हाथरस की बेटी की मौत एक सरकारी ख़ून है…

जिन हालातों में हाथरस की बेटी की मौत हुई और उसके बाद जिस तरह बर्ताव उसके शव के साथ किया गया, उसको देखते हुए क्या उसको न्याय मिल सकता है?

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हाथरस गैंगरेप पीड़िता का अंतिम संस्कार करते पुलिसकर्मी. (फोटो: पीटीआई)

जिन हालातों में हाथरस की बेटी की मौत हुई और उसके बाद जिस तरह बर्ताव उसके शव के साथ किया गया, उसको देखते हुए क्या उसको न्याय मिल सकता है?

हाथरस गैंगरेप पीड़िता का अंतिम संस्कार करते पुलिसकर्मी. (फोटो: पीटीआई)
हाथरस गैंगरेप पीड़िता का अंतिम संस्कार करते पुलिसकर्मी. (फोटो: पीटीआई)

यह सोचने में भी वीभत्स है कि हाथरस की बेटी रचना (परिवर्तित नाम) की मौत- यह मौत नहीं है, एक खून है, जो उत्तर प्रदेश की पुलिस ने वहां की सरकार की इच्छा के मुताबिक किया है. यह मौत नहीं है.

पहले तो उस बलात्कार पीड़िता जो की अधमरी हालत में थी, उसे पुलिस स्टेशन में सात -आठ घंटे इंतज़ार करवाया जाता है. कानूनन उसे रेप क्राइसिस सेंटर ले जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

कानूनन 24 घंटे के अंदर मेडिकल टेस्ट करवाना था, लेकिन जानबूझकर इसमें देरी की गई, जिससे सीमेन के अंश अगर हों, तो वो भी न मिल पाएं.

मरने से पहले रचना ने अपने बयान में यह साफ कहा था कि उसके साथ बलात्कार हुआ है, फिर भी वहां के पुलिस वरिष्ठ बयान देते हैं, बलात्कार नहीं हुआ है, टेस्ट में स्पर्म नहीं पाए गए हैं,

उसे उत्तर प्रदेश के अस्पताल से दिल्ली के सफदरजंग भेजा गया था. जिला मजिस्ट्रेट उसके परिवार को धमकी देते हैं. यह सब देखकर पुलिस, प्रशासन को लगा होगा कि अगर यह बच गयी तो गवाह बन जाएगी.

इसके बाद उन्होंने वो सब किया कि वो ज़िंदा न बचे! हां, रचना का मौत एक सरकारी खून है.

ज़ुल्म का कारवां यहीं नहीं रुकता, रचना को इस तरह से मारने के बाद भी, ताकि उसकी लाश के फिर से पोस्टमॉर्टम न हो, रचना की लाश को रात के 1.30 बजे उसके गांव ले के आते हैं.

पुलिस रचना की लाश को रात के अंधेरे में पेट्रोल डालकर जला देती है. उसके माता-पिता को अंतिम संस्कार करने का मौका नहीं दिया जाता. यहां तक कि उन्हें एक आखिरी बार अपने बेटी का चेहरा भी देखने का मौका नहीं दिया जाता.

‘हमारे रिवाज के हिसाब से बेटी के मुंह पर हल्दी लगाने दो,’ यह कहते हुए मां गिड़गिड़ाती रही, लेकिन पुलिसवालों ने सुना नहीं और रात के ढाई बजे उसे जलाकर राख कर दिया.

ऐसे हालात में क्या न्याय मिल सकता है? न्याय मिलने से क्या उसके माता पिता को सांत्वना मिल सकती है? कहना मुश्किल है, बहुत मुश्किल. आजकल सुनने में आ रहा है कि ‘भाजपा से बेटी बचाओ.’

और हमारे न्यायपालिका की व्यवस्था देख के तो डर ही लगता है.

हाल ही में हुए बाबरी मस्जिद के फैसले को अगर देखे तो, मस्जिद के ढांचे को ध्वंस करते समय आरोपी हादसे के वक़्त उसी जगह पर थे तब भी वो छूट जाते हैं.

दूसरी ओर एल्गार परिषद में कोई हिंसा नहीं हुई, आनंद तेलतुंबड़े और उनके साथी उस कार्यक्रम में भी शामिल नहीं थे लेकिन फिर भी उन्हें आरोपी बनाकर, बिना पूछताछ किए जेल में डाल दिया जाता है.

आज के दिन में न्यायपालिका और न्याय देने की व्यवस्था को देखे तो लगता है कि प्राचीन काल की अन्यायपूर्ण मनुस्मृति में जाति व्यवस्था के हिसाब से सजा दी जा रही हैं.

कहां, किस तरफ जा रहा है मेरा भारत? आगे या पीछे? आज हमारी न्यायपालिका और कानून व्यवस्था दोनों न्याय के आगे कटघरे में अपराधी के स्थान पर खड़े हैं. भारत दिशाहीन हो रहा है.

आखिर में मेरी एक विनती है- बेटी रचना को जहां जलाया था वहां से, या जिस जमीन पे वो चली थी, वहां से मुट्ठीभर मिटटी ला दो…

उससे एक स्मारक स्थल बनाकर वहां उसकी एक प्रतिमा बनाकर, जिस मां ने उस बच्ची को जन्म दिया, उसकी इच्छा के अनुसार रचना के गाल पर हम सब मिलकर हल्दी लगाएंगे… तब क्या ऐसा लगेगा कि हमने भी रचना को मरणोपरांत श्रद्धांजलि अर्पित की?

इससे रचना के माता पिता को और भारतमाता को क्या थोड़ी-सी सांत्वना मिलेगी? यह सवाल मैं भारत के ज़मीर के सामने रख रहा हूं.

 (देवनूर महादेव वरिष्ठ कन्नड़ लेखक हैं.)

(मूल कन्नड़ लेख से राजशेखर अक्की और स्वाति शुक्ला द्वारा अनूदित)

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