नीतीश कुमार के बिहार विधानसभा चुनाव को अपना ‘अंतिम चुनाव’ बताने के क्या मायने हैं

नीतीश कुमार ने तीसरे चरण के चुनाव प्रचार के आख़िरी दिन कहा कि यह उनका अंतिम चुनाव है. क्या यह मतदान से पहले सीमांचल के अल्पसंख्यकों समेत उनके पारंपरिक मतदाताओं की सहानुभूति लेने का कोई चुनावी हथकंडा है या इसका कोई गहरा सियासी अर्थ है?

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एक जनसभा में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. (फोटो साभार: फेसबुक/जदयू)

नीतीश कुमार ने तीसरे चरण के चुनाव प्रचार के आख़िरी दिन कहा कि यह उनका अंतिम चुनाव है. क्या यह मतदान से पहले सीमांचल के अल्पसंख्यकों समेत उनके पारंपरिक मतदाताओं की सहानुभूति लेने का कोई चुनावी हथकंडा है या इसका कोई गहरा सियासी अर्थ है?

Patna: Bihar Chief Minister Nitish Kumar attends the foundation stone laying ceremony of 'Multipurpose Prakash Kendra and Udyan' at the campus of Guru Ka Bagh in Patna, Sunday, Sept 9, 2018. (PTI Photo)(PTI9_9_2018_000102B)
नीतीश कुमार. (फोटो: पीटीआई)

बिहार विधानसभा चुनाव को अपनी अंतिम पारी बताकर नीतीश कुमार ने क्या दोहरा दांव चला है? इसे एक तरफ उस भाजपा के लिए चेतावनी माना जा सकता है, जो सरेआम लोजपा नेता चिराग पासवान के जरिये उनके पर कतरना चाह रही है.

दूसरे, सीमांचल में भारी तादाद में बसे अल्पसंख्यकों और अपने पारंपरिक समर्थक महिलाओं और अति पिछड़ों के सहानुभूति वोट बटोरने की कोशिश तो ये दिखती है ही.

उन्होंने चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट के ध्रुवीकरण वाले बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया जताकर भी नया दांव चला है.

योगी के सीएए यानी नागरिकता संशोधन कानून के तहत एनआरसी में बिहार से कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकाल बाहर करने संबंधी बयान को उन्होंने फालतू की बात कहा है.

नीतीश ने कहा, ‘उन्हें देश से कौन निकालेगा? किसी को भी किसी को बाहर निकालने का अधिकार नहीं है क्योंकि सभी भारत के वासी हैं. हमारा प्रयास भाईचारा, एकता और सौहार्द के लिए काम करने का है ताकि तरक्की हो सके. और यह लोग सिर्फ बांटना चाहते हैं, इन्हें और कोई काम नहीं है.’

उनकी इस उक्ति की अहमियत ‘अंत भला ,सो भला’ वाले बयान से और बढ़ गई है. इसके जरिये क्या वे बिहार के नतीजों को भांपकर अपने लिए राष्ट्रीय स्तर पर जगह बनाने के जुगाड़ में हैं?

शायद वे समझ गए कि भाजपा यदि उन्हें बिहार में कमजोर करने में सफल रही तो उन्हें उसे झटक कर वैकल्पिक राजनीति करनी होगी.

वैकल्पिक राजनीति तो पंथनिरपेक्षता और समावेशी नीयत जताकर ही हो सकती है, इसलिए उन्हें बुद्ध की धरती पर विरक्त भगवाधारी योगी द्वारा पखवाड़े भर से ध्रुवीकरण की कोशिश का प्रचार के आखिरी दिन जवाब देकर भाजपा को खबरदार करने की सूझी है.

इस लिहाज से योगी विरोध का फौरी फायदा भले सीमांचल के अल्पसंख्यक मतों में जदयू की हिस्सेदारी बढ़ाने के रूप में दिखे, मगर इसमें उनकी भविष्य की राजनीति की झलक से इनकार नहीं किया जा सकता.

सच यह भी है कि उनके डेढ़ दशक लंबे राज में सत्ता में भाजपा से भागीदारी के बावजूद वे अल्पसंख्यकों के लिए लगभग सामान्य जिंदगी बरकरार रखने में कामयाब रहे हैं.

सीएए को समर्थन देने के बावजूद नीतीश ने एनआरसी के राज्य में लागू होने का सवाल ही न पैदा होने की बात कही थी.

यह दीगर है कि उनके योगी विरोध से सवर्ण हिंदू वोट भाजपा प्रत्याशियों के पीछे लामबंद हो सकते हैं, जिनका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मोहभंग होने की धारणा बन रही थी.

योगी के बयान को नीतीश ने ठेठ किशनगंज में चार अक्टूबर को अपनी चुनावी सभा में ‘फालतू बात’ बताया है. योगी ने उक्त बयान कटिहार की जनसभा में दिया था.

अंतिम दौर में सात नवंबर को राज्य की 78 विधानसभा सीटों पर मतदान होना है. इनमें जदयू 37, राजद 46, कांग्रेस 25, भाजपा 35, भाकपा-माले 5, भाकपा 2, वीआईपी 5 और हम एक सीट पर चुनाव लड़ रही हैं.

इसीलिए योगी ही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सीमांचल में अपनी चुनाव सभा में ध्रुवीकरण की भरपूर कोशिश की.

उन्होंने सीमांचल में अंतिम रैली में महागठबंधन के उम्मीदवारों पर उन लोगों के समर्थक होने का आरोप जड़ा था, जो भारत माता की जय और जय श्रीराम बोलने से परहेज करते हैं.

सीमांचल में जदयू और महागठबंधन के उम्मीदवारों के बीच अल्पसंख्यक वोट बटोरने की जबरदस्त प्रतिस्पर्धा है क्योंकि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने भी इस क्षेत्र में अपने प्रत्याशी उतारे हुए हैं.

रालोसपा के गठबंधन में साझीदार एआईएमआईएम ने पिछले साल किशनगंज में विधानसभा उपचुनाव जीतकर इस बार सीमांचल की अल्पसंख्यक बहुल सीटों पर अपना मजबूत दावा पेश किया है.

किशनगंज सीट दरअसल कांग्रेस विधायक मोहम्मद जावेद के पिछले साल लोकसभा के लिए निर्वाचित होने से खाली हुई थी. इस सीट पर कुल मतदाताओं में अल्पसंख्यक वोटरों की संख्या 70 फीसदी आंकी जाती है.

साल 2015 में नीतीश-लालू-कांग्रेस महागठबंधन को राज्य में अल्पसंख्यकों के कुल मतों में थोक अर्थात 77 फीसदी वोट और एनडीए को महज छह फीसदी मत मिले थे.

नीतीश यह बखूबी जानते हैं कि राजद और कांग्रेस के मुकाबले महज 35 फीसदी अल्पसंख्यक उम्मीदवारों के बूते वो 2015 का करिश्मा तो दोहरा नहीं सकते.

इसके बावजूद अपने काम गिनाकर और अपने राज में अल्पसंख्यकों के सुरक्षित रहने का उन्हें एहसास करवाकर नीतीश सीमाचंल को अपने उम्मीदवारों के लिए भुनाना चाहते हैं.

अंत भला सो भला कहकर नीतीश अल्पसंख्यकों को चेता भी रहे हैं कि उनकी विदाई के बाद यदि भाजपा का राज आया तो वे अपने भविष्य का खुद ही अनुमान लगा लें.

इसके अलावा उन्होंने अल्पसंख्यकों को भागलपुर दंगे में न्याय और आर्थिक सहायता दिलाने, सरकारी मदरसों के विद्यार्थियों को वजीफा दिलाने, पसमांदा मुसलमानों के लिए अपने योगदान, कब्रिस्तानों की चारदीवारी करवाने आदि की याद दिलाई और सभी माध्यमिक शिक्षा विद्यालयों में उर्दू शिक्षक नियुक्त करने की मंशा जताई.

अल्पसंख्यकों के मन में 2019 में नरेंद्र मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में धारा 370 खत्म करने तथा हिंदू शरणार्थियों को सीएए के तहत धार्मिक आधार पर नागरिकता देकर भाजपा का हार्डकोर एजेंडा लागू होने से भाजपा को राज्य में सत्ता से उखाड़ने सकने वाले का साथ देने की राय है.

अल्पसंख्यक वर्ग बाबरी मस्जिद ध्वंस मामले में भी आडवाणी, उमा भारती सहित सभी अभियुक्तों को अदालत द्वारा बरी कर दिए जाने से व्यथित हैं. राम मंदिर के भूमिपूजन का जिक्र करके योगी उनके जख्मों को और कुरेद गए. सो अल्पसंख्यक बेचैन हैं.

फिर दस लाख सरकारी नौकरी देने के वायदे ने जिस तरह से युवाओं को तेजस्वी के पीछे लामबंद कर दिया, उससे अल्पसंख्यकों का रुझान महागठबंधन के पक्ष में होने के तगड़े आसार हैं.

सीमांचल में अल्पसंख्यक मतदाताओं की संख्या किशनगंज में जहां 70 फीसदी है, वहीं अररिया में 45 फीसदी, कटिहार में 40 फीसदी तथा पूर्णिया में 30 फीसदी से अधिक है.

अंतिम दौर की 78 में एक-तिहाई सीटों पर अल्पसंख्यकों की अच्छी-खासी तादाद है. बिहार में अल्पसंख्यक मतदाताओं की कुल संख्या यादवों लगभग बराबर 17 फीसदी है.

रही बात मुख्यमंत्री के ‘अंतिम चुनाव’ के दांव की, तो अपनी बात से मुकरने का नीतीश कुमार का पुराना रिकॉर्ड है.

साल 2013 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित करने के बाद नीतीश गठबंधन तोड़ कर एनडीए से बाहर आ गए थे.

तब विधानसभा में उन्होंने कहा था, ‘रहें या मिट्टी में मिल जाएंगे, आप लोगों के साथ कोई समझौता नहीं होगा.’ पर अपने इस जुमले को भुलाकर उन्होंने जुलाई 2017 में ही महागठबंधन की सरकार गिराकर भाजपा के साथ रातोंरात नई सरकार बना ली थी.

इसी तरह साल 1996 में अपना सारा समय बिहार में लगाने की घोषणा विशाल जनसभा में करने के बाद नीतीश दिल्ली गए और विधानसभा से इस्तीफा देकर लोकसभा में बने रह गए.

इसीलिए अपना आखिरी चुनाव बताने की उनकी बात पर राजद, लोजपा और कांग्रेस आदि विपक्षियों ने उन पर चुनाव हारते देखकर मैदान छोड़कर भागने का आरोप जड़ दिया है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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