बिहार: सियासी चेहरों के बीच चुनावी मैदान में उतरा एक मनरेगा मज़दूर

ग्राउंड रिपोर्ट: मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के रत्नौली गांव के रहने वाले 33 वर्षीय संजय साहनी कुढ़नी सीट से निर्दलीय उम्मीदवार हैं. सातवीं तक पढ़े संजय लंबे समय तक प्रवासी कामगार के बतौर दिल्ली में रहे हैं और अब मनरेगा के तहत मज़दूरी करते हुए आसपास के गांवों में मनरेगा के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए जाने जाते हैं.

//
अपने विधानसभा क्षेत्र में प्रचार करते संजय साहनी. (सभी फोटो: उमेश कुमार राय)

ग्राउंड रिपोर्ट: मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के रत्नौली गांव के रहने वाले 33 वर्षीय संजय साहनी कुढ़नी सीट से निर्दलीय उम्मीदवार हैं. सातवीं तक पढ़े संजय लंबे समय तक प्रवासी कामगार के बतौर दिल्ली में रहे हैं और अब मनरेगा के तहत मज़दूरी करते हुए आसपास के गांवों में मनरेगा के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए जाने जाते हैं.

अपने विधानसभा क्षेत्र में प्रचार करते संजय साहनी. (सभी फोटो: उमेश कुमार राय)
अपने विधानसभा क्षेत्र में प्रचार करते संजय साहनी. (सभी फोटो: उमेश कुमार राय)

आज जब चुनाव में जात-जमात, धन और बाहुबल टिकट पाने की योग्यताओं में शामिल हो गया है, तो एक उम्मीदवार ऐसा भी है जो बिहार विधानसभा चुनाव में अलग कारणों से चर्चा में है.

इस उम्मीदवार के पास न धनबल है और न बाहुबल, कोई सियासी विरासत भी नहीं है बल्कि वह मूल रूप से मनरेगा मज़दूर हैं और बिहार के लाखों गरीब लोगों की तरह दिल्ली में मज़दूरी किया करते थे.

मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले से करीब 15 किलोमीटर दूर रत्नौली गांव के रहने वाले 33 वर्षीय संजय साहनी कुढ़नी सीट से निर्दलीय उम्मीदवार हैं.

महज सातवीं तक की पढ़ाई करने वाले संजय साहनी की पहचान अपने और अपने आसपास के गांवों में एक ऐसे व्यक्ति के रूप में है, जो महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी (मनरेगा) योजना को लेकर गरीब लोगों को जागरूक करते रहे हैं.

संजय ने लंबे समय तक दिल्ली में काम किया. बाद में वह गांव लौट गए और मनरेगा को लेकर लोगों को जागरूक करने लगे लेकिन एक प्रवासी कामगार से कार्यकर्ता तक का उनका सफर आसान नहीं था.

25 अक्टूबर की शाम जब उनसे मुज़फ़्फ़रपुर शहर में मिले, तो वह प्रिंटिंग प्रेस की एक दुकान में अपना पर्चा छपवाने में व्यस्त थे. उन्हें अलमारी चुनाव चिह्न मिला है. 25 अक्टूबर का उनका दिन पर्चा छपवाने में बीता.

उन्होंने बताया, ‘अगर खुद बैठकर पर्चा नहीं बनवाऊंगा, तो बहुत देर हो जाएगी, इसलिए खुद लगना पड़ा.’

उन्होंने बताया कि वह दिल्ली एक मज़दूर बनकर गए थे. उन्होंने बिजली मिस्त्री का काम सीखा था और वहीं जनकपुरी में एक छोटा-सा स्टॉल लगा लिया.

स्टाॅल पर अपना मोबाइल नंबर डाल दिया, ताकि जिसे इलेक्ट्रिशियन की जरूरत हो, वो कॉल करके काम करने के लिए बुला ले.

साल 2012 में वह अपने गांव रत्नौली लौटे, तो गांव के आसपास के लोगों के बीच उन्होंने मनरेगा की चर्चा सुनी. लोग आपस में बात कर रहे थे कि मनरेगा का नाम लेकर अधिकारी लोग आते हैं और मनरेगा कार्ड,  बैंक एकाउंट और अंगूठे का निशान लेकर चले जाते हैं.

गांव वालों को पता ही नहीं था कि उनके साथ क्या हो रहा है. संजय ने जब ये सुना, तो उन्हें बहुत अजीब लगा. वह सोचने लगे कि ये मनरेगा आख़िर है क्या.

जब वह दिल्ली लौटे, तो एक दिन अपनी दुकान पर बैठे हुए थे. कोई फोन कॉल नहीं आ रहा था, तो वह सामने के एक साइबर कैफ़े में चले गए और इंटरनेट पर बिहार मनरेगा सर्च किया.

वह कहते हैं, ‘इंटरनेट पर मुझे एक सूची मिल गई, जिसमें मेरे गांव के लोगों के पास मनरेगा के तहत कितने रुपये मिले, इसका ज़िक्र था. मैंने उसका प्रिंट आउट निकलवा लिया और दो दिन बाद ही अपने गांव लौट गया. प्रिंट आउट में जिन लोगों का नाम था उनसे पूछा कि क्या उन्हें उतने रुपये मिले हैं, जिसका जिक्र प्रिंट आउट में है, तो उन्होंने पूरी तरह अनभिज्ञता जाहिर की.’

संजय ने कहा, ‘उल्टे लोग ये कहने लगे कि मैं उन लोगों को बेवकूफ बना रहा हूं. उन्हें लग रहा था कि मैं फर्जी कागज लेकर उनके साथ जालसाज़ी करना चाहता हूं. लोगों ने मुझे झूठा कहकर वहां से भगा दिया.’

संजय वापस दिल्ली लौट आए, लेकिन हार नहीं मानी. उन्होंने दोबारा इंटरनेट खंगाला. इस बार उन्होंने गूगल पर मनरेगा कॉन्टैक्ट लिखा, तो आरटीआई कार्यकर्ता निखिल डे, मनरेगा पर काम कर रहे बेल्जियम मूल के अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज आदि का मोबाइल नंबर मिला.

इन नंबरों पर कॉल कर उन्होंने गांव में मनरेगा में हो रही धांधली की बात बताई, तो वे मदद को तैयार हो गए. संजय को हौसला मिला. वह फिर गांव लौट आए और दोबारा लोगों को जागरूक करना शुरू किया.

उन्होंने कहा, ‘लोगों को जागरूक करना आसान नहीं था. मुझे लगता था कि मैं इलेक्ट्रिशियन हूं, मनरेगा के बारे मे मैं कुछ नहीं जानता. मेरी बातों को लोग तवज्जो नहीं देते थे. लेकिन मैं ब्लॉक दफ्तर से लेकर मुखिया-सरपंच के पास जाता रहा और लोगों को भी जागरूक करता रहा.’

संजय साहनी ने द वायर  को बताया, ‘इसी बीच मैंने 10-15 मनरेगा मज़दूरों के लिए काम लिया. जब ये लोग काम करने लगे, तो दूसरे मज़दूरों में उत्सुकता जगी और वे मेरे पास आकर कहने लगे कि उन्हें भी मनरेगा के तहत काम करना है. मैंने काम की मांग करते हुए उन लोगों का फॉर्म भरकर जमा करवाया और इस तरह एक महीने के भीतर मेरी ही पंचायत में 400 लोगों को मनरेगा का काम दिया गया.’

अभिनेता आमिर खान अपने शो ‘सत्यमेव जयते’ में संजय साहनी पर एक कार्यक्रम कर चुके हैं.

साहनी की कोशिशों का असर जमीन पर दिखता भी है. उनके बनाए संगठन समाज प्रगति शक्ति संगठन अभी कुढ़नी विधानसभा की 39 पंचायतों के अलावा वैशाली में सक्रिय है.

ये संगठन मनरेगा मजदूरों के लिए रोज़गार सुनिश्चित कराता है और समय पर मज़दूरी के भुगतान के लिए संघर्ष करता है.

रत्नौली पंचायत के महंत मनियारी गांव की 55 साल की मंदेश्वरी देवी लिखना-पढ़ना नहीं जानती हैं, लेकिन उन्हें पता है कि मनरेगा का काम किस अधिकारी के पास होता है और इसके लिए आवेदन की प्रक्रिया क्या है.

वे ये भी जानती हैं कि मनरेगा का काम ख़त्म होने के बाद अधिकतम 15 दिनों के भीतर पैसा आ जाना चाहिए. द वायर के साथ बातचीत में वे कहती हैं, ‘संजय जी ने ही हमें बताया कि मनरेगा के तहत काम कैसे लिया जाता है.’

अपने टोले से गुजरने वाली सड़क की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘ये पक्की सड़क पिछले साल मनरेगा के तहत ही बनी है और वह भी तब जब हम लोगों ने काम के लिए संघर्ष किया.’

इसी गांव के रामलाल साहनी कहते हैं कि संजय के प्रयास से ही उन्हें 100 दिनों का रोज़गार मिल पा रहा है और वह चाहते हैं कि संजय चुनाव जीतें.

संजय अभी खुद भी मनरेगा मज़दूर हैं और जब मनरेगा का काम नहीं मिलता है, तो वह इलेक्ट्रिशियन का काम करते हैं. घर में पैसे की किल्लत रहती है. उनके दो बच्चे हैं, जिनकी पढ़ाई का खर्च उनका एक दोस्त उठा रहा है.

संजय क्राउंड फंडिंग से चुनाव लड़ रहे हैं. पिछले एक हफ़्ते से ज्यां द्रेज रत्नौली में रह रहे हैं. वह कभी मोटरसाइकिल, तो कभी साइकिल और कभी टैम्पू से संजय साहनी के पक्ष में प्रचार कर रहे हैं.

उनसे मुलाक़ात एक गांव में हुई जहां वह प्रचार करने पहुंचे थे. उनके अलावा युवाओं की एक टीम भी है, जो एक झोपड़ी में बैठकर सोशल मीडिया पर उनके लिए प्रचार और पंचायत स्तर पर प्रचार अभियान को को-ऑर्डिनेट कर रही है.

ज्यां द्रेज आखिर क्यों संजय के पक्ष में प्रचार करने के लिए झारखंड से यहां आए हैं?

इस सवाल पर वे कहते हैं, ‘मनरेगा का आइडिया यही था कि लोगों को काम मिले और उन्हें कमाई हो. दूसरी जगह भी ये हो रहा है, लेकिन यहां (कुढ़नी) मनरेगा का काम अन्य हिस्सों  से ज्यादा हो रहा है. ये एक पहलू है. दूसरा पहलू ये है कि जिस प्रक्रिया के तहत ये काम कर रहे हैं, वो हमारे लिए एक मॉडल है कि चुनावी लोकतंत्र कैसा होना चाहिए. वे वोटरों को लुभाने के लिए पैसा देने का प्रलोभन नहीं दे रहे हैं. बल्कि बाढ़, कोविड-19 लॉकडाउन से उपजी मुश्किलों के बावजूद लोगों तक पहुंच रहे हैं और प्रचार कर रहे हैं. ये प्रेरणादायी है और इसलिए मैं यहां हूं. मैं जहां भी जा रहा हूं, वहां हर समुदाय के लोग सहयोग दे रहे हैं.’

कुढ़नी विधानसभा के केरमा डीह गांव में लोगों के बीच प्रचार करते अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़.
कुढ़नी विधानसभा के केरमा डीह गांव में लोगों के बीच प्रचार करते अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़.

मनरेगा का काम करने वाला मज़दूर अचानक चुनाव लड़ने की कैसे सोचने लगा?

इस सवाल पर संजय कहते हैं, ‘मनरेगा को लेकर हम लोग संघर्ष कर रहे थे, लेकिन हमारी राह में रुकावटें पैदा की जा रही थीं. सरकार हमें संघर्ष भी करने नहीं दे रही थी, तो हम मज़दूरों ने मिलकर सोचा कि जब किसी को वोट देना ही है, तो क्यों न अपने बीच के किसी व्यक्ति को वोट दिया जाए. इस तरह हमारे मज़दूर भाइयों की इच्छा से मैं चुनाव मैदान में आ गया.’

संजय मतदाताओं को सब्जबाग नहीं दिखा रहे हैं, बस उन्हें भरोसा दिलवा रहे हैं कि अगर वह जीतते हैं तो मनरेगा मज़दूरों को काम के लिए दफ्तरों के चक्कर नहीं लगाना होगा.

वे मनरेगा के तहत ज़्यादा से ज़्यादा काम दिलवाएंगे. इसके अलावा वह अच्छी शिक्षा दिलाने का भी आश्वासन दे रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘अगर मैं जीतकर विधायक बना, तो ब्लॉक दफ्तर में ही अपना कार्यालय खोलूंगा, ताकि मनरेगा के तहत काम मांगने गए किसी मज़दूर को खाली हाथ नहीं लौटना पड़े.’

पिछले विधानसभा चुनाव में कुढ़नी विधानसभा क्षेत्र से भाजपा नेता केदार गुप्ता ने जीत दर्ज की थी. इस बार भी भाजपा ने उन्हें ही टिकट दिया है. राजद ने अनिल साहनी को उम्मीदवार बनाया है.

संभव है कि जातीय समीकरण संजय के पक्ष में न जाएं और वह चुनाव न जीत पाएं. ये भी हो सकता है कि वर्किंग क्लास के समर्थन से वह जीत भी जाएं. लेकिन चुनाव परिणामों से इतर एक मनरेगा मज़दूर का चुनाव लड़ना एक उम्मीद तो देता ही है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq