क़िस्सा दो मुक़दमों का: 1929 का मेरठ षड्यंत्र और दिल्ली दंगों की एफआईआर 59/2020

सीएए विरोधी प्रदर्शनों के लिए दर्ज एफआईआर में प्रदर्शनों को 'राष्ट्रविरोधी' और 'विश्वासघाती' बताना निष्पक्ष नहीं है. इसमें औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा चलाए जाने वाले मुक़दमों की गूंज सुनाई देती है.

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फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा. (फाइल फोटो: पीटीआई)

सीएए विरोधी प्रदर्शनों के लिए दर्ज एफआईआर में प्रदर्शनों को ‘राष्ट्रविरोधी’ और ‘विश्वासघाती’ बताना निष्पक्ष नहीं है. इसमें औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा चलाए जाने वाले मुक़दमों की गूंज सुनाई देती है.

फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा. (फाइल फोटो: पीटीआई)
फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा. (फाइल फोटो: पीटीआई)

दिल्ली दंगों की जांच करने वाली एजेंसियों ने कोरोना महामारी के समय में भी बिना कोई समझौता किए बहुत काम किया है. मुझे लगता है कि उनके पास अपने परिवारों के लिए शायद ही समय रहा होगा, और किन्हीं मिसालों को सुनने-जानने के लिए तो शायद बिल्कुल न हो.

फिर भी अगर मुझे एक तारीख़ी मिसाल की बात करने की अनुमति हो, तो मैं बताना चाहूंगी कि दिल्ली के दंगों को लेकर पुलिस की कार्रवाई में 1929 के मेरठ के साजिश के मुकदमों की छवि साफ दिखाई दे रही है.

यह लगभग सौ साल पहले की बात है. लॉर्ड इरविन ने भारत में लगातार चल रहे छात्रों, कामगारों और किसानों के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन से चिढ़कर भारतीय राष्ट्रवादी नेतृत्व और कुछ ब्रिटिश समाजवादियों को, जिनको लेकर उसे यकीन था कि वे ही प्रदर्शनों के कर्ता- धर्ता हैं, बेअसर करने का मंसूबा बनाया.

भारत के वाइसराय और लंदन में स्थित भारतीय कार्यालय के बीच तेजी से गुप्त बातचीत चलती रही और एक नए कानून का प्रस्ताव दिया गया, ताकि उसके जरिये ब्रिटिश सरकार किसी भी राजनीतिक भीड़ जुटाने वाले या राजनीतिक संगठन बनाने वाले व्यक्ति को भारत से निकाल सके.

और यहां तक कि भारतीय समाज में बराबरी और आज़ादी की बात करने वाले किसी भी भारतीय को विदेश यात्रा से रोक सके ताकि वह नई बातें न सीख सके.

हालांकि इस प्रस्तावित ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ को सितंबर 1928 में विधानसभा के राष्ट्रवादी सदस्यों के ठोस प्रयासों की वजह से हार का सामना करना पड़ा.

विधानसभा में बहस के दौरान लाला लाजपत राय ने इस कानून की खिल्ली उड़ाई कि आज़ादी की लड़ाई के समर्थन में मज़दूरों की हड़ताल का आयोजन करने वाले दो अंग्रेज़ी कम्युनिस्टों की उपस्थिति की वजह से यह कानून प्रस्तावित हुआ.

उन्होंने कहा कि यह मान लेना बेतुका है कि किसी एक या दो व्यक्तियों के चलते इतना व्यापक रोष उत्पन्न हो सकता है.

श्रीनिवास अयंगर ने भी इस आधार पर इस विधेयक का विरोध किया कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया गया कि इन हड़तालों के कारण अंग्रेजी सरकार खत्म हो रही थी या फिर भारतीय समाज ध्वस्त हो रहा था.

यह तो दरअसल सरकारी नौकरशाहों जैसे पुलिस अधिकारियों, जिलाधिकारियों और प्रभावशाली व्यवसायियों (जो इतने प्रभावशाली थे कि अपने विचारों को जोर देकर मनवा सकते थे) की योजना थी, जिसे काउंसिल के गवर्नल जनरल ने बिना किसी पूछताछ के स्वीकार कर लिया था.

इस हार के परिणामस्वरूप, जिसे एक राष्ट्रीय जीत के रूप के रूप में देखा गया था, औपनिवेशिक सरकार ने घोषणा की कि इस विधेयक को अगले सत्र में फिर से पेश किया जाएगा.

और फिर इस घोषणा के बाद सरकार ने जबरदस्त प्रचार किया, जिसमें ऐसे ‘कम्युनिस्ट खतरे’ की निंदा की गई और कहा गया कि इस विधेयक की हार राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा थी.

लॉर्ड इरविन ने अपनी तरफ से ब्रिटेन के राष्ट्रीय सचिव को एक और गुप्त संदेश भेजा:

‘हालांकि यह आंदोलन अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है और शायद अभी कुछ समय के लिए यह भारत में गंभीर खतरा नहीं है फिर भी इसमें खतरे की प्रबल संभावनाएं हैं. इसलिए अभी ही जबकि यह आंदोलन अपनी कमजोर स्थिति में है इसे कुचलने और आगे न बढ़ने देने के लिए कदम उठाने होंगे.

हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि हम इस भारतीय आंदोलन को रोकने के लिए क्या-क्या कर सकते हैं; ताकि उसे बाहर से कोई मदद न मिले, न पैसे की और उससे भी बढ़कर विचारों और संगठन क्षमता की. […] जैसा कि आपने देखा कि सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक को अध्यक्ष के निर्णायक मत से पराजित किया गया और मैं इस बात पर सावधानीपूर्वक विचार कर रहा हूं कि हम कौन से रास्ते अपनाएं.

हम भारत में बहुत से कम्युनिस्टों के खिलाफ षड्यंत्र का मुकदमा चलाने की सोच रहे हैं.’ [सर डेविड पेट्री और सर होरेस विलियमसन, इंटेलिजेंस के निदेशक, अप्रकाशित पत्र, साहा द्वारा संपादित]

षड्यंत्र के मुकदमे सचमुच ही चले और साढ़े चार साल तक चलते रहे. न्यायिक और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ एजी नूरानी कहते हैं, ‘राजनीतिक सुनवाइयों के बीच मेरठ के षड्यंत्र मुकदमों का उद्देश्य सिर्फ बत्तीस आरोपियों की सज़ा सुनिश्चित करना नहीं था, बल्कि सविनय अवज्ञा आंदोलन को कुचलना भी था. अभियुक्त अपनी सोच के लिए दंडित किए जा रहे थे न कि किसी गैर-कानूनी काम के लिए.’

मेरठ षड्यंत्र मामले के 25 अभियुक्त. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)
मेरठ षड्यंत्र मामले के 25 अभियुक्त. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

21 मार्च 1929 को ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ फिर से विधानसभा में प्रस्तुत किया जाना था. 20 मार्च की शाम को बॉम्बे, कलकत्ता, इलाहाबाद, दिल्ली, लाहौर व अन्य स्थानों पर घरों, श्रमिक संगठनों, अखबारों के कार्यालयों छापे मारे गए.

मेरठ में श्रमिकों तथा किसानों की पार्टियों एआईसीसी  तथा एआईटीयूसी के 32 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया.

हालांकि गिरफ्तार किए गए 32 लोगों में से सिर्फ 2 ही मेरठ के थे, अभियोजन पक्ष द्वारा मेरठ को ही सुनवाई का स्थान बनाया गया ताकि आरोपी जूरी ट्रायल का फ़ायदा न उठा सकें.

हालांकि अंतिम नतीजे औपनिवेशिक अधिकारियों के लिए संतोषप्रद नहीं निकले.

दिल्ली दंगे और एफआईआर 59/2020

मेरठ और दिल्ली के षड्यंत्रों के मुकदमों में नब्बे किलोमीटर और 91 साल का फर्क है, लेकिन दोनों षड्यंत्रों के किस्सों के पीछे की राजनीतिक मंशा में समानता पर ध्यान न जाए, ऐसा संभव नहीं.

एफआईआर 59/2020 एक अज्ञात मुखबिर द्वारा एक सब-इंस्पेक्टर को दी गई घटना की जानकारी के आधार पर दर्ज की गई.

इसमें दर्ज है कि दिल्ली दंगे कुछ विशेष व्यक्तियों द्वारा प्रायोजित किए गए, जिन्होंने सरकार के खिलाफ जनता को जुटाने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध को एक अवसर के रूप में इस्तेमाल किया.

इस एफआईआर में विशेष रूप से यह आरोप लगाया गया है कि सीएए के विरोध प्रदर्शनों में दिए गए भाषण डोनाल्ड ट्रंप की दिल्ली यात्रा के दौरान लोगों को सड़क पर उतरने के लिए उकसा रहे थे जिसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह प्रोपगेंडा’ करना था कि भारत में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं.

आमतौर पर एफआईआर में राजनीतिक बयानबाजी से बचा जाता है. कभी कभी उनमें  गुस्से भरे उकसाने वाले भाषणों को अक्षरशः पेश करते हैं, लेकिन एफआईआर में ऐसे राजनीतिक वक्तव्यों को एक प्रोपगेंडा के रूप में दर्ज करना कोई सामान्य बात नहीं.

‘क्या भारत में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहा है?’ यह एक राजनीतिक सवाल है या कुछ परिस्थितियों में न्यायिक सवाल है, इसलिए यह स्पष्ट रूप से असंगत है कि एफआईआर ‘प्रोपगेंडा ’ शब्द का इस्तेमाल करती है और इसके जरिये प्रदर्शनों को अवैध करार देने का प्रयास करती है.

एफआईआर में भाषणों द्वारा हिंसा के लिए किसी भी प्रकार के उकसावे का जिक्र नहीं है. फिर भी ध्यान से देखें, तो इसमें धारा 147 (दंगे), धारा 148 (घातक हथियारों से लैस दंगाई), धारा 149 (किसी आम जनसभा का हिस्सा होना या उसमें भाग लेना) और धारा 120(B) (आपराधिक षड्यंत्र) लगाई गई हैं.

इस प्रकार ये सीएए के सभी विरोधियों (संपूर्ण भारत में) को एक दंगा करने वाली एक इकाई ही मानता है जबकि साफ तौर से कहीं भी यह आरोप नहीं है कि सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों ने दंगा किया.

ध्यान देने की बात यह है कि सिर्फ इसका जिक्र और संदर्भ एक जगह मिलता है कि उत्तर पूर्वी दिल्ली में कुछ घरों में हथियार, पेट्रोल बम, एसिड और पत्थर जमा थे लेकिन इन घरों के साथ सीएए प्रदर्शनों के साथ कोई संबंध स्पष्ट नहीं है.

अगर यह कहा जाए कि इनमें से कुछ घरों के मालिक सीएए विरोधी प्रदर्शनों में शामिल थे तब भी इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि उन घरों में हो रहे कृत्यों में उनके संलिप्त होने से सारे विरोध प्रदर्शन दंगाई समूहों में कैसे बदल जाते हैं!

डैरेन ब्राउन एक बेहतरीन जादूगर हैं, इंद्रजाल करने वाले एक शख्स जो लोगों की सोच के साथ खेलते हैं और किसी भी दर्शक की सोच में हेरफेर कर सकते हैं.

वे कहते हैं कि यह करना उनके लिए आसान है और इसके लिए वह दर्शकों के दिमाग में बार-बार एक ही बात डालते हैं. इस प्रकार यदि वे किसी शो के आरंभ में किसी को उपद्रवी की रूप में पेश करते हैं और वह लापरवाही से शो के दौरान यही सब करते रहते हैं, तो वह शो के अंत तक दर्शकों द्वारा उस व्यक्ति के प्रति एक विशेष प्रकार की प्रतिकिया देने के लिए बाध्य कर सकते हैं.

एफआईआर 59/2020 ने लोगों के दिमाग में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को उनके प्रदर्शनों में उनके द्वारा सामूहिक हिंसा के किसी आरोप को बिना साबित किए दंगाइयों में बदल दिया। उनके एक जनसभा के रूप में एकत्र होने को अपने आप में ही अपराध की तरह पेश किया गया.

22 फरवरी 2020 को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के पास महिलाओं का धरना. (फोटो: पीटीआई)
22 फरवरी 2020 को जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के पास महिलाओं का धरना. (फोटो: पीटीआई)

एफआईआर में कहा गया है कि महिलाओं और बच्चों ने जानबूझकर ज़ाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन के बाहर सड़क पर अवरोध उत्पन्न किया. इससे दूसरे लोगों को असुविधा हुई तथा तनावपूर्ण स्थितियां पैदा हुईं, जिससे दंगे भड़क उठे.

एफआईआर इस बारे में बिल्कुल खामोश है कि आखिर वे कौन लोग थे जो इस विरोध प्रदर्शनों से इतना भड़क गए कि उन्हें लगा कि सड़क खाली कराने के लिए हिंसा करना ज़रूरी है.

एफआईआर ज़ाफ़राबाद में हिंसा के लिए प्रदर्शनकारियों का नाम नहीं लेती, लेकिन इशारा करती है कि सड़क पर अवरोध उत्पन्न करना और दूसरों को असुविधा पहुंचाना अपने आप में ही एक ‘हिंसा’ थी, जिसके कारण अन्य लोगों द्वारा जवाबी कार्रवाई की गई.

एक समय था जब कुछ जाने पहचाने परिचित लोग दंगे फैलाने के लिए सुअर को काटकर उसे मस्जिद के बाहर फेंक देते थे. या मंदिर के बाहर गोश्त से भरा एक थैला छोड़ देते थे या किसी धार्मिक स्थान पर या किसी धार्मिक सभा में पत्थर फेंक देते थे. ये सभी कार्य सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने के लिए जानबूझकर किए गए प्रयास थे, जो एक अपराध थे.

एफआईआर 59/2020 में उन दंगाइयों के समान सीएए के विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों को उकसाने वाली भीड़ के रूप में प्रदर्शित किया गया है.

प्रदर्शनकारियों को सामूहिक रूप से दंगाई घोषित कर दिया गया है. और यह प्रचारित किया गया है कि अल्पसंख्यक समुदाय एक ऐसे विचार के प्रति असहमति व्यक्त कर रहा है जिसे लोकप्रिय समर्थन हासिल है. इस तरह सीएए का उनका यह विरोध अपने आप में ऐसा उकसावा था जिससे दंगा भड़का.

वास्तव में प्रदर्शनों का हिंसक प्रतिरोध करने वालों पर एफआईआर की चुप्पी उन्हें एक अपने से चलने वाले रोबोट की तरह समझती है, जो ‘प्रदर्शन के उकसावे’ पर प्रतिक्रिया दे रहे थे और उनकी व्यक्तिगत और सक्रिय भूमिका की जांच करने को जरूरी नहीं समझती.

एफआईआर में दर्ज परिस्थितियां उस सिलसिले को नहीं बता पाती हैं कि वे कौन सी गहरी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने सीएए विरोधी प्रदर्शन को अन्य लोगों के लिए एक घृणित बात में बदल दिया?

हमारे देश में किसी भी वर्ग के लोगों के लिए किसी अन्य वर्ग या सरकार द्वारा सिर्फ असुविधा के लिए भड़क जाना आम बात नहीं है.

प्रदर्शनकारियों को किसी राक्षस के रूप में दिखाने में कुछ नेताओं की और मीडिया की क्या भूमिका रही? प्रशासन या पुलिस की तरफ से यदि कोई चूक थी तो वह क्या थी?

बल्कि एफआईआर 59 विरोध के तथ्य का बदला लेने के लिए हिंसा का पूर्वसिद्ध कारण मानती है. यह भी हो सकता है कि किन्हीं बाहरी वजहों से तनावपूर्ण हुए वातावरण के चलते कोई शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन अपने रास्ते से भटक जाए.

जबकि भारत का संविधान अनुच्छेद 19 (1) (बी) के अंतर्गत शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार देता है, फिर भी भारत की संप्रभुता, एकाग्रता और कानून व्यवस्था के हित में इस कानून में उचित सीमाएं रखी गई हैं.

यदि किसी सभा के उपद्रवी बन जाने की या दूसरों को उपद्रवी बना देने की संभावना है तो पुलिस का उत्तरदायित्व है कि वो आंशिक और आनुपातिक बल का प्रयोग करके भीड़ को तितर-बितर कर दे.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

भारतीय दंड संहिता की धारा 141 के अनुसार कोई भी सभा गैरकानूनी घोषित की जा सकती है, अगर उसमें किसी प्रकार की आपराधिक गतिविधि इत्यादि हो रही हो, या कोई भी सभा जो गैर कानूनी नहीं थी, बदलती परिस्थितियों के अनुसार गैरकानूनी घोषित की जा सकती है.

किसी प्रदर्शन को अगर इस रूप में चिह्नित किया जाता है और यदि शांति का उल्लंघन होने की संभावना होती है तो इसके लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और पुलिस मैन्युअल में विस्तृत नियमावली दी गई है.

इसके मुताबिक चेतावनी देने के बाद आंशिक और आनुपातिक बल का प्रयोग करके प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिए जाने का प्रावधान है. (सीआरपीसी की धारा 129 तथा 130 में पुलिस को सभा को तितर बितर करने के दौरान सभा के सदस्यों तथा नेताओं को रोकने का भी अधिकार है.)

इसके बाद मुकदमे भी संभव हैं. भारतीय दंड संहिता की धारा 142 से लेकर 145 तक उन अपराधों का उल्लेख किया गया है जिनमें जानबूझकर किसी गैर कानूनी सभा का हिस्सा बनना और उन घातक हथियारों को रखना, जिनके चलने से किसी की मौत हो सकती है, शामिल हैं. ये सभी अपराध संज्ञेय तथा जमानती हैं.

‘षड्यंत्र की गहरी जड़ें’

एफआईआर 59 में दर्ज तथाकथित हुड़दंग के संदर्भ में लागू कानूनों की कोई रूपरेखा नहीं है, जिनसे जनसभा के गैर कानूनी होने के तौर पर जांच हो सके. यह इसे एक गहरा षड्यंत्र बताती है: उस राजनीतिक अभियान का षड्यंत्र, जो अप्रत्यक्ष रूप में ‘राजद्रोही’ और लोगों को उकसाने वाला था और दंगों के लिए सिर्फ उसी की जांच होनी चाहिए.

कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं, जिनमें से कुछ यूएपीए के तहत हुई हैं. उनमें से अधिकतर छात्र और कार्यकर्ता हैं जो विरोध प्रदर्शन में शामिल थे.

इसके अलावा अन्य बहुत से लोगों को, जो नए विचारों के वाहक हैं जिन्हें बुद्धिजीवी कहा जाता है, जैसे लेखक शिक्षक, कलाप्रेमी और फिल्म निर्माता, उन्हें भी पुलिस ने पूछताछ के लिए बुलाया.

बुद्धिजीवियों की जांच के नाम पर पुलिस उनके विचारों की जांच कर रही है, जैसे ‘आप सीएए का विरोध क्यों कर रहे हैं?’ ‘आप ऐसे प्रदर्शनों का समर्थन क्यों कर रहे हैं जो लोगों के लिए असुविधा का कारण हैं?’ ‘आप स्वयं सक्रिय रूप से ऐसे प्रदर्शनों में लोगों का समर्थन क्यों जुटा रहे हैं?’ ‘आपको आज़ादी के नाम पर और क्या चाहिए जबकि आपको पहले ही बहुत आज़ादी दी गई है?’

राजनीतिक विचारों पर पुलिस का सवाल करना एक आम बात है, मगर ‘आधी रात को दी जा रही दस्तक’ सिर्फ निरंकुश शासन का प्रतीक है.

दूसरी ओर भारत में संविधान ने किसी भी राजनीतिक विचार पर रोष जताने का अधिकार दिया है और ऐसे विरोध प्रदर्शन जो सरकार की नीतियों का विरोध करते हैं और सरकार को शर्मिंदा कर सकते हैं, उनकी भी आम तौर पर ऐसे विशेष अधिनियमों के तहत जांच नहीं की जाती रही है.

किसी राजनीतिक विचार के विरोध में जनता का समर्थन जुटाना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जब तक कि यह किसी कानून को न तोड़ें.

अपने अनुभव के अनुसार मैंने देखा है कि बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि आंदोलन में भारत की संकल्पना को नए सिरे से परिभाषित किया और पुरानी धारणाओं को तोड़ दिया गया.

शांतिप्रिय ढंग से लोगों को जुटाना कोई गैर कानूनी काम नहीं है, चाहे वो किसी पार्टी या विचारधारा से देश को ‘मुक्त’ करने के लिए ही क्यों न हो (हालांकि लोगों से ‘मुक्त’ बनाने का मतलब होगा नफरत से भरे भाषण और जनसंहार).

लोगों को यह बताना कि सरकार एक विशेष वर्ग के लोगों के प्रति उदासीन है, यह किसी प्रकार का कोई षड्यंत्र नहीं है. आज शासन करने वाली पार्टी के द्वारा ऐसे आरोप उनसे पहले की सरकार पर अक्सर लगाए गए कि उन्होंने तुष्टिकरण से काम लिया और बहुसंख्यकों की अवहेलना की.

सड़कों पर किए जाने वाले विरोध प्रदर्शन राष्ट्रविरोधी या हानिकारक नहीं हैं. यदि प्रदर्शनकारी सड़कों पर अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं तो उनसे दंड और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत निपटा जा सकता है.

वास्तव में अपराध तब होता है जब ऐसे प्रदर्शनों में किसी भी प्रकार की हिंसा के लिए सीधे उकसावा दिया जाए और इसके और असल में हुई हिंसा बीच कोई सीधा संबंध हो.

तिलक पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा

एफआईआर 59 के लिए हमें 1929 से और अधिक पीछे 1897 में जाना पड़ेगा जब लोकमान्य तिलक पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला था.

तिलक के मुकदमे में न्यायाधीशों की पीठ ने राष्ट्रद्रोह के दायरे को और भी व्यापक किया और इसमें लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काने से लेकर सरकार के प्रति आपके प्रेम में यदि कमी होती है, तो इसे भी राष्ट्रद्रोह के अंतर्गत रखा गया.

इस प्रकार सरकार के विरुद्ध रोष का संदेह या किसी प्रकार का लेखन या भाषण जो लोगों के मन में सरकार का सम्मान कम करने के लिए प्रोत्साहित करें, इस सब को राष्ट्रद्रोह करार दिया गया.

1897 में बॉम्बे में फैली प्लेग महामारी के दौरान सरकार की इससे निबटने की नीतियों के विरुद्ध लिखने के कारण तिलक को जेल में डाल दिया गया, जिसके बाद ब्रिटिश सरकार को वहां की स्थानीय जनता के खिलाफ और भी शक्तियां प्राप्त हो गईं.

दूसरी ओर आज़ादी के बाद भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया कि सरकार और उनकी नीतियों की आलोचना राजद्रोह का आधार हैं.

न्यायालय ने बारूद में चिंगारी को आधार माना है जिसका मतलब होता है भड़काऊ भाषण या ऐसा ही कोई काम जो लोगों को अनियंत्रित कर दे (किसी भीड़ की तरफ इशारा करते हुए गोली मारो***** को, के नारे लगाना और उसके ठीक बाद कोई असल में गोली चला दे).

दूसरी तरफ एफआईआर 59 में अंगारों को हवा देने की थ्योरी पर आधारित है:  यह सरकार की लगातार की जाने वाली आलोचनाओं को आपराधिक मानती है क्योंकि इससे लोगों के मन में सरकार के प्रति लगाव में कमी आ सकती है. दुर्भाग्यवश इस दावे का कोई कानूनी आधार नहीं है.

सीएए के विरुद्ध प्रदर्शनों के मामले में एफआईआर 59 निष्पक्ष नहीं है. इसके अनुसार ये प्रदर्शन राजनीतिक थे और गलतबयानी पर आधारित थे, राज्य विरोधी थे और राष्ट्रघाती थे.

सीएए का विरोध करना ही उन प्रदर्शनकारियों को अपराधी बनाता है और छात्रों तथा शिक्षकों को पुलिस स्टेशन बुला कर सीएए विरोध प्रदर्शन में उनकी भागीदारी को लेकर उनके अपमान को एक आम बात बना दिया गया है.

एफआईआर 59  प्रदर्शन के षड्यंत्र के बारे में एकदम बेतुके और अप्रमाणित आरोपों को विश्वसनीय बना कर पेश करता है. उससे पुलिस के लिए यह आसान हो जाता है कि वह चार्जशीट दाखिल करना स्थगित करती रहे और एफआईआर के बेबुनियाद आरोपों का सबूत ढूंढती रहे जबकि आरोपी जेल में इंसाफ की बाट जोहते रहें.

वाइसराय इरविन. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)
वाइसराय इरविन. (फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स)

मेरठ के षड्यंत्र वाले मुकदमों पर वापस आते हैं. इन मामलों में 25 जिल्दों में मुद्रित साक्ष्य पेश किए गए. ब्रिटेन तथा भारत से कुल तीन हज़ार पांच सौ दस्तावेज़ों और 32 गवाहों ने अभियुक्तों और उनके संगठनों की राजनीतिक गतिविधियों का एक दूसरे से संबंध साबित किया. कार्यवाही पूरी होने के बाद आधिकारिक रूप से यह घोषणा की गई कि इस प्रक्रिया में 1,26,000 पाउंड का खर्च आया.

हालांकि 1933 में कार्यवाही पूरी होने के बाद उच्च न्यायालय ने अभियुक्तों को बहुत ही न्यूनतम दंड दिया. ऐसा इसलिए हुआ कि साढ़े चार साल की कार्यवाही काल में भारत और भारत से बाहर दोनों जगह आरोपियों के प्रति लोगों की सहानुभूति काफी बढ़ गई.

इससे संसद और ब्रिटेन के अखबारों में हाहाकार मच गया और ब्रिटेन में सत्ताधारी कंज़र्वेटिव सरकार मई 1929 में चुनाव हार गई.

आयोजकों की गिरफ़्तारी के अलावा इस मुकदमे का कोई प्रभाव औपनिवेशवाद विरोधी राजनीतिक आंदोलन पर नहीं पड़ा. ऐसा आंदोलन की लोकप्रियता के कारण था.

ऐसा कहा जाता है कि इस प्रक्रिया ने लॉर्ड इरविन और ब्रिटेन के राष्ट्रीय सचिव को बहुत निराश कर दिया था. लॉर्ड इरविन ने राष्ट्रीय सचिव को लिखा कि वे यह कितना सोचते हैं कि काश ईश्वर उन्हें यह षड्यंत्रवाला किस्सा शुरू करने के पहले ही रोक देता.

राष्ट्रीय सचिव ने भी उनसे अपने दिल की बात कही कि पूरा मुद्दा हल हो जाने और सब कुछ निबट जाने पर वो ईश्वर का धन्यवाद करेंगे.

लॉर्ड इरविन के उत्तराधिकारी वाइसराय विलिंगटन ने घोषणा की कि वे इसे लेकर तो निश्चित हैं कि जब तक वे वाइसराय हैं उनके कार्यकाल में किसी के भी खिलाफ कोई षड्यंत्रकारी मुकदमा न हो.

आज जबकि दिल्ली में साजिशन बनाए गए मुकदमे खिंचते जा रहे हैं, क्या उनके षड्यंत्रकारी कभी यह चाहेंगे कि काश वे इस राह पर न गए होते.

(लेखक वकील हैं और दिल्ली में वकालत करती हैं.)

(मूल अंग्रेज़ी लेख से तनवीर इलियास द्वारा अनूदित. तनवीर जामिया मिलिया इस्लामिया में टर्की भाषा के छात्र हैं.)

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