यूपी: बिल न चुका पाने पर दंपति को कथित तौर पर नवजात बच्चा अस्पताल को बेचना पड़ा

उत्तर प्रदेश के आगरा ज़िले का मामला. आरोप है कि चिकित्सा बिल के बदले एक लाख रुपये में अस्पताल प्रशासन ने दंपति को बच्चा बेचने के लिए मजबूर किया, वहीं अस्पताल ने इस आरोप का खंडन किया है.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

उत्तर प्रदेश के आगरा ज़िले का मामला. आरोप है कि चिकित्सा बिल के बदले एक लाख रुपये में अस्पताल प्रशासन ने दंपति को बच्चा बेचने के लिए मजबूर किया, वहीं अस्पताल ने इस आरोप का खंडन किया है.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

आगरा: उत्तर प्रदेश के आगरा में 35 हजार रुपये का मेडिकल बिल न चुका पाने पर अस्पताल द्वारा एक दलित दंपति को एक लाख रुपये में उनके नवजात बच्चे को कथित तौर पर बेचने के लिए मजबूर करने का मामला सामने आया है.

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, 36 वर्षीय बबीता ने पिछले हफ्ते ऑपरेशन के जरिये एक बच्चे को जन्म दिया. इस पूरी प्रक्रिया में 30 हजार रुपये का खर्च आया, जबकि दवाइयों पर पांच हजार रुपये का खर्च आया.

हालांकि, न तो वह और न ही उनके 45 वर्षीय रिक्शा चालक पति शिवचरण उस पैसे को चुका पाने में सक्षम नहीं थे.

दलित दंपति ने आरोप लगाया कि अस्पताल ने उनसे कहा कि वह बिल चुकाने के लिए अपने नवजात बच्चे को एक लाख रुपये में अस्पताल को बेच दें.

मामले की जानकारी मिलने पर जिलाधिकारी प्रभु एन. सिंह ने कहा कि यह एक गंभीर मुद्दा है. इसकी जांच की जाएगी और दोषी पाए जाने वालों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाएगी.

वहीं, पार्षद हरी मोहन ने कहा कि उन्हें जानकारी थी कि अस्पताल का बिल न चुका पाने पर दंपति अपना बच्चा बेचना पड़ा. उन्होंने आगे कहा कि शिवचरण गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहे थे.

हालांकि, अस्पताल ने इन आरोपों को खारिज कर दिया और कहा कि बच्चे को खरीदा नहीं गया बल्कि दंपति द्वारा गोद देने के लिए अस्पताल को दिया गया है.

रिपोर्ट के अनुसार, ट्रांस-यमुना इलाके में स्थित जेपी अस्पताल की सीमा गुप्ता ने कहा, ‘ये दावे गलत हैं. हमने उन्हें बच्चा छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया. उन्होंने ऐसा अपनी मर्जी से किया. मेरे पास मात-पिता द्वारा हस्ताक्षरित एक लिखित दस्तावेज है, जिसमें उन्होंने अपनी इच्छा जाहिर की है.’

शिवचरण, बबीता और उनके पांच बच्चे आगरा के शंभूनगर इलाके में एक किराये के मकान में रहते हैं. रिक्शा चलाकर शिवचरण दिनभर में 100 रुपये से भी कम कमाते हैं और वह भी ऐसा रोजाना नहीं हो पाता है.

वहीं, उनके सबसे बड़े 18 वर्षीय बेटे जूते बनाने की एक फैक्टरी में काम करते थे, जो कि लॉकडाउन के कारण बंद हो गई है.

उन्होंने कहा कि बबीता की गर्भावस्था के दौरान कोई भी आशा कार्यकर्ता उन्हें देखने नहीं आई और न ही मुफ्त डिलीवरी दिलाने में मदद के नाम पर ही कोई सामने आया.

शिवचरण ने बताया कि हम आयुष्मान भारत योजना के तहत भी नहीं आते हैं.

शिवचरण ने कहा कि जब वे डिलीवरी के लिए बबीता को अस्पताल लेकर गए तब डॉक्टरों ने उन्हें ऑपरेशन कराने के लिए कहा.

उन्होंने कहा, ‘24 अगस्त को 6:45 बजे बबीता ने एक लड़के को जन्म दिया, लेकिन हमारे पास खर्च उठाने की क्षमता नहीं थी. मैं और मेरी पत्नी पढ़-लिख नहीं सकते हैं. हमने अस्पताल के कहने पर सभी दस्तावेजों पर अंगूठा लगाया. मुझे अस्पताल से छुट्टी दिए जाने, बिल भरने या किसी अन्य तरह के दस्तावेज नहीं दिए गए.’

उनके अनुसार, उन्हें एक लाख रुपये देकर बच्चा छोड़कर जाने को कह दिया गया.

बाल अधिकार कार्यकर्ता नरेश पारस ने कहा कि अस्पताल की सफाई सही नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘हर बच्चे के गोद लेने की प्रक्रिया केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण द्वारा तय प्रक्रिया के तहत होनी चाहिए. नवजात के गोद के लिए लिखित समझौता होने के अस्पताल प्रसाशन के दावे का कोई मतलब नहीं है. उन्होंने एक अपराध किया है.’

इस बीच, बबीता अपना बच्चा वापस चाहती हैं. उन्होंने कहा कि हमें बस कुछ पैसों की जरूरत है.

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