बिहार चुनाव का नतीजा जो हो, एनडीए गठबंधन का बिखराव किसी से छिपा नहीं है

मतदान का तीसरा और आखिरी चरण आते-आते नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी और अन्य भाजपा नेताओं के बीच सामंजस्य और तालमेल की कमी बेहद स्पष्ट तौर पर दिखने लगी थी, इसके उलट राजद की अगुवाई वाला गठबंधन कहीं ज़्यादा एकजुट दिखा.

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राजद नेता तेजस्वी यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. (फोटो: पीटीआई)

मतदान का तीसरा और आखिरी चरण आते-आते नीतीश कुमार, नरेंद्र मोदी और अन्य भाजपा नेताओं के बीच सामंजस्य और तालमेल की कमी बेहद स्पष्ट तौर पर दिखने लगी थी, इसके उलट राजद की अगुवाई वाला गठबंधन कहीं ज़्यादा एकजुट दिखा.

राजद नेता तेजस्वी यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. (फोटो: पीटीआई)
राजद नेता तेजस्वी यादव और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: बिहार में तीनों चरणों का मतदान पूरा हो चुका है और मंगलवार को परिणाम घोषित होने हैं. एग्जिट पोल्स की मानें तो 15 सालों की नीतीश कुमार की सरकार के सामने तेजस्वी यादव की अगुवाई वाला महागठबंधन मजबूत दिखाई दे रहा है.

उल्लेख करने योग्य बात इस बार यह रही कि इस बार चुनाव प्रचार के केंद्र में बेरोजगारी और ख़राब शिक्षा व्यवस्था से जुड़े मुद्दे रहे.

जहां सत्तारूढ़ जदयू और भाजपा ने राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन पर लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी की पिछली सरकारों के समय को ‘जंगलराज’ बताते हुए निशाना साधा था, मतदान का आखिरी चरण आते-आते उनका सुर बदल गया.

गौरतलब यह भी रहा कि इस चरण तक पहुंचते हुए नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य भाजपा नेताओं के बीच सामंजस्य और तालमेल की कमी बेहद स्पष्ट तौर पर दिखने लगी.

अंतिम चरण में मुस्लिम बहुल सीमांचल क्षेत्र में मतदान होना था, जिसे ध्यान में रखते हुए मोदी ने विपक्ष को यह कहते हुए निशाने पर लिया कि ‘बिहार में ‘जंगलराज’ लाने वालों को ‘भारत माता की जय’ और ‘जय श्रीराम’ से दिक्कत है.’

प्रधानमंत्री के हिंदुत्व की इस शैली की शुरुआत भर करने की देर थी कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी इस चुनावी अभियान को ध्रुवीकृत करने के लिए ‘घुसपैठ’ और ‘नागरिकता संशोधन कानून’ का ज़िक्र किया.

अपने एक भाषण में उन्होंने कहा, ‘सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के रूप में मोदीजी को घुसपैठियों की समस्या का समाधान मिल गया है, उन्होंने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के प्रताड़ित अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित की है. केंद्र ने यह भी कहा है कि देश की सुरक्षा से खिलवाड़ करने वाले किसी भी घुसपैठिये को बाहर फेंक दिया जाएगा. देश की सुरक्षा और स्वायत्तता से उलझने वालों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.’

प्रचार खत्म होते-होते लंबे समय तक ईबीसी मुस्लिमों का समर्थन पाने वाले नीतीश को इसमें दखल देना ही पड़ा और इससे अलग लाइन लेनी पड़ी.

आदित्यनाथ की बात का जवाब देते हुए किशनगंज में हुई एक रैली में नीतीश बोले, ‘ये कौन दुष्प्रचार करता रहता है, फालतू बात करते रहता है. कौन किसको देश से बाहर करेगा? ऐसा इस देश में किसी में दम नहीं है कि हमारे लोगों को (बाहर करे), सब हिंदुस्तान के हैं, सब भारत के हैं, कौन उनको बाहर करेगा साहब? ये सब कैसी बात करते रहते हैं यूं हीं.’

वैसे एनडीए गठबंधन पूरे चुनाव प्रचार के दौरान अलग-अलग दिशाओं में जाता नजर आया. मुख्यमंत्री के खिलाफ एंटी-इंकम्बेंसी की भावना को देखते हुए भाजपा ने धीमे से जदयू से दूरी बनाकर रखी थी.

अधिकतर जदयू प्रत्याशियों को भाजपा नेताओं से कोई खास सक्रिय समर्थन मिलता नहीं दिखा. चुनाव के अंत तक भाजपा केवल मोदी की लोकप्रियता पर ही निर्भर नजर आई, जहां पोस्टर, होर्डिंग और विज्ञापनों से नीतीश कुमार का चेहरा पूरी तरह नदारद रहा.

कई विधानसभा सीटों पर द वायर  ने पाया कि अपनी उम्मीदवारी सुरक्षित करने के लिए भाजपा नेताओं ने खुद को नीतीश के कड़े आलोचक के रूप में पेश किया.

इस तथ्य के सामने कि सत्ता विरोधी गुस्सा नीतीश केंद्रित था, भाजपा की स्पष्ट नीति जदयू के साथ गठबंधन में होने के चलते उन्हें इससे होने वाले नुकसान से खुद को बचाने की थी.

वहीं, दूसरी तरफ नीतीश भी इस बार अपने संयमित स्वरूप में नहीं दिखे. अपने आत्मसंयम और चतुर क़दमों के लिए जाने जाने वाले नीतीश बिना किसी फिक्स वोट बैंक के 15 सालों से सत्ता में हैं. लेकिन इस विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान उनका अलग ही रूप सामने आया.

वे रैलियों में भीड़ के विरोध के सामने अपना आपा खोते दिखे, बीते 15 सालों में उनके किए कामों की अपेक्षा उनकी बातों में लालू राज का ही जिक्र था. यहां तक कि वे लालू यादव के ‘बड़े’ परिवार पर काफी ख़राब टिप्पणी कर गए.

आखिरी समय पर लोकजनशक्ति पार्टी (लोजपा) को एनडीए गठबंधन से बाहर रखने का उनका निर्णय भी उनके खिलाफ जाता दिखा. नीतीश ने जमीन पर उनको लेकर मौजूद गुस्से को कम आंका और पहले से ही उनके खिलाफ रहने वाले चिराग पासवान को एक तरह से उनके खिलाफ मोर्चा खोल देने के लिए तैयार कर दिया.

अधिकतर बागी भाजपा नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए लोजपा के रूप में एक नया ठिकाना मिल गया, जिसने नीतीश के लिए खेल और बिगाड़ दिया.

इसके उलट राजद की अगुवाई वाला गठबंधन कहीं ज्यादा एकजुट दिखा. तेजस्वी यादव उत्साही तरह से प्रचार करते दिखे. उन्होंने सत्ता में आने पर गठबंधन के कॉमन मिनिमम एजेंडा ‘कमाई, दवाई, पढ़ाई और सिंचाई’ के लिए आश्वासन दिए और एक तरह से पूरी चुनावी बहस को इन्हीं बिंदुओं पर केंद्रित कर दिया.

एनडीए के विपरीत राजद, कांग्रेस और वाम दल न केवल चुनावी सहयोगियों के रूप में एकमत दिखे, बल्कि जमीन पर भी एक साथ एक ताकत के तौर पर उतरे.

एनडीए के परंपरागत वोट बैंक (सवर्ण जातियां, ईबीसी और महादलित) के बीच पूरे राज्य में बिखराव देखने को मिला, जबकि महागठबंधन का पारंपरिक वोट बैंक (यादव, मुस्लिम और गरीबों का बड़ा वर्ग) ‘बदलाव’ के प्रचार में उत्साही नजर आया.

महागठबंधन का दस लाख नौकरियों का वादा पूरे चुनाव प्रचार के दौरान गूंजता रहा. इसके साथ ही तेजस्वी खुद को भविष्य के नेता के तौर पर पेश करने में भी सफल रहे.

उन्होंने लगभग अपनी हर रैली में हेलीकॉप्टर से मंच तक भागते हुए लगातार ‘नीतीश जी थक चुके हैं’ कहते हुए युवा बनाम बुजुर्ग के भेद पर जोर दिया. 37 साल के चिराग पासवान के इस चुनाव में होने से यह भेद जितना महत्वपूर्ण नहीं था, उससे अधिक दिखने लगा.

नौकरी और अच्छी शिक्षा के वादे लोगों, खासकर युवाओं को पसंद आए, जो राज्य की आबादी का करीब 57% हैं. विपक्ष के चुनावी अभियान में देश का सबसे गरीब राज्य कहे जाने वाले बिहार के लोगों की बुनियादी समस्याओं पर जोर दिया गया.

सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक न्याय की बात करते हुए उन्होंने आम तौर पर होने वाली जातिगत समीकरणों, अगड़ों-पिछड़ों की लड़ाई के पार जाने की कोशिश की और राज्य की राजनीति में घुली मंडल राजनीति को विस्तार दिया.

इसके बरक्स, वरिष्ठ पत्रकार सीमा चिश्ती के शब्दों में कहें, तो ‘एनडीए अतीत की कुछ चुनिंदा बातों पर आधारित नेगेटिव एजेंडा’ पर भरोसा करती दिखी.

इसका बहुत प्रभाव बिहार के गहरे में पैठे हुए जाति आधारित समाज पर पड़ा. अलग-अलग और अक्सर विरोधी जाति समूहों के हित बेरोजगारी और बेहतर जीवन की उम्मीदों के साथ मिलते दिखे. हालांकि राजनीतिक जानकारों का मानना है कि आखिरकार परंपरागत जाति वाली चिंताएं इन भौतिक मुद्दों की तुलना में बड़ी भूमिका में रह सकती हैं.

एक तरह से बिहार विधानसभा चुनाव इस बात का इम्तिहान है कि क्या वोटिंग के दौरान आजीविका से जुड़े मुद्दे जीतेंगे या कमजोर होंगे फिर जाति-आधारित समीकरणें.

पारंपरिक वोटिंग पैटर्न किस हद तक बदलते हैं या वैसे ही बने रहेंगे, यह तो मंगलवार को विधानसभा चुनाव के नतीजे आने पर ही साफ़ होगा.

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