अनुसूचित जाति की एकल मांओं के बच्चों को जाति प्रमाणपत्र नहींः दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जाति की सिंगल मदर्स के ऐसे बच्चे, जिनके पिता सवर्ण जाति से हैं, को तब तक जाति प्रमाण पत्र नहीं दिया जाएगा, जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि विशिष्ट समुदाय के कारण उन्हें अभाव, अपमान और बाधाओं का सामना करना पड़ा है.

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(फोटो: पीटीआई)

दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जाति की सिंगल मदर्स के ऐसे बच्चे, जिनके पिता सवर्ण जाति से हैं, को तब तक जाति प्रमाण पत्र नहीं दिया जाएगा, जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि विशिष्ट समुदाय के कारण उन्हें  अभाव, अपमान और बाधाओं का सामना करना पड़ा है.

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नई दिल्लीः दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है कि अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाली सिंगल मदर्स के बच्चों को तब तक जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाएगा, जब तक यह सिद्ध नहीं हो जाता कि उन्हें विशिष्ट समुदाय के कारण अभाव, अपमान और बाधाओं का सामना करना पड़ा है.

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, यह नियम ऐसी सिंगल मदर्स के बच्चों पर लागू होगा, जिनके पिता सवर्ण जाति से संबंध रखते हैं.

जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद की पीठ ने कहा, ‘एक आदिवासी और गैर आदिवासी के बीच अंतरजातीय विवाह में आने वाले वंश की जाति का निर्धारण प्रत्येक मामले में शामिल तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए. यह भी बताना होगा कि पिता द्वारा त्याग किए जाने की वजह से बच्चों को किसी तरह के अभाव या अयोग्यता का सामना करना पड़ा है. ‘

दरअसल अनुसूचित जाति की एक सिंगल मदर ने अदालत में याचिका दायर कर अपने बच्चों के लिए प्रमाणपत्र जारी करने की मांग की थी.

यह महिला दरअसल वायुसेना की एक वरिष्ठ अधिकारी हैं, जिन्होंने वायुसेना के ही अपने एक सहयोगी से शादी की थी, जो सवर्ण जाति से थे. साल 2009 में तलाक के बाद बच्चे मां के साथ ही रहे, जो अपनी पोस्टिंग के अनुसार आधिकारिक आवास पर रहती रहीं और अकेले ही बच्चों की परवरिश की.

महिला का कहना है कि बच्चे कभी अपने पिता के साथ बड़े नहीं हुए और न ही उनके पिता के समुदाय के किसी भी शख्स से उनकी कभी बातचीत हुई इसलिए बच्चों का उनके पिता के समुदाय का हिस्सा होने की कोई संभावना नहीं है.

अदालत में महिला की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील संजय आर. हेगड़े ने कहा, ‘अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाला कोई भी पिता, जो अकेले बच्चों का लालन-पालन कर रहा हो, उसके बच्चों को जाति प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए सक्षम माना जाता है लेकिन अगर कोई महिला अनुसूचित जाति से संबंधित हैं और उसने सवर्ण जाति के किसी शख्स से शादी की है और अकेले ही बच्चों की परवरिश की है तो उसके बच्चे जाति प्रमाणपत्र हासिल करने के योग्य नहीं है. महिला को इसके लिए अपने प्रमाणपत्र के अलावा यह भी दर्शाना होता है कि बच्चों का अभाव और दिक्कतों के बीच लालन-पालन किया गया है.’

हेगड़े ने कहा कि इससे तो एकल मांओं को और अधिक मुश्किल भरी स्थिति में डाल दिया है, जो मनमाना, भेदभावपूर्ण और अस्थाई है.

इस मामले पर अदालत ने कहा, ‘महिला के पूर्व पति ने दोबारा शादी कर ली है और उन्होंने अपनी दूसरी शादी से हुए बच्चों को सभी तरह के लाभों के लिए नामांकित किया है. उन्होंने महिला को किसी तरह का गुजारा भत्ता नहीं दिया है और न ही किसी तरह के साक्ष्य पेश किए गए कि महिला के बच्चों को उनकी जिंदगी में किसी भी तरह के अभाव और दिक्कतों का सामना करना पड़ा है.’

अदालत ने कहा कि माता-पिता के अलग होने के बाद भी बच्चों ने अपने पिता के उपनाम का उपयोग करना जारी रखा, जिससे यह पता चलता है कि उन्होंने खुद को समाज में सवर्ण जाति से जुड़े हुए शख्स के तौर पर पेश किया.

अदालत ने कहा, ‘याचिकाकर्ता के भारतीय वायुसेना में वरिष्ठ पद पर होने की बदौलत उनके बच्चों को सुरक्षित माहौल, सर्वश्रेष्ठ स्कूली शिक्षा और इससे जुड़े अन्य अवसर मिले हैं.’

अदालत ने आगे कहा, ‘ऐसे में अगर महिला के बच्चों को जाति प्रमाणपत्र जारी किया जाता है तो इससे उच्च शिक्षा और सार्वजनिक सेवा में आरक्षित अनुसूचित जाति की सीटों की सीमित संख्या के लिए पात्रता का दावा करने वाले योग्य लोग वंचित हो जाएंगे, जिससे संविधान में निहित समानता के लक्ष्य को झटका लगेगा.’

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