कुबौल: नीतीश कुमार के ‘सुशासन’ पर सवाल खड़े करता बिहार का एक गांव

ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार के दरभंगा ज़िले के किरतपुर प्रखंड का कुबौल गांव कोसी नदी के बाढ़ क्षेत्र में आता है. बाढ़ के कई महीनों बाद तक पानी में डूबा रहने वाला यह गांव उन बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम है, जिन्हें नीतीश सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर गिनवा रही है.

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कुबौल गांव. (सभी फोटो: रोहित उपाध्याय)

ग्राउंड रिपोर्ट: बिहार के दरभंगा ज़िले के किरतपुर प्रखंड का कुबौल गांव कोसी नदी के बाढ़ क्षेत्र में आता है. बाढ़ के कई महीनों बाद तक पानी में डूबा रहने वाला यह गांव उन बुनियादी सुविधाओं से भी महरूम है, जिन्हें नीतीश सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर गिनवा रही है.

कुबौल गांव. (सभी फोटो: रोहित उपाध्याय)
कुबौल गांव. (सभी फोटो: रोहित उपाध्याय)

कुबौल… बिहार के दरभंगा ज़िले के किरतपुर प्रखंड का एक गांव है. ज़िला मुख्यालय से लगभग 80 किलोमीटर दूरी पर स्थित ये गांव कोसी नदी के बाढ़ क्षेत्र में आता है.

बाढ़ आने के बाद कई महीनों तक पानी में डूबा रहता है. पानी जब घरों में घुस जाता है तो लोग ज़रूरत का सामान लेकर किसी ऊंची जगह पर रहने लग जाते हैं. 4-5 महीने में पानी के धीरे-धीरे उतरने के साथ लोग भी अपने घरों में लौटने लग जाते हैं और न चाहते हुए भी इंतजार करते हैं अगले साल फिर इसी संघर्ष का.

कोसी नदी के अभिशप्त अब ऐसा जीवन जीने को अभ्यस्त हो चुके हैं. इसकी वे बड़ी कीमत चुकाते हैं. फसलें पानी में डूब जाती हैं, घर बह जाते हैं, इंसान के साथ-साथ मवेशी भी मारे जाते हैं और लोगों तक सरकारी सहायता न के बराबर पहुंच पाती है.

कुबौल गांव में जुलाई लेकर नवंबर-दिसंबर तक पानी भरा रहता है. तरह सौ से कुछ अधिक जनसंख्या वाले इस गांव को तीन वॉर्ड में बांटा गया है. जिसमें सबसे ज़्यादा आबादी मुसहरों (करीब 700) की है. बाकी मल्लाह, यादव और मुस्लिम समुदाय के लोग भी इस गांव में रहते हैं.

चूंकि मुसहर जाति के लोग इस गांव में ज़्यादा रहते हैं इसलिए इसे कुबौल मुसहरी भी कहते हैं. मुसहर शब्द मूस से बना है जिसका अर्थ चूहा होता है. मतलब चूहे खाने वाला समुदाय. बिहार सरकार ने मुसहर जाति के लोगों को महादलित का दर्जा दिया हुआ है.

गांव के चारों तरफ पानी भरा हुआ है. घूमने पर सिर्फ औरतें और अधनंगे बच्चे दिखते हैं. गांव के लगभग सभी मर्द कमाने के लिए शहरों में गए हैं.

कुबौल मुसहरी की हीरा देवी बताती हैं कि उन्हें 4 संतानें हुईं. जिनमें से एक की मौत महीने भर पहले कालाजार की वजह से हो गई. एक बच्चा कुपोषण का शिकार है और वह चल नहीं सकता.

बच्ची की मौत के बारे में पूछने पर वो कहती हैं, ‘दवा टाइम पर नहीं करा पाते… पैसा ही नहीं है, कहां ले जाएं.’

इसी गांव की रिंकू देवी की शादी 12 साल की उम्र में हुई थी. जन्म के बाद उनके 6 महीने के बच्चे की मौत भी कालाजार की वजह से हो गई. गांव की ही घुल्ली देवी की भी संतान गरीबी और कालाजार की भेंट चढ़ चुकी है और लालता देवी के बच्चे के पैर जन्म से टेढ़े हैं.

कोसी बाढ़ क्षेत्र में आने वाले इलाकों में घूमने पर यह लिस्ट इसी तरह से लंबी होती जाती है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के अनुसार, बिहार में लगभग हर दूसरा बच्चा (48.3 फीसदी) कुपोषण का शिकार है.

अपने बच्चे के टेढ़े पांव दिखाती एक मां.
अपने बच्चे के टेढ़े पांव दिखाती एक मां.

बिहार में अनुसूचित जातियों में कुपोषण की दर बाकी जातियों के मुकाबले ज़्यादा (55.8 प्रतिशत) है. खानपान ठीक न होने की वजह से महिलाओं के ख़ून में आयरन की कमी हो जाती है.

बिहार 15 से 49 साल की उम्र की 60.3 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से जूझ रही हैं. गांव में बतौर आशा वर्कर काम कर रही द्रौपदी कहती हैं, ‘अभी गांव की महिलाओं में जागरूकता की बहुत कमी है. हम लोग उन्हें आयरन की गोलियां दे देते हैं लेकिन अगर वे समय से नहीं खाएंगी तो कैसे ठीक होंगीं। बच्चे का कैसे ख्याल रखना है ये भी हम उन्हें बताते हैं, लेकिन देर हो जाने पर बच्चों को बचाना मुश्किल हो जाता है.’

हालांकि कुबौल गांव से 5 किलोमीटर की दूरी स्थित पब्लिक हेल्थ सेंटर में तैनात डॉक्टर प्रभाकर नवजात बच्चों की मौत और कुपोषण की बात को नकारते हैं.

वे कहते हैं कि पहले ऐसे मामले आते थे अब नहीं. कुपोषण खत्म हो चुका है. लेकिन यह कहने पर कि एक गांव में कुपोषण के 3-4 मामले मिले हैं तो वे कहते हैं, ‘कुपोषण खत्म हो गया है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. जब गांव वाले हमारे पास आएंगे ही नहीं तो कैसे पता चलेगा कि कुपोषण है कि नहीं.’

गांव वाले बताते हैं कि यहां से कहीं आना-जाना ही तो सबसे बड़ी समस्या है. कहने को तो सिर्फ 5 किलोमीटर है, लेकिन चारों तरफ पानी भरा हुआ है. सड़क नहीं है.

गांव के ही रामचंदर सदा कहते हैं, अगर कोई बीमार हो जाता है तो हम लोग उसे खाट में लिटाकर किरतपुर पीएचसी ले जाते हैं. बहुत पहले एक पुल बना था जो पानी में बह गया है. गांव वालों ने सभी से चंदा इकट्ठा करके एक बांस का चंचरी पुल बनावाया है. उसी से सब लोग आते-जाते हैं. सिर्फ साइकिल या पैदल ही जाया जा सकता है. इस चक्कर में कई बार गांव में ही बच्चे की डिलीवरी करानी पड़ जाती है.’

रामचंदर आगे बताते हैं कि उनके वॉर्ड में 1,360 लोग हैं जिनमें से बमुश्किल 20 लोग पढ़-लिख सकते हैं बाकी लोग अनपढ़. क्योंकि गांव में कोई स्कूल नहीं है और गांव से बाहर पढ़ने जाने के लिए कोई सड़क ही नहीं है.

उन्होंने बताया कि गांव में पढ़ाई और रोज़गार की कोई सुविधा न होने की वजह से 10-11 साल की उम्र से बच्चे ही मज़दूरी करने के लिए शहरों की ओर चले जाते हैं.

14 साल के शिवा कुमार बाल मज़दूरी के बारे में नहीं जानते हैं. वे लॉकडाउन के बाद वापस घर आए हैं. बताते हैं कि हल्द्वानी में वे धान रोपाई का काम करते हैं.

इसी तरह 15 साल के विपिन कुमार मुंबई के एक ढाबे में काम करते हैं. वे भी लॉकडाउन के बाद वापस आए हैं. क्यों कमाने गए थे पूछने पर वो दो टूक जवाब देते हैं, ‘पेट के लिए.’

Bihar Kubaul Gaon family Photo Rohit Upadhyay
कुबौल गांव को इस विधानसभा चुनाव से कोई उम्मीद नहीं है.

गांव में लगभग सभी घर मिट्टी बांस और फूस के बने हैं. यह पूछने पर कि प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ मिला या नहीं तो दिलचंद कुमार सदा कहते हैं, ‘कुछ लोगों को पैसे मिले तो हैं लेकिन जबतक सरकार बाढ़ का कुछ उपाय नहीं करती है तब तक हम लोग क्या करेंगे घर बनवाकर! बाढ़ आते ही हर साल किसी दूसरी जगह पर भागना पड़ता है. इसलिए हम लोग मिट्टी का घर बनाते हैं.’

बातचीत को काफी देर से सुन रहे 21 साल के प्रमोद कुमार ने बीच में काटा. बोले, ‘लोगों को लगता है कि बरसात खत्म तो समस्या खत्म. लेकिन मुझे अभी भी अपने घर नाव से जाना पड़ता है. पास में ही है चलिए.’

गांव के आखिरी छोर से एक टापू पर बनी झोपड़ी प्रमोद का घर है. चारों तरफ पानी भरा था. नाव में बैठकर घर पहुंचने के बाद दिखे तो बस टूटे-फूटे बर्तन, थोड़ा-सा अनाज, बिस्तर और एक लकड़ी की चौकी.

शाम होने लगी थी. बच्चे उथले पानी में घोंघे, केकड़े और मछली पकड़ रहे थे. एक मां मिट्टी के चूल्हे में फूंक मारकर आग जला रही थी और उसको घेरे हुए थे 3-4 अधनंगे बच्चे.

यह 21वीं सदी चल रही है और बिहार के कुबौल गांव को विधानसभा चुनावों से कोई उम्मीद नहीं है!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)