आदिवासियों के पड़ोसी फादर स्टेन स्वामी आज जेल में हैं

हमारे देश और राज्य को सुरक्षित रखने के नाम पर अगर स्टेन स्वामी को क़ैद में डाला जा सकता है तो क्या हम ख़ुद को आज़ाद कहलाने के क़ाबिल रह गए हैं?

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फादर स्टेन स्वामी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

हमारे देश और राज्य को सुरक्षित रखने के नाम पर अगर स्टेन स्वामी को क़ैद में डाला जा सकता है तो क्या हम ख़ुद को आज़ाद कहलाने के क़ाबिल रह गए हैं?

फादर स्टेन स्वामी. (फाइल फोटो: पीटीआई)
फादर स्टेन स्वामी. (फाइल फोटो: पीटीआई)

दो मेज़, तीन कुर्सियां, एक अलमारी और एक बिछौना: यही वह जमापूंजी या जायदाद थी फादर स्टेन स्वामी की, जो झारखंड की खूंटी पुलिस ने रांची के उनके आश्रम ‘बगईचा’ से जब्त की थी. यह 2019 के अक्टूबर की बात है.

इस खबर के साल भर बाद यह मालूम हुआ कि अपने इस आश्रम और रांची से 1,707 किलोमीटर दूर तालोजा जेल में 83 साल के फादर गिर गए.

बुधवार देर रात मालूम हुआ कि उन्हें मेहरबानी करके जेल के अस्पताल में जगह दे दी गई है जहां उन्हें एक खाट मिल पाएगी और एक कुर्सी भी. पूरी जिंदगी उन्हें इससे ज़्यादा की ज़रूरत नहीं पड़ी.

बाकी दो कुर्सियां शायद फादर को मिलने वाले अनगिनत आदिवासियों और पूरे भारत से ऐसे संत से सीखने आने वालों के लिए थीं, जो जानना चाहते थे कि जिसने अपना भौतिक जीवन आवश्यकता की नितांत न्यूनतम रेखा पर रखा, वह उन सबके भौतिक संसार के लिए क्यों जान दे रहा है जो उसके कोई नहीं हैं.

स्टेन स्वामी भारत की दुर्लभ विभूतियों में एक हैं, जिन्हें आप संत कह सकते हैं. हमारी मित्र मेरी जॉन ने बंगलोर के अपने दिनों में स्टेन स्वामी की याद दोहराते हुए कहा कि वे एक पाक दिल हैं. निस्पृहता अगर मूर्त रूप ले तो वह स्टेन स्वामी जैसी दिखेगी. सच्चे अर्थ में आध्यात्मिक.

स्टेन स्वामी वन में जाकर तपस्या करने वाले ऋषियों की भारतीय परंपरा के सदस्य नहीं, जिनके आश्रम को उन वनों में रहने वालों से सुरक्षित करने राजपुरुष आया करते थे.

वे उन सबके जीवन से गहराई से जुड़े थे, जो झारखंड के पहले लोग हैं, जो खुद को आदिवासी कहते हैं लेकिन जिन्हें एक विशेष विचारधारा से संबद्ध जन मात्र वनवासी कहकर उन्हें सुसंस्कृत करना चाहते हैं.

ये आदिवासी, जो आधुनिक आर्थिक लेन-देन की जुबान नहीं जानते और उनकी संपत्ति की अवधारणा में वह संचय नहीं है जो दूसरे के शोषण से एकत्र किया जाता है.

स्टेन स्वामी का शरीर जैसे मात्र उनकी आत्मा को बनाए रखने का काम करता है. उससे तनिक भी अधिक नहीं. लेकिन भारत के वे सबसे उम्रदराज शख्स हैं जिनको भारत के सबसे सख्त और क्रूर गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है.

स्टेन स्वामी आखिरी व्यक्ति हैं, जिन्हें तथाकथित भीमा कोरेगांव षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है.

एनआईए का दावा है कि उसने ऐसे दस्तावेज हासिल किए हैं जिनसे उनका माओवादी संगठन से रिश्ता साबित होता है. यह भी कि वे माओवादियों के साथ मिलकर कोई राष्ट्रीय विद्रोह संगठित करने की योजना बना रहे थे.

स्टेन स्वामी ने इन आरोपों का खंडन किया है, ‘मुझसे एनआईए ने पांच दिनों (27-30 जुलाई व 6 अगस्त) में कुल15 घंटे पूछताछ की. मेरे समक्ष उन्होंने मेरे बायोडेटा और कुछ तथ्यात्मक जानकारी के अलावा अनेक दस्तावेज़ व जानकारी रखी जो कथित तौर पर मेरे कंप्यूटर से मिली और कथित तौर पर माओवादियों के साथ मेरे जुड़ाव का खुलासा करते हैं. मैंने उन्हें स्पष्ट कहा कि ये छलरचना है और ऐसे दस्तावेज और जानकारी चोरी से मेरे कंप्यूटर में डाले गए हैं और इन्हें मैं अस्वीकृत करता हूं.

एनआईए के वर्तमान अनुसंधान का भीमा-कोरेगांव मामले, जिसमें मुझे ‘संदिग्ध आरोपी’ बोला गया है और मेरे निवास पर दो बार छापा (28 अगस्त 2018 व 12 जून 2019) मारा गया था, से कुछ लेना-देना नहीं है. लेकिन अनुसंधान का मूल उद्देश्य है निम्न बातों को स्थापित करना- 1. मैं व्यक्तिगत रूप से माओवादी संगठनों से जुड़ा हुआ हूं और 2. मेरे माध्यम से बगईचा भी माओवादियों के साथ जुड़ा हुआ है. मैंने स्पष्ट रूप से इन दोनों आरोपों का खंडन किया.’

जाहिर है कि एनआईए का इरादा इस खंडन से बदलने वाला नहीं है. जो आरोप उसने स्टेन स्वामी पर लगाया है, वैसे ही आरोप उसने सुधा भारद्वाज, शोमा सेन, गौतम नवलखा, हेनी बाबू और दूसरे लोगों पर भी लगाए हैं जिन्हें उसने गिरफ्तार किया है.

वह कह सकती है कि भले ही स्टेन स्वामी त्यागी और निस्पृह हों, लेकिन वे राज्य के विरूद्ध हिंसक षड्यंत्र के अपराधी हैं और इसलिए उनकी उम्र और अन्य बातें उसकी गंभीरता को कम नहीं करतीं.

हम सब और ये जांच एजेंसियां भी जानती हैं कि सत्य और उनके आरोपों के बीच कोई रिश्ता होना ज़रूरी नहीं. वे एक राजनीतिक सत्य गढ़ती हैं और फिर उसे साबित करने के लिए प्रमाण की भी रचना करती हैं.

उनके लिए यह सब कुछ खासी कल्पनाशीलता का मामला है और श्रमसाध्य भी है लेकिन यह अत्यंत दयनीय है.

स्टेन स्वामी लेकिन क्यों इस राज्य के लिए चुनौती हैं? क्यों वह स्टेन स्वामी जैसे व्यक्ति को एक खतरनाक षड्यंत्रकर्ता के तौर पर पेश कर रहा है?

इसका एक कारण बहुत साफ है. वह लोगों को बताना चाहता है कि स्वार्थपरता और हिंसा ही सत्य हैं और निःस्वार्थ सेवा यथार्थ हो ही नहीं सकती.

स्टेन स्वामी ईसाई हैं और जेसुइट हैं. ऐसे व्यक्ति पर फौरन ही दो आरोप लगाए जा सकते हैं जिन पर हम हिंदू विश्वास भी करना चाहते हैं.

वह यह है कि स्टेन स्वामी एक अंतरराष्ट्रीय ईसाई साजिशी तंत्र का अंग हैं जिनका मकसद दलितों और आदिवासियों को सेवा की आड़ में ईसाई बनाने का है.

यह सरकार साबित करना चाहती है कि दो अलग धर्मों के लोग एक दूसरे के दुख-दर्द और इंसाफ के संघर्ष में कभी साथ नहीं हो सकते. त्याग सिर्फ दिखावा है.

हर कोई एक दिए हुए खांचे में पैदा होता है और उसी में उसका जीवन गुजरता है या गुजरना चाहिए. वह जब आपसे रिश्ता बना रहा हो तो सावधान हो जाइए क्योंकि वह आपको अपने खांचे में खींचना चाहता है.

स्टेन स्वामी का जीवन इससे एकदम उलट है. वह अपने दायरों से निकलने, उनका अतिक्रमण करने, खांचों को तोड़ने का एक अभियान है.

वह इंसानी रिश्ते की बुनियाद मूलभूत मानवाधिकारों के आदर में साझेदारी और उन्हें सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि सबके लिए हासिल करने की या इंसाफ की जद्दोजहद में शामिल होने को ही मानते हैं.

रांची में सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन. (फोटो साभार: ट्विटर)
रांची में सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन. (फोटो साभार: ट्विटर)

स्टेन स्वामी मूलतः तमिल हैं. युवावस्था में ही वे जेसुइट हो गए. फिलीपींस, बेल्जियम आदि में शिक्षा हासिल करके वे 15 वर्ष तक बंगलोर के इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट के निदेशक रहे.

फिर वे 1991में झारखंड आए. उन्होंने चाईबासा में लगभग एक दशक तक आदिवासी अधिकारों पर काम किया और फिर रांची में बगईचा की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

बगईचा सामाजिक कार्यकर्ताओं, युवाओं और आंदोलनों के सहयोग और विभिन्न जन मुद्दों पर शोध का एक केंद्र बन गया. रांची जाने वालों के लिए वह तीर्थस्थल था.

स्टेन स्वामी लेकिन वह कर रहे थे जिससे इस राज्य की वैधता पर सवाल उठते थे. खुद उन्होंने अपने कामों के बारे में साफ लिखा है और वह हमें पढ़ना चाहिए,

‘पिछले तीन दशकों में मैंने आदिवासियों और उनके आत्म-सम्मान और सम्मानपूर्वक जीवन के अधिकार के संघर्ष के साथ अपने आपको जोड़ने और उनका साथ देने का कोशिश की है. एक लेखक के रूप में मैंने उनके विभिन्न मुद्दों का आकलन करने करने का प्रयत्न किया है.

इस दौरान मैंने केंद्र व राज्य सरकारों की कई आदिवासी-विरोधी और जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध अपनी असहमति लोकतांत्रिक रूप से जाहिर की है.  मैंने सरकार और सत्तारूढ़ व्यवस्था की ऐसे अनेक नीतियों की नैतिकता, औचित्य व क़ानूनी वैधता पर सवाल किया है.

1. मैंने संविधान की पांचवी अनुसूची के गैर-कार्यान्वयन पर सवाल किया है. यह अनुसूची [अनुच्छेद 244 (क), भारतीय संविधान] स्पष्ट कहता है कि राज्य में एक ‘आदिवासी सलाहकार परिषद’ का गठन होना है जिसमें केवल आदिवासी रहेंगे एवं समिति राज्यपाल को आदिवासियों के विकास एवं संरक्षण संबंधित सलाह देगी.

2. मैंने पूछा है कि क्यों पेसा कानून को पूर्ण रूप से दरकिनार कर दिया गया है. 1996 में बने पेसा कानून ने पहली बार इस बात को माना कि देश के आदिवासी समुदायों की ग्रामसभाओं के माध्यम से स्वशासन का अपना संपन्न सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास है.

3. सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के समता निर्णय पर सरकार की चुप्पी पर मैंने अपनी निराशा लगातार जताई है. इस निर्णय [Civil Appeal Nos:4601-2 of 1997] का उद्देश्य था आदिवासियों को उनकी ज़मीन पर हो रहे खनन पर नियंत्रण का अधिकार देना एवं उनके आर्थिक विकास में सहयोग करना.

4. 2006 में बने वन अधिकार कानून को लागू करने में सरकार के उदासीन रवैये पर मैंने लगातार अपना दुख व्यक्त किया है. इस कानून का उदेश्य है आदिवासियों और वन-आधारित समुदायों के साथ सदियों से हो रहे अन्याय को सुधारना.

5. मैंने पूछा है कि क्यों सरकार सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को- जिसकी ज़मीन, उसका खनिज- को लागू करने को इच्छुक नहीं है [SC: Civil Appeal No 4549 of 2000] और क्यों वह लगातार बिना ज़मीन मालिकों के हिस्से के विषय में सोचे, कोयला ब्लॉक की नीलामी करके कंपनियों को दे रही है.

6. भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में झारखंड सरकार के 2017 के संशोधन के औचित्य पर मैंने सवाल किया है. यह संशोधन आदिवासी समुदायों के लिए विनाश का हथियार है.

इस संशोधन के माध्यम से सरकार ने ‘सामाजिक प्रभाव आकलन’ की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया एवं कृषि व बहुफसली भूमि के गैर-कृषि इस्तेमाल के लिए दरवाज़ा खोल दिया.

7. सरकार द्वारा लैंड बैंक स्थापित करने के निर्णय का मैंने कड़े शब्दों में विरोध किया है. लैंड बैंक आदिवासियों को समाप्त करने की एक और कोशिश है क्योंकि इसके अनुसार गांव की गैर-मजरुआ (सामुदायिक भूमि) ज़मीन सरकार की है, न कि ग्राम सभा की. सरकार अपनी इच्छानुसार यह ज़मीन किसी को भी (मूलतः कंपनियों को) को दे सकती है.

8. हज़ारों आदिवासी-मूलवासियों, जो भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के अन्याय के विरुद्ध सवाल करते हैं, को ‘नक्सल’ होने के आरोप में गिरफ्तार करने का मैंने विरोध किया है.

मैंने उच्च न्यायालय में झारखंड सरकार के विरुद्ध जनहित याचिका दर्ज कर मांग की है कि
1) सभी विचाराधीन कैदियों को निजी बॉन्ड पर जमानत पर रिहा किया जाए,
2) अदालती कार्रवाई में तीव्रता लाई जाए क्योंकि अधिकांश विचाराधीन कैदी इस फ़र्ज़ी आरोप से बरी हो जाएंगे,
3) इस मामले में लंबे समय से मुक़दमे की प्रक्रिया को लंबित रखने के कारणों के जांच के लिए न्यायिक आयोग का गठन हो,
4)पुलिस विचाराधीन कैदियों के विषय में मांगी गई पूरी जानकारी जनहित याचिका के याचिकाकर्ता को दें.

इस मामले को दायर किए हुए दो साल से भी ज्यादा हो गया है लेकिन अभी तक पुलिस ने विचाराधीन कैदियों के विषय में पूरी जानकारी नहीं दी है.

मैं मानता हूं कि यही कारण है कि शासन व्यवस्था मुझे रास्ते से हटाना चाहती है. और हटाने का सबसे आसान तरीका है कि मुझे फ़र्ज़ी मामलों में गंभीर आरोपों में फंसा दिया जाए और साथ ही बेकसूर आदिवासियों को न्याय मिलने की न्यायिक प्रक्रिया को रोक दिया जाए.’

क्या स्टेन स्वामी को जो अपनी गिरफ्तारी का कारण मालूम पड़ता है, आपको भी वही नहीं लगता?

स्टेन स्वामी जेसुइट हैं. जॉन दयाल ने याद दिलाया कि जिस वक्त उनकी गिरफ्तारी हो रही थी, अंतर्राष्ट्रीय जेसुइट समुदाय के नेता फ्रांसिस जो ईसाइयों के धर्मगुरु हैं अपने अनुयायियों को असीसी के संत फ्रांसिस के सार्वभौम बंधुत्व की याद दिला रहे थे.

संत फ्रांसिस ने कहा, ‘सिर्फ वही शख्स फादर कहलाने के काबिल है जो दूसरों के पास इस इच्छा से नहीं जाता कि वह उन्हें अपने जीवन में समो ले बल्कि जो उन्हें अपने स्वत्व को और भी ज्यादा हासिल करने में उनकी मदद करता है.’

ईसाइयत का एक पुराना सवाल है, तुम्हारा पड़ोसी कौन है? इसके साथ ही यह सवाल भी हम कर सकते हैं, तुम्हारा पड़ोस क्या और कौन है? संथाली, हो, मुंडारी भाषी विभिन्न आस्था समूहों के सदस्य आदिवासियों को स्टेन स्वामी ने क्यों अपना पड़ोसी चुना?

क्यों वे उन्हें अपना स्वत्व हासिल करने में मदद कर रहे थे? क्यों वे हमदर्दी और इंसाफ की बिरादरी के निर्माण में लगे थे?

क्या हम नहीं जानते कि स्टेन स्वामी सुरक्षित और राज्य की निगाह में सम्मानित भी होते, अगर वे ये अस्वाभाविक काम न कर रहे होते?

क्या स्टेन स्वामी जैसी आत्मा को कारागार बांध सकता है? उसकी ताकत जो हो, हमारे देश और राज्य को सुरक्षित रखने के नाम पर अगर स्टेन स्वामी को कैद में डाला जा सकता है तो क्या हम खुद को आज़ाद कहलाने के काबिल रह गए हैं?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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