एससी एसटी क़ानून के तहत लाया गया राजस्थान पुलिस का सर्कुलर विधिसम्मत क्यों है

राजस्थान पुलिस के सर्कुलर में कहा गया है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 41 ए का लाभ दिया जाना अधिनियम की मूल भावना के विपरीत है और इसके उद्देश्य को विफल करता है. कई समूहों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है.

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(प्रतीकात्मक फोटोः पीटीआई)

राजस्थान पुलिस के सर्कुलर में कहा गया है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 41 ए का लाभ दिया जाना अधिनियम की मूल भावना के विपरीत है और इसके उद्देश्य को विफल करता है. कई समूहों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है.

(प्रतीकात्मक फोटोः पीटीआई)
(प्रतीकात्मक फोटोः पीटीआई)

राजस्थान के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (सिविल राइट्स) आरपी मेहरडा ने दिनांक 29 मई 2020 को अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के अंतर्गत एक परिपत्र यानी सर्कुलर जारी किया है.

यह सर्कुलर मुख्य रूप से यह कहता है कि इस अधिनियम के अंतर्गत अभियुक्त को अपराध प्रकिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 41 ए का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए.

सर्कुलर के अनुसार सीआरपीसी की धारा 41ए का लाभ दिया जाना अधिनियम की मूल भावना के विपरीत है और इसके उद्देश्य को विफल करता है.

इस सर्कुलर को जारी करने के पीछे मूल कारण यह है कि राजस्थान में इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधी को सीआरपीसी की धारा 41 ए का लाभ देकर गिरफ्तार न करना एक परिपाटी बन चुकी है, जबकि सीआरपीसी की धारा 41 को उसके अर्थ और भावना के अनुसार लागू करने पर अभियुक्त का गिरफ्तार न होना लगभग असंभव है.

उक्त सर्कुलर के जारी किए जाने के बाद समता आंदोलन समिति नामक एक संस्था ने राज्य के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर मेहरडा के विरुद्ध कठोर कार्यवाही की मांग की.

इस संस्था ने उक्त सर्कुलर को ख़ारिज करने हेतु एक जनहित याचिका भी दायर की. उक्त सर्कुलर की वैधानिकता को परखने के लिए कुछ बिंदु समझना जरूरी है.

धारा 41 तथा 41 ए को लागू करने की परिस्थितियां

सीआरपीसी की अनुसूची 1 के भाग 2 के अनुसार इस अधिनियम के तहत दंडनीय अपराध संज्ञेय (पुलिस द्वारा बगैर वारंट गिरफ़्तारी योग्य) तथा गैर-ज़मानती हैं. इसलिए पुलिस ऐसे अभियुक्त को सीआरपीसी की धारा 41 के तहत गिरफ्तार कर सकती है.

धारा 41 में लिखित शर्तों पर गौर करने से पता चलता है कि ऐसे मामलों में गिरफ़्तारी न होने की संभावना नगण्य है, बशर्ते कि पुलिस निष्पक्षता से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करे.

दूसरी ओर, सीआरपीसी की धारा 41 ए कहती है कि यदि किसी व्यक्ति की गिरफ़्तारी धारा 4 1 (1) के तहत अनिवार्य नहीं पाई जाती है तो पुलिस अधिकारी ऐसे व्यक्ति को अपने समक्ष आवश्यकता पड़ने पर उपस्थित होने का नोटिस देगा, यानी गिरफ्तार नहीं करेगा.

अतः धारा 41 ए तब ही लागू होती है जब धारा 41 में लिखित एक भी शर्त पूरी नहीं हो सकती, इसलिए सीआरपीसी की धारा 41 ए का लाभ देकर गिरफ्तार न करना एक अपवाद है, न कि सामान्य नियम.

धारा 41 ए के अपवादजनक स्वरूप के बावजूद भी राजस्थान में पुलिस जातिगत पक्षपात के चलते इस धारा को ही लागू करती है, इसलिए धारा 41 ए का अमल अवरुद्ध कर यह परिपत्र चाहता है कि पुलिस सीआरपीसी की धारा 41 को गंभीरता से लागू करे.

सीआरपीसी की धारा 41 ए के समर्थन में अक्सर झूठे मामले दायर होने की आशंका का तर्क दिया जाता है. लेकिन ऐसी स्थिति में पुलिस जांच के बाद चार्जशीट के बजाय एफ. आर (नकारात्मक अंतिम रिपोर्ट) प्रस्तुत कर सकती है.

धारा 41A का उपयोग कैसे समस्यात्मक है

जब इस अधिनियम के तहत अभियुक्त को धारा 41 ए के आधार पर गिरफ्तार नहीं किया जाता है, तब उसके द्वारा पीड़ित और गवाहों को डराने-धमकाने और न्याय प्रकिया को प्रभावित करने की संभावना प्रबल हो जाती है.

चूंकि तथाकथित उच्च जातियों का सामाजिक व आर्थिक स्तर अपेक्षाकृत बेहतर होता है, उनके लिए शक्तियों का दुरुपयोग आसान हो जाता है. ऐसे मामले कई बार सामने आते हैं और ये इस अधिनियम के प्रावधानों के भी विरुद्ध है.

उदाहरण के लिए, अधिनियम की धारा 15 ए पीड़ितों एवं गवाहों के संरक्षण हेतु उन्हें विस्तृत अधिकार प्रदान करती है तथा राज्य पर उनके संरक्षण के लिए कई कर्तव्य आरोपित करती है.

धारा 18 के अनुसार, इस अधिनियम के अंतर्गत अभियुक्त को अग्रिम ज़मानत नही दी जा सकती. अग्रिम ज़मानत का विकल्प न उपलब्ध होने के बावजूद भी दोषी को गिरफ्तार न करना इस अधिनियम का मखौल बना देता है.

धारा 41 ए अधिनियम की धारा 21 से भी विरोधाभासी है, जो राज्य सरकार को इस अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए बाध्य करती है. इस प्रकार सीआरपीसी की धारा 41 ए के तहत गिरफ़्तारी न करना इस अधिनियम के कई प्रावधानों को निष्प्रभावी कर देता है.

इसलिए उपरोक्त परिपत्र धारा 41 ए के लाभ को न प्रदान करने का निर्देश देता है. यह परिपत्र सद्भावना से जारी किया गया था, अतः अधिनियम की धारा 22 के तहत संरक्षित है.

इसलिए यह परिपत्र संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन नहीं करता है क्योंकि यह ‘न्यायसंगत, निष्पक्ष तथा युक्तियुक्त’ विधि है, जैसा कि मेनका गांधी बनाम भारत संघ मामले में किसी व्यक्ति को उसके प्राण व दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करने के लिए अनिवार्य माना गया है.

सीआरपीसी के प्रावधान अधिनियम के मामलों में किस सीमा तक लागू हो सकते हैं

गिरफ़्तारी के संबंध में अधिनियम की धारा 18 ए (1) (b) कहती है कि: ‘… इस अधिनियम तथा सीआरपीसी के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रक्रिया लागू नहीं होगी.’

वास्तव में यह उपबंध प्रतिबंधक तथा नकारात्मक है. इसलिए यह अन्य प्रावधानों का उपयोग तो रोकता है, साथ ही सीआरपीसी के प्रावधानों को भी हर हाल में तथा पूर्ण प्रभाव के साथ लागू करने को नहीं कहता है.

नकारात्मक प्रावधान इस बात की और संकेत करता है कि सीआरपीसी के प्रावधान उस सीमा तक ही लागू होंगे जहां तक वे अधिनियम के प्रावधानों को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित न करते हों. अन्यथा इस कठोर कानून को बनाने के पीछे की मंशा विफल हो जाएगी.

विधायिका की मंशा और अधिनियम के उद्देश्य

इस अधिनियम के विधेयक में सम्मिलित उद्देश्य कथन के अनुसार:

… अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को कई नागरिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है तथा उन्हें कई अपराधों, अपमानजनक कृत्यों व उत्पीड़न से पीड़ित किया जाता हैं. कई हिंसक घटनाओं में उन्हें अपने जीवन और संपत्ति से वंचित किया गया है. कई ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों से उनके विरुद्ध गंभीर अत्याचार किया गया है.

इस प्रकार यह अधिनियम उपचारात्मक है क्योंकि इसके मुख्य कार्य हैं इन जातियों के लोगों के अधिकार और गरिमा सुनिश्चित करना तथा पीड़ितों व गवाहों का संरक्षण करना.

इन कार्यों हेतु इस अधिनियम में कई कड़े प्रावधान भी शामिल हैं, जिनमें निम्नलिखित भी शामिल हैं:

धारा 3 (अपराधों की विस्तृत सूची तथा दंड की व्यवस्था, जो कुछ मामलों में आजीवन कैद तथा मृत्यु दंड भी है), धारा 4 (लोक सेवकों द्वारा कर्तव्यों की उपेक्षा पर दंड), धारा 7 (धारा 3 में उपबंधित दंड के साथ संपत्ति जब्त होना), धारा 10 व 11 (ऐसे व्यक्तियों का हटाया जाना जिनके द्वारा अपराध किए जाने की संभावना हो), धारा 16 (सामूहिक जुर्माने का अधिरोपण), धारा 18 (अग्रिम ज़मानत नहीं), धारा 18ए (1)(b) (गिरफ़्तारी के लिए अनुमति आवश्यक नहीं) और धारा 19 (परिवीक्षा पर रिहाई नहीं).

विधायिका ने इस अधिनियम में कड़े प्रावधान बनाए हैं क्योंकि तथाकथित उच्च जाति के लोग स्वयं दंडमुक्त रहते हुए प्राचीन काल से इन वर्गों के लोगों को अमानवीय कृत्यों से प्रताड़ित कर रहे हैं, जो आज भी लगातार जारी है.

विरोधाभासी प्रावधानों का निर्वचन

धारा 41 ए का निर्बाध उपयोग न केवल धारा 41 को खारिज करता है बल्कि यह अधिनियम के कई प्रावधानों के विपरीत है.

धारा 41 ए व अधिनियम के प्रावधानों के बीच इस विरोधाभास को मिटाने हेतु सिद्धांत यह है कि सामान्य तथा विशिष्ट विधि में टकराव/अंतर होने पर विशिष्ट विधि के प्रावधान लागू होंगे.

सीआरपीसी  की धारा 5 तथा अधिनियम की धारा 20 से भी यह स्पष्ट है. यहां प्रसाद कुरियन बनाम केजे ऑग्सटीन में उच्चतम न्यायालय का ये निर्णय कि विशिष्ट विधि के बाद लागू हुआ सामान्य विधि का नियम विशिष्ट विधि पर प्रभावी होगा, लागू नहीं हो सकता.

इसके कई कारण हैं. एक, धारा 41 ए अधिनियम के प्रावधानों से विरोधाभासी है. दो, धारा 18ए (1) (b) जो विशिष्ट विधि का नियम है, सीआरपीसी की धारा 41 ए के बाद लागू हुई थी.

तीन, धारा 18 ए (1)(b) की वजह से ही सीआरपीसी के कुछ प्रावधान अधिनियम के प्रकरणों में लागू हो पाते हैं, लेकिन इसकी यह मंशा बिल्कुल भी नहीं थी कि सीआरपीसी के प्रावधान अधिनियम (विशेष रूप से 2016 तथा 2018 के संशोधन) के विपरीत होने पर भी लागू हो जाए.

इन सिद्धांतों के साथ साथ, निर्वचन का एक और प्रसिद्ध सिद्धांत है कि अधिनियम के सभी प्रावधानों को सामूहिक रूप से पढ़ा जाए ताकि विधायिका की मंशा को समझा जा सके.

यहां ये कहना महत्वपूर्ण है कि इस अधिनियम का प्रभावी स्वरूप दांडिक नहीं बल्कि उपचारात्मक है इसलिए इस अधिनियम की व्याख्या उदारवादी ढंग से पीड़ित के पक्ष में होनी चाहिए.

निष्कर्ष

इस प्रकार सीआरपीसी की धारा 41 ए को अधिनियम से जुड़े मामलों में लागू न करके राजस्थान पुलिस का उपरोक्त परिपत्र गिरफ़्तारी को मनमाना तथा अनिवार्य नहीं बनाता है बल्कि सीआरपीसी की धारा 41 में वर्णित शर्तों का आवश्यक पालन करने पर जोर देता है ताकि अधिनियम के प्रावधान व उद्देश्य विफल न हो.

दरअसल यह परिपत्र राजस्थान में व्याप्त तथाकथित उच्च जाति के वर्चस्व और उसके दुरुपयोग पर कुठाराघात करता है.

अत्याचार के मामलों में लगातार होती बढ़ोतरी के कारण इस परिपत्र का महत्व और भी बढ़ जाता है. राजस्थान पुलिस के आंकड़ों के अनुसार 2019 में अत्याचार के दर्ज मामलों की संख्या 8,591 थी, जो पिछले दस वर्षों में सर्वाधिक थी.

2019 में गत वर्ष की तुलना में इन मामलों में 50% की वृद्धि भी दर्ज की गई थी. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी अत्याचार की यही कहानी बयान करते हैं.

वर्ष 2018 के अंत में अत्याचार के 1,72,794 मामले लंबित थे. इन आंकड़ों में निस्संदेह वे हजारों मामले शामिल नहीं हैं जो तथाकथित उच्च जाति के लोगों के दबाव व धमकी के कारण पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाए या पुलिस के द्वारा दर्ज ही नहीं किए गए. इसलिए, जाति-आधारित अत्याचार से सख्ती से निपटना आवश्यक है.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी की फैकल्टी ऑफ लॉ में पढ़ाते हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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