साहित्यिक कुपाठ के निशाने पर प्रेमचंद

जून महीने के आख़िरी हफ्ते में मासिक पत्रिका हंस के संपादक संजय सहाय ने कहा कि प्रेमचंद यथास्थितिवादी, प्रतिगामी थे और उनकी 25-30 कहानियों को छोड़कर अधिकतर कहानियां ‘कूड़ा’ हैं.

//
प्रेमचंद.

जून महीने के आख़िरी हफ्ते में मासिक पत्रिका हंस के संपादक संजय सहाय ने कहा कि प्रेमचंद यथास्थितिवादी, प्रतिगामी थे और उनकी 25-30 कहानियों को छोड़कर अधिकतर कहानियां ‘कूड़ा’ हैं.

Premchand Final
प्रेमचंद

करीब ढाई महीने पहले हिंदी साहित्यिक जगत में थिएटर ऑफ एब्सर्ड का एक सच्चा उदाहरण सामने आया था. इस नाटक के सूत्रधार रहे मासिक पत्रिका हंस के संपादक संजय सहाय. संजय सहाय ने प्रेमचंद पर निशाना साधा था.

गौरतलब है कि रवींद्रनाथ टैगोर के साथ प्रेमचंद ही वह भारतीय लेखक हैं, जिनकी दुनियाभर में पहचान है.  सहाय उस पत्रिका के संपादक हैं, जिसकी स्थापना प्रेमचंद ने 1930 में की थी और बाद में 1980 के दशक मध्य में राजेंद्र यादव ने जिसे पुनर्जीवित किया था.

इस तथ्य ने स्थिति को बेहद अजीबोगरीब बना दिया है. जैसा कि आलोचक मार्टिन एसलिन ने समझाया है, थिएटर ऑफ एब्सर्ड अपनी जड़ों से कटे हुए एक ऐसे व्यक्ति का चित्रांकन करता है, जो पूरी तरह से दिशाहीन है अैर जिसके जिसके कृत्य ‘बेतुके, असंगत, बेकार’ हो जाते हैं.

सहाय की हालिया टिप्पणियों के मद्देनजर यह यह परिभाषा उन पर पूरी तरह से लागू होती है.

22 जून, 2020 को एक फेसबुक लाइव के जरिये लोगों से मुखातिब होते हुए, जिसमें लेखक-पत्रकार प्रियदर्शन ने उनका इंटरव्यू लिया और जिसमें उन्होंने दर्शकों के सवालों का भी जवाब दिया, सहाय ने एक स्तब्धकारी बयान दिया कि 25-30 कहानियों को छोड़कर प्रेमचंद की ज्यादातर कहानियां ‘कूड़े’ के अलावा और कुछ नहीं हैं.

एक दर्शक के सवाल का जवाब देते हुए, जिसने उनसे यह पूछा था कि आज के संपादक उन लेखकों को नजरअंदाज कर रहे हैं, जो प्रेमचंद से कहीं अच्छा लिख रहे हैं, सहाय ने कहा कि यह लाजिमी है कि वे वे प्रेमचंद से अच्छा लिखें, क्योंकि वे अपने समय में लिख रहे थे और समकालीन लोग काफी अलग हालातों में लिख रहे हैं.

यह बयान दे चुकने के बाद कि प्रेमचंद का ज्यादातर लेखन कूड़ा था, सहाय ने अपनी बात के सबूत के तौर पर दो बेहद चर्चित कहानियों- ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘नमक का दरोगा’ का हवाला दिया.

ऐसा करने करते हुए उन्होने खुद को बेपर्दा कर दिया और यह दिखाया कि कथा-साहित्य का पाठ कैसे नहीं किया जाना चाहिए. एक ही सांस में उन्होंने बड़े घर की बेटी को ‘यथास्थितिवादी’ के साथ-साथ ‘यथार्थवादी’ करार दिया.

ऐसा करते हुए उन्होंने इस बात को लेकर शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी कि उन्हें इन अहम अवधारणाओं की कोई समझ नहीं है.

चूंकि यथार्थवाद निजी के साथ-साथ सामाजिक स्थितियों के आंतरिक घात-प्रतिघातों को उधेड़ने का काम करता है, इसलिए यह कभी भी यथास्थिति की झंडाबरदारी नहीं कर सकता है.

यथार्थवादी लेखन का मकसद हमेशा यथार्थ के मूल तत्व को पकड़कर और उसके अंतर्विरोधों को सामने लाकर करके परिवर्तनशील यथार्थ की प्रक्रिया को उजागर करना होता है.

इतना ही नहीं, उन्होंने दोनों ही कहानियों का कुपाठ किया और उनकी व्याख्या वास्तव में सनकी ढंग से की.

उन्होंने एक ऐसी बहू की तारीफ करने के लिए प्रेमचंद की मजम्मत की, जो अपने पति के छोटे भाई द्वारा लतियाए और पीटे जाने के बावजूद, बस संयुक्त परिवार को बचाने के लिए उसे माफ कर देती है, जबकि उसके ससुर ने गलती करने वाले बेटे का पक्ष लिया था और उसने अपनी भाभी से माफी मांगने की जगह अपने बड़े भाई से माफी मांगी थी.

जो भी इस कहानी को पढ़ने का कष्ट करेगा, उसे यह बात समझ में आए बगैर नहीं रहेगी कि उन्हें कहानी के कुपाठ के आधार पर इसकी गलत व्याख्या की.

कहानी के शुरुआती अनुच्छेदों में प्रेमचंद यह साफ कर देते हैं कि वे इस बात से सहमत नहीं हैं कि रोज की झिकझिक, झगड़े और तनावों के बावजूद संयुक्त परिवारों की एकता को बनाए रखना चाहिए.

आनंदी के अभिभावक अमीर हैं जबकि उसके ससुर कभी एक जमींदार हुआ करते थे, लेकिन अदालती मुकदमों में पैसे लुटाने के चलते उनके सितारे सितारे गर्दिश में आ गए हैं.

आनंदी का पति श्रीकंठ, जिसे गांव की ज्यादातर औरतें उसके नजरिये के चलते पसंद नहीं करती थीं, अंग्रेजी शिक्षा हासिल करने के बावजूद संयुक्त परिवार का हिमायती है और आनंदी अपने पति से इत्तेफाक नहीं रखती है.

एक दिन आनंदी का देवर गुस्से में आ गया और उसने अपना खड़ाऊं उठाकर उस पर दे मारा, जिससे उसकी उंगली में हल्की सी चोट आ गयी.

श्रीकांत के लौटने पर आनंदी ने उसे इस घटना के बारे में बताया और वह तुरंत उस घर को छोड़कर किसी दूसरी जगह जाकर रहने के लिए तैयार हो गया.

इसने उसके छोटे भाई लाल बिहारी को झकझोर दिया क्योंकि वह श्रीकंठ को बहुत प्यार और उसका काफी सम्मान करता था. उसने श्रीकंठ को अपना विचार छोड़ देने के लिए मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह नाकामयाब रहा.

उसके बाद वह आनंदी के कमरे में आया और बाहर खड़े होकर फूट-फूटकर रोने लगा और उससे उसे माफ कर देने और उसके भाई को यह बता देने के लिए कहा कि वह घर छोड़कर जा रहा है. इसने आनंदी का दिल को पिघला दिया और उसने उसे माफ कर दिया.

प्रेमचंद ने जिस तरह से यह कहानी लिखी है, उससे यह बिल्कुल साफ है कि वे किसी भी कीमत पर संयुक्त परिवार को बचाए रखने का पक्ष लेने की जगह एक सुसंस्कृत स्त्री के हृदय की विशालता और उदारता के गुण को उभार रहे हैं.

लाल बिहारी या परिवार के किसी दूसरे सदस्य द्वारा आनंदी पर ‘लात-घूंसे बरसने’ का कोई जिक्र नहीं है.

ऐसे में यही सलाह दी जा सकती है कि कहानीकार के तौर पर कोई खास पहचान न रखने वाले सहाय को अपनी उर्वर कल्पनाशक्ति का इस्तेमाल अपने लेखन में करना चाहिए.

उन्होंने ‘नमक का दरोगा’ की व्याख्या भी इसी तरह से की, जो प्रेमचंद के रचनात्मक उद्देश्य के साथ पूरी तरह से अन्याय करने वाला है.

प्रेमचंद ने जिस तरह से नमक कर के परिणामों और उसके कारण होनेवाली नमक की तस्करी का वर्णन किया है, भ्रष्ट नौकरशाही और न्यायपालिका की कार्यप्रणाली और निर्मम तरीके से एक ईमानदार इंस्पेक्टर को नौकरी से निकाले जाने को दिखाया है, उसे पढ़कर ऐसा लगता है कि प्रेमचंद आज के समय की हकीकत को बयान कर रहे हैं.

दौलतमंद और ताकतवर जमींदार-व्यापारी ने खुद को गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को अपनी संपत्तियों और कारोबार का मैनेजर बनने का फायदेमंद प्रस्ताव दिया.

अपनी नौकरी और प्रतिष्ठा दोनों से हाथ धो चुके छोटे से अधिकारी ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया.

जाहिर तौर पर दुनियादारी की समझ रखनेवाले कारोबारी को अपनी संपत्तियों और कारोबार का देखरेख करने के लिए एक ईमानदार व्यक्ति की जरूरत थी और एक बर्खास्त इंस्पेक्टर, जिसे हर किसी ठुकरा दिया था, को एक अदद नौकरी की दरकार थी.

सहाय ने एक ऐसे किरदार की रचना करने के लिए प्रेमचंद की आलोचना की.

प्रेमचंद की हर तरह से तौहीन करने की अपनी कोशिश के लिए चारों तरफ से हो रही आलोचनाओं से बेपरवाह संजय सहाय ने हंस के अगस्त अंक में एक संपादकीय लिखकर अपने आलोचकों पर हिंदी साहित्य के मंदिर में प्रेमचंद और उनके जैसे अन्य लेखकों की मूर्ति स्थापित करने का आरोप लगाया.

उन्होंने एक बेतुकी टिप्पणी की कि हिंदी साहित्य पर राम मंदिर आंदोलन जैसी किसी चीज में परिवर्तित हो जाने का खतरा है.

‘भक्तिकाल’ शीर्षक से लिखे गए इस संपादकीय में प्रेमचंद पर भारतीय मूल्य और पहचान को सिर्फ शिव-भक्ति और गंगा स्नान में देखने का आरोप लगाया.

उन्होंने प्रेमचंद की उर्दू कहानियों के संग्रह सोज़-ए-वतन में संकलित ‘यही मेरा वतन’ शीर्षक एक कहानी का उदाहरण दिया, जिसका प्रकाशन 1908 में हुआ था और जिस पर अंग्रेजी सरकार द्वारा 1910 में प्रतिबंध लगा दिया गया था.

यही मेरा वतन में एक भारतीय अमेरिका से लौटता है और देशवासियों की बेहद दयनीय दशा देखकर काफी निराश महसूस करता है.

जब वह हताश स्थिति में बैठा हुआ होता है, तो वह पवित्र नदी गंगा में नहाने जा स्त्रियों और पुरुषों के समूह द्वारा भजन गाए जाने की आवाज सुनता है.

यह उसकी यादों को हरा कर देता है और वह आनंदित महसूस करता है क्योंकि बचपन से उसका गंगा के साथ करीबी संबंध रहा था. सहाय इसे प्रेमचंद की प्रगतिशील छवि का विरोधी पाते हैं.

शायद वे 21 जून, 1954 को जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखित और हस्ताक्षरित वसीयत से उसी तरह से अनजान हैं जैसे वे किसी रचना की साहित्यिकता से हैं. अपनी वसीयत में नेहरू लिखते हैं:

‘इलाहाबाद में अपने बचपन से ही मैं गंगा और यमुना नदी से जुड़ा रहा हूं और मैं जैसे-जैसे बड़ा होता गया हूं यह लगाव और बढ़ता गया है.

मैंने मौसमों के बदलने के साथ उनके बदलते हुए मिजाज को देखा है और अक्सर उस इतिहास, मिथक और परंपराओं और गानों और कहानियों के बारे में सोचा है, जो युगों से उनसे नत्थी हो गए हैं और बहते पानी का हिस्सा बन गए हैं.

खासतौर पर गंगा नदी भारत की नदी है, जिसे उसके लोग प्यार करते हैं, जिससे उसकी स्मृतियां, उम्मीदें, उसके डर, उसके विजय के गीत, उसकी जीत और हार जुड़े हुए हैं.

मेरे लिए गंगा भारत की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक है, जो सतत परिवर्तनशील है, सतत प्रवहमान है, फिर भी अपरिवर्तित है.

मेरे लिए गंगा भारत के अतीत का प्रतीक और स्मृति है, जो वर्तमान तक बहती चली आ रही है और भविष्य के महासागर में जाकर मिल रही है.’

अपने मूर्तिभंजक अतिउत्साह में सहाय प्रेमचंद के खिलाफ एक घृणित आरोप लगाने का अक्षम्य अपराध करते हैं कि राम मोहन राय और विलियम बेंटिंक द्वारा सती प्रथा समाप्त किए जाने के 50 साल से भी ज्यादा समय बाद उन्होंने इस प्रथा का समर्थन किया.

उन्होंने अपने इस आरोप के पक्ष में प्रेमचंद की कहानी ‘सती’ का उदाहरण दिया और अपनी आदत के अनुसार इसका पूरी तरह से कुपाठ कर डाला.

इस कहानी में चिंता देवी, जो एक साहसी योद्धा है, खुद को तब आग के हवाले कर देने की तैयारी करती है, जब वह यह सुनती है कि उसका पति रत्न सिंह, जिसे वह एक आदर्श सैनिक मानती थी, सेना छोड़कर भाग आया है.

वह जब चिता के पास पहुंचती है, तव वहां रत्न सिंह पहुंचता है और उसे ऐसा न करने के लिए मनाता है, लेकिन वह उसे कहती है कि उसके पति की मृत्यु हो गई है और वह उसका पति नहीं है, क्योंकि रत्न सिंह अपने साथियों को छोड़कर युद्ध के मैदान से भाग नहीं सकता था. चिता जला दी जाती है और रत्न सिंह भी उसमें कूद जाता है.

इतिहास और साहित्य की बिल्कुल भी समझ न रखने वाला कोई व्यक्ति ही 19वीं सदी में ही विरोधों के बाद प्रतिबंधित होने वाली सती प्रथा के साथ इस कहानी की तुलना कर सकता है.

लेकिन इन सबसे एक सवाल पैदा होता है. आखिर हंस के वर्तमान संपादक प्रेमचंद जैसे महान लेखक पर, जो इस पत्रिका के संस्थापक संपादक भी थे, कीचड़ उछालने के पीछे इस तरह क्यों आमादा हैं?

(कुलदीप कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq