क्या बिहार चुनाव से ऐन पहले डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय का दोबारा वीआरएस लेना महज़ संयोग है

बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने साल 2009 में पहली बार वीआरएस लिया था और तब चर्चा थी कि वे भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे, हालांकि ऐसा नहीं हुआ. अब विधानसभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले उनके दोबारा वीआरएस लेने के निर्णय को उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से जोड़कर देखा जा रहा है.

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मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ गुप्तेश्वर पांडेय. (फोटो साभार: फेसबुक/@IPSGupteshwar)

बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने साल 2009 में पहली बार वीआरएस लिया था और तब चर्चा थी कि वे भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे, हालांकि ऐसा नहीं हुआ. अब विधानसभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले उनके दोबारा वीआरएस लेने के निर्णय को उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से जोड़कर देखा जा रहा है.

आईपीएस गुप्तेश्वर पांडेय. (फोटो साभार: फेसबुक/@IPSGupteshwar)
आईपीएस गुप्तेश्वर पांडेय. (फोटो साभार: फेसबुक/@IPSGupteshwar)

तमाम अटकलों को विराम देते हुए 22 सितंबर को बिहार के चर्चित व विवादित डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने दूसरी बार स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली.

बिहार के गृह विभाग ने इस आशय का आदेश भी जारी कर दिया. आदेश में लिखा गया है, ‘डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय को दिनांक 22.9.2020 की अपराह्न के प्रभाव से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति प्रदान किए जाने के फलस्वरूप अगले आदेश तक पुलिस महानिदेशक का अतिरिक्त प्रभार संजीव कुमार सिंघल को दिया जाता है.’

22 सितंबर की शाम सरकारी आदेश की प्रति सोशल मीडिया पर आने के साथ ही गुप्तेश्वर पांडेय का अपना प्रचार तंत्र भी सक्रिय हो गया. गुप्तेश्वर पांडेय ने अपने फेसबुक पेज पर सूचना दी कि वह 23 सितंबर की शाम फेसबुक लाइव के जरिये अपने जीवन संघर्षों के बारे में बताएंगे.

इसके कुछ देर बाद उन्होंने दिल्ली की एक मीडिया वेबसाइट को दिए अपने सवा घंटे के इंटरव्यू को शेयर किया. इस इंटरव्यू का कुछ हिस्सा वह पिछले कुछ दिनों से अपने सोशल मीडिया पेज पर शेयर कर भी रहे थे.

इतना ही नहीं, कुछ दिनों से एक गाने का टीजर भी सोशल मीडिया पर चल रहा था जिसमें गुप्तेश्वर पांडेय को बिहार का रॉबिनहुड बताया गया है. इस गाने को दीपक ठाकुर ने लिखा और गाया है.

22 सितंबर की देर रात ठाकुर ने भी ‘पब्लिक डिमांड’ का हवाला देकर पूरा गाना अपने यूट्यूब चैनल पर जारी कर दिया. मालूम हो कि रॉबिनहुड पश्चिमी लोककथाओं का एक नायक है, जो अमीरों का खजाना लूटकर उसे गरीबों में बांट दिया करता था.

गुप्तेश्वर पांडेय 1987 से पुलिस सेवा में हैं, लेकिन खुद को रॉबिनहुड क्यों मानते हैं, ये समझ से परे है.

तीन दिन पहले पांडेय ने बक्सर के जदयू नेता विध्यांचल कुशवाहा से मुलाकात की थी. मीडिया रपटों के मुताबिक, विध्यांचल कुशवाहा से जब गुप्तेश्वर पांडेय को लेकर सवाल पूछा गया, तो उन्होंने कहा था, ‘गुप्तेश्वर पांडेय अच्छे आदमी हैं, अगर पार्टी में आएंगे तो स्वागत है.’

दूसरी तरफ, चुनाव लड़ने को लेकर गुप्तेश्वर पांडेय से जब सवाल पूछा गया था, तो उन्होंने इसे अफवाह करार दिया था.

लेकिन, वीआरएस संबंधी आदेश जारी होते ही गुप्तेश्वर पांडेय अचानक सोशल मीडिया पर जिस तरह सक्रिय हुए, उससे साफ है कि पिछले कुछ समय से वह वीआरएस लेते ही अपनी छवि चमकाने की तैयारी कर रहे थे.

गुप्तेश्वर पांडेय पर मेहरबान बिहार सरकार

गुप्तेश्वर पांडेय का कार्यकाल अगले साल फरवरी में खत्म हो रहा है. ऐसे में विधानसभा चुनाव से लगभग एक-डेढ़ महीने पहले अचानक वीआरएस लेने से इस अटकल को मजबूती मिलती है कि वह विधानसभा चुनाव लड़ सकते हैं.

अब तक बिहार सरकार और खासकर नीतीश कुमार को लेकर उनकी जिस तरह की प्रतिक्रिया आती रही है, उससे लगता है कि वह संभवतः जदयू के टिकट पर चुनावी मैदान में उतर सकते हैं.

गुप्तेश्वर पांडेय इससे पहले 2009 में भी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले चुके हैं. उस वक्त चर्चा थी कि भाजपा के टिकट से वह लोकसभा चुनाव लड़ेंगे, लेकिन ऐन वक्त पांच बार के सांसद लालमुनि चौबे को टिकट दे दिया गया.

स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के करीब 9 महीनों के बाद वह दोबारा सेवा में लौटे. बिहार सरकार ने भी इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई और जिस पद पर रहते हुए उन्होंने इस्तीफा दिया था, उसी पद पर दोबारा बहाल हो गए.

उस वक्त पुलिस महकमे के इतिहास में इसे ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ केस माना गया था.

सोशल मीडिया पर सामने आए एक दस्तावेज से पता चलता है कि 27 फरवरी 2009 को उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का आवेदन दिया था, जिसे 15 मार्च 2009 को स्वीकार कर लिया गया था.

दस्तावेज के मुताबिक, उसी साल 24 मार्च को बिहार के गृह विभाग को गुप्तेश्वर पांडेय का एक पत्र मिला था, जिसमें नौकरी पर पुनर्बहाली की अपील की गई थी.

उसी तारीख में इसी आशय को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रधान सचिव का भी एक पत्र मिला था, जिसे 21 मार्च को लिखा गया था. लेकिन, पत्र मिलने से पहले ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी.

दस्तावेज में आगे लिखा गया है, ‘सेवानिवृत्ति कार्यान्वयन के पश्चात सेवा में वापस आना नियम और कानून के अंतर्गत संभव नहीं है.’

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ गुप्तेश्वर पांडेय. (फोटो साभार: फेसबुक/@IPSGupteshwar)
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ गुप्तेश्वर पांडेय. (फोटो साभार: फेसबुक/@IPSGupteshwar)

ऐसे में सवाल उठता है कि दोबारा गुप्तेश्वर की पुनर्बहाली किस नियम के तहत गई? बहरहाल, नौकरी में वापसी के बाद तमाम विवादों के बावजूद वह प्रमोशन पर प्रमोशन मिलता रहा.

एक आईपीएस अफसर जो कथित तौर पर भाजपा के टिकट से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए वीआरएस ले चुका हो, वो निश्चित तौर पर निष्पक्ष तो हो नहीं सकता है, लेकिन इसके बावजूद नीतीश सरकार ने न केवल उन्हें नियुक्त किया बल्कि राज्य पुलिस में सर्वोच्च पद भी दे दिया.

वर्ष 2009 में उनकी पुनर्बहाली पर गंभीर सवाल उठे थे और अब 22 सितंबर को उन्हें जिस तरह आनन-फानन में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दी गई, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं.

जानकारों का मानना है कि बिहार सरकार ने नियमों की अनदेखी कर उन्हें वीआरएस दिया है. नेशनल पुलिस अकादमी में डायरेक्टर रह चुके वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी शंकर सेन ने द वायर  को बताया, ‘आईपीएस अफसरों को तुरंत वीआरसी नहीं दिया जा सकता है. वीआरएस देने की तयशुदा प्रक्रिया है.’

उन्होंने बताया, ‘वीआरएस के लिए राज्य सरकार के पास आवेदन दिए जाने के बाद सरकार जांच करती है कि वीआरएस के इच्छुक आईपीएस अफसर के खिलाफ कोई जांच तो नहीं हो रही है या उन्होंने अपने कार्यकल में कोई गलत काम तो नहीं किया है.’

शंकर सेन ने बताया, ‘इसके बाद राज्य सरकार वीआरएस आवेदन केंद्र सरकार को फॉरवर्ड करती है. केंद्र सरकार की अनुमति मिलने के बाद वीआरएस की प्रक्रिया पूरी होती है. पूरी प्रक्रिया को पूरा करने में 3 से 6 महीने लगते हैं.’

स्पष्ट राजनीतिक रुझान

गुप्तेश्वर पांडेय को वीआरएस देने की प्रक्रिया सवालों के घेरे में तो है ही, मगर जिस तरह से वह सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में सक्रिय दिखे और किसी राजनेता की तरह बयानबाजी करते रहे, उससे उनके राजनीतिक रुझान का पता चलता है.

वैसे किसी आईपीएस अफसर का किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति रुझान हो ही सकता है, ये अस्वाभाविक भी नहीं है, लेकिन एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि वह सार्वजनिक तौर पर एक नेता की तरह नहीं, बल्कि पुलिस अधिकारी की तरह बर्ताव करे.

लेकिन, गुप्तेश्वर पांडेय ने गाहे-ब-गाहे किसी नेता की तरह बयानबाजी की. खास तौर पर सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में उन्होंने एक डीजीपी नहीं बल्कि एक नेता की तरह बयान दिया.

हर तीसरे दिन वह टीवी चैनलों की लाइव डिबेट में आने लगे. उन्होंने रिया चक्रवर्ती पर टिप्पणी करते हुए कहा कि नीतीश कुमार पर कमेंट करने की रिया चक्रवर्ती की औकात नहीं है.

उन्होंने सुशांत सिंह राजपूत को बिहार का बेटा करार दिया और उन्हें न्याय दिलाने की बात कही. उन्होंने ये भी कहा था कि नीतीश कुमार ने उन्हें बिहार सरकार का पक्ष रखने का अधिकार दिया है.

आईपीएस अफसर गुप्तेश्वर पांडेय के इस रवैये की तीखी आलोचना करते हैं. शंकर सेन कहते हैं, ‘इस तरह के बयान एक डीजीपी को नहीं देना चाहिए. ये बिल्कुल गलत है. उन्होंने जिस तरह की बयानबाजी की और अतिसक्रियता दिखाई है, वो एकदम गलत है और सरकारी सर्विस के रूलबुक के खिलाफ जाता है.’

हालांकि इस सबके बीच गुप्तेश्वर पांडेय ने अपने वीआरएस के फैसले को लेकर स्पष्टीकरण भी दिया और कहा कि वे राजनीति में जा सकते हैं.

बुधवार को मीडिया के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, ‘इस्तीफे को लेकर मुझे दो महीने से हजारों फोन आ रहे थे और सभी पूछ रहे थे कि मैं वीआरएस कब ले रहा हूं. कई लोकल मीडिया में ये खबरें भी चलने लगीं कि मैं फलां पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ सकता हूं. इससे एक ग़लत मैसेज पब्लिक में गया. ऐसे में मुझे लगा कि अगर मैं विधानसभा चुनाव के दौरान डीजीपी पद पर बना रहता हूं, तो मेरी निष्पक्षता पर सवाल उठेगा, इसलिए मैंने वीआरएस लिया है.’

चुनाव लड़ने के सवाल पर उन्होंने कहा, ‘मैंने इस पर अभी निर्णय नहीं लिया है, लेकिन अगर मेरे लोग सलाह देंगे, तो राजनीति में जाने का निर्णय ले सकता हूं. राजनीति सेवा करने का एक अहम माध्यम है.’

ये पूछे जाने पर कि उन्होंने सुशांत की मौत पर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकी है, गुप्तेश्वर पांडेय ने कहा, ‘ऐसा वे लोग ही कह रहे हैं जिन्हें मुझसे खतरा लग रहा है.’

विवादों से गुप्तेश्वर पांडे का नाता

गुप्तेश्वर पांडेय के लिए विवादों का साथ नया नहीं है, वे अपने कार्यकाल में भी विवादों में रहे हैं.

18 सितंबर 2012 को, जब वे मुजफ्फरपुर के आईजी थे, तब एक किशोरी नवारुणा चक्रवर्ती को घर से अगवा कर लिया गया था. बाद में मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी.

किशोरी के पिता अतुल्य चक्रवर्ती ने इस अपहरण कांड में गुप्तेश्वर पांडेय संलिप्तता का संदेह जाहिर किया था. द वायर  से बात करते अतुल्य चक्रवर्ती ने कहा था कि उन्होंने सीबीआई से कई बार कहा था कि गुप्तेश्वर पांडेय से पूछताछ की जाए, लेकिन सीबीआई अधिकारी कहते थे कि आईपीएस अधिकारी से पूछताछ करने के लिए मजबूत सबूत चाहिए.

उन्होंने कहा था, ‘बाद में सीबीआई ने उनसे पूछताछ की. इसका मतलब है कि सीबीआई के पास उनके खिलाफ सबूत था.’ सीबीआई की तरफ से कोर्ट में जमा किए दस्तावेज में ये जिक्र भी है कि सीबीआई अधिकारियों ने गुप्तेश्वर पांडेय से पूछताछ की थी.

द वायर  के पास मौजूद दस्तावेज में लिखा गया है, ‘केस की जांच से सीधे तौर पर जुड़े थाने के प्रभारी व मामले के जांच अधिकारी जीतेंद्र प्रसाद, मुजफ्फरपुर के तत्कालीन एसपी जो वर्तमान में डीआईजी हैं और गुप्तेश्वर पांडेय जो वर्तमान में डीजी हैं, से पूछताछ की गई है.’

गुप्तेश्वर पांडेय तिरहुत डिवीजन के डीआईजी रहते हुए एक कार्यक्रम में भोजपुरी गायिका देवी पर पैसे लुटाते नजर आए थे.

बिहार की सियासत में आईपीएस अफसर

बिहार में आईपीएस अफसरों का राजनीति में आना कोई नई घटना नहीं है. इसी साल अगस्त में डीजी (होम गार्ड्स व फायर सर्विसेज) के पद से रिटायर हुए सुनील कुमार जदयू में शामिल हुए हैं.

माना जा रहा है कि वह भी विधानसभा चुनाव लड़ सकते हैं. उनके भाई अनिल कुमार कांग्रेस के टिकट पर भोरे विधानसभा से विधायक हैं.

वर्ष 2003 में डीजीपी रहे डीपी ओझा ने वर्ष 2004 का आम चुनाव बेगूसराय सीट से लड़ा था, लेकिन जमानत भी नहीं बचा पाए.

बिहार में आईजी रहे बलवीर चंद ने भी 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर गया सीट से चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गए थे.

इसी तरह पूर्व आईजी ललित विजय सिंह ने 1989 में जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ा था और जीत हासिल की थी.

लेकिन, डीजीपी के पद पर रहते हुए अतिसक्रियता, इलेक्ट्रानिक व प्रिंट मीडिया में कवरेज और राजनेता की तरह बयानबाजी गुप्तेश्वर पांडेय को अन्य आईपीएस अफसरों के मुकाबले विवादित बनाता है.

राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने द वायर  से कहा, ‘उनके दिमाग में पहले से होगा कि राजनीति में जाना है और इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपनी राजनीति चमकाने के लिए डीजीपी के पद का इस्तेमाल किया.’

शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘जिस तरह वीआरएस का आवेदन तुरंत स्वीकार कर लिया गया, कोई जांच पड़ताल नहीं की गई, उससे पता चलता है कि सरकार उन्हें कितना फेवर करती है. सुशासन में सब कुछ संभव है.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)