढ़ता जा रहा है.

तटबंध बनने के पहले नदी बड़े क्षेत्र में बहती थी. अब उसे दोनों तटबंधों के बीच सीमित कर दिया गया है. सिल्ट के जमाव से तटबंध के अंदर की जमीन काफी ऊपर होती जा रही है.

तटबंध पर खड़े होने पर यह साफ दिखता है कि तटबंध के अंदर की जमीन ऊंची हो गई है जबकि तटबंध के बाहर की जमीन नीची है. इससे तटबंध के अंदर बाढ़ की स्थिति और गंभीर हुई है.

बिहार में कोसी नदी का 260 किलोमीटर का सफर

कोसी को नेपाल में सप्तकोसी के नाम से जाना जाता है जो सात नदियों- इंद्रावती, सुनकोसी या भोट कोसी, तांबा कोसी, लिक्षु कोसी, दूध कोसी, अरुण कोसी और तामर कोसी के सम्मिलित प्रवाह से बनी है.

त्रिवेणी के पहाड़ों से होते हुए कोसी हनुमान नगर के पास भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करती है. पहाड़ से मैदान में उतरते ही कोसी का पाट काफी चौड़ा होता जाता है.

कोसी नदी बिहार में कुल 260 किलोमीटर की यात्रा करने के बाद कटिहार जिले के कुर्सेला के पास गंगा में मिल जाती है. कोसी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 74,073 वर्ग किमी है,  जिसमें 11, 410 वर्ग किमी क्षेत्र बिहार में है.

कोसी अपनी धारा लगातार बदलने के लिए प्रसिद्ध है. माना जाता है कि पिछले 200 वर्षों में कोसी 133 किलोमीटर तक पूरब से पश्चिम में मुड़ी है.

कोसी योजना

कोसी नदी की बाढ़ से बचाव के लिए कोसी योजना के तहत 1954 में वीरपुर में बैराज बनाया गया और इसके पूर्वी और पश्चिमी तट पर तटबंध बनाए गए.

इसके अलावा सिंचाई के उद्देश्य से पूर्व मुख्य कोसी नहर और पश्चिमी कोसी नहर का निर्माण किया गया. कोसी योजना में दावा किया गया कि कोसी नदी की बाढ़ से पांच लाख एकड़ जमीन सुरक्षित हुई है. सैकड़ों गांव बाढ़ से हमेशा के लिए मुक्त हो गए.

लेकिन इस योजना में दोनों तटबंधों के अंदर सैकड़ों गांव फंस गए. सरकार ने शुरुआती सर्वे में अनुमान लगाया था कि तटबंधों के बीच 304 गांव हैं, जिनकी आबादी 1.92 लाख है. दोनों तटबंधों के बीच कुल जमीन 2,60,108 एकड़ यानी 1,05,307 हेक्टेयर है.

दिनेश कुमार मिश्र ने अपनी किताब ‘दुई पाटन के बीच में’ लिखा है कि कोसी तटबंधों के बीच 380 गांव हैं, जो 4 जिलों के 13 प्रखंडों पर फैले हुए हैं और उनकी आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार 9.88 लाख है.

तटबंध बनने से ये गांव दो पाटों के बीच फंस गए लेकिन कभी जन प्रतिनिधियों के चुनावी लाभ तो कभी स्थानीय लोगों की मांग के कारण तटबंधों का निर्माण कार्य लगातार चलता रहा.

आज कोसी नदी पर बने तटबंधों की लंबाई लगभग चार सौ किलोमीटर हो गई है. विभिन्न समयों पर बने करीब पांच जमींदारीं तटबंध भी हैं जिनकी लंबाई 50 किलोमीटर है.

इसके अलावा पक्की सड़कों का भी निर्माण हुआ है, जिससे बाढ़ और कटान की समस्या गंभीर से गंभीर होती चली गई है.

‘हम 70 वर्ष से अजाीवन कारावास में हैं’

‘कोसी योजना लागू करते समय हमसे कहा गया कि दोनों तटबंधों के बीच क्षति की भरपाई होगी, जानमाल की भरपाई होगी, शिक्षा-स्वास्थ्य का इंतजाम होगा. एक आंख कोसी के अंदर और दूसरी कोसी के बाहर होगी लेकिन आज हालात यह है कि हमारा सारा जमीन पानी में हैं फिर भी हम उसकी मालगुजारी दे रहे हैं. अंग्रेजों ने भी हमको अधिकार से वंचित किया और भारत सरकार भी हमें वंचित कर रही है. हमारे गांव का रकबा 3,500 एकड़ का है. हमारे पास नौ एकड़ जमीन है लेकिन हम दूसरे के जमीन पर रह रहे हैं. हमारे पूर्वज भी झेले और हम भी झेल रहे हैं. हम 70 वर्ष से अजाीवन कारावास में हैं. आगे कितने दिन तक और रहेंगे नहीं जानते.’

सुपौल जिले के खोखनाहा गांव के मन्ना टोला निवासी 62 वर्षीय श्रीप्रसाद सिंह से यह सुनते हुए आप उनके चेहरे पर आप एक साथ दुख और आक्रोश के भाव पढ़ सकते हैं.

खोखनाहा का मन्ना टोला.
खोखनाहा का मन्ना टोला.

कोसी क्षेत्र में जिस भी गांव या पुनर्वास स्थल में जाइए, इसी तरह की आवाज सुनने को मिलती है. कोसी योजना को अमल में लाए छह दशक से अधिक समय का हो चुका है.

आज इस योजना से कोसी की बाढ़ से बचाव और इस क्षेत्र के खुशहाली की जो सुंदर तस्वीर खींची गई थी, वह पूरी तरह मटमैली हो गई है. अब हर तरफ इस योजना से उत्पन्न त्रासदी की कहानियां मौजूद हैं.

श्रीप्रसाद सिंह कहते हैं, ‘राजेंद्र बाबू (तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद) ने सुपौल जिला के बैरिया गांव के पास पूर्वी कोसी तटबंध के निर्माण कार्य का शिलान्यास करते हुए कहा था कि हमारी एक आंख कोसी के अंदर और दूसरी कोसी के बाहर होगी. आज हालात यह है कि सरकार की आंख न तो कोसी के अंदर है न कोसी के बाहर. सरकार ने अपनी आंख पूरी तरह से बंद कर ली है.’

खोखनाहा के मन्ना टोला निवासी श्रीप्रसाद सिंह आगे कहते हैं, ‘कोसी बैराज को नौ लाख क्यूसेक डिस्चार्ज के हिसाब से बनाया गया. वर्ष 1984 में आकलन किया गया कि यदि छह लाख क्यूसेक डिस्चार्ज होगा, तो दोनों तटबंध टूट सकता है. इसके बाद निर्मली-मझारी 9 किलोमीटर और फिर पांच किलोमीटर का तटबंध बना दिया गया जिसका नतीजा यह हुआ कि दो लाख क्यूसेक पानी आने पर ही तटबंध के अंदर के गांवों में दो से तीन फीट पानी भर जा रहा है. प्रशासन डेढ़ किलो चूड़ा और 50 ग्राम चीनी देकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेता है. जून से नवंबर तक हमारे गांव में पानी-पानी ही रहता है.’

पूर्व सरपंच विनोद प्रसाद यादव पूर्वी और पश्चिमी तटबंध बनने के बाद लगातार सुरक्षा तटबंध बनाए जाने पर सवाल करते हुए कहते हैं, ‘पूर्वी कोसी और पश्चिमी कोसी तटबंध बनने के समय कहा गया था कि दोनों तटबंधों के 25 किलोमीटर के दायरे में कोई और तटबंध नहीं बनेगा लेकिन दोनों के बीच कई तटबंध बना दिए गए जिससे हमारी स्थिति और विकट हो गई है.’

तटबंधों के जाल के कारण कोसी नदी में कम डिस्चार्ज के बावजूद तटबंध के अंदर के गांव भीषण बाढ़ का सामना करने को विवश हैं.

पिछले डेढ दशक से कोसी बैराज पर अधिकतम डिस्चार्ज वर्ष 2004 में 3,89,669 क्यूसेक मापा गया गया था. वर्ष 2019 में 13 जुलाई को रात नौ बजे कोसी बैराज पर 3,71,110 क्यूसेक डिस्चार्ज मापा गया.

वर्ष 2018 में बैराज पर अधिकतम डिस्चार्ज 2,74,790 था. इस वर्ष अधिकतम डिस्चार्ज 21 जुलाई को 3,42,970 क्यूसेक था. बैराज बनने के बाद यहां पर अधिकतम डिस्चार्ज 1968 में पांच अक्टूबर को 7,88,200 मापा गया था.

तटबंध के अंदर बाढ़, कटान की बढ़ती विभीषिका का बयान करते हुए खोखनाहा मन्ना टोला निवासी रामचंद्र यादव बताते हैं, ‘एक दशक के अंदर हमारा घर छह बार कटा है. 2015 की बाढ़ में गांव में पानी भर गया, हमारा घर भी डूबने लगा. पांच फीट तक पानी आ गया था. हम 15 दिन तक अपने घर में मचान बनाकर उस पर बैठे रहे. लगा कि हम बचेंगे नहीं. इसके बाद हमने गांव छोड़ दिया.’

खेती का नुकसान

कोसी तटबंधों के बीच की खेती को भी काफी नुकसान पहुंचा है. तटबंध के भीतर बड़े क्षेत्र में सिल्ट से पटे खेत खाली पड़े हैं.

तटबंध के अंदर बाढ़ के कारण धान की खेती न के बराबर है. तटबंध के अंदर के खेतों में किसान बमुश्किल गेहूं, मक्का की फसल लगा पाते हैं.

एक तो उन्हें हर वर्ष बाढ़ से इधर-उधर विस्थापित होना पड़ता है. खेतों की नवैइयत (भू-स्थिति) भी बदल जाती है.

दूसरी समस्या यह होती है कि उनके खेत सिल्ट व बालू से पटते जाते हैं जिन्हे खेती योग्य बनाने के लिए काफी परिश्रम व पूंजी की जरूरत होती है जो उनके बस की बात नहीं है.

वर्षों से बाढ़, कटान और सरकारी उपेक्षा की मार झेल रहे किसानों में खेती का हौसला भी नहीं बचा है. बड़ी संख्या में युवाओं के पलायन से स्थिति को और विषम बना दिया है. इस हालात में भी उन्हें अपने खेत की हर वर्ष मालगुजारी देनी पड़ती है.

खोखनाहा के अमीन टोला निवासी 70 वर्षीय पुलकित यादव बताते हैं, ‘हमारे गांव का रकबा 3,500 एकड़ है लेकिन कोन-कान सब मिलाकर 200 बीघा में ही खेती होती है. इस जमीन में हम कुछ छीट-छांट देते हैं. कुछ हो जाए तो ठीक नहीं तो सब पैसा बर्बाद हो जाता है.’

वे आगे बताते हैं, ‘इस साल मूंग की फसल ढह गई. धान की फसल होती ही नहीं है. यदि मंझवलिया में तटबंध नहीं बना होता तो कोसी पश्चिमी तरफ चली जाती, लेकिन तटबंध बनने से हमारी मुसीबत बढ़ गई. रही-सही खेती भी चौपट हो गई है.’

तटबंध के अंदर कोसी नदी आधा दर्जन से अधिक धार में बहती है. तटबंध के गांवों तक पहुंचाना आज भी दुष्कर है.

बाढ़ के समय तो नाव ही सहारा होती है, बाकी दिनों नदी की कई धाराओं को नाव से पार करने के अलावा कई-कई किलोमीटर तक पैदल चलकर लोग बाजार, ब्लॉक व जिला मुख्यालय पहुंच पाते हैं. उनका पूरा दिन आने-जाने में ही निकल जाता है.

सरकार और उसकी योजनाएं तटबंध के अंदर के गांवों में अनुपस्थित दिखती हैं. इधर एक वर्ष से तटबंध के भीतर कुछ गांवों में सौर उर्जा के संयत्र स्थापित किए गए हैं, जिससे लोगों को बिजली मिलने लगी है. लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, आने-जाने के लिए नाव की व्यवस्था आदि लोगों से काफी दूर है.

रामचंद्र यादव इन हालात के बारे में बताते हुए कहते हैं, ‘हमारे गांव में शिक्षा नाम की कोई चीज नहीं है. हम अपने बच्चों को केवल साक्षर कर पा रहे हैं. अब कभी-कभी गांव जाते हैं. सरकार की नाव बहाली केवल कागज पर होती है. ’

तटबंध के बीच के गांवों के लोग सरकार पर नौकरी देने, जमीन का मालगुजारी न लेने के वादे पूरे न करने का आरोप लगाते हैं.

खोखनाहा के अमीन टोला का स्कूल.
खोखनाहा के अमीन टोला का स्कूल.

विनोद यादव कहते हैं कि तटबंध के अंदर के विस्थापितों को सरकारी योजनाओं में जगह नहीं दी जा रही है. यह कह दिया जाता है कि उनका वास अस्थायी है.

इन स्थितियों में तटबंध भीतर के गांवों में लोगों का विक्षोभ बढ़ रहा है. तटबंध भीतर के कई गांवों के लोगों ने लोकसभा चुनाव 2019 में मतदान का बहिष्कार किया.

खोखनाहा अमीन टोला निवासी नसीमुल हक कहते हैं, ‘सरकार का आश्वासन हमारे परदादा सुने, दादा सुने, पिता सुने और हम भी सुन रहे हैं लेकिन अब तक हुआ क्या? हमें सरकारी खैरात नहीं चाहिए, हमें समस्या का स्थायी निदान चाहिए. इसी सोच के कारण कोसी के अंदर के गांवों ने लोकसभा चुनाव 2019 का बहिष्कार किया.

‘खेती सिल्ट से पटी हो या नदी की धार में हो, मालगुजारी देनी पड़ती है’

कोसी तटबंध के अंदर रहने वाले किसान लगान मुक्ति का सवाल प्रमुखता से उठाते हैं.

उनका कहना है कि दोनों तटबंध बनने के बाद उनके अधिकतर खेत कोसी नदी की जद में आ गए हैं. बचे-खुचे खेतों में बड़े पैमाने पर बालू-सिल्ट जमा हो जाने से उस पर खेती मुश्किल हो गई है.

साथ ही बारिश-बाढ़ की वजह से धान की उपज न के बराबर है. किसी तरह गेहूं, मक्का की फसल हो पाती है. बाढ़़ से कटाव के कारण उनके खेत की भू स्थिति भी बदलती रहती है. इसके बावजूद उन्हें अपनी जमीन का हर वर्ष लगान देना पड़ता है.

इस लगान पर शिक्षा सेस 50, स्वास्थ्य सेस 50, कृषि विकास सेस 20 और सड़क के विकास के लिए 25 फीसदी अर्थात कुल 145 फीसदी सेस भी लगता है.

किसानों के अनुसार, लगान जमा करने में भी काफी दिक्कतें आती हैं और उन्हें भू राजस्व विभाग के कर्मचारियों के आर्थिक शोषण का शिकार होना पड़ता है.

तटबंध बनने के बाद हजारों किसान पलायन कर गए हैं और वे कृषि मजदूर बन कर पंजाब, हरियाणा और देश के दूसरे हिस्सों में मजूदरी कर रहे हैं. उन्हें भी अपने खेत का लगान देना पड़ रहा है क्योंकि लगान न जमा करने पर उनका मालिकाना हक समाप्त हो जाएगा.

तटबंध के बाहर पुनर्वास में रह रहे किसानों को भी तटबंध के भीतर की अपनी जमीन के लिए लगान देना पड़ता है. यही हाल तटबंध के बाहर रहने वाले किसानों की है, जिनकी खेती व्यापक जल जमाव के कारण तबाह होती जा रही है.

कोसी नव निर्माण मंच ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है. मंच ने वर्ष 2019 में तटबंध के अंदर के 80 गांवों से 3,800 किसानों से लगान मुक्ति के लिए आवेदन एकत्र कर मुख्यमंत्री कार्यालय को दिया.

मंच के अध्यक्ष महेंद्र यादव सवाल उठाते हैं कि जब तटबंध के अंदर गांवों में खेती न के बराबर रह गई है, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क की कोई सुविधा ही नहीं है तो मालगुजारी और उस पर सेस लगाने का क्या औचित्य है?

‘तटबंध के अंदर वाले उजले पानी से, तो हम बाहर वाले काले पानी से घिरे हैं’

पूर्वी और पश्चिमी तटबंध बनने से तटबंध के बाहर के क्षेत्र बाढ़ और सिल्ट के जमाव से बचा और वहां खेती होने लगी.

बाढ़ के दौरान होने वाली मुसीबत से तो लोगों को मुक्ति मिली, लेकिन अब तटबंध के बाहर का यह क्षेत्र भीषण जलजमाव का शिकार है.

तटबंध से सीपेज और बारिश के पानी के जमाव के कारण बाहरी क्षेत्र के लोग अर्धबाढ़ का सामना करते हैं. मुश्किल यह है कि यह स्थिति दो-चार सप्ताह नहीं बल्कि चार से छह महीने तक रहती है.

इससे तटबंध के बाहरी क्षेत्र में खेती को काफी नुकसान हुआ है. जलजमाव को दूर करने के लिए अभी तक कोई ठोस काम नहीं हुआ है.

ग्राम पंचायत अपने प्रयास से जलजमाव को रोकने में असमर्थ पा रहे हैं, क्योंकि यह बहुत बड़े बजट व तकनीक की मांग करता है.

चौहट्टा ग्राम पंचायत जल जमाव से बुरी तरह प्रभावित है. इस ग्राम पंचायत की निवासी अंजू मिश्र बताती हैं कि उनकी ग्राम पंचायत में 11 वॉर्ड में से वॉर्ड संख्या एक, दो और तीन का आधा हिस्सा तटबंध के अंदर है और बाकी तटबंध के बाहर.

जलजमाव का इलाका.
जलजमाव का इलाका.

वे आगे कहती हैं, ‘तटबंध बनने के बाद हमें बाढ़ से तो निजात मिली लेकिन सीपेज और बारिश के पानी के जमाव के कारण अब हम अर्धबाढ़ का सामना करते हैं. गांव के चारों तरफ पानी का जमाव हो जाता है. नदी में बाढ़ का पानी तटबंधों से रिसकर तटबंध के बाहर आकर जमा हो जाता है, तो बारिश का पानी भी यही जमा रहता है. पानी निकलने का कोई रास्ता नहीं है.’

इसी गांव के सत्येंद्र राम कहते हैं, ‘अब तटबंध के अंदर उजला पानी (नदी का पानी) जमा रहता है तो तटबंध के बाहर काला पानी (जलजमाव वाला पानी). उजला पानी एक पखवारे में वापस नदी के पेट में चला जाता है लेकिन काला पानी जुलाई से नवंबर-दिसंबर तक हमारे गांव और खेतों में जमा रहता है. इससे सबसे ज्यादा नुकसान खेती का हो रहा है.’

वे आगे बताते हैं, ‘अगहनी धान की फसल एकदम खत्म हो गई है. खेत में बराबर नमी रहती है. फावड़ा चलाए नहीं कि पानी निकलने लगता है. जिस बरस पानी ज्यादा बरस गया उस साल तो और मुसीबत हो जाती है. पिछले साल 2018 खूब बारिश हुई तो जलजमाव ज्यादा हो गया. अगहनी धान की फसल गल गई. पटुआ पानी में गिर गया. जिस साल बारिश कम होती है, उस साल किसी तरह फसल हो जाती है. अगहनी धान की फसल में होने वाले नुकसान को देखते हुए हमने उसकी खेती छोड़ दी है.’

सत्येंद्र राम कहते हैं, ‘हमने देखा कि दूसरी फसल की कोई गारंटी नहीं है तो मखाना की खेती शुरू की. अगहनी धान में एक हजार का खर्चा है तो मखाना में दो हजार का खर्चा है लेकिन इसमें फसल मिलने की गारंटी है. अगहनी धान का कोई भरोसा नहीं है.’

चौहट्टा ग्राम पंचायत का रकबा 1,200 एकड़ है. यह सारी भूमि जल जमाव की शिकार है. प्रखंड के 16 ग्राम पंचायतों में से 10 जलजमाव की मार झेल रही है.

ग्रामीण बताते हैं कि इससे खेती का बड़ा नुकसान हो रहा है.  तीन किलोमीटर तक पानी जमा रहता है.

किसान कहते हैं कि जलजमाव से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए सरकार कोई मदद नहीं करती है. बाढ़ से प्रभावित होने वालों को सरकार राशन-पानी और नगदी देकर मदद करती है लेकिन जलजमाव से छह महीने घिरे रहने किसानों को कोई मदद नहीं की जाती. फसलों के नुकसान का कोई मुआवजा नहीं मिलता.

पुनर्वास के उलझाव

कोसी योजना को अमल में लाए छह दशक से अधिक समय का हो चुका है लेकिन इस योजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास का मसला आज तक सुलझ नहीं सका है. सैकड़ों की संख्या में लोग आज भी पुनर्वास की राह देख रहे हैं.

सरकार ने तटबंधों के भीतर के गांवों के लोगों को तटबंधों के आस-पास बाढ़ मुक्त जमीन में पुनर्वासित किए जाने, पुनर्वास स्थलों पर विद्यालय, सड़क, तालाब, नलकूप, कुएं आदि का प्रबंध करने, गृह निर्माण के लिए अनुदान देने और तटबंध के अंदर कृषि कार्य के लिए आने-जाने के लिए नौकाओं का प्रबंध करने का वादा किया था.

लेकिन पुनर्वास की गति काफी धीमी रही क्योंकि प्रभावित परिवारों को सिर्फ बसने के लिए जमीन दी जा रही थी. उनके जीवनयापन का कोई इंतजाम नहीं था.

जो पुनर्वास स्थल चुने गए, वे तटबंध के अंदर रहने वाले गांवों से काफी दूर व निर्जन थे. पुनर्वास स्थलों पर बुनियादी सुविधाओं का अभाव था. साथ ही गृह अनुदान पाने की प्रक्रिया भी जटिल थी.

इन्हीं सबके कारण बहुत कम परिवार पुनर्वास स्थलों पर गए. वर्ष 1970 तक सिर्फ 6,650 परिवारों को बसाया जा सका.

बिहार विधानसभा की लोकलेखा समिति के अनुसार 1958 से 1962 के बीच 12,084 परिवारों को तटबंधों के बाहर रिहाइशी जमीन का आवंटन किया गया और उनको घर बनाने के लिए पहली किस्त के रूप में 16.73 लाख रुपये का भुगतान किया गया.

आज सरकार के पास कोई आंकड़ा नहीं है कि कुल कितने परिवार पुनर्वासित हुए और अभी भी कितने परिवार तटबंधों के बीच रह रहे हैं.

खरैल मलदह पुनर्वास में रह रहे 65 वर्षीय सत्यनारायण मुखिया बताते हैं कि उनके पिता 1959 में इस पुनर्वास स्थल आए थे. उनका गांव मधुबनी जिले के मधेपुर प्रखंड का मैनाही था.

मैनाही गांव, जो इस वर्ष कोसी में समा गया.
मैनाही गांव, जो इस वर्ष कोसी में समा गया.

वे कहते हैं, ‘हमें अपने गांव से 30 किलोमीटर दूर पूरब लाकर खरैल मलदह में पुनर्वास दिया गया. उस समय यहां घर बनाने के लिए कुछ पैसे मिले. हमारे गांव के तमाम लोग तो पुनर्वास में आए ही नहीं. कुछ लोग पुनर्वास और अपने मूल गांव मैनाही दोनों जगह रह रहे हैं. बहुत से लोग न तो पुनर्वास में हैं न अपने मूल गांव में. वे लोग यहां से पलायन कर गए हैं.

उनका आरोप है कि पुनर्वास स्थलों में 75 फीसदी अवैध कब्जा है. वे बताते हैं कि अवैध कब्जे के छह मामले प्रशासन के पास भी गए लेकिन उन्होंने कोई भी कार्रवाई करने की बात पर हाथ खड़े कर दिए. हाईकोर्ट के आदेश पर एक मामले में खरैल कर्ण में एक कब्जा हटाया गया है.

तटबंध में अंदर फंसे गांवों में से एक खोखनाहा के मन्ना टोला व अमीन टोला के कई लोगों के पुनर्वास की जमीन पर अवैध कब्जा हो गया है.

मन्ना टोला निवासी 25 वर्षीय प्रमोद प्रभाकर बताते हैं, ‘हमारा पुनर्वास खरैल मलहद में किया गया है लेकिन आवंटित जमीन पर दिघिया गांव के एक दबंग ने कब्जा कर रखा है. मैं वहां पर झोपड़ी डालने गया तो अवैध कब्जेदार 50 लोगों को लेकर आया और हमारी झोपड़ी को उजाड़कर पोखरे में फेक दिया.’

62 वर्षीय श्रीप्रसाद सिंह को 20 डिस्मिल जमीन खरैल मलदह में पुनर्वास के रूप में मिली, लेकिन आज वहां किसी और का कब्जा है. वे बताते हैं कि उन्होंने अधिकारियों से गुहार लगाई लेकिन अवैध कब्जा हटवाने में असफल रहे.

महादलित मुसहर बिरादरी की 55 वर्षीय बेचनी देवी खोखनाहा मन्ना टोला की निवासी हैं. वर्ष 2018 की बाढ़ में उनका घर कट गया. अब वह किशुनपुर प्रखंड के बेला गांव में दूसरे की जमीन पर रह रही है.

उन्हें भी खरैल मलदह में पुनर्वास मिला है लेकिन वहां की जमीन पर किसी दूसरे का कब्जा है. पुनर्वास स्थलों पर अवैध कब्जे की शिकायतों की भरमार है. इनकी सुनवाई का पुख्ता प्रबंध न होने से मामले अदालतों में भी जा रहे हैं.

पुनर्वास स्थलों पर अवैध कब्जे, वैध विस्थापितों के आवंटित स्थल पर दूसरे वैध विस्थापित के बस जाने की समस्या को जल संसाधन मंत्रालय ने भी स्वीकार किया है और इस समस्या के समाधान के लिए सुपौल, सरहसा, मधुबनी और दरभंगा के जिलाधिकारियों को निर्देश भी दिया है.

सरकारी दस्तावेजों में कोसी योजना के फायदे गुलाबी हर्फ़ में दर्ज हैं लेकिन कोसीवासियों की पीड़ा बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई के नाम पर लाई गई एक योजना की त्रासदी को सामने लाती है.

खोखनाहा के अमीन टोला निवासी पुलकित यादव कहते हैं, ‘हमारे दुख की कहानी लिखने के लिए तुलसीदास की कलम चाहिए.’

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq