यह धर्मांधता को पहचानने का वक़्त है

तनिष्क का विज्ञापन इस बात का संकेत है कि सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता की भारतीय भावना जीवित है. यह समय अपने खोल में छिपने और सिर झुकाकर चलने की जगह भारत के असली मूल्यों को दिखाने वाले विज्ञापन और फिल्में बनाने और धर्मांधों को यह दिखाने का है कि नफ़रत का उनका प्रोपगेंडा कामयाब नहीं होगा.

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(फोटो: travelwayoflive/Flickr CC BY SA 2.0/पीटीआई)

तनिष्क का विज्ञापन  इस बात का संकेत है कि सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता की भारतीय भावना जीवित है. यह समय अपने खोल में छिपने और सिर झुकाकर चलने की जगह भारत के असली मूल्यों को दिखाने वाले विज्ञापन और फिल्में बनाने और धर्मांधों को यह दिखाने का है कि नफ़रत का उनका प्रोपगेंडा कामयाब नहीं होगा.

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(फोटो: travelwayoflive/Flickr CC BY SA 2.0/पीटीआई)

बॉलीवुड की आलोचना हमेशा उसकी बुजदिली और किसी भी चीज के पक्ष में खड़ा न होने के लिए की जाती है. यही बॉलीवुड अब दो टेलीविजन चैनलों के खिलाफ मुकदमा दायर करने के लिए एकजुट हुआ है.

कॉरपोरेट जगत दो स्वाभाविक अंदाज में काम करता है- वह या तो पूरी तरह से चुप रहता है या सरकार और उसके नेता की दिल खोलकर प्रशंसा करता है. अब यह भी कथनी और करनी के अंतर को मिटाते हुए जहर बोने वाले चैनलों पर विज्ञापन देने से इनकार कर रहा है.

जाहिर तौर पर वे घृणा फैलाने वाले मीडिया के लिए एक संदेश भेज रहे हैं कि उनके सब्र का बांध टूट गया है और अब वे और बर्दाश्त नहीं करेंगे.

क्या यह घटिया धर्मांधता और फर्जी खबरों के खिलाफ खड़े होने के लिए किसी नए आंदोलन की शुरुआत है? क्या दूसरे भी इस रास्ते का अनुसरण करेंगे?

सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि क्या टीवी चैनलों में ऐसा भूकंप आ जाएगा कि वे रातों-रात अपना चाल-चलन बदल लेंगे? सितारों और उत्पादन कंपनियों की साझी कार्रवाई का अर्थ है कि वे बड़े मीडिया समूहों द्वारा गाहे-बगाहे कराए जानेवाले पुरस्कार समारोहों में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करेंगे- इससे सबसे ज्यादा चोट टाइम्स समूह को पहुंचेगी, क्योंकि सितारे फिल्मफेयर अवॉर्ड्स नाइट्स आदि में भाग लेते हैं और उसमें अपनी प्रस्तुतियां देते हैं.

इसके अलावा, वे इंटरव्यू आदि देने से इनकार कर सकते हैं. जहां तक बजाज समूह और पारले जी द्वारा विज्ञापन न देने का सवाल है तो यह निश्चित तौर पर चैनलों की जेब पर चोट पहुंचाएगा, क्योंकि ये कंपनियां बड़ी विज्ञापदाता हैं.

भारत में और विदेशों में एडवरटाइजिंग इंडस्ट्री एसोसिएशन ने तनिष्क के विज्ञापन को समर्थन दिया है और उन्हें विज्ञापन में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं दिखा है, हालांकि उन्होंने अभिव्यक्ति की आजादी वाले आयाम पर अपना ध्यान केंद्रित रखा है.

फिर भी इन कदमों की तारीफ करते हुए एहतियात बरतने की जरूरत है. याचिका दायर कर देने का मतलब यह नहीं है कि सितारों या कारोबारियों में चैनलों का बहिष्कार करने की लहर चलने लगेगी.

मुझे इस बात को लेकर शक है कि तीनों खान, अक्षय कुमार या अजय देवगन निकटवर्ती भविष्य में कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले हैं या इस मामले या किसी बड़े सार्वजनिक मसले पर कोई बयान देने वाले हैं.

उसी समय जबकि ये स्वागतयोग्य कदम उठाए गए, तनिष्क ज्वेलरी के एक दिल को छू लेने वाले विज्ञापन, जिसमें गर्भवती हिंदू लड़की को गोद भराई के लिए उसकी (मुस्लिम) सास द्वारा ले जाते दिखाया गया था, को एक सतत तरीके से चलाए गए गंदे ऑनलाइन अभियान- जिसमें इस विज्ञापन को लव जिहाद फैलाने वाला बताया गया था- के बाद कंपनी द्वारा वापस ले लिया गया.

यह मौजूदा वक्तों में बेहद जरूरी संदेश देने के साथ-साथ एक अच्छी तरह से बनाया गया विज्ञापन है. लेकिन जाहिर है कि कि ट्रोल सेना को इससे कोई मतलब नहीं था- हो सकता है कि उन्हें यह बेहद खतरनाक नजर आया हो.

जाहिर तौर पर हिंदुत्व के इन चौकीदारों को किसी चीज ने कुपित किया- उनके विकृत दिमाग के अनुसार एक मुस्लिम पुरुष की एक हिंदू महिला से शादी का मतलब है कि वह हिंदू स्त्री किसी तरह से अपवित्र कर दी गई है.

शायद दूसरी सूरत, यानी हिंदू पुरुष की एक मुस्लिम पत्नी का होना ठीक होता, क्योंकि इसमें एक वीर हिंदू पुरुष द्वारा एक मुस्लिम को जीते जाने का अर्थ निहित होता.

लेकिन नफरत से परिचालित हिंदुत्ववादियों की सोच मुस्लिमों के साथ शांति और सौहार्द के विचार की इस तरह से विरोधी है कि मुझे शक है कि किसी भी रूप में इसकी प्रस्तुति उन्हें स्वीकार्य नहीं होगी.

इस विज्ञापन को वापस लिए जाने से व्यथित लोगों द्वारा रतन टाटा की चौतरफा आलोचना हुई है, जो मुझे लगता है एक तरह से वाजिब नहीं है.

उसी समय तनिष्क की आलोचना करने वाले ट्रोल्स ने भी उनका हमला बोल दिया और और उन्हें ‘राष्ट्रविरोधी’ करार दिया. लेकिन टाटा व्यक्तिगत रूप से न तो तनिष्क को चलाते हैं न ही ही टाटा साम्राज्य को.

तनिष्क को शायद यह स्वयं लगा होगा जनधारणा के हिसाब से यह विज्ञापन उसके लिए नुकसानदेह हो सकता है. शायद उसे खतरा महसूस हुआ हो, जिसमें हिंसा भड़कने का खतरा भी शामिल है.

हो सकता है कि उसे लगा हो कि यह उसके उत्पादों के बहिष्कार का सबब बन सकता है जिससे उसकी बिक्री और मुनाफे पर असर पड़ सकता है. उनको क्या लगा यह हमें नहीं पता.

सत्ताधारी दल के साथ कदमताल के सवाल पर टाटा की अपनी विश्वसनीयता इतनी कम है कि विज्ञापन को वापस लिए जाने पर वे स्वाभाविक तौर पर निशाने पर आ गए.

ये वही टाटा हैं, जिन्होंने गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्रित्व के समय और उसके बाद उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद बार-बार नरेंद्र मोदी की तारीफ की. उन्होंने राज्य में बड़े निवेश किए.

वे आरएसएस नेताओं से मिलने के लिए नागपुर गए और आखिरी बात टाटा समूह ने पीएम केयर्स फंड में अच्छा-खासा चंदा दिया है.

हिंदुत्व के आकाओं के साथ उन्होंने लगातार गलबहियां की है और उनके सामने वे जिस तरह से बिछे नजर आते हैं, उसे देखते हुए यह कल्पना करना अस्वाभाविक नहीं है कि विज्ञापन को हटाए जाने के पीछे उनकी बड़ी भूमिका है, भले ही वे सीधे तौर पर इसके पीछे न हों.

डर पैदा करने का काम

इस तरह की सुनियोजित शत्रुता का अंजाम डरावना होगा. जब आमिर खान ने बेहद दबी जुबान में यह संकेत दिया था कि देश में असुरक्षित महसूस करने के कारण उनकी पत्नी ने देश छोड़ने का मुद्दा उठाया था, तब उन्हें लोगों की असीमित घृणा का सामना करना पड़ा था.

इस घटना ने उनके साथी सितारों को एक संदेश पहुंचाने का काम किया था. उन्हें स्नैपडील के एक विज्ञापन करार से हाथ धोना पड़ा– जिसे दिवंगत मनोहर पर्रिकर ने काफी गर्व के साथ बताया था- और इसके बाद वे एक खोल के भीतर चले गए.

ज्यादा दिन नहीं हुए जब करन जौहर- जिनकी कंपनी इस हालिया मुकदमे के याचिकाकर्ताओं में से एक है- ने यह घोषणा की कि फिल्म जगत ‘भारतीय वीरता और मूल्यों’ की कहानी सुनाएगा. इस पहल की प्रेरणा मोदी से मिली है. इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि उनके कई साथी अचानक धर्मनिरपेक्ष आदर्शों के मुखर पैरोकार नहीं बनने जा रहे हैं.

यहां सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उनमें से ज्यादातर लोग निजी तौर पर हिंदुत्ववादी किस्म के नहीं हैं और फिल्म उद्योग ने वर्षों से सामान्य तौर पर सौहार्द के विचार का ही प्रसार किया है, लेकिन अब वे खुद को बचाकर चलना चाहते हैं.

कोई भी उद्योपति बजाज या पारले के समर्थन में हाथ उठाकर विज्ञापन देना बंद करने की घोषणा करने वाला नहीं है. कुछ लोग ऐसा छिपकर ऐसा कर सकते हैं; दूसरे बजाज को बधाई दे सकते हैं; लेकिन वे ‘सबसे भली चुप्पी’ के नियम का ही चयन करेंगे.

और जब भी अगला मौका आएगा, वे सर्वोच्च नेता की दूरदृष्टि और बुद्धिमता की प्रशंसा करते पाए जाएंगे.

लेकिन मुंबई फिल्म जगत और कॉरपोरेट जगत, दोनों की एक बड़ी गलती कर रहे हैं, अगर वे यह सोच रहे हैं कि अपना सिर झुकाकर रखने से वे बचे रहेंगे, क्योंकि इस निजाम के लिए यह काफी नहीं है कि कोई उसका विरोध नहीं करता है- यह बुलंद आवाज में समर्थन चाहता है और वह भी लगातार.

विरोध करने वालों को तो यह जल्दी पता चल ही जाएगा कि लक्ष्मण रेखा से कदम बाहर रखना फायदेमंद नहीं है, लेकिन जरूरी यह भी नहीं है कि जिन लोगों ने चुप्पी साध रखी है, उनकी पीठ थपथपाई जाएगी या उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा.

दक्षिणपंथ ऐसे ही काम करता है. इस प्रधानमंत्री के कई समर्थकों को बहुत जल्दी यह पता चल गया कि उन्हें नवरत्नों में शामिल नहीं किया जाने वाला है न कि उन्हें पुरस्कृत किया जाने वाला है और न ही उनके हिंदुत्व ट्रोल सेना के हमलों से बचे रहने की ही कोई गारंटी है, जैसा कि रतन टाटा के साथ हुआ है.

अब कोई भी विचलन बर्दाश्त नहीं किया जाता है. किसी भी बेअबदबी को भुलाया नहीं जाता है.

क्या तनिष्क को प्रतिरोध दिखाना चाहिए था और विज्ञापन को वापस लेने से इनकार कर देना चाहिए था? स्वाभाविक तौर पर इसका जवाब है ‘हां’, लेकिन कंपनियां इस तरह से काम नहीं करती हैं.

प्रबंधन हमेशा सबसे सुरक्षित रास्ता चुनता है; उनका तर्क यह है कि यह ऐसा उनके ब्रांड को किसी नकारात्मक संदेश से ‘बचाने’ के लिए जरूरी है. लेकिन यहां यहां संदेश सकारात्मक था, इसलिए उनकी प्रतिक्रिया साफतौर पर कायराना थी, न कि समझदारी भरी.

कॉरपोरेट व्यवस्था में कोई भी खुद को खतरे में नहीं डालना चाहता है. अब कंपनी को इसके लिए शर्मसार किया जाएगा.

यह इस तरह से यब उस नैतिक चुनाव का सवाल बन जाता है, जो हर व्यक्ति, हर संस्थान को करना होता है. और अपना चुनाव करते वक्त उन्हें इसके दूरगामी परिणामों के बारे में विचार करना चाहिए- मिसाल के लिए, क्या होगा अगर किसी ताकतवर व्यक्ति द्वारा या एक बड़ी (भाड़े की) ट्रोल सेना द्वारा मुस्लिमों को नौकरी न देने की मांग की जाती है? क्या कंपनी इसे स्वीकार कर लेगी?

अगर कोई प्रसिद्ध व्यक्ति किसी मुस्लिम से शादी करना चाहता है, तो क्या उसे इस पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया जाएगा?

इसका परिणाम  पानी में उठने वाली तरंगों की तरह दूर तक जाने वाला होगा, क्योंकि हो सकता है कि एक अपार्टमेंट मिलना मुश्किल हो जाए, या किसी कंपनी के मामले में जनता उसके उत्पादों को खरीदना बंद कर सकती है.

ये कपोल कल्पनाएं नहीं हैं- अतीत में ऐसा हो चुका है. हर बार कोई न कोई घुटने टेक देता है, जो हिंदुत्व बिग्रेड की आक्रामता को और बढ़ाने का काम करता है. इस ब्रिगेड ने अब खून का स्वाद चख लिया है और और अब यह और ज्यादा हिंसक बन जाएगी.

पिछले सालों में कई लोग हिंदुत्ववादी तंत्र के हमले, जिसका एक बड़ा हिस्सा जहरीले न्यूज चैनल हैं, के खिलाफ खड़े हुए हैं और कुछ ने इसकी भारी कीमत चुकाई है.

जेएनयू और जामिया के छात्रों, शाहीन बाग के आंदोनकारियों, सुधा भारद्वाज, वरवर राव और स्टेन स्वामी जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं, आनंद तेलतुंबडे जैसे बुद्धिजीवी, इन सबको जेल में डाल में डाला गया. लेकिन इसने दूसरों को बोलने से नहीं रोका.

यह तथ्य कि तनिष्क का विज्ञापन बनाया गया, अपने आप में इस बात का संकेत है कि सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता की भारतीय भावना जीवित और स्वस्थ है.

अपने खोल में छिपने और सिर झुकाकर चलने की जगह भारत के असली मूल्यों को दिखाने वाले विज्ञापन और फिल्में बनाने और धर्मांधों को यह दिखाने का समय है कि नफरत का उनका प्रोपगेंडा कामयाब नहीं होगा.

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