बाबरी विध्वंस फ़ैसला: छल और बल का न्याय

समाज से न्याय का बोध लुप्त हो सकता है, उससे भी ख़तरनाक है जब वह इंसाफ़ की परवाह ही न करे. भारत का बहुसंख्यक समाज अभी अपने बाहुबल के नशे में है. न्याय उसके लिए अप्रासंगिक हो चुका है. वह जानता है कि उसके नाम पर जो हो रहा है, वह अन्याय है, लेकिन वह इससे परेशान नहीं बल्कि प्रसन्न है.

/
Babri Masjid PTI
(फाइल फोटोः पीटीआई)

समाज से न्याय का बोध लुप्त हो सकता है, उससे भी ख़तरनाक है जब वह इंसाफ़ की परवाह ही न करे. भारत का बहुसंख्यक समाज अभी अपने बाहुबल के नशे में है. न्याय उसके लिए अप्रासंगिक हो चुका है. वह जानता है कि उसके नाम पर जो हो रहा है, वह अन्याय है, लेकिन वह इससे परेशान नहीं बल्कि प्रसन्न है.

Ayodhya Babri Masjid PTI
(फाइल फोटो: पीटीआई)

छल और बल- भारत में इन दो शब्दों से न्याय परिभाषित होने लगा है. न्याय सुनिश्चित करने वाली प्रक्रियाएं इन्हें अपराध नहीं, धर्मशास्त्रसम्मत युक्ति मानती हैं. मुदित होती हैं कि इनका कुशल प्रयोग किया जा सका और ऐसा करनेवाले छली और बली को पुरस्कृत करती हैं.

परंपरा द्वारा अनुमोदित है साम दाम दंड भेद की नीति. वैसे भी यह ऐसा समाज है जहां मिथकों में देवता ब्राह्मण का भेस धरकर ‘सूतपुत्र’ कर्ण से उसका कवच हर लेते हैं, उसकी दानशीलता का लाभ उठाकर ताकि उसकी हत्या की जा सके.

एक दूसरे प्रसंग में वे फिर ब्राह्मण वामन का रूप धरकर दाक्षिणात्य प्रजावत्सल राजा महाबली के न सिर्फ राज्य का अपहरण कर लेते हैं,बल्कि उसे उस प्रजा की निगाहों से दूर पाताललोक भी भेज देते हैं.

कर्ण और महाबली को उनकी धर्मपरायणता ने मारा. जो शील उन्होंने अपने लिए चुना था, उस पर वे अडिग रहेंगे, यह जानकर ही देवताओं ने उनसे छल करने की दुर्योजना की. दुःशील कौन था, यह पाठक जानते हैं.

तो यह नया नहीं है. यह वही कथा-समाज है जहां सत्य आचरण के कारण राजा हरिश्चंद्र को असह्य यंत्रणा झेलनी पड़ी. न्याय का वध हमारे लिए कोई नई बात नहीं. उसका औचित्य साधन हम करते रहे हैं.

एक स्त्री रूप के पीछे छिपकर देवताओं द्वारा एक पशुचारी समुदाय के प्रतिद्वंद्वी नेता की, जिससे वे पराजित हो चुके हैं, हत्या का उत्सव हम मनाते रहे हैं. प्रभुता और छल और षड्यंत्र का संबंध क्या हमें मालूम नहीं?

कर्ण के रथ का पहिया जब धंस गया और वह निरस्त्र उसे जमीन से निकालने लगा तो कृष्ण ने अर्जुन को उसपर तीर चलाने का आदेश दिया.

कर्ण ने कहा, ‘नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो!’ आगे यह भी कहा कि अधर्म पर आधारित विजय तो क्षणिक है, ‘भुवन की जीत मिटती है भुवन में,/उसे क्या खोजना होगा गिरकर पतन में?/शरण केवल उजागर धर्म होगा,/सहारा अंत में सत्कर्म होगा.’

कर्ण ने ‘धर्म समर्थित रण’ की मांग की थी, कृष्ण ने उसे ठुकरा दिया! न्यायार्थ उपस्थित राधेय के समक्ष धर्माधर्म में पड़कर अर्जुन का इरादा कमजोर न पड़ जाए, इसके लिए पार्थसारथी से उसे चेताया!

भारत के अल्पसंख्यकों ने भी, मुसलमानों ने, धर्म, धर्म के आधुनिक संरक्षक न्यायालय का विश्वास किया और छले गए! क्यों हमें आश्चर्य हो रहा है? आखिर हमारे मिथकों से हमारे सोचने के तरीके का पता चलता है!

पिछले वर्ष जब यह मानकर भी कि बाबरी मस्जिद की भूमि पर वह मस्जिद सैकड़ों सालों से खड़ी थी, कि वह मस्जिद ही थी, कि वहां नमाज होती थी, कि वहां उसके पहले मंदिर होने का कोई प्रमाण नहीं मिला, यह मानकर कि उस मस्जिद में जबरन, चोरी-चोरी मूर्तियां रखना अपराध था, कि उसे ध्वस्त करना कानून का घोर उल्लंघन था, यह सब मानकर भी जब सर्वोच्च न्यायलय ने मस्जिद की ज़मीन को एक मंदिर बनाने के लिए इस्तेमाल करने का फैसला सुनाया, उस समय ही हमें मालूम हो जाना चाहिए था कि अब धर्माधर्म की उलझन से अदालत ने खुद को मुक्त कर लिया है और अब संख्याबल और बाहुबल ने न्याय की जगह ले ली है.

उसके पहले और उसके बाद के सारे महत्त्वपूर्ण निर्णय न्याय की भूमि को, यानी धर्माधर्म के भेद को मिटाते हुए, धीरे-धीरे पोला करते ही जा रहे हैं.

30 सितंबर, 2020 को लखनऊ की अदालत आखिर क्रमभंग कैसे कर पाती? इसलिए न्यायप्रिय लोगों के लिए भले ही यह निराशाजनक हो, अप्रत्याशित नहीं होना चाहिए था.

अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि 6 दिसंबर,1992 को बाबरी मस्जिद का ध्वंस किसी षड्यंत्र का परिणाम नहीं था. उसके मुताबिक़ वह ध्वंस वहां तथाकथित कारसेवा के लिए एकत्र भीड़ की भावनाओं का स्वतः स्फूर्त विस्फोट था, जिससे मस्जिद ध्वस्त हो गई.

भारतीय जनता पार्टी के नेता जो पूरी कार्रवाई का संचालन कर रहे थे, मुसलमानों के प्रति किसी दुर्भावना से ग्रस्त नहीं थे, यह अदालत का मानना है.

उसे कोई सबूत न मिला जिससे साबित हो कि बाबरी मस्जिद का गिराया जाना वास्तव में मुस्लिम विरोधी द्वेष या घृणा की अभिव्यक्ति थी.

और तो और वह कहती है कि ‘अभियुक्त द्वारा विवादित परिसर में कोई ऐसा कार्य नहीं किया गया जिससे दूसरे समुदाय की धार्मिक भावना को ठेस पहुंची हो अथवा किसी प्रकार राष्ट्र की एकता और अखंडता प्रभावित हुई हो…’

उससे भी अधिक दिलचस्प है अदालत की यह टिप्पणी: ‘…बल्कि पत्रावली पर जो साक्ष्य है उससे यह स्पष्ट है कि घटना के दिन मोहम्मद हाशिम को एक हिंदू महिला ने बचाया था …. यह भी स्पष्ट है कि कारसेवा को लेकर मुस्लिम समाज में कोई उत्तेजना नहीं, बल्कि उदासीनता ही थी, जिससे स्पष्ट है कि अयोध्या में हिंदू-मुस्लिम सौहार्य (सौहार्द!) कायम रहा है.’

अदालत यह भी मानती है कि बेचारे अभियुक्त तो लोगों को शांत करने की कोशिश कर रहे थे: ‘मंच से उपद्रवी कारसेवकों को बाहर निकालने का निर्देश दिया गया तथा अशोक सिंघल द्वारा भी कारसेवकों को विवादित ढांचे की तरफ जाने से मना किया गया तो वह उन्हीं पर हमलावर हो गए और किसी की न सुनते हुए विवादित ढांचे पर चढ़कर उसे तोड़ दिया गया, जिससे यह स्पष्ट है कि घटना अचानक शुरू हुई थी और इसकी आशंका अभियुक्तगण को नहीं थी.’

अदालत को पुख्ता सबूत क्या, सबूत ही नहीं मिले जिससे साबित होता कि बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का दायित्व जिस तत्कालीन मुख्यमंत्री ने लिया था, उन्होंने अपनी जिम्मेदारी में कोताही बरती.

उसने उनके उस इंटरव्यू को भी प्रामाणिक मानने से भी इनकार कर दिया जिसमें कल्याण सिंह ने मस्जिद के ध्वंस की जिम्मेदारी न लेने को गलत बताया था.

लेकिन हाल में कल्याण सिंह ने साफ़ कहा है कि बाबरी मस्जिद को गिराने को आमादा कारसेवकों को रोकने के लिए कार्रवाई करने की इजाजत उन्होंने नहीं दी और इसका उन्हें गर्व है. यह भी कि अगर मस्जिद न तोड़ी जाती तो मंदिर बनने का मार्ग कैसे प्रशस्त होता!

बाबरी मस्जिद ध्वंस के नायक लालकृष्ण आडवाणी थे. अदालत ने उन्हें बरी करते समय उनके उस बयान को आधार बनाया है जिसमें उन्होंने बाबरी मस्जिद के गिरने पर दुख प्रकट किया था.

अदालत का कहना है कि किसी भी साक्षी ने आडवाणी के इस वक्तव्य की आलोचना नहीं की! इससे साबित हुआ कि उनका दुख सच्चा था और वे कहीं से ध्वंस में शामिल न थे!

सबसे दिलचस्प है अदालत की यह टिप्पणी: ‘माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना कोई नहीं करना चाहेगा क्योंकि माननीय उच्चतम न्यायालय का आदेश सबके लिए आदरणीय व बाध्यकारी है.’

यह क्या सिर्फ भोलापन है इस अदालत का! उसने इस पर भी विचार न किया कि आखिर क्योंकर उच्चतम न्यायालय ने कल्याण सिंह को अदालत की अवमानना का अपराधी पाया था और कैद की, भले ही एक दिन की सजा के साथ जुर्माना भी किया था!

कल्याण सिंह को उच्चतम न्यायालय ने दोषी पाया था उसके समक्ष दिए गए वचन का पालन न करने का. वचन था 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद परिसर में यथास्थिति बनाए रखने का.

कल्याण सिंह ने इस वचन की रक्षा नहीं की. क्या लखनऊ की अदालत इस सजा को भूल गई?

यह लेख अधिकतर ऐसे पाठक पढ़ रहे होंगे जो 1992 के बाद पैदा हुए और बड़े हुए हैं. उन्हें उस ज़हरीले अभियान का अनुमान नहीं है जो पूरे भारत में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ नारे के साथ सालों-साल चलाया गया.

‘वहीं’, यानी जिस ज़मीन पर मस्जिद खड़ी है. बाबर की औलादों को जूते मारने, पाकिस्तान या कब्रिस्तान के नारों की याद हम सबको है.

हम सबको ‘साध्वी’ ऋतंभरा के मुसलमान विरोधी, विषैले प्रचार की याद है जो लाउडस्पीकर से पटना, वैसे ही और शहरों की सड़कों पर गूंजता रहता था.

इस फैसले में कहा गया है कि मुसलमान विरोधी घृणा का सबूत भी नहीं है. मुसलमानों के खिलाफ नहीं, बल्कि उनके खिलाफ जो बाबर या औरंगजेब बनना चाहते थे, नारे लगाए गए!

इनसे मुस्लिम विरोधी द्वेष का सबूत नहीं मिलता! अदालत के इस निष्कर्ष के बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता!

मस्जिद गिरने के समय उस परिसर और उसके आसपास सैकड़ों पत्रकार थे. देशी और विदेशी. उनमें से एक हैं रुचिरा गुप्ता. उन्होंने कई बार यह बात कही है कि उनके साथ ‘कारसेवकों’ ने उस समय बलात्कार का प्रयास किया, उनके कपड़े फाड़ दिए.

वे जब किसी तरह बचकर आडवाणी के पास पहुंचीं और उनसे यह सब रोकने को कहा तो आडवाणी ने रुचिरा को मिठाई खाने को कहा क्योंकि यह एक बड़ा ऐतिहासिक दिन था, उल्लास का दिन था.

पीछे मुसलमानों के मकान जलाए जा रहे थे. रुचिरा ने आडवाणी को इसे रोकने के लिए कहा. उन्होंने जवाब दिया कि वे मुआवजे के लिए अपने घर जला रहे हैं. जिस मंच पर वे खड़े थे, वहां जश्न का माहौल था.

रुचिरा गुप्ता के सामने ही आडवाणी ने प्रमोद महाजन को कहा कि मस्जिद के गुंबद पर जो चढ़े हुए हैं, उन्हें उतर जाने को कहो क्योंकि मस्जिद गिरने वाली है. बंबई से इसके लिए लोग आए हैं!

रुचिरा पूछती हैं कि क्या इससे यह मालूम नहीं होता कि आडवाणी और मंच पर उपस्थित लोगों को मस्जिद ध्वंस की जानकारी थी!

अगर आडवाणी को दुख था, जैसा लखनऊ कि अदालत मानती है, तो फिर वे रुचिरा को मिठाई किस बात की खिला रहे थे?

रुचिरा यह भी पूछती हैं कि मस्जिद के चारों ओर गड्ढा क्यों किया गया था? क्या वह मस्जिद की नींव को कमजोर करने के लिए किया गया था?

जब उन्होंने यह सारी बात सार्वजनिक की, तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें चाय पर बुलाया और कहा कि वे भले घर की स्त्री हैं, इस किस्म की बात उन्हें खुलेआम करना शोभा नहीं देता.

रुचिरा ने उनसे कहा कि वे अपनी पार्टी को कहें कि वह बयान जारी करे कि बाबरी मस्जिद का गिरना गलत था और यह गैरइरादतन था.

वाजपेयी ने कहा कि वे अपनी पार्टी को ऐसा करने को नहीं कह सकते. रुचिरा ने उन्हें कहा कि अगर वे यह नहीं कर सकते तो वे भी उनकी चाय नहीं पी सकतीं!

रुचिरा प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की चाय ठुकरा कर चली आईं क्योंकि उन्होंने अपनी आंखों से एक पूर्व नियोजित अपराध घटित होते देखा था.

उस वक्त फैजाबाद और अयोध्या में एकत्र पत्रकारों ने मस्जिद को गिराए जाने के पूर्वाभ्यास को देखा, उसे रिकॉर्ड भी किया. फोटोग्राफर प्रवीण जैन ने इस पूर्वाभ्यास की तस्वीरें उतारीं और फिर उनकी प्रदर्शनी भी की.

न्याय का बोध लुप्त हो सकता है समाज से. उससे भी खतरनाक है जब वह इंसाफ की परवाह ही न करे. उसके मन से इंसाफ की इच्छा ही ख़त्म हो जाए.

भारत का बहुसंख्यक समाज अभी अपने बाहुबल के नशे में है. न्याय उसके लिए अप्रासंगिक हो चुका है. वह जानता है कि उसके नाम पर जो हो रहा है, वह अन्याय है, लेकिन वह इससे परेशान नहीं बल्कि प्रसन्न ही है.

लक्ष्य प्राप्ति के लिए युधिष्ठिर सत्य का सहारा लिया जा सकता है, ऐसा उसका मानना है. ऐसे समाज को आखिर आप बचा ही कैसे सकते हैं?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq