बिहार चुनाव: नीतीश कुमार के मन में क्या है

विशेष रिपोर्ट: नीतीश कुमार इस समय अपने राजनीतिक जीवन के एक कठिन चुनाव का सामना कर रहे हैं. एक तरफ तेजस्वी यादव आक्रामक तरीके से उन पर निशाना साध रहे हैं, वहीं दूसरी ओर जिस एनडीए गठबंधन का वे हिस्सा हैं, वहां भी उनके लिए सब कुछ ठीक नहीं है.

नीतीश कुमार. (फोटो: रॉयटर्स)

विशेष रिपोर्ट: नीतीश कुमार इस समय अपने राजनीतिक जीवन के एक कठिन चुनाव का सामना कर रहे हैं. एक तरफ तेजस्वी यादव आक्रामक तरीके से उन पर निशाना साध रहे हैं, वहीं दूसरी ओर जिस एनडीए गठबंधन का वे हिस्सा हैं, वहां भी उनके लिए सब कुछ ठीक नहीं है.

नीतीश कुमार. (फोटो: रॉयटर्स)
नीतीश कुमार. (फोटो: रॉयटर्स)

‘आठ-आठ, नौ-नौ बच्चे पैदा करने वाले बिहार का विकास करने चले हैं. बेटे की चाह में कई बेटियां हो गईं. मतलब कि बेटियों पर भरोसा नहीं है. ऐसे लोग क्या बिहार का भला करेंगे?’

15 सालों से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब महागठबंधन के चेहरे तेजस्वी यादव पर अपरोक्ष निशाना साधते हुए उक्त शब्द कहते हैं तो उनका इशारा तेजस्वी के पिता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की तरफ होता है.

हालांकि, राजनीति में नामी नेताओं द्वारा ऐसी निम्नस्तरीय टिप्पणियां कोई नई बात नहीं हैं लेकिन जब नीतीश जैसे नेता, जो अपने राजनीतिक जीवन में ऐसी स्तरहीन बयानबाजी से दूर रहे हों, ऐसे बयान देते हैं तो चौंकाता जरूर है.

लेकिन बिहार के वर्तमान विधानसभा चुनावों में नीतीश बार-बार ऐसी बयानबाजी करके बार-बार चौंका रहे हैं. यही कारण है कि सुशासन बाबू के नाम से जाने वाले नीतीश की चर्चा इन चुनावों में उनके विकास के मॉडल पर और उनकी सरकार की उपलब्धियों पर नहीं हो रही, सुर्खियां उनकी झुंझलाहट है.

जहां कभी वे उनके खिलाफ नारे लगाने वालों से कह देते हैं कि मत देना मुझे वोट, तो कभी कहते हैं कि अपने मां-बाप से पूछकर आओ कि 15 साल पहले बिहार कैसा था?

इसलिए प्रश्न उठता है कि स्वभाव से शांत रहने वाले नीतीश इतने झुंझलाए हुए क्यों हैं? क्या उनकी यह झुंझलाहट सत्ता जाने की आहट है?

क्या बिहार में उनकी राजनीतिक संभावनाओं का अंत हो गया है जिसकी खीझ उनके व्यवहार में नजर आ रही है? क्या तेजस्वी की चुनौती से वे चौतरफा घिर गए हैं और उन्हें कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है या फिर नीतीश के मन में कुछ और ही चल रहा है?

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार निराला बताते हैं, ‘नीतीश को राजद और तेजस्वी से तो पार पाना ही है लेकिन सबसे बड़ी चुनौती ये है कि उन्हें लोजपा और भाजपा से भी लड़ना पड़ रहा है. तेजस्वी तो उन्हें बहुत नुकसान पहुंचा ही रहे हैं लेकिन ये दोनों भी तेजस्वी के साथ फ्रेंडली मैच खेल रहे हैं.’

वे बताते हैं, ‘चिराग जिन चुनिंदा सीटों पर भाजपा के खिलाफ लड़ रहे हैं, वे सीट कौन-सी हैं? उनमें एक सीट है, तेजस्वी की राघोपुर. अब यहां चीजों को समझिए कि चिराग जो भाजपा के मोहरे माने जा रहे हैं, वे राघोपुर में भाजपा के उम्मीदवार के सामने अपना उम्मीदवार उतारकर तेजस्वी की जीत आसान कर रहे हैं. इस तरह चिराग राजद के साथ भी अपनी भविष्य की संभावनाओं पर काम कर रहे हैं.’

निराला के मुताबिक, जिन छह सीटों पर लोजपा और भाजपा आमने-सामने हैं वहां राजद की जीत सुनिश्चित की जा रही है. ऐसी ही अजीबोगरीब चुनौतियां नीतीश को चारों ओर से घेरे हुए हैं.

बिहार के एक और वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा कहते हैं, ‘कुछ समय पहले तक नीतीश अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थे. लेकिन उनके सभी आकलन अचानक से फेल हो गए. इधर तेजस्वी आक्रामक होकर चुनावी मैदान में उतरे, तो उधर लोजपा वाला कांड हो गया जिसमें भाजपा की सांठ-गांठ दिख रही है. सत्ता विरोधी लहर तो थी ही. वे इसी दबाव में हैं.’

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक नवल किशोर चौधरी के मुताबिक सवाल पूछे जाने पर नीतीश की झुंझलाहट केवल इसी चुनाव में नहीं देखी जा रही है, वे पहले भी ऐसा कर चुके हैं.

नवल बताते हैं, ‘नीतीश स्वभाव से अधिनायकवादी हैं. उनकी सत्ता को कोई लोकतांत्रिक तरीके से भी चुनौती देता है तो उन्हें गुस्सा आता है. पिछले चुनावों के समय भी जब एक कर्मचारी ने उनसे कहा कि हमें चपरासी से कम वेतन मिलता है तो वे झुंझलाकर बोले कि चपरासी बन जाइए. आज भी उनकी सत्ता को चुनौती मिल रही है तो वे उखड़ने लगे हैं.’

वैसे वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश भी मानते हैं कि सत्ता विरोधी लहर और एनडीए की अंदरूनी राजनीति नीतीश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.

उर्मिलेश कहते हैं, ‘नीतीश बहुत कमजोर विकेट पर खड़े दिख रहे हैं, जिसकी वजह सत्ता विरोधी लहर और भाजपा की तरफ से दी जाने वाली परेशानी है. उनको इस बात का एहसास है कि अब वे एनडीए में एक प्रिय गठबंधन सहयोगी नहीं रहे हैं. एक तरह से मजबूरी का रिश्ता बचा है. भाजपा उनको मजबूरी मे साथ रखे है और नीतीश भी सब-कुछ जानकर भी मजबूरी में साथ बने हुए हैं.’

नीतीश की मजबूरी को बिहार के राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन विस्तार से समझाते हैं. वे बताते हैं, ‘बिहार में 2010 तक चुनावों पर पूरी तरह से नीतीश का प्रभुत्व होता था. जहां भाजपा का हिंदूवादी एजेंडा पीछे छूट जाता था. भाजपा के आडवाणी जैसे दिग्गज भी बिहार आते थे तो नीतीश के सुर में बोलते थे. नीतीश ही तय करते थे कि कौन आएगा और क्या बोलेगा? मोदी तक को उन्होंने आने नहीं दिया था.’

वे आगे बताते हैं, ‘लेकिन 2014 के बाद चीजें बदलीं और भारत व बिहार की राजनीति में भाजपा की विचारधारा हावी होने लगी. 2015 में नीतीश ने लालू प्रसाद यादव के साथ मिलकर हावी होने की कोशिश तो की लेकिन वे भाजपा के साथ फिर हो गए और अब हालात बन गए हैं कि नीतीश बिहार की राजनीति में पिछड़ से गए हैं. अब भाजपा की विचारधारा हावी हो गई है और वे कसमसा रहे हैं.’

महेंद्र आगे कहते हैं, ‘नीतीश की राजनीति के विपरीत अब उसकी गठबंधन सहयोगी भाजपा सांप्रदायिक बयान भी दे रही है और नीतीश हस्तक्षेप भी नहीं कर पा रहे हैं. मुद्दे नीतीश नहीं, अब भाजपा तय कर रही है. इस चुनाव में भाजपा ने अलग से अपना रिपोर्ट कार्ड जारी किया है जिसमें सारी केंद्र सरकार की उपलब्धियां हैं जहां रामजन्मभूमि का निर्माण जैसी उपलब्धियों का जिक्र है. नीतीश आज से दस साल पहले यह सब स्वीकार नहीं करते.’

महेंद्र की बात पर द वायर  के पॉलिटिकल अफेयर्स एडिटर अजॉय आशीर्वाद भी मुहर लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘आप नीतीश को जो भी बोलें लेकिन सांप्रदायिक नहीं बोल सकते हैं लेकिन इस बार वे भाजपा के हाथों में खेल रहे हैं. यहां योगी आदित्यनाथ आकर वे सारे मुद्दे उठा रहे हैं जो 2010 में अगर भाजपा ऐसा करती तो नीतीश विरोध पर अड़ जाते. अब वे मजबूर हैं कि विरोध नहीं जता पा रहे हैं क्योंकि राजद का साथ छोड़कर उन्होंने जनादेश के खिलाफ जो भाजपा के साथ सरकार बना ली थी, उसके बाद उनके लिए भाजपा का विरोध करने की गुंजाइश नहीं बची है.’

दरभंगा में हुई एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार. (फोटो: पीटीआई)
दरभंगा में हुई एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ नीतीश कुमार. (फोटो: पीटीआई)

यह बात सही है कि एक समय नीतीश सांप्रदायिकता के मुद्दे पर मोदी के खिलाफ खड़े थे और भाजपा से दूर भी हुए थे लेकिन आज वे न सिर्फ मोदी के साथ मंच साझा कर रहे हैं बल्कि भाजपा के नेता लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं जो कि नीतीश की राजनीति से मेल नहीं खाते.

फिर चाहे बात कश्मीर के आतंकी बिहार में आने की हो या राम मंदिर बनाने की और कश्मीर से धारा 370 हटाने की. जानकार भाजपा के इस बढ़ते प्रभाव को उसकी विस्तारवादी नीति से जोड़ते हैं जहां वह बिहार में खुद के बूते खड़े होने की कवायद कर रही है जिससे नीतीश के राजनीतिक महत्व पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

अजॉय कहते हैं, ‘नीतीश आर्थिक पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और महादलित में पकड़ रखते थे. वे इसीलिए दूसरे दलों के लिए जरूरी हुए थे क्योंकि वे दल अकेले चुनाव नहीं जीत सकते थे. नीतीश के बदौलत उन्हें बिहार में जमीन मिली और उनका जनाधार बढ़ा तो उनकी यह सोच खत्म हो गई कि वे नीतीश के बगैर चुनाव नहीं जीत सकते. अब उन्हें लगता है कि वे नीतीश के बगैर भी जीत सकते हैं. इससे नीतीश का राजनीतिक महत्व खत्म हो गया है.’

इस संबंध में महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘भाजपा देश में दीर्घकालीन शासन करने की योजना पर काम कर रही है जिसके तहत अगर अगले बीस साल सत्ता में बने रहना है तो इसके लिए उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल की पट्टी उनकी राजनति के लिहाज से जरूरी है. उनके सामने 2015 का अनुभव है कि नीतीश कभी भी पलटी मार सकते हैं. इसलिए इस बात को खारिज करने का कोई आधार नहीं है कि भाजपा नीतीश को कमजोर करना चाहती है ताकि वह स्वयं मजबूत हो.’

अगर इस बात पर यकीन करें तो प्रश्न उठता है कि चुनावी नतीजे अगर भाजपा के पक्ष में आते हैं तो क्या वह नीतीश से दामन झटक सकती है? और अगर ऐसा होता है तो ऐसी स्थिति में नीतीश क्या करेंगे? उनके पास क्या विकल्प बचते हैं?

निराला मानते हैं कि गलती से भी भाजपा नीतीश को धोखा देने का नहीं सोचेगी. इसके पीछे के कारण वे बताते हैं, ‘भाजपा की ओर से स्टार फेस के तौर पर अकेले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीतीश के साथ प्रचार करते घूम रहे हैं. नीतीश को धोखा देकर भाजपा मोदी की छवि पर बट्टा लगाने की गलती नहीं करेगी. वहीं, आज भी नीतीश ऐसी स्थिति में हैं कि अगर एक बार अपने चेहरे को मायूस करके कह देंगे कि भाजपा के साथ दोबारा सरकार बनाना मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी और भाजपा अगड़ों व बिगड़ैल हिंदुओं की पार्टी है, तो भाजपा को बिहार में वापस खड़ा होने में सालों लग जाएंगे क्योंकि भाजपा बिहार में अभी भी कोर वोटर वाली पार्टी नहीं है.’

वे आगे कहते हैं, ‘भाजपा के लिए इससे बेहतर विकल्प नीतीश का वोट अपनी ओर ट्रांसफर कराना है. यह बात भाजपा भी भली-भांति जानती होगी कि भारत में आज तक कोई भी क्षेत्रीय दल वंशवाद को आगे बढ़ाए बिना अपना अस्तित्व जिंदा नहीं रख पाया है, इसलिए नीतीश के बाद जदयू को स्वयं ही बिहार में खत्म हो जाना है. उसके बाद जदयू की विरासत भाजपा की ही है. लेकिन यदि वो जदयू को धोखा देने का जोखिम उठाती है तो बिहार में नुकसान उठाकर लोकसभा में सरकार बनाना आसान नहीं होगा.’

बहरहाल जानकारों के मुताबिक, भाजपा की एक मजबूरी यह भी है कि एनडीए के संस्थापक उसके दो बड़े सहयोगी, शिवसेना और अकाली दल टूट चुके हैं. जदयू भी गया तो एनडीए खत्म. इसलिए नीतीश को 2024 तक साथ रखना भाजपा की मजबूरी है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन मोदी के चेहरे पर नहीं हो सकता. दिखाने के लिए कोई तो साथी चाहिए और फिलहाल सबसे विश्वसनीय चेहरा नीतीश का ही बचा हुआ है.

इसलिए नीतीश की हार पर भी भाजपा उनका साथ नहीं छोड़ेगी, लेकिन नीतीश की काट करते हुए अपनी भविष्य की संभावनाओं को मजबूती देती रहेगी.

इसके विपरीत, बिहार में राजनीतिक और सामाजिक तौर पर सक्रिय कृष्णा मिश्रा एक अलग ही संभावना की ओर इशारा करते हैं जो भाजपा द्वारा नीतीश को धोखा देने की बात को बल देती है.

वे कहते हैं, ‘बिहार में अगर किसी को बहुमत नहीं मिलता है तो भाजपा और राजद भी साथ आ सकते हैं.’ यह चौंकाता जरूर है लेकिन इसके पीछे कृष्णा के अपने तर्क हैं.

वे कहते हैं, ‘लॉक डाउन के दौरान फरवरी से मार्च के बीच तेजस्वी ने अमित शाह से तीन बार मुलाकात की है. वहीं, राजद के चुनावी अभियान में और उससे पहले भी भाजपा कभी उसके निशाने पर नहीं रही है, वे बस नीतीश को निशाने बना रहे हैं. जदयू के खिलाफ चिराग के तीखे तेवरों के पीछे भाजपा का हाथ बताया जा रहा है और उन्हीं चिराग की राजद से नजदीकियां देखी जा रही हैं.’

यहां गौरतलब है कि निराला ने भी भाजपा और लोजपा द्वारा राजद को फायदा पहुंचाने की बात कही थी. वहीं, यह भी तथ्य है कि लोजपा इस चुनावों में सीधे तौर पर जदयू को नुकसान पहुंचा रही है जिससे राजद को फायदा होता दिख रहा है.

हालांकि, इस संभावना पर यकीन करना मुश्किल तो है लेकिन जब राजनीति में पूर्व के उदाहरण देखते हैं जहां भाजपा अपनी धुर विरोधी पीडीपी के साथ कश्मीर में और कांग्रेस अपनी धुर विरोधी शिवसेना के साथ महाराष्ट्र में सरकार बना सकती है, तो बिहार में ऐसे समीकरण बनने की संभावनाओं पर हैरानी नहीं होती.

बहरहाल, निराला मानते हैं कि नीतीश भी अनुभवी हैं जो तीन प्रतिशत स्वजातीय वोट वाले नेता होते हुए भी बिना किसी जातीय गणित के पंद्रह सालों से राज कर रहे हैं. उनके सामने पनपी चुनौतियों से वे भी अपनी तरह निपट ही रहे होंगे.

वे कहते हैं, ‘बिहार में महागठबंधन और एनडीए से अलग जो तीन बड़े गुट बने हैं उनकी वजह से नीतीश को संजीवनी मिल सकती है. पहला, उपेंद्र कुशवाहा और मायावती का गठबंधन. दूसरा, पप्पू यादव का गठबंधन और तीसरा असद्दुदीन औवेसी गुट. इन तीनों का वोट बैंक वही है जो महागठबंधन का है. इससे नीतीश को फायदा होगा. दावे से तो नहीं कहा जा सकता लेकिन चर्चाएं हैं कि नीतीश ने ही भाजपा की चाल को काउंटर करने के लिए यह बिसात बिछाई है जो विपक्ष का वोट काटकर नीतीश को मजबूत बनाएगी.’

वे आगे कहते हैं, ‘इन शंकाओं को बल इससे भी मिलता है कि उपेंद्र कुशवाहा की नीतीश से मुलाकात हुई थी. नीतीश उनका एनडीए में गठबंधन करा सकते थे लेकिन उपेंद्र ने बसपा से गठबंधन किया. ऐसा गठबंधन जिसमें उनकी मायावती से मुलाकात तक नहीं हुई.’

जहां तक वर्तमान चुनावों में नीतीश की संभावनाओं और विकल्प की बात है तो इसे लेकर जानकारों में मतभेद तो हैं लेकिन वे इस बात पर एकमत हैं कि अनेक चुनौतियों के बावजूद भी नीतीश की राजनीतिक संभावनाएं अभी जिंदा हैं.

निराला कहते हैं, ‘अभी एक चरण का चुनाव हुआ है और भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीतीश के साथ हैं, लेकिन अगर अगले दो चरणों में नीतीश को लगता है कि चिराग के पीछे भाजपा थी और भाजपा की साजिश व चिराग के कारण वे बर्बाद हो गए हैं तो वे कांग्रेस या राजद किसी के भी साथ जा सकते हैं. वे जितने मजबूर दिख रहे हैं, उतने ही मजबूत भी हैं.’

महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘नीतीश के पास हमेशा अपने बड़े भाई लालू के पास जाने का विकल्प है. दोनों का जनाधार मिला-जुला है. दोनों का ही राजनीतिक, वैचारिक और सामाजिक चरित्र समान है. वहीं, राजद भी बहुमत से दूर रहने की स्थिति में स्वयं नीतीश के पास आ सकता है.’

हालांकि, जब पूर्व के अनुभव देखते हैं तो पाते हैं कि नीतीश 2015 में राजद को धोखा दे चुके हैं. साथ ही, वर्तमान में तेजस्वी का नीतीश के खिलाफ आक्रामक मोर्चा खोलना और नीतीश का उनके परिवार पर टिप्पणी करने जैसे वाकये भी दोनों के साथ आने की संभावनाओं को खारिज करने के लिए पर्याप्त हैं. फिर भी जानकार मानते हैं कि दोनों का साथ संभव है.

महेंद्र कहते हैं, ‘रामविलास पासवान रहे नहीं. लालू बीमार हैं. बिहार में युवाओं ने कमान संभाल ली है. नीतीश सत्तर के हैं. जदयू के पास अगला नेतृत्व नहीं है. उनके जनाधार का भी दवाब होगा कि वे राजद की ओर रुख करें क्योंकि राजद ही है जो वैचारिक तौर पर जदयू के काफी समान है.’

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की एक जनसभा. (फोटो साभार: फेसबुक/जदयू)
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की एक जनसभा. (फोटो साभार: फेसबुक/जदयू)

कृष्णा कहते हैं, ‘राज्य में राजद की राजनीति को 2015 में जदयू के वजह से ही जीवनदान मिला था. लालू यह बात समझते होंगे. वे यह भी समझते होंगे कि तेजस्वी के पास लंबी राजनीति बची है. अगर कहीं कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी आत्मनिर्भर होने की ठान ली तो समस्या खड़ी हो सकती है और कांग्रेस के पास ऐसा करने की क्षमता भी है और विकल्प भी, बस वह कोशिश नहीं कर रही है. वरना कन्हैया कुमार, पप्पू यादव जैसे चेहरों को जोड़कर और थोड़ा गांधी परिवार ध्यान दे दे तो बिहार में कांग्रेस खड़ी हो सकती है और यूपी की तरह मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में आ सकती है.’

वे आगे कहते हैं, ‘अभी भी लालू राज से लोग डरते हैं. तेजस्वी भले ही नौकरी के नाम पर नई पीढ़ी के युवाओं को जोड़ लें लेकिन वे युवा जिन्होंने उनका शासन देखा है, उसे दिक्कत है. जदयू के साथ आने पर राजद को भी स्वीकार्यता मिल जाती है.’

नवल किशोर भी मानते हैं कि भाजपा के साथ पटरी न बैठने पर नीतीश के पास विकल्प और संभावना यही है कि वे राजद के साथ जाएं. वे कहते हैं, ‘सोनिया गांधी हस्तक्षेप करेंगी तो तेजस्वी भी मान जाएंगे. जब महाराष्ट्र में शिवसेना से गठबंधन हो सकता है तो नीतीश तो उससे अच्छा विकल्प हैं क्योंकि वे सांप्रदायिक नहीं हैं.’

हालांकि नीतीश और कांग्रेस के साथ सरकार बनाने की भी चर्चाएं हैं लेकिन बिहार के वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा इन चर्चाओं विराम लगाते हुए कहते हैं, ‘नीतीश कांग्रेस के साथ सरकार बनाने जाएंगे तो राजद के साथ कांग्रेस के रिश्ते बेहद मजबूत रहे हैं. कांग्रेस कहेगी कि राज्य में जमीन खिसकने के बाद भी राजद की बदौलत ही हम जीत रहे हैं, सरकार में राजद को भी शामिल कीजिए. इसलिए नीतीश या तो भाजपा के साथ ही रहेंगे या फिर जदयू और राजद का फिर मिलन होगा.’

हालांकि फिर भी नीतीश के लिए इस संभावना के द्वार खुल रहे हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वर्तमान चुनावों में राजद ने कांग्रेस को गठबंधन में 70 सीटें तो दी हैं लेकिन जानकारों के मुताबिक ऐसी सीटें दी हैं जिन पर राजद जीत नहीं सकती थी और उन पर एनडीए की पकड़ है.

इन राजनीतिक समीकरणों में चौतरफा घिरे नीतीश की झल्लाहट उनकी एक सोची-समझी रणनीति भी हो सकती है, ऐसा निराला मानते हैं.

उनके मुताबिक, ‘नीतीश चौतरफा घिरे हैं, यह तय है लेकिन यह उनकी रणनीति भी हो सकती है. नीतीश समर्थक जो वोटर (ईबीसी) है वो राजनीतिक तौर पर बहुत मुखर नहीं माना जाता है. संभव है कि नीतीश यह आक्रामक रूप दिखाकर अपने समर्थक में जोश भरना चाहते हों क्योंकि दूसरी तरफ से तेजस्वी और उनके यादव-मुस्लिम समर्थक बहुत आक्रामक हुए जा रहे हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘भाजपा या अन्य दलों में ऐसा होता है कि एक शांत रहेगा तो दूसरा आक्रामक. जिस बात पर मोदी चुप रहेंगे, अमित शाह बोल देंगे. लेकिन, नीतीश अकेले हैं इसलिए वे स्वयं मल्टीफेस किरदार निभाकर अपने सोए समर्थकों को जगा रहे हैं.’

बहरहाल, जमीन पर मौजूद पत्रकार बताते हैं कि नीतीश की जो आपा खोने की खबरें आ रही हैं वे सच हैं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नीतीश की सभाओं में राजद कार्यकर्ता जाकर उन्हें जानबूझकर उकसा रहे हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)